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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो० ९५ होवी जोइये. विवेक विनानी दाक्षिण्यतायी विपरीत परिणाम पण आवे छे ए बात भूलवी जोड़ती नथी, विवेकथीज स्वपर हित साधी शकाय छे. N ९. लजालु - उत्तम कूळनी अथवा धर्मनी मर्यादा पाळनार माणसोना परिचयथी या पूर्वना शुभ संस्कारथी लज्जानो गुण लाभी शके छे. ए गुणथी कंइपण खोदुं काम करतां जीव डरे छे अने शुभ काममां पराणे प्रवृत्ति करवा दोराय छे. एवी लज्जानी दरेकने आवश्यकता छे. १०. दयाळ - क्षमा, सहनशीलता अने दुःखी लोकोनी दाझ दीलमां धरवाथी अथवा नीच निर्दयजनोनो सहवास तजीने उदार आशयोनी संगति करी तेमना जेवा सद्गुणोनो अभ्यास करवाथी सर्व प्रति दयाभाव रहे छे. ११. समदृष्टि - मध्यस्थ - आंधळा राग के द्वेष तजीने निष्पक्ष पातपणे सत्यासत्य संबंधी तोल करवानी देववाळाने ए गुण प्राप्त थइ शके छे. १२. गुणरागी - गमे तेमां रहेला सद्गुण प्रत्येना साचा प्रेम थीज उक्त गुण प्राप्त थाय छे, गुणरागथी गुणनी अने गुणद्वेषयी दोपनी प्राप्ति थाय छे, निर्गुणना रागथी पण दोषनीज पुष्टि थाय छे केमके केवळ रागअंध दोषने पण गुणज मानी, ले छे. अने द्वेष
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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