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________________ ___ १०२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. गरण- सार्थकषणु-थाय तेम विवेकथीज वर्न, युक्त छे. ८ आवां कारणसर शास्त्रकार कहे छे के मूर्छावडे जेनी बुद्धि अंजाइ गइ छे तेने आखं जगत परिग्रहरुपज छे, अने जे महात्माए मूर्छा (ममता) ने समूलगी मारो छे, तेने तो जगतमा जरा पण परिग्रहनो लेप लागेज नहि. आ उपरथी मूर्छ उतारवी केटली विपम छे ते तथा मूर्छा उतार्याथी केटलं वधुं मुख थाय छे, तेनुं सहन भान थइ शके छे. गमे एबुं दुष्कर कार्य पण पुरुषार्थथी साधी शकाय छे. एम समजी कायरता तनी परिग्रहनो प्रसंग तजवा प्रयत्न करयो घटे छे. ॥२६॥ अनुभवाऽष्टकम् ॥ संध्येव दिन रात्रिभ्यां, केवलश्रुतयोः पृथक् ॥ बुधैरनुभवो दृष्टः, केवलाऽर्कारुणोदयः ॥ १ ॥ व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शन मेव हि ॥ पारं तु प्रापयत्येकोऽ, नुभवो भव वारिधेः ॥ २ ॥ अतींद्रियं परब्रह्म, विशुद्धाऽनुभवं विना ॥ शास्त्रयुक्ति शतेनापि, न गम्यं यद् बुधाजगुः ॥ ३ ॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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