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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
८ अतिमात्राहार - प्रमाणयी वधारे लखुं भोजन पण करवुं नहि. ९ विभूषा - स्नान, वस्त्रालंकारथी के तैलादिकना मर्दनथी ब्रह्म चारीने स्वशरीरनी शोभा करवी कराववी नहि.
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ए प्रमाणे अखंड ब्रह्मचर्यने पाळीने पुर्वे अनेक शुद्धाशयो जेम अक्षय सुखने पाम्या छे तेम वर्तमान अने अनागत काळमां पण पवित्र पुरुषार्थ फोरवनारा अनेक महाशयो ए निर्मळतने निरतिचारपणे पाळीने आत्मोन्नति करी अन्यने दृष्टांतरुप थइने अंते अक्षय संपदाने वरशे.
२० परिग्रह - मूर्च्छानो परिहार कर.
सचेत, अचेत, के मिश्र एवी अल्प मूल्य के बहु मूल्यवाळी वस्तु उपर मूर्च्छा थवी तेने ज्ञानी पुरुषो परिग्रह कहे छे. ते परिग्रह वे प्रकारनो छे.
धन, धान्य, रुपुं, सोनुं, द्विपद, चतुष्पद विगेरे वाह्य परिग्रह छे. तथा वेदोदय ३, हास्यादि ६, मिथ्यात्व अने कषाय ४ मळीने १४ प्रकारनो अभ्यंतर परिग्रह कह्यो छे.
ए बन्ने प्रकारनो परिग्रह सर्वथा परिहरे ते निर्गमुनि -- कहवाय छे.