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२८ . श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. वनपतिने सेववा योग्य, धर्म रत्नना सागर, स्वपरने अत्यंत हितकारी स्वर्ग अने मोक्षसुखना मुख्य साधनभूत अने सकळ गुणनानिधान एवा तीर्थनाथ श्री वीतरागप्रभुनी हे भव्यो ! तमे भावथी भक्ति करो जेथी अनुक्रमे सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररुप रत्नत्रयीने पामी नेनुं सम्यग् आराधन करीने तमे अक्षय-अविनाशी सुखना संपूर्ण अधिकारी थाओ?
. ११ सद्गुरुर्नु सेवन कर, जे गुरु ज्ञान अने चारित्रथी युक्त छतां धर्मोपदेशक, निर्लोभी अने भव्य जीवोनो निस्तार करनार छे, तेज आत्महितैषीए सेवन करवू युक्त छे.
जे सद्गुरु स्वयं भवसमुद्र तरी शके छे तेज अन्य जीवोने 'पण तारी शके छे. जे पोतेज भवसागरमां डूबे छे ते परने शी रीते तारी शकशे ? एम विचारीने सदोष-सारंभी गुरुनो त्याग करवो.
. सद्गुरु सेवक सुबुद्धि पुरुष स्वर्ग अने मोक्ष संबंधी सुखने पामे छे. पण कुगुरुकामी दुर्बुद्धि तो नरक अने तिर्यच गतिनेज प्राप्त थाय छे.
जे निग्रंथ गुरुने तजीने कुगुरुनी सेवा करेछे ते घरना आंगणे “उगेला कल्पवृक्षने छेदीने धंतूराने वाववा जेवूज करे छे.