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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. जेम स्फटिक रत्नने रातुं पीलं लीढं के कालं फूल लगाडवाथी ते लगाडेला फूलना प्रसंगथी आलु रत्न तद्रूपज थइ जाय छे, तेम जीव . पण उपाधि संबंधथी जड़ जेवो वनी जाय छे. पुण्य पाप राग-द्वेषादिक जीवने केवल उपाधिरूपं छे. ज्यां सुधी जीवने तेनो संबंध रहे छे त्यां सुधी ते तेनुं शुद्ध स्वरूप संपूर्ण रीते प्रगट करी शकतोज नथी. पण तेनो संपूर्ण वियोग. थये छते आत्मानु शुद्ध. स्वरूप सहज प्रगट थइ रहे छे.. .
७, मोहना क्षयथी.संहज आत्मसुखने साक्षात् अनुभवतां छता युद्धलिक मुखने साचु मिष्ट माननारा लोकोनी पासे तेनु कथन करतां आश्चर्य लागे छे. केमके पुललानंदी जीवने आत्मिक सुखनो माक्षात् अनुभव थइ शकतो नथी. अने साक्षात् अनुभव या विना : लेनी प्रतीति पण आवी शकती नथी. तेथी निर्मोही पुरुष अधिकार मुनवज उपदेश आपे छे. : . .. .
८ जे महाशय शुद्ध समज पूर्वक समस्त सदाचारने सेवया उजमाल रहे छे ते प्रयोजनविनाना परभामां शा माटें झुंझाब ? जेस, . निर्मल आरीसामां वस्तुनु यथार्थ दर्शन थइ -शके छे तेम निर्मल शान . दजयोगे आत्मा स्वंकलव्य सम्यग समजीने तेनं निरभिमानताथी आराधन करी शके छ.निर्मल ज्ञानवडे स्स कर्नव्या स्वरूप निर्धारीने जे शुभाशंय तेनु सेवन करें छे से अवश्य फतेहसंद नीबड़े छे...