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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ३. धनधान्यादिक ए बाह्य परिग्रह छे अने वेदोदयी थती विषय-अभिलाषा, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुगंछा, मिथ्या त्व अने कषाय ए अभ्यंतर परिग्रह छे. ते बने परिग्रहने तृणनी जेम तजीने जे जगतथी उदासी (न्यारा) रहे छे, तेना चरण कमळ ने जगत् मात्र पूजे छे. पण जे ते परिग्रहमा मुंझाइ परस्पृहा करे छे ते तो जगत मात्रना दासज छे. मूर्छा-ममतानेज ज्ञानी पुरुषो परि ग्रह कहे छे. ४. जेम सर्प कांचली उतारी नाखवाथी निर्विप थइ जतो नथी तेम वाह्य परिग्रहना त्याग मात्रथी खरं साधुपणुं प्राप्त थतुं नथी. केमके विवेक विना धन विगेरे तजवा मात्रथी काइ विषय अभिलाषा दिक अंतर विप टली शकतुं नथी. माटे मुमुक्षुजनोए तो विपय अभिलाषादिक अंतर विष वारवा प्रथम खपी थर्बु जोइए. ज्यां सुधी विषयवासना जागृत छे, ज्यां सुधी हास्यादिक दोपोनु मुत्कलनी जेम सेवन कराय छे, ज्यां सुधी तत्त्व दृष्टि थवा यत्न करातो नथी अने ज्यां सुधी क्रोध, मान, माया अने लोभनी सेवा को कराय छे, त्यां सुधी साधुपणुं छेटुंज समजवू, अंतर विष टलतांज साधु पणुं संपजे छे. जेम सरोवरनी पाल तोडी नांखवाथी मांहेनुं सर्व जल क्षण मात्रमा वहार वही जाय छे, तेम परिग्रहरुपी पाल तोडवाथी-मुछोना
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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