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१३४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. युक्तं तदपि तद्भावं, न यद्भग्नापि सोज्झति ॥१०॥ क्रियाशून्यं च यज्ज्ञान, ज्ञानशून्या च याक्रिया ॥ अनयोरंतरं ज्ञेयं, भानु खद्योत योरिव ॥ ११ ॥ चारित्रं विरतिः पूर्णा, ज्ञानस्योत्कर्ष एव हि॥ ज्ञानाद्वैतनये दृष्टि, यातद्योग सिद्धये ॥ १२ ॥
॥ रहस्यार्थ ॥ ८. ज्ञानसारथी गुरु (वजनवाळा) थया छतां साधुजनो उंची गतिज पामे छे. कदापि नीची गतिमा जताज नथी ए आश्चर्य छे. केमके भारे वजनवाळी वस्तु तो स्वभाविक रीते नीचे जवी जोइये.
९. ज्ञान विना शुष्क क्रियाथी मात्र नामनोज क्लेश क्षय थायाँ छे अने ज्ञानसारनी सहायथी तो समूळगो क्लेशनो क्षय थइ शके छे.
१०. ज्ञानयुक्त क्रिया सोनाना घडा जेवी छे, एम वेद-व्यासादिक कहे छे ते व्याजवी छे केमके कदाच ते भांगे तोपण सोनुं जाय नहिं. फक्त घाट घडामण जाय. तेम कहाच कर्मवशात् ज्ञानी क्रियाथी पतित थइ जाय तोपण तत् क्रिया संबंधी तेनी भावना नष्ट थइ जती नथी.