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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ७. श्रेष्ट धर्मनी सिद्धि आत्म-साक्षिक छतां लोक देखावो करवानुं काम शुं ? मनथी जीव कर्म बांधे छे अने मनथीज छोडी शके छे तो पछी लोक देखावो करवायी शुं वळे ? नेम प्रसन्नचंद्र राज रूपिने तथा भरत महाराजाने साक्षात् अनुभवायुं तेम सम्यम् विचारी स्वकल्याणना अर्थी जीवोए लोक देखावो करवानी बुद्धि तजी देवी. ८. लोकसंज्ञा रहित साधु परद्रोह, ममता, अने मत्सर दोषथी मुक्त होवाथी सहज समाधिमा मस्त थइ रहे छे. जे महाशय मुमुक्षुए लोकसंज्ञा तजी दीधी छे तेने उक्त दोषोनुं सेवन कर पडतुज नथी. तेथी ते शुद्ध संयमने साधतां स्वभाविक मुखमा मग्न थइ रहे छे. परउपाधि रहित होवाथी निथ मुनि उत्तम निवृत्ति धारी सहज समाधि सुखने पामी शके छे, पण परउपाधि ग्रस्त एवं कोइपण तेवु स्वभाविक सुख स्वप्नमां पण पामी शकतो नथी. एटलाज माटे मोक्ष सुखना अर्थी जनोए लोक संज्ञानो जरुर त्याग करवो जोइये, अन्यथा जप तप संयम संबंधी सकल धर्म करणी केवळ कष्टरूप थइ पडशे. उक्त सर्व धर्म करणी जो विवेकथी आत्म कल्याण अर्थेज करवामां आवशे तो ते, सघळी लेखे पडशे. माटे केवळ गतानुगतिकता तजी वस्तु स्वरूप समजीनेज साधन करखं हितकारी छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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