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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. . सुपति—आपनुं कहेषु यथार्थ छे अने तेथी आप साहेबनी आझाने अनुसरीने हुं मारुं कर्तव्य बजाववाने तत्पर थइछ. जे जे आ"मने मारी फरज विचारीने कहीश तेनु अपकपा करीने मनन करता रहेशो. . . चारित्र-त्रिये ! तारां अमृत वचननुं हुं आदर पूर्वक पान करीश, अने ते वडे मारा त्रिविध तप्त आत्माने शान्त करीश ए निवे समजजे. . सुमति-आपना आत्माने सर्वथा शान्ति-समाधि मळो ! तेज असमाधिनां खरं कारणोनो क्षय थाओ! अने समाधिनां खरां साधन प्राप्त थाओ. चारित्रल-मने खात्री थइ छे के तारो स्थायी समागमज सर्व समाधिनु मूळ कारण छे. अने तेथी असमाधिना सकळ कारणोनो 'स्वतः क्षय घइ जशे. सुमति-आटला अल्प काळमां पण आपना अप्रतिम प्रेमनी मने जे प्रतीति थइ छे ते मेने आपना भविप्यना सुख-सुधारानी संपूर्ण आगाही आपे छे. हवे हुँ आपने मारा सद्विचारो रोशन करवानी रजा लहुछु. आशा छे के आपनी हदयभूमिमा रोपायला सद्विचारो अति अद्भुत फलदायक नीरडसे. .
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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