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५४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पणुं छे. तेवा आचरण विनानो मुनि वेष विडंबना रूपज छे, ज्ञानवडे शुद्धाशुद्धनो हिताहितनो विवेक जागे छे, दर्शनवडे तेनी यथा-- थं प्रतीति वेसे छे, अने चारित्रथी अहितना त्याग पूर्वक हित प्रटति थाय छे. उक्त ज्ञान दर्शन अने चारित्र मळीने रत्नत्रयी कहेवाय छे ए रत्नत्रयीने सम्यग् सेवनारा मुनि कहेवाय छ, उक्त मुनिनी रहेणी कहेणी एक सरखी होय छे केमके ते ज्ञान अने क्रियानो एक सरखी रीते स्वीकार करे छे अने अन्य मोक्षार्थीने पण तेवोज हितकारी मार्ग बतावी जन्म मरणनां अनंत दुःखमांथी मुक्त करवा यत्न सेवे छे.
४. मणि-रत्न हाथमां आव्या छतां तेनो आदर करी शकाय नहि तेमज तेनुं फल मेलवी शकाय नहि तो जाणवु के मणीनी पीछानज थइ नथी के मणिनी प्रतीतिज वेठी नथी. अन्यथा मणिर्नु मूल्य समजीने तेनो आदर जरुर करायज.
५. तेम जो शुद्ध आत्म स्वभावमा रमण थइ शके नहि तथा रागद्वेष मोहादिक दुष्ट दोषोनो त्याग थइ शके नहि तो ते ज्ञान के दर्शन कंइ कामनाज नथी. खरां ज्ञान अने दर्शनथी स्वरूप मग्नता अने दोष हानिरुप उत्तम फल थर्बुज जोइए, सहज आनंदमां ममता
उत्तम लाभ छे, तेम दुष्ट दोषोनुं दमन करी तेमनो समूलगो नाश करवो ए पण अति उत्तम लाभरुपज छे. खरूं