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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. चित्ते परिणतं चेदं, येषां तेभ्यो नमोनमः ॥ ६॥ निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि ॥ एक पाक्षिक विश्लेषा, मारूढाः शुद्ध भूमिकां ॥७॥ अमूढ लक्ष्याः सर्वत्र, पक्षपात विवर्जिताः॥ जयंति परमानंद, मयाः सर्वनयाश्रयाः ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. अनंत धर्म (गुण) वाली वस्तुना वीजा वधा धर्मनी सामा न्यतः उपेक्षा करी मुख्यपणे अमुक एकज धर्मने स्थापनार नय कहे वाय छे. तेवा नय अनंता होवा घटे छे तोपण अत्र स्थूलताथी सात नयर्नु कथन कर्यु छे, तेमां शेष सर्वेनो समावेश थइ जाय छे. नैगम, संग्रह, व्यवहार, रुजुमूत्र, शब्द, समभिरुह, अने एवंभूत. ए साते नयनां नाम छे. तेनु विशेष व्याख्यान वीजा ग्रंथोथी जाणवा योग्य छे. अत्र तो फक्त समुचय नयोनुं स्वरूप कहेलुं छे. सर्वे नयो उतावला छतां स्ववस्तु-धर्ममां विश्राप करनारा छे. अर्थात् वस्तुधर्मने तजी बहार जता नथी, एम समजी चारित्र गुणमां लीन साधु सर्व नयनो समाश्रय करे छे, सर्व नयनो अभिप्राय साथे मळतांज संपूर्ण वस्तु-अनंत धर्मात्मक समजाय छे, वीजी रीते वोलिये तो