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________________ १४४ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. पण कराय, किंतु क्लिष्ट भावथी तो मन, वचन के कायानी प्रवृत्ति तेनुं अहित करवा माटे थायज नहिं ते "शम अथर्वा उपशम कहेंवायले :.: यतः - अपराधीशुं . पण नवी चित्त थक्री, चिंतविये प्रतिकूलं सुगुणनर. ● चारित्र -- खरेखर उपशमनु आवुं अद्भूत स्वरूपं मनन करू बा जेवुंज छे. तेमां केवी. अद्भूत क्षमा रहेली छे, हवे बीजा संवेगनु स्वरुप कहो. " ***** सुमति - संसार संबंधी क्षणिक मुखने दुःख रूपज लेखाय भने चैवा कल्पित सुखमां मग्न नहि थातां केवळ मोक्ष सुखनीज चाहन वनी रहे. यथाशक्ति अनुकुळ साधनवडे, स्वभाविक सुख प्राप्त करव प्रयत्न कराय अने प्रतिकूळ कारणोथी डरता रहेवाय तेनु नाम संवेग छे. 1 ፡፡ यतः- सुरनर सुख ते दुःख करी लेखवे, वंछे शिवसुख एक चतुरनर, " 1 1,7 चारित्र ० – अहो संवेगनुं स्वरूप पणं अत्यंत हृदयहारिक छे ते अक्षयं सुखमां अथवा अक्षय मुखना साधनमां केवीं रति करवी अने क्षणिक सुखमां के क्षणिक सुखनीं साधनमां केवी उदासीनता करवा वो छे. अहो ! "सत्य मार्ग दर्शकनी वलिहारी छे ! हवे त्रीजानिवेद कड़क स्वरूप कहो ? -~
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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