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५८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
जिनालय करावतां कोइपण जीवने लगारे किलामना उपजाववी नहि. तेमां उत्तमोत्तम वस्तुओ वापरवी, अने कारीगरोना कामनी विशेष कदर करवी. नीच जातिना लोकोने या मद्यमांस भोजीने तेमां कामे लगाडवा नहि. दयाना काममां पूरती काळजी राखवी.
चैत्य पूर्ण थये छते तेमां विलंब रहित विधिवत् जिनर्विवनी स्थापना करवी. बिंब प्रतिष्ठादिक सत् क्रिया यथायोग्य सुविहित साधु पासे कराववी. सूरिमंत्रादिकथी प्रतिष्ठित प्रभु प्रतिमामां अपूर्व चैतन्य प्रगटे छे, जेथी भव्य जीवोने दर्शन करतां शाक्षात् समवसरण- भान थाय छे, अने प्रभु महिमाथी पूजा भक्तिमा भाविक जीवो तल्लीन थइ जाय छे.
प्रभु प्रतिमा शास्त्रोक्त नीति मुजव प्रमाणमा नानी या मोटी कराववामां आवे छे. जेने देखतांज भव्य जीवोने प्रभुनी पूर्व अवस्थानुं यथार्थ भान थइ आवे छे, जेथी तेओ छमस्थ, केवळी, अन र्वाण अवस्थाने जूदी जूदी रीते भावी शके छे.
स्नानार्चनवडे छद्मस्थ अवस्था प्रातिहार्यवडे केवळी अवस्था, अने पर्यकासने काउस्सग्गमुद्राथी पभुनी निर्वाण अवस्था भावी शकाय छे.