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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. - आत्म तत्त्वतुं यथार्थ भान थइ शकवानुं नहिं. कार्यार्थीए कार्याऽनुकुल कारणोन सेवन करज 'जोइए. ते विना इष्ट कार्य सिद्धि नथी. माटे शुद्ध आत्म तत्वना कामी पुरुषे निद्वंद्व (सर्व क्लेश रहित शुद्ध) अनुभव माटे प्रयत्न करवो. ७. सुषुप्ति, शयन, जागर अने उजागर ए चार दशाओ शा. स्त्रमा वर्णवी छे. तेमां प्रवल मोहना उदयवाली प्रथम दशा तथा विविध कल्पनावाली (सविकल्पक) शयन अने जागर दशा आ अनुभव ज्ञानमां घटी शके नहिं. तेमां तो समस्त विकल्पनी विश्रान्ति शान्तिरूप निर्विकल्प चोथी उजागर दशाज होवी घटे छे. ८. शास्त्र दृष्टीथी समस्त शब्द स्वरूपने सम्यग पामीने मुनि, अनुभवगम्य शुद्ध आत्मतत्वने अनुभव ज्ञानवडे पामे छे. एटले के सम्यग् श्रुत ज्ञानना अभ्यासथी अनुभव ज्ञान पामीने मुनि शुद्ध स्वरूपने जाणे-जोवे छे. - ॥ २७ ॥ योगाष्टकम् ।। मोक्षण योजनाद्योगः, सर्वोऽप्याचारइष्यते ॥ विशिष्य स्थानवार्था, लंबनकाय गोचरः ॥१॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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