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श्री जैनहितोपदेशं भाग जी.* ___४. अनिश्चित वादविवादने वदतां थकां, जेन घांचीनों बळद गमे तेटलं चाले तोपण तेनों अंत आवतो- नथी, तेम तत्त्वनो पार पामी शकातोज नथी. साध्य दृष्टिथी-धर्मचर्चा करतां के नम्रपणे तत्त्व कथन के श्रवण करतां केवल हित प्राप्तिज़ थाय छे. माटे शुष्क वादविवाद तजीने केवल तत्त्व खोजना करवी. : :: :
५.- आत्म द्रव्यना गुण पर्यायनी पर्यालोचना करवीज श्रेष्ट छे, वीजी नकामी वावतमा वखंत गमाववो युक्त नथी. एवी, समज पूवेक सहज संतोष धारनार मुनि मुष्टि ज्ञाननी स्थितिवालागणायः । छे. मुष्टिज्ञान संक्षिप्त छतां सर्वोत्तम छे. तेथी सर्व-परंभावथी विरमी मुनि सहज स्वभाव रमणी वने छे..
, : ६. मिथ्यात्वने भेदी समकित प्राप्त करावे एवं सम्यग् 'ज्ञान जो माट थाय तो ते सारभूत ज्ञान पामी वीजा शास्त्र परिश्रम का प्रयोजन नथी. जो स्वभाविक दृष्टिंथी अंधकार दूर थतो होय तो कृत्रिम दांशु से प्रयोजन छे? सांचो दीवो जेना घटमांज प्रगटयों । छे तेने सहज स्वभाविक प्रकाश मल्याज करे छे तेथी ते मिथ्यात्वर. अंधकारनो पिनाश करीमानंद पनज रहे छे. सारभूत.ज्ञानाविना लाखोगये केशकारका-शाल दिलोडणथी शुं वळवावं?.चोखी, दृष्टिचालान । एक.पण दीत्रो बस.छे, अने. अंघ दृष्टिने हजारो.दीवाथी, पण उप. कार थइ शकवानो नथी. सम्यग् ज्ञानवान् सम्यग् दर्शन या समुक्ति ? रत्नना प्रभावथी दिव्यदृष्टिज कहेवाय छे.