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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ९९ चिन्मात्र प्रतिबद्धस्य, का पुद्गल नियंत्रणा ॥६॥ चिन्मात्रदीपको गच्छेद, निर्वात स्थानसंनिभैः॥ निष्परिग्रहतास्थैर्य, धर्मोपकरणै रपि ।। ७॥ मूछिन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः ॥ मूर्छयारहितानां तु, जगदेवाऽपरिग्रहः ॥ ८॥ ॥ रहस्यार्थ ॥ १. शास्त्र उपदेश सांभली-सहहीने परिग्रहर्नु स्वरुप समजीने तेनो विवेक धारको जानो छे. प्रायः परिग्रहज प्राणिओने पीडार्नु कारण छे. माटे तेनो अवश्य परिहार करवो जोइये तेज वात स्फुट बतावे छे. त्रगे जगतना जीवोनी विविध विडंबना करनार परिग्रह एवो तो आकरो ग्रह छे के ने मूल राशियी बदलातो नथी तेमज वक्रता त्यजतो नथी. २. परिग्रहरूपी पिशाचथी पराभव पामेला लिंगधारी साधुओ पण पोतानी (साधु) प्रकृतिने तजी जेम तेम लवता फरे छे, अनेक उन्माद करे छे, वेष विगोवणा करे छे अने अंते अधोगनिमां जाय छे ए सर्व परिग्रहनोज प्रभाव समजवो.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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