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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. तार्थ था, ए प्रमाणे जे शुभाशय मूर्छाने मारे छे ते उभयलोकमां अवश्य सुखी थाय छे. 'इच्छा तो आकाशनी जेवी अनती छे एम निश्चयथी समजीने अनहद एवा लोभनो निग्रह करवा परिग्रहनुं प्रमाण तो अवश्य करवं. अन्यथा मम्मणशेठ विगैरेनी पेरे निर्मर्याद लोभतृष्णाथी-माठा हाल थशे. परिग्रहलु प्रयाण करीने यथाप्राप्तमां संतोष वृत्ति धारवाथी उभय लोकमां केवु मुख मळे छे, तेने माटे आनंद कामदेवादिक अनेक श्रावकोनां अने पुणीया श्रावक विगैरेनां दृष्टान्त ज़ग प्रसिद्धछे. धमनां साधनभूत वस्त्र, पात्र अने पुस्तकादिक उपगरणो, परिग्रहरुप नथी पण जो मूच्छों राखीने तेमनो सदुपयोग करवामां न आवे तो ते सर्व परिग्रहरूप थइ पडे छे. केमके मूर्छा एंज परिग्रह छ एम ज्ञातपुत्र श्री महावीर स्वामीए कहेलुं छे माटे मूळ तजीने जम तप जप संयमवडे देहने सार्थक करवामां आवे छे, तेम धर्मोपगरणने पण ते ते धर्म कार्यमां मूर्छा रहित उदार दीलथी उपयोग पूर्वक वापरी सार्थक करवा ए वीरपुत्रोनी फरज छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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