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________________ श्री जैनहितोपदेश माग २ जो. छे. अने हृदयमां, वचनमा, अने कृतिमा सहज कोमळता प्रगट थाय छे. . ६. भीरु-धर्मी माणसोनी संगतिथी अथवा धर्म शास्तुं श्रवण मनन करवायी या तो पूर्वना शुभ संस्कारथी जीवने स्वभाविक रीते पापनो या परभवनो डर लागे छे. कंइ पण अनीति के अन्याय करतां मन झट दइने संकोचाय छे, अने पापथी तरत विरम छे. उक्त गुणथी पोताना पूज्य वडील जनोनुं मन पण न दूभाय एवी : काळजी रखाय छे. ७. अशठ-शठता (छळ प्रपंचादिक कपट वृत्ति) तज्याथी ए गुण प्राप्त थाय छ, सरल स्वभाव धारवाथी स्वव्यवहार पण सरल करी शकाय छे. कपटी माणसोने तो कपट करीने पोतानो दोष गोपववाने माटे बहु वक्र व्यवहार चलाववो पडे छे. सरल स्वभाविने तेम करवानी कंइ जरुर रहेती नथी. केमके सरल स्वभाविनां वचन उपर सर्व कोइने विश्वास आवे छे. कल्याण पण एवा सरल स्वभावीनुंज थाय छे, कपटीनुं यतुं नथी. ८. दाक्षिणतावंत-स्व इच्छा होय या न होय पण कंईक लाभालाभ विचारीने वडीलनी अथवा समुदायनी तीत्र इच्छाने मान आपीने कंइ कार्य करवानी पद्धति लोक मान्य होवाथी तेथी कचित् सारो लाभ पण मळे छे. परंतु उक्त दाक्षिणता कंइक मर्यादासर
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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