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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. क्रोध, कुपोष, मत्सर, कुबुद्धि अने मोह मायावडे जीवो स्वजन्मने निष्फळ करी नाखे छे.
(३१) आ मनुष्य देहादिक शुभ सामग्रीनो सदुपयोग कर- , साथी निर्वाण सुख स्वाधीन था शके तेम छतां, रागांध वनी जीव मोहमायामा झुंझाइ मूढनी जेम कोटी मूल्यवाळु रत्न आपी कांगी खरीदे छे.
(३२) भयंकर नकादिकनो मोटो डर न होत तो कोइ कदापि पापनो त्याग करी शकत नहि; अने सद्गुणनो मार्ग सेवी शकत नहि.
(३३) जेणे निर्मल शीळ पाळ्युं नथी, शुभ पात्रयां दान दीर्छ नयी अने सद्गुरुतुं वचन सांभळीने आदर्यै नथी, तेनो दुर्लभ मानव भव अलेखे गयो जाणवो.
(३४) संयोगर्नु सुख क्षणीक छे देह व्याधिग्रस्त छे अने भयंकर काळ नजदीक आवतो जाय छे तोपण चित्त पाप कर्मथी विरक्त केप यतुं नधी? अथवा संसारनी मायाज विलक्षण छे.
(३५) आ संसार चक्रमां जीव अनंतशः जन्म मरणना असहा दुःख सह्या छतां हजी तेथी मन उद्विग्न थतुं नथी, अने पाप क्रियामां दो ते अहोनिश मग्नज रहे छे.