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________________ - - - . . श्री जैनहितोपदे भाग र जो. १०७ आश्रव-हिंसा, असत्य, अदेत, अवस, अने असंतोष ममुंख तथा विषय केपायादिक संबंधी सर्व विरुद्ध क्रिया आत्माने सहजानंद सुखमा अंतरायभूत होवायी आश्रव संज्ञाथी ओळखाय छे. कइक सारा आशयथी मन, वचन, अने कायावडे क्रिया करवायी पुण्याश्रव अने माग आशयथी पापाश्रव थाय छे. पुण्याश्रवयी कइक सुखनी प्रतीति.अने पापाश्रवयी दुःखनीज प्रतीति थाय छे. सोनानी के.लोढानी बेडी जेवा बने आश्रयोने विवेकी पुरुषं संबर बड़े छेदी शके छे. . ८ संवर-आलोक के परलोक संबंधी भोगाशंसा तजीने केवळ आत्म कल्याणार्थ शुद्ध चारित्र धर्मनु सेवन करीने आश्रवनो अटकाव करवो तेनुं नाम संवर छ. गमे तेवा अनुकूल के प्रतिकूळ परीषहो सहन करवा, प्रवचन माता- यथार्थ पालन कर. क्षमादिक दशविध यतिधर्मनु सेवन कर. मैत्री, मुदितादिक भावना चतुष्टय अथवा अनित्यादिक प्रस्तुत भावनानु विवेकथी परिशीलन करवू, अने सामायकादिक चारित्र मार्गनुं निष्कपटपणे सेवन करवं ए संवर सर्व मुर्खकारी छे, 'एम' समजी यथाशक्ति । तेमा उद्यम करवों, अथवा तेवा सन्मार्गनी बनती सहाय के अनुमो दना करवीज उर्चित छे. संवर योगे चिलांतिपुत्र दृढप्रहारी अने कडराजा जेवा निर्दय जीवोनां पण कल्याण थयां छे.. संवर विना कदापि आ दुःखमय संसारनो छेडोपामी शकाय नहि..
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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