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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. दुःखगर्मित, मोहगर्मित अने ज्ञानगर्भित एम वैराग्य त्रण प्रकारनो छे. ए त्रणे प्रकारमा ज्ञानगर्भित वैराग्यज शिरोमणि छे. . जेम हंस क्षीर नीरने स्वचंचुथी जूदां पाडी क्षीरमाननुं ग्रहण करी ले छे. तेम ज्ञानगर्भित वैराग्यवंत-विवेकात्मा शुद्ध चारित्रना वळथी अनादि कर्ममळने दूर करी शुद्ध आत्मत्त्व (सहजानंद मुख) ने साक्षात् पाये छे. ___ रागद्वेषादिक दुष्ट दोषोने दूर करवाथीज शुद्ध वैराग्य प्रगटे छे, अने उक्त वैराग्यना दृढ अभ्यासथी रागद्वेषादिक विकारो समूळगा नाशे छे, त्यारेज आत्मानी सहज वीतराग (परमात्म) दशा साक्षात् प्राप्त थाय छे. __ आवा वीतराग परमात्मानां वचन सर्वथा प्रमाण करवा योग्यज होय छे. आ दुःखमय असार संसार मध्ये श्री वीतराग देशित धर्मनु सेवन करी लेवू, एज सारभूत छे, छतां पण प्रमादवशवी जनो सत्य-सर्वज्ञ देशित धर्मर्नु यथार्थ सेवन करी शकताज नथी, जेथी पूर्व पुण्योदये प्राप्त थयेली आ अमूल्य तकने गमावी ते वापदाओने पाछळथी बहु शोचवू पडे छे. समतासागर सत्पुरुषोना सदुपदेशनुं विधिवत् श्रवळ मनन करवाथी भव्य जीवोने पूर्वोक्त उत्तम वैराग्यनो अपूर्व लाथ मले छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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