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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. अने ज्ञानानंदी निःस्पृहीने कोइनी की परवा नहिं होवाथी तेतो सदानंदा स्वाधीनपणे वर्ते छे.
३. तत्ववेदी पुरुषो ज्ञानरुपी दातरडाथी स्पृहारुपी विष वेलहीने छेदी नाखे छे केमके परस्पृहाथी मुख शोष मूळ अने दीनता दिक दोषोने सेववा पढे छे. ज्ञानी विवेकी पुरुषो तेवी स्पृहाने दोअनु मूल जाणीने समूलगी छेदवा तत्पर रहे छे.
४. डाह्या माणसे स्पृहाने कुमती चंडालणीनी संगत करनारी जाणीने चित्त-मंदिरमाथी दूर करवी जोइये. कुमतिने पोषनारी मृहाने सद्विवेकीजनो सेवतान नथी, पण भूतना उतारनी जेम समसीने तेने घरयी वहार काढे छे. आवा निस्पृही पुरुषो सदा मुखा मग्न रही अके छे.
५. स्पृहावंत लोको अत्यैव तुच्छ अने हलका जणावा छता 'अवसागरमा दूवी जाय छे, वे महा आश्चर्यकारक छे. केमके हलकी बस्तु नो तरवीज जोइये अने भारे वस्तुज डुववी जोइए एवो कुद'स्ती नियम छे तेनुं आमां उल्लंघन यतुं देखाय छ, तेनुं समापान 'ए के तेओ स्वभावे तुच्छ उतां ममता दोपथी एवा तो-भारे
पेला होय के चेहद भारथी भरेला चाननी जेम वेभो अधोगतिम प्राप्त करेणे.