________________
श्री. जैनहितोपदेश भाग २ जो.
७३
अननुभवीपणे महावत लेवाथी क्वचित् परीषह उपसर्गादिकयी पड़ी जवानुं वने छे, तेम अनुभवी महाशयथी महानत लीधा वाद प्राय: पडी जवा वनतुं नथी. '
मन, वचन, के कायाथी कोइपण जीवनी हिंसा राग के द्वेष वडे जाते करवी नहि, वीजा पासे कराववी नहि अने करनारने सारा जाणवा नहि ते प्रथम महावत छे..
क्रोध, मान, माया, लोभ, भय के हास्यथी कंइपण असत्य (अप्रिय-अहितकारी) वचन कदापि कहेवू, कहेवरावq के अनुमोदq नहि. ते वीजुं महावत कहेबाय छे.
कोइपण प्रकारे देवगुरु के स्वामीनी आज्ञा विरुद्ध कोइनी कंइपण वस्तु अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, औषध, भेषज के स्थानादि कदापि लेवी लेवरावची के अनुमोदवी नहि. तेमज मन वचन अने कायाथी सचेत (सजीव) के मिश्र (जीवमिश्र) एवी उपरली बस्तु कदापि कोइ आधे तोपण ग्रहण करवी नहि ए त्रीजु महावत छे.
देव मनुष्य तिर्यंच संबंधी मैथुन मन वचन के कायावडे कदापि सेक्यु नहि. अन्यने सेववा प्रेर नहि. तेमज सेवनारने सारा जाणवा पण नहि ए चतुर्थ ब्रह्मचर्य नामे महाव्रत कहेवाय छे.. ...