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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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. (३६) अहो आंकेला सांढनी पेरे चित्त खेच्छा मुजव निंद्य मार्गमा भम्या करे छे; पण चारित्र धर्मनी धुराने अने महाव्रतना भारने वहन करतुं नथी ! आथीज आत्मानी संसार चक्रमां बहु प्रकारे खरावी थाय छे.
(३७) पूर्व पुण्ययोगे अनुकूल सामग्री मळ्या छतां प्रमादना वशथी जीव कई पण आत्म साधन करी शकतो नथी, तेथीज तेने संसार चक्रमां पुनः पुनः भमनुं पडे छे.
(३८) जेणे संसार संबंधी सर्व दुःखनां मूळ कारण भूत क्रोध, मान, माया, अने लोभरुपी चारे कपायोने हठाववा प्रयत्न कर्यो नथी, ते वापडाए हाथमां आवेलुं मनुष्य जन्मरुपी कल्पवृक्षनुं अमृत फळ चाख्युंज नथी.
( ३९ ) वाल्यवय क्रीडा मात्रमां, योवनवय विषयभोगमां अने वृद्ध अवस्था विविध व्याधिना दुखमां हारी जनारने सुकृतना अभावे परलोकमां कई पण सुख साधन मळी शकतुं नथी.
(४०) जे द्रव्यना लोभयी जीव अनेक आकरां जोखममां उत रे छे, ते द्रव्यनुं अस्थिरपणुं विचारीने संतोष वृत्ति धारवी उचित छे.
( ४१ ) आ मन मर्कट मोह मदिराना मदथी मत्त बन्यु छर्तु; अनेक प्रकारनी कुचेष्टा करवा तत्पर रहे छे, सत् समागमरूपी अमृत