SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनहितोपदेश भाग ३ जो... अविद्या तिमिरध्वंसे, दृशा विद्याजन स्पृशा || पश्यन्ति परमात्मानमात्मन्येव हि योगिनः ॥ ८॥ ५७ ॥ रहस्यार्थ ॥ १. अनित्य, अशुचि, अने अनात्मिक परवस्तुने नित्य पवित्र अने पोतानी लेखनी ए अविद्यातुं लक्षण छे, अने वस्तुने वस्तुगत - - यथार्थ जेवा रुपमां होय तेवा रूपमा बराबर समजवी ए विद्यानुं लक्षण छे; एम योगाचार्योए शास्त्रमां कहां छे. २. आत्मा नित्य अविनाशी छे, तेनी कदापि नास्ति थतीज नथी. सदा सर्वदा तेनी अस्तिता छे, अने आ आत्माने थतो पर संयोग विनाशशील छे, तेनो तो अवश्य वियोग थवानोज छे, एवो जेने निश्चय थयो छे तेने मोह चोरटो छली शकतो नथी. सद्विद्या संपन्न - आत्मा मोहनोज जय करी अखंड सुख साधी शके छे. पण सविधा विहीनने तो मोह चोरटो सदा संताप्याज करे छे. माटे मोक्षार्थीए सद्विधा संपन्न थवा सर्वदा सदुयम सेववो. ३. निर्मल बुद्धिवालो आत्मा लक्ष्मीने जलतरंगनी जेवी चपल लेखे छे, आयुष्यने वायुनी जेवुं अधीर लेखे छे, अने शरीरने शरदना मेघनी जेतुं क्षणभंगुर लेखे छे. एवी अथीर परवस्तुओमां विवेकवान मुझातो नथी.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy