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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ज्योतिर्मयीव दीपस्य, क्रिया सर्वापि चिन्मयी ॥ यस्यानन्य स्वभावस्य, तस्य मौन मनुत्तरम् ॥॥
॥ रहस्यार्थ॥ - १. जे समस्त तत्त्वने यथार्थ जाणे छे ते मुनि कहेवाय छ, ने वस्तु तत्त्वने सम्यग् समजी सर्वत्र मध्यस्थ रहे छे, खोटी बावतमां कदापि मुंझातोज नथी ते मुनि छे. तेवं मुनिपणुं एज खरं समकित छे. अने निर्मल समकित एज मुनिपणुं छे. शुद्ध समकित विना खरुं मुनिपणुं संभवतुंज नथी. मुनिपणुं ज्यां सुधी जाळवी रखाय छे, त्यां सुधी समकित कायम रहे छे.
२. आत्मा पोते पोतामां रहेलं जे शुद्ध स्वरुप जे वडे जाणे छे तेज मुनिनी रत्नत्रयीमा ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी एकता रुष छे. सम्यग् ज्ञानथी स्व स्वरुपले सारी रीते समजी शके छे. सम्यग् दर्शनथी स्व स्वरुपनी यथार्थ श्रद्धा प्रतीति थइ शके छे. अने सम्यग् - चारित्रथी आत्म-स्थीरता एटले स्वरुप रयण थइ शके छे. सम्यम् ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी एकता एज मुनिपणुं छे.
३. ज्ञान दर्शन अने चारित्र मुनिपणाना भावथीज सार्थक छे, विभावनो त्याग अथवा स्वभावनो स्वीकार करवो एज मुनि