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श्री जैनहितोपदेश भाग र जो. अर्थात् कोइ पण प्रकारना प्रमादवाळा मन, वचन, के कायाना व्यापारथी कोइ पण वखते कोइ पण संयोगमां आपणा के पारका कोइना प्राणनो नाश करवो ते हिंसानो अर्थ छे. तेवी हिंसाथी दूर रहेवू-दूर रहेवा अनुकूळ प्रयत्न सेववो तेनु नाम अहिंसा छे. एवी निपुण अहिंसा, 'संयम' वडे साधी शकाय छे. अने एवो संयम, सर्वज्ञदर्शित इच्छा निरोधरुपी तपथीज साध्य थाय छे, माटेज.सिद्धान्तकारे सूत्रमा धर्मर्नु आवं स्वरुप वताव्यु छे के
धम्मो मंगल मुकिठ, आहिंसा संजमो तवो; देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो.
(दशवैकालिक) तेनो परमार्थ एवो छ के-अहिंसा संजम अने तप छे लक्षण जेनुं एवो धर्म उत्कृष्ट मंगलरुप छे. जेनुं मन महा मंगलमय धर्ममां, सदा वा करे छे. तेने देव दानवो पण नमस्कार करे छे. "दुर्गतिमां पडतां प्राणीने झीली लइने सद्गतिमा स्थापन करे तेज खरो. धर्म छे." अहिंसा, संजम अने तप, ए तेनुं असाधारण लक्षण छे.. तेथीज अहिंसादिकनुं सविशेष स्वरुप समजवानी खास जरुर छे.
चारित्र०-परम पवित्र धर्मना अंगभूत उक्त अहिंसादिकनुं स-- हज विशेष स्वरुप जाणवानी मने पण अभिलाषा थइ छ, तेथी हवे ते समजावो..