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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. पण कहीं शकती नथी तोपण आजे नम्रपणे कंइक कहेवा धारु छ तेथी आप खोटुं नहि लगाडतां सार ग्रही मने उपकृत करशो, एवी मारा अंतरनी इच्छा पूर्वक करेली प्रार्थना स्वीकारी मने प्रसंगोपात बे बोल बोलवानी रजा आपशो ? चारित्रराज-अहो सुमति ! माराथी आटलो अंतर राखवा, कंइ कारण नथी, तारे कहे, होयतो सुखेथी कहे, साची अने हितकारी वात कहेतां कोनो दिवस फर्यो छे के उलटी रीस चढावशे ? सुमति-स्वामीनाथ ! हवे मने कंइक हिम्मत आवी छे तेथी। मारा मननी बात कहेवाने कंइक भाग्यशाळी थइ शकीश. नहितो-तो चारित्रराज-तुं आज सुधी कहेवानो केय विलंब करी रही हती ? सुमति--स्वामीजी! साचुं कहं छं के मारा अंतरमां जेवीने तेवी इच्छा छतां आपने एकान्ते कहेवानी मने जोइए तेवी तकन मळी शकी नथी ? चारित्र-आज सुधी कहेवानी प्रवळ इच्छा छतां केम तक न मळी शकी? तेनुं कारण हवे संकोच राख्या विना कहे. हुं तारीउपर प्रसन्न छु.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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