SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ज्ञान क्रिया समावेशः, सहैवोन्मीलने द्वयोः ॥ भूमिका भेदतस्त्वत्र, भवेदेकैक मुख्यतां ॥ सज्ञानं यदनुष्ठानं, न लिप्तं दोष पंकतः ॥ शुद्ध बुद्ध स्वभावाय, तस्मै भगवते नमः ॥ ७ ॥ ८ ॥ ४५ ॥ रहस्यार्थ ॥ १. संसारमां वसता अने स्वार्थ साधवामांज तत्पर एवा सर्व कोइ प्राणी कर्मी लेपाय छे. अथवा काजलनी कोटडीमा रहेता कोण कोरो रहीज शके ? फक्त ज्ञान सिद्ध पुरुषज निर्लेप रही शके छे. तत्त्वज्ञानी अने विवेकी महात्माज मात्र कोरो रही कर्म अंजनथी मुक्त थइ शके छे. एवा सत्पुरुषोने संसारना कोइपण पदार्थमा आसक्ति होती नयी, अने अंतर आसक्ति विना रागद्वेषादिकना अभावे कर्म बंध पण थइ शकतों नथी. २. हुं परभावने करूं नहिं, करावुं नहिं तेमज अनुमोदुं नहिं, विभावमां रमवानो मारो धर्मज नथी, मने स्वभावमांज रहेधुं युक्त छे, आ प्रमाणे अंतरमां समजनार आत्म ज्ञानी कर्म अंजनथी केम लेपाय ? जे विभावथी विरमीने केवल स्वभाव रमणी थाय छे, तेज खरो आत्म ज्ञानी छे अने तेवा आत्म ज्ञानीज सकल कर्म कलंकथी सर्वथा मुक्त थइ अंते परम पदने प्राप्त थाय छे,
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy