Book Title: Gathasaptashati
Author(s): Mahakavihal, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला ७७ प्रधान सम्पादक यो० सागरमल जैन TOD GAAAAA MPANAND महाकविहाल विरचित गाथासप्तशती SHARELHREETTEERTHERNETHELETEE 5505555075572562 अनुवादक पं. विश्वनाथ पाठक सच्चं लोगम्मि सारभूयं। EDIASK HC पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५ Jan Edu-PĀRÁVA NĀTHA-ŚODHAPĪTHA, VĀRĀNASĪ=6 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला-७७ प्रधान सम्पादक-डॉ० सागरमल जैन महाकविहालविरचित गाथासप्तशती अनुवादक पं० विश्वनाथ पाठक प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी-५ १९९५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई० टी० आई० रोड, पो० आ० बी० एच० यू० वाराणसी-५ दूरभाष ३११४६२ प्रथम संस्करण : १९९५ मूल्य - एक सौ बीस रुपये मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय जवाहरनगर, वाराणसी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्राकृत भाषा की अपनी स्वाभाविक मधुरिमा के साथ शोल और अश्लील की मर्यादा से ऊपर उठकर यथार्थं लोक जीवन का सहज चित्रण गाथासप्तशती की अपनी विशिष्टता है और यही कारण है कि प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत साहित्य के कुछ शीर्षस्थ ग्रन्थों में अपना स्थान रखता है । वास्तव में श्रृंगार की अभिव्यक्ति के माध्यम से लोकजीवन के यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में इस ग्रन्थ की कोई तुलना नहीं है । प्राकृत काव्य ग्रन्थों की यह विशिष्टता होती है कि वे अकृतिम रूप से जितने सौष्ठव के साथ यथार्थ जीवन को सहज अभिव्यक्ति दे देते हैं, वैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्यं संस्कृत काव्य साहित्य में नहीं पायी जाती । संस्कृत काव्य साहित्य में कवि के द्वारा अपने वैदुष्य के प्रकटन की भावना के कारण जो कुछ दुरूहता एवं कृत्रिमता आ जाती है उससे प्राकृत साहित्य प्रायः मुक्त रहता है और यही कारण है कि वह सीधा पाठक के हृदय को संस्पर्श करता है । कुछ लोगों को यह आपत्ति हो सकती है कि 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ' जैसी मूल्यनिष्ठ संस्था के लिये इस प्रकार के काम प्रधान साहित्य का प्रकाशन उचित नहीं है किन्तु इसके प्रकाशन में हमारा जो उद्देश्य है वह महाराष्ट्री के इस प्राचीनतम महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को प्राकृत भाषा की प्रकृति के अनुरूप एक मर्यादा में प्रस्तुत करना है । क्योंकि अभी तक 'गाथासप्तशती' की जो अनेक व्याख्याएँ प्रकाशित हैं, उनमें उसके अश्लोल पक्ष को इतना अधिक उभारा गया है कि उसके काव्य सौन्दर्य पर स्पष्टतः आघात हुआ है । इसी दृष्टि से हमने उसकी अति व्याख्या में न जाकर गाथाओं का मात्र शब्दानुसारी अनुवाद ही प्रस्तुत किया है । 1 यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिये कि 'गाथासप्तशती' में शील और चारित्र को सम्पुष्ट करने वाली भी अनेक गाथाएँ हैं जिन्हें नजरअंदाज कर केवल एक पक्ष को महत्त्व देना, काव्य भावना के साथ न्याय नहीं होगा । इस अनुवाद को प्रकाशित करने की आवश्यकता इसलिये भी थी कि पूर्व की व्याख्याओं में इसकी अनेक गाथाओं को अस्पष्ट कहकर छोड़ दिया गया था। आज जब प्राकृत का पठन-पाठन समाप्त 4. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राय सा है, इन अस्पष्ट गाथाओं की व्याख्याएँ प्रस्तुत कर देना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है और यही इस अनुवाद की विशिष्टता है। हम पं० विश्वनाथ पाठक के अत्यन्त आभारी हैं जिन्होंने संस्थान के अपने सीमित कार्यकाल में इन दुरूह गाथाओं का बोधगम्य अर्थ स्पष्ट करके यह कृति हमें प्रकाशनार्थ दी। विद्यापीठ के निदेशक प्रो० सागरमल जैन, शोधाधिकारी डा० अशोक कुमार सिंह एवं डा० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने प्रस्तुत कृति के प्रकाशन सम्बन्धी सारी व्यवस्थाओं को सम्पन्न किया, एतदर्थ हम उनके आभारी हैं। ग्रन्थ के प्रूफरीडिंग का कार्य श्री असीम कुमार मिश्र एवं डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी ने सम्पन्न किया एतदर्थ वे दोनों धन्यवाद के पात्र हैं । ग्रन्थ के सजीव मुद्रण कार्य हेतु वर्द्धमान मुद्रणालय के श्री राजू भाई भी धन्यवाद के पात्र हैं। भवदीय भूपेन्द्रनाथ जैन मंत्री Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती की अस्पष्ट अतिरिक्त गाथाओं का __ अर्थ निरूपण -विश्वनाथ पाठक पौरस्त्य और पाश्चात्य विद्वानों ने गाथासप्तशती पर पुष्कल टीकायें रची हैं। डॉ० जगन्नाथ पाठक ने सभी उपलब्ध टीका-साहित्य का अवलोकन कर विमर्श के साथ प्रकाश नामक अभिनव व्याख्या प्रस्तुत की है। वह चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से १९६९ ई० में प्रकाशित हुई है। व्याख्याकार ने गाथासप्तशती की सभी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में समान रूप से उपलब्ध होने वाली गाथाओं को ही प्रामाणिक माना है। जो गाथायें सभी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में नहीं मिलती, किसी-किसी में ही संगृहीत हैं उन्हें ग्रन्थ के उत्तरार्ध में स्थान देकर हिन्दी में अनूदित किया है। गाथासप्तशती के उक्त चौखम्बा-संस्करण के उत्तरार्ध में मुद्रित अनेक अतिरिक्त गाथाओं का प्राकृतपाठ भ्रष्ट एवं खंडित है। अतः उनकी व्याख्या नहीं की जा सकी है, वे अस्पष्टार्थ खंडित और अशुद्ध कहकर छोड़ दी गई हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय ऐसी रसपेशल श्रेष्ठ गाथायें भी हैं जिनका साहित्यिक-स्तर ही भ्रामक और अनर्गल व्याख्या के कारण नीचे गिर गया है । जिन अनुपम काव्यामृतनिष्पन्दभूत गाथाओं की रचना में कभी अनेक प्रतिभामण्डित महाकवियों ने सुयश की मधुर कल्पना से समाहित होकर अपना मानसिक श्रम और अमूल्य समय लगाया था वे ही आज प्रमत्तप्रलापवत् निरर्थक बन गई हैं, इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ? अतः संग्रह-ग्रन्थों में कूड़े की तरह उपेक्षित पड़ी हुई, लिपिकर्ताओं के प्रमाद से अभिशप्त, अशुद्ध एवं खण्डित गाथाओं के स्वरूप और अर्थ का समुचित संघटन नितान्त आवश्यक कार्य है । यद्यपि किसी प्राचीन कवि की उपलब्ध रचना में अपनी ओर से कुछ घटाना-बढ़ाना अथवा अन्यथा करना अनधिकार-चेष्टा है तथापि उसे निरर्थकता के अभिशाप से मुक्त कर देने में कोई दोष नहीं है। मैंने अर्थसंघटन के लिये गाथाओं के उपलब्ध पदों का ही यथासंभव उपयोग करने का प्रयास किया है । छन्द की दृष्टि से मात्राओं की अधिकता या न्यूनता की स्थिति में किञ्चित् परिवर्तन करना पड़ा है। विकृत एवं निरर्थक पदों को सार्थक बनाने के लिये लुप्त मात्राओं या वर्णों का अनुसन्धान, अनर्गल अनुप्रविष्ट अक्षरों का परिहार, अन्यथाभूत वर्णों अथवा मात्राओं के वास्तविक स्वरूप का अवधारण और अपने Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती स्थान से परिच्युत होकर अन्यत्र सन्निविष्ट वर्गों का समुचित स्थान पर संस्थापन अनिवार्य था। अब आगे गाथाओं का अर्थनिरूपण प्रस्तुत है। प्रत्येक गाथा के दक्षिण पार्श्व में चौखम्बा-संस्करणानुसार गाथांक दे दिया गया है। नीचे उसकी सदोष व्याख्या और टिप्पणी उद्धृत है । १. एत्तीमत्तम्मि थवा पुत्तीमत्तम्मि लअणा भत्तो। - अगईअ अवत्थाए दिअहाई भित्तरं तरइ ॥ ७०८॥ "अर्थअस्पष्ट" प्रस्तुत गाथा का पाठ छन्द और व्याकरण की दृष्टि से भ्रष्ट है। द्वितीय पाद में एक मात्रा कम है। यदि लअणा के आदि में ख और जोड़ दिया जाये तो एक मात्रा की पूर्ति के साथ-साथ सार्थक पद 'खलअणा' (खलजनाः ) बन जायेगा। इस बहुवचनान्त पद को एक वचन में 'खलअणो' पढ़ें तो पादान्त में अवस्थित ‘भत्तो' और छन्द के अन्त में प्रयुक्त 'तरइ' क्रिया से अन्वय संभव हो जायेगा। प्रथम पाद के प्रारम्भ में 'एत्तीमत्तम्मि' पाठ है और द्वितीय पाद के प्रारम्भ में पुत्तीमत्तम्मि । गाथा की भंगिमा को देखते हुये दोनों स्थलों पर एक ही पद उचित प्रतीत होता है। हम अर्थानुरोध से पुत्तीमत्तम्मि को मुत्तीमत्तम्मि पढ़ते हैं क्योंकि लिपि-दोष से मु का पु हो जाना सर्वथा स्वाभाविक है । एत्तीमत्तम्मि के सम्बन्ध में भी वही बात है। ए का उपरितन भाग तो म के समान है ही, अधस्तन भाग भी उकार की मात्रा-विकृति का परिणाम है। अतएव उभयत्र मुत्तीमत्तम्मि पाठ स्वीकार्य है । थवो को थवा भी पढ़ना संभव है । इससे अर्थावगति बाधित नहीं होगी। अब सम्पूर्ण गाथा की निम्नलिखित सार्थक आकृति बनती है मुत्तीमत्तम्मि थवो मुत्तीमत्तम्मि खलअणो भत्तो। अगईअ अवस्थाए दिअहाई भित्तरं तरइ ॥ इसकी संस्कृतच्छाया यों होगीमुक्तिमात्रे स्तवो मुक्तिमात्रे खलजनो भक्तः। अगत्या अवस्थाया दिवसानभ्यन्तरं तरति ॥ गाथा में मोक्ष के अभिलाषुक किसी ऐसे तरुण का वर्णन है जो सतत स्तोत्र का पाठ करता रहता है और अपने प्रति प्रणयोच्छ्वसित कामिनी की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता। वह तरुणी परोक्ष मोक्ष के लिये उपस्थित प्रत्यक्ष विषय : Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण सुख का परित्याग कर दुराग्रह पूर्वक कठोरतपःक्लेश भोगने वाले तरुण को दुष्ट समझती हुई कुढ़ कर कहती है ( उसका ) स्तोत्र मुक्तिमात्र है, मुक्तिमात्र में भक्त खल मनुष्य असहाय ( अगति ) अवस्था के भीतर दिवस व्यतीत करता है। उक्त तरुणी अपनी ही स्तुति ( प्रशंसा ) और अपनी ही भक्ति ( अनुराग ) चाहती थी किन्तु तरुण उसके अनुकूल व्यवहार नहीं कर रहा था, और विषयसुख का परित्याग कर तपस्या का कष्ट भोग रहा था, अतः वह चिढ़ कर उसे दुष्ट कह रही है । गाथा में प्रयुक्त मात्र और खल शब्द तरुणी के प्रति तरुण की अनासक्ति एवं तरुण के प्रति तरुणी के आक्रोश की अभिव्यक्ति करते हैं। २. सोवि जुआ माणहणो तुमं वि माणस्सअसहणा पुत्ति । मत्तच्छलेण गम्मउ सुराइ उरि पुससु हत्थं ॥७१०।। सोऽपि युवा मानधनस्त्वमपि मानस्यासहना पुत्रि! मत्तच्छलेन गच्छ सुराया उपरि स्पृश हस्तम् ।। इस गाथा के उत्तरार्ध के अर्थ को अस्पष्ट कहकर पूर्वार्ध का अनुवाद इस प्रकार दिया गया है __ "वह तरुण भी मानी प्रकृति का है और हे पुत्रि ! तू भी किसी का मान ( शान ) बर्दाश्त नहीं करती।" उत्तरार्ध का भाव हृदयंगम करने के लिये गाथा का प्रसंग-निर्देश अनिवार्य है। मानी नायक और मानिनी नायिका एक दूसरे से पृथक रहने लगे हैं, कोई किसी से संपर्क नहीं कर रहा है । कोमल-हृदया नायिका अधिक समय तक मान का निर्वाह न कर सकने के कारण अधीर हो गई है। वह नायक से मिलने के लिये अकुला रही है परन्तु अपने मान की प्रतिष्ठा बचाने के लिये लज्जावश उसके निकट नहीं जा रही है। कुशल दूती यह रहस्य जान लेती है । वह उसे परामर्श देती है कि तुम मदिरा से मतवाली हो जाने का छल ( बहाना ) करो और नायक के निकट चली जाओ। वह बेचारा तो यही समझेगा कि तुम नशे में अपनी सुध-बुध खोकर संयोगवश यहाँ आ गई हो। इस प्रकार प्रतिष्ठा भी बच जायेगी और प्रियतम का सुखद संयोग भी सुलभ हो जायेगा। इसके पश्चात् तुम मदिरा से हाथ पोंछ लेना ( अर्थात् मदिरा कभी मत पीना।) अब गाथा के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध का सम्मिलित अर्थ यह होगा हे पुत्रि ! वह युवक भी मान का धनी है और तुम भी मान को नहीं सह सकती हो । अतः मतवाली होने का छल करके उसके निकट चली जाओ। उसके पश्चात् ( उवरि ) मदिरा से हाथ पोंछ लेना । ( मदिरा कभी मत पीना ।) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती - प्रकरणानुसार पुस क्रिया का अर्थ पोंछना है, स्पर्श करना नहीं । गम्मड की संस्कृतच्छाया गम्यताम् है, गच्छ नहीं । केअइगन्धहगव्विरअरंजिआदणेहि । कंठअसवलितणुतव छड्डिअभवलाणं ॥ ७११॥ प्रस्तुत पद्य में गाथा के लक्षणों का अभाव है। इसकी भाषा भी अपभ्रंश से प्रभावित है । अनेक अक्षर लिपिकर्ताओं के प्रमाद से छूट गये हैं और अनेक अक्षर अन्यथा लिख दिये गये हैं । इन दोनों दोषों के कारण छन्द की स्वाभाविक लय और अर्थावगति में अवरोध उत्पन्न हो गया है। यदि प्रथम पाद के अन्तमें 'णि' और जोड़ दें तो उसका पाठ इस प्रकार हो जायेगा केअइ गंधह गन्विणि, परन्तु इसे हम छन्द के अनुरोध से 'गविणी' पढ़ेंगे । चतुर्थपाद में प्रयुक्त द्दणेहिं निरर्थक है, यह संभवतः छणेहिं का विकृत रूप है। तृतीय पाद में 'ठ' के स्थान पर 'ट' होना चाहिये । कंठअ नहीं कंटअ ( कण्टक ) शब्द है। स का अनुस्वारच्युत हो गया है तथा शब्द का अन्तिम अकार भी नहीं रह गया है । यहाँ संवलिअ होना चाहिये । तणु को लय की दृष्टि से तणू पढ़ना होगा क्योंकि छन्द का पादान्तवर्ती वर्ण दीर्घ हो जाता है । कंटअ और संवलिअ शब्दों के मध्य में गण शब्द का निवेश कर देने पर यह पाद भी छन्द की दृष्टि से शुद्ध हो जायेगा। चतुर्थपाद में 'भ' के स्थान पर 'म' लिखना उचित है । अब सम्पूर्ण छन्द का संशोधित पाठ यह होगा३. केअइ गंधह गव्विणि, रअरंजिआ छह । कंटअगणसंवलिअतणु तव छड्डिअमबलाण ॥ केतकि ! गन्धेण गर्विणि रजोरञ्जिता क्षणैः। कण्टकगणसंवलिततनुस्तव त्यक्ताऽबलाभिः ॥ अबलाणं पद में 'क्वचिद् द्वितीयादेः' इस हैम सूत्र से तृतीया के स्थान पर षष्ठी हो गई है । तणु शब्द प्राकृत में स्त्रीलिंग और पुल्लिग-दोनों है । उपयुक्त छन्द के प्रथम और तृतीय पादों में १३ मात्रायें हैं । द्वितीय और चतुर्थ पादों में ग्यारह मात्रायें हैं । इस प्रकार यह लय और मात्राओं की दृष्टि से दोहा है । अन्तर केवल इतना है कि दोहे के द्वितीय और चतुर्थ पादों के अन्त में अन्त्यानुप्रास ( तुक ) होता है, इसमें नहीं है । संभव है, प्रारम्भ में ऐसे दोहे भी लिखे जाते रहे हों । अर्थ-हे केतकि ! तुम पराग से रंजित होकर क्षण भर में गविणी बन गई हो । अरे ! तेरा कंटकगणों से भरा शरीर अबलाओं (बलहीन या निर्बल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण स्त्रियों ) के द्वारा परित्यक्त हो चुका है। ( अर्थात् वे भी शृंगार के लिये तेरे पुष्पों का उपयोग नहीं करती हैं ।) आशय यह है कि सुगन्ध की उत्कटता के कारण तुझे गर्वित नहीं होना चाहिये । तुझमें दोष भी है । निर्बल सनझी जाने वाली स्त्रियों की भी दृष्टि में तुम महत्त्वहीन हो। वे तुम्हारे पुष्पों का उपयोग नहीं करतीं। अथवा तुम इतनी अभागिन हो कि कमनीय कामिनियों के भी साहचर्य से वंचित हो चुकी हो। ४. निर्मलगगनतडागे तारागणकुसुमभिते तिमिरे । भिकरवोबालं चरति मृगाको मराल इव ॥ ७१४ ॥ "भिकरवोबालं यह पद बिलकुल अस्पष्ट है।" ____ उपयुक्त गाथा की भाषा न तो शुद्ध संस्कृत है और न विशुद्ध प्राकृत । पाठ नितान्त अशुद्ध और खंडित है । मूल प्राकृत-पाठ नष्ट हो गया है । अतः उपलब्ध विकृत संस्कृत-पाठ का परिमार्जन करने के पश्चात् ही प्राकृत-पाठ की अवतारणा हो सकेगी। तृतीय पाद में तीन मात्राओं की न्यूनता है। अक्षरों का लोप और मात्राओं के इधर उधर हो जाने के कारण सम्पूर्ण वर्णन निरर्थक बन गया है । यदि 'भि' को सप्तमी विभक्ति 'म्मि' का अवशेष भाग मानकर उसके पूर्व 'जल' शब्द और जोड़ देते हैं तो सार्थक पद 'जलम्मि' बन जाता है । करवो पद अर्थ हीन है । गाथा में मृगाङ्क ( चन्द्रमा ) का वर्णन है । अतः वह उसी से सम्बद्ध किसी पदार्थ का वाचक होगा । चन्द्रमा और कुमुद का सम्बन्ध साहित्य में प्रसिद्ध है । कुमुद का पर्याय कैरव है। अतः यहाँ प्राकृत शब्द केरव होना चाहिये । 'वो' में 'ओ' को मात्रा की कोई सार्थकता नहीं है । उसका उचित स्थान 'बालं' का लकार है जहाँ बिन्दु के रूप में मात्रा का शिरोभाग शेष रह गया है। इस प्रकार हम पाठ संशोधन के प्रयास में 'केरव' बालो तक पहुँचते हैं। यदि केरवबालो को केरव वालो ( कैरवपाल: ) पढ़ लेते हैं तो आर्थिक जटिलता का निवारण हो जाता है । तृतीय पाद का सम्पूर्ण संशोधित पाठ यह है जलम्मि कैरवपाल, जले कैरवपालः ? गाथा के पूर्वार्ध में 'भिते' का परिमार्जित रूप ‘भूते' होगा। अब उपलब्ध संस्कृत गाथा का जो स्वरूप निर्णीत होता है वह इस प्रकार है निर्मल गगनतडागे तारागणकुसुमभृते तिमिरे । जले कैरवपालश्चरति मृगाको मराल इव ।। यह तो रही संस्कृतच्छाया अब इसी के आधार पर मूल प्राकृत पाठ यह होगा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती णिम्मल गअणतलाए ताराअणकुसुमभिअम्मि तिमिरम्मि । जलम्मि केरववालो चरइ मिअंको मरालो व्व ।। अर्थ-तडाग (तालाब) के समान आकाश में फूलों के समान तारागणों से भरे अन्धकार में कुमुदों का पालक चन्द्रमा यों विचरता है जैसे जल में मराल । इसकी व्याख्या रूपक मान कर नहीं की जा सकती क्योंकि उस स्थिति में तडाग का प्राधान्य हो जायेगा जो अप्रस्तुत मराल के अनुकूल तो है परन्तु प्रस्तुत चन्द्र के प्रतिकूल है । वर्णन प्रस्तुत के ही अनुकूल होना चाहिये । ५. विट्ठीइ जंण विट्ठो, सरलसहावाइ जं च णालविओ। उवआरो जंण कओ, तं चिअ कलिअं छइल्लेहिं ॥ ७१५ ॥ दृष्ट्या यन्न दृष्टः सरलस्वभावया यच्च नालपितः। उपकारो यन्न कृतस्तदेव कलितं विदग्धैः ।। "जो कि दृष्टि से न देखा, सरल स्वभाव वाली ने जो कि उपकार न किया उसे छैलों ने जान लिया।' उपयुक्त अनुवाद के पश्चात् अनुवादक ने विमर्श में यह टिप्पणी दी है 'स्नेह जाहिर करने का यह भी एक ढंग है।" यद्यपि इस गाथा की व्याख्या मेरे द्वारा अनूदित वज्जालग्ग में की जा चुकी है, फिर भी चौखम्बा संस्करण में विद्यमान भ्रान्तियों का निवारण आवश्यक समझता हूँ। __ प्रसंगानुसार 'उवआर' का संस्कृत रूपान्तर 'उपचार' होगा, उपकार नहीं। यह शब्द गाथा में सामान्य शिष्टाचार के अर्थ में प्रयुक्त है। उपयुक्त हिन्दी अनुवाद में "उपकार न किया' के स्थान पर "उपचार न किया" कर देने पर अर्थ शुद्ध हो जायेगा । अनुवादक के अनुसार गाथा में वर्णित नायिका का नायक के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी स्नेह जाहिर करने का एक ढंग है । यह उनका भ्रममात्र है । वस्तुतः यह स्नेह प्रकट करने की पद्धति ही नहीं है, यह तो स्नेहनिगहन की पद्धति है । गाथा की नायिका विदग्धों से अपना और नायक का प्रच्छन्न प्रणय-सम्बन्ध छिपाना चाहती है। अतः उसके प्रति उपेक्षा का बाह्य प्रदर्शन करती है, परन्तु विदग्ध तो विदग्ध ही हैं । उपेक्षा में भी छिपे प्रणय को ताड़ लेते हैं । 'तं चिअ कलि अं' का भाव यह है कि विदग्धों ने उस उपेक्षात्मक व्यवहार को ही विशेष रूप से लक्षित किया और प्रणय का रहस्य समझ लिया । ६. सेउल्लणिअम्बालग्गसण्हसिचअस्स मग्गमलहन्तो। सहि मोहघोलिरो अज्जतस्स हसिओ मए हत्थो ॥७१८॥ सेकानितम्बालग्नश्लक्ष्ण सिचयस्य मार्गमलभमानः। सखि ! मोहघूर्णनशीलोऽद्य तस्य हसितोमया हस्तः । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण "हे सखी, आज स्नान से भीगे नितम्ब पर चिपके महीन कपड़े के बीच रास्ता न पाने से उनका हाथ मोह में पड़ गया तो मुझे हँसी आ गई।" उपयुक्त अनुवाद में घोलिर ( घूर्णनशील ) का कोई अर्थ नहीं दिया गया है। हाथ का मोह में पड़ जाना असंगत है क्योंकि मोह चैतन्य को होता है, जड़ शरीर को नहीं । हाथ शरीर का ही एक अंग है। वस्तुतः मल प्राकृतपाठ में प्रयुक्त 'मोह' शब्द संस्कृत 'मोघ' का रूपान्तर है। मोघ का अर्थ है, व्यर्थ । 'मोघघूर्णनशील' का अर्थ है, व्यर्थ इधर-उधर फिरने या भटकने वाला । मार्ग ( मग्ग ) का अर्थ रास्ता नहीं, अन्वेषण ( खोज ) है । गाथा की संस्कृतच्छाया इस प्रकार होनी चाहिये सेकादें नितम्बालग्नश्लक्ष्णसिचयस्य मार्गमलभमानः । सखि ! मोघघूर्णनशीलोऽघ तस्य हसितो मया हस्तः॥ अब गाथा का अर्थ इस प्रकार करना उचित है हे सखि । आज स्नान से भीगे नितम्ब पर चिपके महीन कपड़े को खोज न पाने के कारण जब उनका हाथ इधर-उधर फिरने लगा तब मुझे उन पर हँसी आ गई। ७. विअलिअकलाकलावो चंदो मित्तस्स मंडलं विसइ । णिस्सरइ तादिसो च्चिअ गअविहवं को समुद्धरइ ॥७३३॥ विगलितकलाकलापश्चन्द्रो मित्रस्य मण्डलं विशति । निःसरति तादृश एव गतविभव कः समुद्धरति ॥ "चन्द्र कलासमूह समाप्त हो जाने पर मित्र ( सूर्य ) के मण्डल में प्रवेश कर जाता है और उस प्रकार ( कलापूर्ण ) होकर ही ( उसे ) निकाल देता है, विभवरहित का उद्धार कौन करता है।'' - "विमर्श-मित्र सूर्य ने तो चन्द्र पर विपत्ति पड़ने पर आश्रय में रखा पर स्वयं चन्द्र सम्पन्न होकर विपन्न सूर्य का उद्धार न कर सका । संसार में अकृतज्ञ प्रायः मिल जाते हैं।" ____ उपयुक्त अर्थ और विमर्श-दोनों नितान्त अनर्गल है । सूर्य के मंडल में प्रविष्ट चन्द्र उसे ही ( सूर्य को ही ) बाहर निकाल देता है, यह निरर्थक बात किसी बुद्धिमान् व्यक्ति के मस्तिष्क बैठ नहीं सकती है। ___'मित्तस्स' में षण्ठी विभक्ति है । यदि वह निकालने की क्रिया का कर्म होता तो उसमें द्वितीया होती। षष्ठी होने पर भी यदि 'तादिस' में द्वितीया होती और उसके साथ द्वितीयान्त 'त' सर्वनाम होता तब भी निकालने की क्रिया का कर्म सर्य हो जाता। परन्तु यह तो तब संभव था जब 'णिस्सर' का अर्थ निकालना होता। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती यह क्रिया तो निकालने का अर्थ देती है। 'तादिसो' की प्रथमा विभक्ति उसे प्रथमान्त चन्द्र से ही अन्वित करती है। विमर्श में लिखा है-''चन्द्र सम्पन्न होने पर सूर्य का उद्धार न कर सका।" यहाँ प्रश्न उठता है कि जब मूल गाथा में 'विगलितकलाकलापः' के द्वारा चन्द्र के ही विपत्ति-ग्रस्त होने का वर्णन है तब सूर्य के उद्धार की समस्या कहाँ से आ गई ? प्रस्तुत गाथा को समझने के लिये सम्बन्धित पौराणिक सन्दर्भ का ज्ञान आवश्यक है । पुराणों के अनुसार कलाओं का उपक्षय हो जाने पर चन्द्रमा अमावस्या के दिन पुनः कला-संचय के लिये सूर्यमंडल में अनुप्रविष्ट हो जाता है । इस प्रकार प्रत्येक दिन क्रमशः एक-एक कला ग्रहण करते-करते प्रतिपत् से लेकर पूर्णिमा तक उसका परिक्षीण मण्डल पुनः पूर्ववत् परिपूर्ण हो जाता है । परन्तु गाथा का कवि इस सम्पूर्ण सन्दर्भ को नहीं ग्रहण कर रहा है। उसकी दृष्टि प्रवेश और निष्क्रमण के दिन व चन्द्रमा की एक जैसी अवस्था पर केन्द्रित है । कवि का आशय यह है कि चन्द्रमा अमावस्या को क्षीण होकर मित्र सूर्य के मंडल में आश्रय लेता है परन्तु जब उससे बाहर निकलता है तब भी वह क्षीण ही रहता है । अमावस्या और प्रतिपदा को चन्द्रमा की समान स्थिति रहती है। दोनों तिथियों में वह नितान्त क्षीण होने के कारण दिखाई नहीं देता । सूर्य-मण्डल में प्रवेश का कोई लाभ प्रतिपदा को दिखाई नहीं पड़ता, जिसका वैभव नष्ट हो चुका है, उसका उद्धार कौन कर सकता है ? प्राकृतगाथा में प्रयुक्त मित्त ( मित्र ) शब्द में श्लेष है उससे सूर्य और मित्र दोनों अर्थ उक्त एवं अभिव्यक्त होते हैं। ८. जो होइ रसाइसओ सुविणट्ठाणं वि पुडइच्छृणं । कत्तो सो होइ रसो मोहासाणं आणिच्छृणं ॥ ७३४ ॥ यो भवति रसातिशयः सुविनष्टानामपि पुण्ड्रकेक्षणाम् । कुतः स भवति रसो मोहासानामनिच्छूनाम् । "खूब तोड़ने पर भी पोढ़ इक्षु का जो अधिक रस होता है वह अन्य-अन्य इक्षओं का रस कहाँ से हो सकता है।" उपयुक्त अर्थ अपूर्ण है क्योंकि एक तो 'मोहासानां' का उसमें उपयोग ही नहीं किया गया है, दूसरे गाथा में स्थित सूक्ष्म श्लेष की बिलकुल उपेक्षा कर दी गई है । श्लेषानुरोध से संस्कृतच्छाया के उत्तराध का स्वरूप यह होना चाहियेकुतः स भवति रसो मोघाशानामन्येक्षणाम् ( अनिच्छूनाम् । (अन्येच्छ्रनाम्) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण शब्दार्थ मोघासानाम् = १. जिनके लिये आशा करना व्यर्थ है । ( मोघा आशा येभ्यः । ) २. जिनका भक्षण निष्फल है । ( मोघा निष्फलं अतिशय भक्षणं येषाम् ) ३. जिनकी आशा व्यर्थ है। ( मोघा निष्फला आशा येषाम् ) रस = १. द्रवरूप रस २. आनन्द, सुख अणिच्छृणं = १. ( अन्येक्षणाम् ) अन्य इक्षुओं का २. ( अनिच्छूनाम् ) अनिच्छुकों का ३. ( अन्येच्छुकानाम् ) अन्य के प्रति इच्छुकों का । पूर्वार्ध के 'सुविणट्ठाण पद में भी श्लेष है। इक्षुपक्ष में उसकी संस्कृतच्छाया ऊपर दी गई है । शृंगारपक्ष में उसका संस्कृत रूपान्तर 'स्वप्नस्थानाम्' होगा। उभयपक्ष में अर्थ इस प्रकार होंगेसुविणट्ठाणं = १. ( सुविनष्टानाम् ) अच्छी तरह टूटे हुओं का। २. ( स्वप्नस्थानाम् ) स्वप्न में स्थित पुरुषों का अर्थात् सपने में क्षण भर के लिये मिले हुये मिथ्या पुरुषों का। गाथा में समासोक्ति के द्वारा कोई तरुणी किसी ऐसे तरुण को उपालम्भ दे रही है, जो उस ( तरुणी ) के प्रणय का अनिच्छुक है और अन्य प्रेमिका की इच्छा करता है। अर्थ-( इक्षुपक्ष ) पुड्र नामक इक्ष ( श्वेत ईख ) के टूट जाने पर भी जो रसाधिक्य होता है वह उन अन्य इक्षुओं में कहाँ हो सकता है जिनकी आशा ही रिरर्थक है, या जिनका भक्षण ही निरर्थक है । (शृंगार-पक्ष ) सपने के पुरुष से भी जो आनन्द मिलता है वह उन अनिच्छुक अथवा अन्य के इच्छुक पुरुषों से कहाँ हो सकता है, जिनकी आशा करना ही व्यर्थ है। ९. जइ वि हु दिल्लिदिलिया तह वि हु मा पुत्ति! णग्गिआ भमसु । वेआ णअरजुवाणो माअं धूमाइ लक्खंति ॥ ७३५॥ अनुवादक ने अस्पष्टता का उल्लेख करके इसे छोड़ दिया है, अनूदित नहीं किया है । गाथा के तृतीय चरण का पाठ भ्रष्ट है । देआ के स्थान पर छेआ पाठ होना चाहिये। दिल्लिदिलिआ देशी शब्द है, उसका अर्थ है, बालिका । इसकी संस्कृतच्छाया यों होंगी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती यद्यपि खलु बालिका तथापि खलु मा पुत्रि नग्निका भ्रम । छेका नगरयुवानो मातरं दुहितरि लक्षयन्ति ।। नग्न घूमने वाली किसी बालिका को मना करनेवाली प्रौढा महिला की परिहासोक्ति है। अर्थ-हे पुत्रि ! यद्यपि बालिका हो तथापि तुम नग्न होकर मत फिरा करो। नगर के विदग्ध (चतुर एवं रसिकों ) पुत्री में माता को लक्षित कर लेते हैं। ( अर्थात् अविकसित अंगों वाली बालिका को भी नवयुवती के रूप में देखते हैं । ) १०. दइए दुमसु तुमं चिअ मा परिहर पुत्ति ! पढमदुमि ति । कि कुड्डं णिअमुहअंदकंतिदुमि ण लक्खेसि ।।७४१॥ अनुवादक ने इसकी संस्कृतच्छाया लिखने में असमर्थता व्यक्त की है । गाथा का अनुवाद इस प्रकार किया है __ "दयित के लिये तू ही सफेदी कर, हे पुत्रि ! पहले की सफेदी को मत छोड़ ! क्या अपने मुखचन्द्र की कान्ति से सफेद दीवार को नहीं देखती।" यह अनुवाद ठीक नहीं है । दइए शब्द संस्कृत ले दयित शब्द का सप्तम्यन्त रूप नहीं, स्त्री लिंग में सम्बोधन का रूप है। यदि वह दयित ( प्रिय ) का सप्तम्यन्त रूप भी हो तब भी उसका चतुर्थ्यन्त अर्थ संभव नहीं है। यहाँ सम्बोधन कारक का रूप दयिते ( प्रिये ) सम्बोध्य के प्रति हार्दिक स्नेह का अभिव्यंजक है। गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगीदयिते धवलय त्वमेव मा परिहर पुत्रि प्रथमधवलितमिति । किं कुड्यं निजमुखचन्द्रकान्तिधवलितं न लक्षयसि ॥ नायिका घर में सफेदी कर रही थी। दीवार के जिस भाग में अभी सफेदी करना शेष था वह भाग भी नायिका की मुखचन्द्रचंद्रिका से शुभ्र होकर ऐसा लग रहा था जैसे इसमें भी सफेदी कर दो गई है। अतः नायिका उस भाग को बिना सफेदी किये ही छोड़ दे रही थी। यह देखकर उसकी सास कहती है हे प्रिय ( दयिते ) पुत्रि! सफेदी करो। उस भित्ति-भाग में सफेदी की जा चुकी है—यह सोचकर तुम उसे छोड़ मत देना। क्या तुम यह लक्षित नहीं कर पा रही हो कि तुम्हारे मुखचन्द्र की कान्ति से दीवार सफेद हो गई है। यहाँ 'तंच्चेअ' ( तुम्हीं ) शब्द में यह व्यंग्य है कि दीवार के किसी भाग को बिना सफेदी किये हो छोड़ देना तो कामचोर नौकर का काम है। तुम तो गृहस्वामिनी हो, तुम उसे मत छोड़ देना । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण ११. रअणाम्ररस्स साहेमि नम्मए ! अज्ज विमुक्कदक्खिण्णा । वेडिसलआहरतेणं मिलिया जं सि पूरेण ॥ ७५४ ।। रत्नाकरस्य साधयामि नर्मदे ! अद्य मुक्तदाक्षिण्या । वेतसलता गृहान्तेन मिलिता यदसि पूरेण ॥ प्रस्तुत गाथा में 'घरतेणं' एक पद नहीं है । 'घरते' के पश्चात् स्वीकार या निश्चय द्योतक 'ण' अव्यय है। अतः 'घरते णं' यह पाठ करना होगा। इसका संस्कृत रूपान्तर 'गृहान्ते ननु' है। इसका अनुवाद यह किया गया है "री नर्मदे, जो कि तूने वेतस के लतागृह में प्रवाह के साथ संगम किया, 'आज मैं शिष्टाचार छोड़कर ( तेरे पति ) समुद्र से कह दूंगा।" यह अनुवाद ऊपर से तो ठीक लगता है परन्तु ध्यान देने पर इसकी असंगति स्पष्ट हो जाती है। स्त्रीलिंग पद विमुक्क दक्खिण्णा पुल्लिग मैं ( वक्ता ) का विशेषण नहीं हो सकता है । 'विमुक्कदक्खिण्णो' होने पर ही वह किसी पुल्लिग से अन्वित हो सकेगा । अतः उक्त स्त्रीलिंग यद स्त्रीलिंग नर्मदा का ही विशेषण है। नर्मदा में समासोक्ति-साधक श्लेष है। अर्थ यह होगा हे नर्मदे ! ( नदीविशेष, सुखदे ) तू दाक्षिण्य (पति के प्रति अनुकूलता) का परित्याग कर वेतसलता के गृह में जो प्लावन ( जल की बाढ़ ) से मिल चुकी है ( संगम कर चुकी है।)-यह बात मैं ( तेरे पति ) रत्नाकर ( समुद्र ) से कह दूंगा। यदि वक्त्री महिला होगी तो अर्थ का स्वरूप यह होगा है नर्मदे ! तू वेंतलता गृह के भीतर प्लावन से जो संगम ( मिलन, संभोग) कर चुकी है उसे मैं तेरी अनुकूलता ( दाक्षिण्य ) छोड़कर रत्नाकर ( समुद्र ) से बता दूंगी। ___ यहाँ समासोक्ति के माध्यम से प्रस्तुत रत्नाकर और नर्मदा पर नायक और नायिका के व्यवहार का समारोप है । १२. सुहया सुहं चिय कुडलि व्व पेहुणो णिग्गयस्स चडुवस्स । जणरंजणिग्गहो ते घरम्मि सुणहो अतिहिवंतो ॥७५९॥ इसके नीचे आर्य के अस्पष्टता की टिप्पणी दी गई है। अनुवाद नहीं किया गया है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती पूर्वार्धगत मयूर - शिखण्ड वाचक 'पेहुणों' से उत्तरार्धगत श्वान वाचक 'सुणहो' का अन्वय नहीं हो सकता क्योंकि इन दोनों प्रथमान्त पदों का सामानाधिकरण्य लोकविरुद्ध है । प्रथमान्त होने के कारण उक्त पद षष्ठ्यन्त 'णिग्गयस्स' से भी अन्वित नहीं हो सकता । अन्वय के लिये उस स्थान पर कोई षष्ठ्यन्त शब्द अपेक्षित है । यदि 'गो' को षष्ठी का सूचक मानें तो प्रातिपदिक ( मूलशब्द ) पेहि ( प्रेक्षिन् ) ठहरता है, क्योंकि 'पेहु' कोई सार्थक शब्द नहीं है । यह 'पेहि ' शब्द भी कर्म के अभाव में निरर्थक है । अतः उसके पूर्व विकृत रूप में जो वर्णन उपलब्ध है उसी में कर्म को ढूँढ़ने का प्रयास करना है । यदि 'कुडलि ध्व' को मिलाकर 'कुडलिव्व' पढ़ें और 'पेहिणो' से जोड़कर एक समस्तपद बना लें तो खोया हुआ कर्म मिल जायेगा । इस प्रकार एक सार्थक शब्द 'कुडलिव्वपेहिणी' ( कुटलेप्यप्रक्षिणः - कुटस्य गृहस्य लेप्यं भित्ति प्रेक्षते पश्यतीति कुटलेप्यप्रक्षी तस्य ) बन जायेगा । इसका अर्थ है- -घर की दीवार ( भित्ति ) को देखने वाले का । ' चडुवस्स' में चतुर्थ्यर्थक षष्ठी है । चडुव (चटुक) का अर्थ पेट है, परन्तु वह प्रकरणानुसार जीविका के अर्थ में प्रयुक्त है । जणरंजणिग्गहो में 'णि' का इकार अनावश्यक है। सार्थक पद जणजनस्य जनानां वा रञ्जने प्रीडने आग्रहो यस्य, जगहो ( जनरञ्जनाग्रहः अर्थात् लोगों को प्रसन्न रखने का आग्रही ) है । गाथा का परिमार्जित पाठ यह होगा - सुहय ! सुहं चिय कुडलिव्वपेहिणो णिग्गयस्स चडुवस्स । जणरञ्जणग्गहो ते घरम्मि सुणहो अतिहिवंतो || और संस्कृतच्छाया यों होगी सुभग ! शुभमेव कुटलेप्यप्रेक्षिणो निर्गतस्योदराय । जनरञ्जनाग्रहस्ते गृहे शुनकोऽतिथिवान् ॥ १२ = उसने एक कुत्ता पाल रखा था । वह । गाथा में जिस गृहपति को सम्बोधित किया गया है उसे प्रत्येक दिन घर पर पत्नी को अकेली छोड़कर जीविकोपार्जन के लिये बाहर जाना पड़ता था । स्त्री के दुश्चरित्र हो जाने की आशंका से किसी भी अपरिचित मनुष्य को घर में नहीं की स्त्री किसी तरुण के चंगुल में फँस गई । दुष्ट कुत्ते को अपने अनुकूल बना लिया । अब वह उक्त तरुण के आने पर दुम हिला कर उसका भरपूर स्वागत करने लगा । एक दिन जब गृहपति काम से लौट कर घर की दीवारों की ओर देख रहा था, तभी उसकी पड़ोसिन कह पड़ी घुसने देता था तरुण ने खूब फिर भी गृहपति खिला-पिला कर १. लिव्व का अर्थ लेप्य ( भित्ति ) -I - पाइयसद्द्द्द्महृष्णव Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण पेट के लिये ( जीविकोपार्जन के लिये ) बाहर निकले हुये तथा घर की दीवार देखने वाले का कल्याण ही है। तुम्हारे घर में लोगों को प्रसन्न रखने का आग्रही कुत्ता अतिथिवान् है । ( अर्थात् अतिथिसत्कार का दायित्व वहन कर रहा है।) गाथा का तात्पर्य यह है, तुम प्रायः बाहर ही रहते हो। इससे यह मत समझो कि तुम्हारे घर में कोई धार्मिक कार्य नहीं होता। अतिथि पूजा भी गृहस्थ का धर्म है। तुम्हारी अनुपस्थिति में वह कार्य पालतू कुत्ता करता है और जिस घर का पालतू कुत्ता भी इतना धार्मिक है, उस गृहस्थ का कल्याण अवश्य होगा। इससे यह ध्वनि निकलती है, अरे, तुझे तो केवल पेट की चिन्ता रह गई है, सामाजिक प्रतिष्ठा और लोकलज्जा को तूने तिलांजलि दे दी है। तेरी अनुपस्थिति में कोई युवक घर के भीतर घुस जाया करता है। यह विश्वासघाती कुत्ता भूकता भी नहीं। अतः बाहरी गृहभित्तियों के भीतर सुरक्षित समझ कर स्त्री पर विश्वास मत कर, घर के भीतर जो कुछ हो रहा है उसे भी जानने का प्रयत्न कर। इस उत्कृष्ट गाथा का प्रत्येक पद साभिप्राय एवं ध्वनिगर्भित है। १३. णिवडिहिसि सुण्णहिअए! जलहरजलपंकिलम्मि मग्गम्मि । उप्पेक्खागयपिययमहत्थे हत्थं पसारेती ॥ ७६० ॥ निपतिष्यसि शून्यहृदये! जलधरजलपङ्किले मार्गे। उत्प्रेक्षागतप्रियतमहस्ते हस्तं प्रसारयन्ती ॥ इस गाथा का अनुवाद यों है "री शून्यहृदये ! देखभाल के लिये आये प्रियतम के हाथ में हाथ फैलाती हुई तू मेघ के जल से पंकिल मार्ग में गिरेगी।" उपयुक्त अनुवाद असंगत है क्योंकि प्रियतम के हाथ में हाथ डालने पर न गिरने की ही सम्भावना अधिक है। अवलम्ब मिल जाने पर गिरता हुआ व्यक्ति भी संभल जाता है । अतः प्रियतम के हाथ में हाथ फैलाना पतन का हेतु नहीं हो सकता । जब पंकिल मार्ग पर दृष्टि नहीं रहती और किसी का सहारा भी नहीं रहता है तभी गिरने की सम्भावना होती है । अतः गाथा में ऐसी ही किसी परिस्थिति का वर्णन होना चाहिये । 'उप्पेक्खागयपिययम' का तात्पर्य अनुवादक की समझ में नहीं आया है। यहाँ उपपेक्खा (उत्प्रक्षा) का अर्थ कल्पना है। विरहिणी नायिका प्रियतम के संयोग की मधुर कल्पना में तल्लीन है । पंकिल मार्ग में चलते-चलते वह ध्यानावस्थित होकर कल्पना की आँखों से देखती है कि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ गाथासप्तशती प्रियतम सम्मुख खड़े हैं । वह अपना एकाकीपन भूल जाती है प्रेम की विह्वलता में पंकिल मार्ग की दुर्गमता से डर कर कल्पनागत प्रियतम को अपना हाथ पकड़ाने लगती है । ऐसी परिस्थिति में उसके गिर पड़ने की सम्भावना को लक्षित कर सहेली उसे सतर्क कर रही है । १४. उच्छंगिआए पइणा अहिसारणपंकमलितपेरते । आसण्णपरिक्षणों विअ सेअ चिचअ धुवइ से पाए ॥७६१ ॥ उत्सङ्गिकया (?) पत्याऽभिसारणपङ्कमलिनपर्यन्तो । आसन्नपरिजन इव सेक एव धाव्यति तस्याः पादौ ॥ “ अभिसार के समय पंक से ( पैर के ) मलिन होने के कारण पति द्वारा गोद में उठा ली गई उसके पैर को स्वेदजल ने समीप के परिजन की भाँति धो दिया । " इसकी संस्कृतच्छाया शुद्ध नहीं है । प्रश्नचिह्नांकित तृतीयान्त 'उत्सङ्गिकया' के स्थान पर षष्ठ्यन्त 'उत्सङ्गितायाः ' होना चाहिये, तभी 'तस्याः' से अन्वय सम्भव हो सकेगा । 'धुवइ' का संस्कृत रूपान्तर 'धावति' है, धान्यति नहीं । रहा है । 'पैर' के 'उठा ली गई' का षष्ठी विभक्ति 'के' अनुवाद की अपरिमार्जित भाषा अनुवादक का अभिप्र ेत अर्थ व्यक्त करने में अक्षम है । " गोद में उठा ली गई" का अन्वय पैर से हो लिये 'उठा ली गई' - यह लिखना व्याकरण - विरुद्ध अन्वय 'उस' से भी सम्भव नहीं है क्योंकि उक्त सर्वनाम में विद्यमान है । गुणीभूत षष्ठयन्त पद जिससे स्व-सम्बन्ध सूचित करता है उसके अतिरिक्त किसी अन्य से अन्वित नहीं हो सकता । यदि 'उस' के स्थान पर 'वह' रहता तो 'उठा ली गई' का अन्वय नायिका से हो जाता, परन्तु उस दशा में एक अन्य समस्या खड़ी हो जाती, नायिका से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने के कारण बेचारे पैर कहीं के न रह जाते । समाज में गृह सेवक द्वारा नवागत अतिथि का पैर धोने की परम्परा प्रचलित है । अभिसारिका तरुणी पंकपूर्ण मार्ग में चलती हुई संकेतस्थल पर प्रेमी से मिलने आई है । इस निर्जन में न गृह है, न गृहसेवक । अतः उसके पंकिल चरणों को उसी का प्रस्वेद निकटस्थ सेवक के समान धो देता है । स्वेदोद्गम प्रणय का एक सात्त्विकभाव है । यहाँ तात्पर्य यह है - प्रेमी का आंगिक संस्पर्श पाकर तरुणी पसीने से इतना तर हो गई कि उसके चरणों का पंक स्वयमेव धुल गया । है यहाँ अभिसारिका के प्रसंग में नायक के लिये पतिशब्द का प्रयोग अनुचित है क्योंकि, उससे मिलने के लिये न संकेतस्थल की आवश्यकता है, न अभिसार की। पति तो गृह में ही सुलभ रहता है। तरुणियाँ प्रच्छन कामुकों से मिलने । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण के निमित्त ही अभिसार करती हैं ( घार से बाहर किसी पूर्व निश्चित स्थान पर जाती हैं।) _ अतः उक्त अनौचित्य-दोष का परिहार करने के लिये गाथा को निम्नलिखित प्रसंग में पढ़ना चाहिए उक्त तरुणो का पति एक प्रमान्ध युवक था। वह अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करता था । परन्तु पत्नी किसी अन्य से प्रेम करती थी और छिप कर उससे मिलने जाया करती थी । उक्त प्रमान्ध युवक इस रहस्य को नहीं जानता था । एक दिन उसकी पत्नी अपने गुप्त प्रेमी से मिल कर लौटो तो संयोग से बाहर गया हुआ उसका पति लौट चुका था। उसने प्रिया को देखते ही प्रेमविह्वल होकर गोद में उठा लिया। पत्नी के पैरों में पंक लगा था। वह रहस्य खुल जाने से भयभीत हो गई । मारे डर के पसीना आ गया। उसी पसीने से पैरों का पंक धुल गया । प्रस्वेदातिरेक प्रणय और भय-दोनों में होता है। १५. ओवालअम्मि सोआलुआण वइमूलमुल्लिहंताणं । डिभाण कलिंचयवावडाण सुण्णोजलइ अग्गी ॥७६४॥ वटीप्रान्ते शीतालूनां वृतिमूलमुल्लिखताम् । डिम्भानां क्षुद्रधनव्यापूतानां शून्यो ज्वलत्यग्निः ।। "जाड़े से कुडकुड़ाये बालक धेरे को उखाड़ने और ईधन इकट्ठा करने में लग गए हैं, आग""में केवल जल रही है।" ‘ओवालअम्मि' का अर्थ न दे सकने के कारण यह अनुवाद अपूर्ण है। उक्त शब्द संस्कृत अपद्वारक ( घर के पीछे का द्वार ) का प्राकृत रूप है।' र और ल के अभेद के कारण ( रलयोरभेदात् ) 'ओवालअ' हो गया है। संस्कृतच्छाया में 'वाटीप्रान्ते' के स्थान पर 'अपद्वारके' होना चाहिये । १६. मा मा मुय परिहासं देअर ! अणहोरणा वराई सा। सोअम्मि वि पासिज्जइ पुणो वि एसि कुणसु छायं ॥७६४।। मा मा मुञ्च परिहासं देवर ! अप्रावरणा वराकी सा। शीतेऽपि प्रस्विद्यति पुनरपि अस्यां कुरु छायाम् ।। __"हे देवर ! मत , मत, मजाक छोड़ ! बेचारी के पास ओढ़नी नहीं है, सर्दी में भी पसीजती जा रही है, फिर भी इस पर छाया कर ।" उपयुक्त अनुवाद के पश्चात् विमर्श में यह लिखा गया है-"प्रौढा-द्वारा भावज के कामुक नायक पर व्यंग्यपूर्ण उपालम्भ ।" १. अप >ओ, द्वारक>वारअ = जो ओवार । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती यह उल्लेख नितान्त असंगत है क्योंकि नायक को देवर कहकर सम्बोधित करने वाली कोई प्रौढा नहीं, स्वयं उसी की भाभी है । वह अपने से भिन्न किसी अन्य प्रावारक-रहित प्रस्विन्न कलेवरा कामिनी पर छाया करने के लिये देवर से आग्रह कर रही है । वस्तुतः गाथा का प्रसंग इस प्रकार है नायक ने परिहास में किसी तरुणी का उत्तरीय ( दुपट्टा ) छीन लिया है। वह पसीने-पसीने हो रही है। नायक की भाभी दोनों का गुप्त प्रणय-सम्बन्ध ताड़ कर कहती है—देवर ! अब परिहास मत करो, तुमने एक बार उसका दुपट्टा छीन लिया तो उसे जाड़े में भी पसीना आ गया है। अतः इसके ऊरप फिर से छाया (छाँह ) कर दो । अर्थात् अपने ही हाथों से पुनः उसके अंगों को दुपट्टे से आच्छादित कर दो। वह इतने से ही कृतार्थ हो जायेगी। यहाँ छाया का व्यंग्यार्थ कृपा है। १७. किं तस्स पारएणं किमग्गिणा कि च गन्भहरएण । जस्स णिसम्मइ उअरे उपहायतत्थणी जाया ? ॥७६६॥ किं तस्य पारदेन किमग्निना किं च गर्भहरकेण । यस्य निशाम्यति उदरे उष्णायतस्तनी जाया ॥ ___ "जिसकी छाती पर गरम और फैले स्तनों वाली जाया विश्राम करती है उसे पारे ( ? ) से क्या, अग्नि से क्या और मच्छरदानी ( ? ) से क्या ?" ___ यह अनुवाद उपहासास्पद है। अनुवादक ने अनेक शब्दों के सन्देहात्मक अर्थों पर स्वयं प्रश्नचिह्न लगा कर इसकी प्रामाणिकता के प्रति अविश्वास व्यक्त किया है । गाथा की संस्कृतच्छाया नितान्त अपभ्रष्ट है। उसमें अनेक अनर्गल शब्द अनुप्रविष्ट हो गये हैं। पूर्वार्ध में ऐसे शीत-निवारक उपादानों का वर्णन प्रासंगिक होगा जिनकी उपयोगिता तरुणी के पीनोष्णपयोधरों के कारण समाप्त हो जाती है। पारद और मच्छरदानी से शीत का निवारण नहीं हो सकता । अतः ये शब्द यहाँ अनर्थक हैं । शुद्ध संस्कृतच्छाया यह है किं तस्य प्रावारकेण किमग्निना किञ्च गर्भगृहकेण । यस्य निषीदति उदरे उष्णायतस्तनी जाया ।। शब्दार्थ-गर्भगृह = गृह का भीतरी भाग । णिसम्मइ = (नि' + सेद् = निषीदति ) = बैठती है या सोती है ( पाइयसद्दमहण्णवो )। प्रावारक = दुपट्टा गाथा का शुद्ध अर्थ यह है जिसके पेट पर उष्ण और आयत ( विस्तृत ) स्तनों वाली पत्नी शयन १. देखें-पाइयसद्दमहण्णव । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण १७ करतो है उसे (जाड़े से बचने के लिये) दुपट्टे की क्या आवश्यकता है और क्या आवश्यकता है गृह के भीतरी भाग की ? ( जहाँ छिप जाने पर शीत का प्रभाव कम हो जाता है।) १८. उवइसइ लडियाण कड्ढेइ रसं, ण देइ सोत्तुं जे। जंतस्स जुव्वणस्स य ण होइ इच्छु चिचय सहावो ॥७६९॥ उपविशति ललितानां कर्षयति रस न ददाति श्रोतुं च । यन्त्रस्य यौवनस्य च न भवति इक्षरिव स्वभावः॥ "गाथार्थ अस्पष्ट ।" "विमर्श-ललितों का उपदेश करता है, रस काद लेता है, सुनने नहीं देता, यन्त्र और यौवन का स्वभाव"।" प्रस्तुत गाथा में श्लिष्ट विशेषणों के माध्यम से प्रस्तुत और अप्रस्तुत-दोनों के साधर्म्य एवं वैधयं का एक ही साथ प्रतिपादन होने के कारण आर्थिक जटिलता आ गई है। यहाँ यन्त्र ( कोल्हू ) और यौवन प्रस्तुत ( उपमेय ) है। इक्षु ( ईख ) अप्रस्तुत ( उपमान ) है । तीनों की समानता और असमानता का आधार शाब्दिक है । कोई तरुणी कह रही है कि यौवन और यन्त्र ( कोल्हू ) का स्वभाव इक्षु के समान नहीं होता। उपलब्ध संस्कृतच्छाया से न तो श्लिष्ट पदों की पहचान सम्भव है और न तीनों पक्षों के अर्थ ही समझ में आ सकते हैं । अतः प्रकरणानुसार संस्कृतच्छाया का स्वरूप यह होगा उपविशति ( उपदिशति ) कर्षति (कर्षयति ) रसं न ददाति श्रोतु (स्वप्तु, स्रोतु) एव। __ यन्त्रस्य यौवनस्य च न भवति इक्षुरिव स्वभाव ॥ शब्दार्थ प्राकृत संस्कृतरूप अर्थ उपइसई १. उपविशति ( यन्त्रपक्ष बैठता है, स्थित होता है । २. उपदिशति ( यौवनपक्ष ) सिखाता है । ३. उपविशति (इक्षुपक्ष ) प्रवेश करता है। लडिय ___ ललित-( यन्त्रपक्ष) १. सरल कोमल ( यौवनपक्ष ) २. शृंगारिक चेष्टा विशेष ( इक्षुपक्ष ) ३. प्रिय, सुन्दर १. धात्वर्थ बाधते कश्चित् कश्चित्तमनुवर्तते । विशिनष्टि तमेवार्थमुपसर्गगतिस्त्रिधा ।। के अनुसार उपसर्ग उप + विश् के ही अर्थ का अनुवर्तन करता है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती १. स्वप्तुम् ( यन्त्रपक्ष ) सोने २. श्रोतुम् ( यौवनपक्ष ) सुनने ३. स्रोतुम् ( इक्षुपक्ष ) टपकने १-(यन्त्रपक्ष ) ईख का द्रव २-( यौवन पक्ष ) आनन्द . ३-( इक्षुपक्ष ) ईख का रस कड्ढे ३ कर्षति, कर्षयति १-खींचता है, खिंचवाता है । अर्थ-यन्त्र ( कोल्ह ) और यौवन ( युवावस्था) का स्वभाव इक्षु ( ईख ) के समान नहीं होता है क्योंकि यन्त्र एक स्थान पर बैठता है ( भूमि में भड़ा होने के कारण वहीं अवस्थित रहता है । ) कोमल इक्षुओं का रस (द्रव ) निकाल लेता है तथा ( ईख की पेराई रात में होने के कारण) सोने नहीं देता। इसी प्रकार यौवन भी शृंगार की ललित चेष्टाओं का उपदेश देता है, ( शिक्षा देता है ? ) रस निकालता है (आनन्द लेता है ) और ( किसी की शिक्षापूर्ण बातें ) सुनने नहीं देता। जबकि इक्षु ( कोल्हू में ) प्रवेश करता है ललितों (प्रियजनों ) के लिये रस निकलवा देता है और उस ( रस को ) व्यर्थ टपकने नहीं देता ( दूसरों के लिये अपने भीतर सँजो कर रखता है । ) । १९. बहुएंहिं जंपिएहि सिटें अम्ह सवहे करेऊण । सदो च्चिय से भद्दो भोइणिजते रसो पत्थि ॥६७०॥ बहुकैर्जल्पितैः कथितं स्मः शपथं कृत्वा । शब्द एव तस्या भद्रो भोगिनीयन्त्रे रसो नास्ति । "बहुत मजदूरों ने शपथ करके कहा है कि सेठानी की मशीन में आवाज ज्यादा है, रस कुछ भी नहीं।" । यह अनुवाद तो ठीक है परन्तु गाथा की संस्कृतच्छाया अशुद्ध है। 'कथितं स्मः इस प्रयोग में यदि 'स्मः' अस् धातु के उत्तम पुरुष का बहुवचन है तो उसके साथ 'कथितम्' का अन्वय व्याकरण-विहित नहीं है। मूल में 'अम्हे' पद 'स्म' का प्राकृत रूप नहीं है । वह अस्मद् का षष्ठयन्त रूप है और अस्माकं के अर्थ में प्रयुक्त है। 'सवहे' द्वितीया का बहुवचन है। संस्कृत में उसका रूपान्तर 'शपथान्' होगा । 'से' की संस्कृतच्छाव्या 'तस्याः ' की गई है। वह भी वाक्य में शब्दों की स्थिति को देखने पर उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि 'स्त्रीलिंग तस्याः तत्पुरुषसमास के अवयवभूत अप्रधान भोगिनी शब्द से अन्वित नहीं हो सकता है। समस्त पद भोगिनीयन्त्र में प्रधानता यन्त्र शब्द की है। उसके अनुसार 'से' की संस्कृतच्छाया तस्य होनी चाहिये । 'से' का प्रयोग दोनों लिंगों में विहित Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण १९ है । भोइणी का सेठानी अर्थ उचित नहीं है । पाइसद्दमहण्णव के अनुसार उसका अर्थ ग्रामाध्यक्ष की पत्नी है । भोइणी देशी शब्द है । संस्कृत योगिन् शब्द से भी विलासिनी के अर्थ में स्त्रीलिंग भोगिनी ( भोइणी ) को सम्बद्ध किया जा सकता है । 'बहुकैर्जल्पितः = कथितम्' - में जल्पस और कथन – इन दो समानार्थक क्रियाओं का प्रयोग उचित नहीं है । संख्यावाचक विशेषण 'बहुक:' किसी संख्येय विशेष्य की अपेक्षा रखता है । वाक्य में कोई कर्ता भी नहीं है । अतः बहुकैः विशेषण के द्वारा जिसे विशेषित किया गया है उस कर्तृपद को ढूँढ़ना आवश्यक है । गाथा के पाठान्तर में 'जंपिएहि' के स्थान पर 'जंतिएहि ' भी दृष्टिगत होता है । इस तृतीयान्त जंतिएहि ( यान्त्रिक:कोल्हू चलाने वालों के द्वारा ) का कर्ता के रूप में 'कथितम्' क्रिया से तो अन्वय हो ही जायेगा बहुकैः विशेषण से भी सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा । 'जंतिएहि ' का लिपिभ्रंश से जंपिएहि हो जाना स्वाभाविक है । संस्कृतच्छाया इस प्रकार होनी चाहिये बहुकैर्यान्त्रिकै कथितमस्माकं शपथान् कृत्वा । शब्द एव तस्य भद्रो भोगिनीयन्त्रे रस नास्ति ॥ सिसिरे वनदवडड्ढं वसंतमासम्मि उअह संभूयं । कंकुसकण्णसरिच्छं दोसइ पत्तं पलासस्स ।। ७७५ ॥ "देखो, शिशिर में जंगल की आग से जला और वसन्त के महीने में पैदा हुआ पलाश का पत्ता कंकुस ( ? ) के कान जैसा दीखता है ।" यहाँ प्रश्नचिह्नांकित कंकुस का अर्थ नेवला ( नकुल ) हैं । fare दिअहे णिass गिहवइधूआ सिणेह माउच्छा । संगहाइ त्ति वावउ वसहारा खुज्जसहआरे ॥ ७७९ ॥ "गाथार्थ अस्पष्ट | " प्रथम पाद में आर्थिक अस्पष्टता के कारण प्रस्तुत गाथा का अनुवाद नहीं किया गया है संस्कृतच्छाया भी नहीं दी गई है । मूलपाठ विकृत हो गया है। 'frass' और द्वितोय पाद में 'सिणेह' को उपस्थिति गाथा को अस्पष्ट बना देती है । लिपिदोष से ड का इ और चि का सि हो जाना बहुत ही स्वाभाविक है | यदि 'सिणेह' के स्थान पर चिणेउ' और 'माउच्छा' के स्थान पर आउच्छा ( आतुच्छा ) कर दें तो चिणेउमाउच्छा ( चेतुम् आतुच्छा = आ समन्ताद् तुच्छा, सब प्रकार से तुच्छ, ओछो ) हो जायेगा । इससे गाथा सार्थक हो जायेगी । संगहण क्रिया संस्कृत संग्रह, जाति के प्राकृतीकरण से बनो है । गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगी - " Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती दिवसे दिवसे निपतति गृहपतिदुहिता चेतुमातुच्छा । संग्रहनति इति व्याप्नोतु वसुधारा कुब्जसहकारे ॥ वसुधारा का अर्थ है – आकाश से होने वाली स्वर्णवृष्टि । ( देखें --- पाइयसद्दमहण्णव ) गाँव से दूर निर्जन में गृहपति ने आम का एक वृक्ष लगाया था । पीले-पीले प आम गिर रहे थे । गृहपति की पुत्री फल लाने के ब्याज से उसी वृक्ष के नीचे अपने गुप्त प्रेमी से मिला करती थी । प्रेमी ने सोचा - अन्य लोग भी आम लोभ से यहाँ आ सकते हैं और मेरे प्रणय- व्यापार में बाधा पड़ सकती है । अतः वह गाँव के लोगों को रोकने के लिये सबको सुनाकर कह रहा हैगृहपति की तुच्छ पुत्री प्रत्येक दिन ( आम ) इकट्ठा करने के लिये आ धमकती है और ( मुझे ) पकड़ लेती है । आकाश से होने वाली स्वर्णवृष्टि आम के कुबड़े (नाटे) वृक्ष पर व्याप्त हो जाये । ( मुझे उससे कुछ लेना-देना नहीं है ) । 상 २० वक्ता व्यंजक शब्दों के द्वारा यह ध्वनित कर रहा है कि गृहपति की पुत्री बहुत ही तुच्छ प्रकृति की है । आमों को सोना समझती है। एक-एक आम पर टूट पड़ती है । मैं स्वयं उसके द्वारा कई बार पकड़ा जा चुका हूँ । अतः तुम लोग वहीं मत जाना । यदि जाओगे तो अपमान ही हाथ लगेगा । गाथा के प्रत्येक पद में विलक्षण व्यंजकता है । गृहपति पुत्री में 'गृहपति' से प्रभुत्वातिशय जनित आतंक, 'आतुच्छा' से औदार्य का अभाव, 'निपतति' से त्वरा, लोभ, कार्पण्य और क्रोध, 'दिवसे दिवसे' से सतत सतर्कता और 'संग्रह जाति' से मोक्षण दौर्लभ्य अभिव्यक्त होता है । एक ओर कुब्ज शब्द फलों के अनाधिक्य की सूचना देकर अनाकर्षण व्यंजित करता है तो दूसरी ओर व्याप्नोतु क्रिया के गर्भ में जो उपेक्षा भाव है वह पूर्वानुभूत अपमान एवं संग्रहण ( पकड़ा जाना ) की प्रतीति के साथ इतरजन गमन प्रतिषेध में जाता है । 'वसुधारा' में यह ध्वनि अन्तर्निहित है कि गृहपति की लालची है कि भूमि पर गिरते हुये पीले पके आमों को आकाश से होने वाली असंभावित सुवर्णवृष्टि के समान महार्ह एवं अपरिहेय समझती है, अतः फल याचनार्थं भी वहाँ मत जाओ । ग्रह, घातु में विद्यमान सम् उपसर्ग की व्यंजना तो सर्वातिशायिनी है । वक्ता उसके माध्यम से इंगित कर रहा है कि यदि कभी गृहपति की पुत्री के साथ मेरा अतिशय शरीर-संयोग देखना तो समझ लेनामैं आमों की चोरी में पकड़ा गया हूँ और छटने के लिये मल्लयुद्ध कर पर्यवसित हो पुत्री इतनी रहा हूँ । वसुधारा पद में साध्यवसाना लक्षणा है । 'चन्द्रो हसति' (चन्द्रमा हँसता है) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण के समान यहाँ उपमेय के स्थान पर उपमान का प्रयोग किया गया है। इससे आमों के पोतवर्ण, परिपक्वत्व और अदेयत्व की प्रतीति होती है । इस प्रकार अस्पष्ट होने के कारण अब तक उपेक्षित पड़ी हुई यह प्राकृत गाथा ध्वनिकान्य का अप्रतिम निदर्शन सिद्ध होती है। उड्डियपासं तणछण्णकंदरं णिहुअसंठियावक्खं । जूहाहिव ? परिहर मुहमेत्तसरीयं कल... ॥ ७८१ ॥ "गाथा भ्रष्ट और त्रुटित है।" इस अपरिस्फुट और परित्यक्त गाथा का अर्थनिरूपण करने के पूर्व त्रुटित पाठ को जोड़ना परम आवश्यक है । चतुर्थ पाद में छः मात्राएं कम हैं। उपलब्ध पाठ में किसी जूहाहिव ( यूथाधिप ) को सम्बोधित किया गया है और उसके साथ अनुज्ञार्थक क्रिया 'परिहर' दी गई है। यदि यूथाधिप को गजयथाधिप मानते हैं तो परिहर क्रिया के कर्म के लिये उपलब्ध द्वितोयान्त पद 'मुहमेत्तसरीयं पर निर्भर होना पड़ता है। अतः सर्वप्रथम इसो का अर्थ समझने का प्रयास करते हैं। 'सरोयं कोई सार्थक पद नहीं है । यदि स पर इ की मात्रा लगा देते है तो सार्थक शब्द सिरीयं (श्रोकं ) बन जाता है। इस प्रकार एक समस्त पद 'मुहमेत्तसिरीयं' (मुखमात्रे वदनमात्रे श्रो=कान्तिर्यस्य =जिसके मुख मात्र में कान्ति शेष रह गई है ) को उपलब्धि होती है। अब इतना अर्थ स्पष्ट हो जाता है हे यथाधिप ! जिसके मुखमात्र में कान्ति ( श्री ) शेष रह गई है उसे छोड़ दो। इस आंशिक अर्थोपलब्धि में विशेष्य का अभाव है। आगे के वर्णन में केवल क शेष बचा है। अतः अनुमित होता है कि विलुप्त विशेष्य का प्रथमाक्षर क है। यदि क के पश्चात् लहं और जोड़ देते हैं तो मुहमेत्तसिरीयं ( मुखमात्रयोक) का आधारभूत विशेष्य कलह ( कलभं) शब्द उपलब्ध हो जाता है। यह निसर्गतः जहाहिव ( यूथाधिप ) से सम्बन्धित हैं और परिहर क्रिया का कम भो हो सकता है । इस प्रकार छः मात्राओं में से तीन को पूर्ति हो जाती है। विशेष्य की प्राप्ति के पश्चात् अब हमें केवल विशेषण को आवश्यकता है। यदि कलहं ( कलमं ) के पश्चात् चतुर्मात्रिक विशेषण अट्ट ( आतं ) रख देते हैं तो कलहं का अनुस्वार अग्रिम अट्ट के अकार से मिलकर मकार के रूप में परिणत हो जाता है और बढ़ी हुई एक मात्रा कम हो जाती है। इस प्रकार 'कलहभ,' के द्वारा गाथा का विकलांगत्व तो दूर हो जाता है । परन्तु पूर्वार्ध में किंचिद् वैरूप्य की निवृत्ति शेष रह जाती है। इसके लिये 'तणच्छण्णकेदरं' ( तृणधन्नकन्दरं ) को 'तणघण्णकंधर' ( तृणच्छन्नकन्धर ) पढ़ना होगा क्योंकि कलभ-कलेवर-वर्णन में कन्दरा नहीं कन्धरा (गर्दन ) की ही सार्थकता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथसप्तशती परिमार्जित गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगी - कलभमार्तम् ॥ ] [ उत्क्षिप्तपाश्र्ध्वं तृणच्छन्नकन्थरं निभृत संस्थितावक्षसम् । यूथाधिप ! परिहर मुख मात्र श्रीकं एक रुग्ण एवं मुमूषु कलभ ( हाथी का बच्चा ) पृथ्वी पर पड़ा है। उसके झुंड का नायक गजेन्द्र अन्तिम क्षणों में उसे छोड़ कर नहीं जा रहा है। उसके प्रति किसी सहृदय की उक्ति है । २२ अर्थ --- हे यूथाधिप ! जिसका पार्श्व ( शरीर के बगल का भाग ) ऊपर उठ गया है, जिसका कन्धा तृणों से आच्छादित हो चुका है, जिसका आवक्ष ( छाती तक ) शरीर निचेष्ट ( निभृत ) है तथा जिसके मुख मात्र में ही श्री ( कान्ति) शेष रह गई है उस आर्त ( रोग ग्रस्त ) कलभ को त्याग दो । प्रस्तुत गाथा अप्रस्तुत प्रशंसा-शैलो में यूथाधिप व्याज से म्रियमाण पुत्र के मोहपाश में आबद्ध किसी गृहस्थ पुरुष का संकेत करती है । चउपासहिण्ण हुयवहविसमाहः हवेढणापिउलं । णिव्वाहेउ जाणइ जूहं जूहाहिवो च्चेव ॥ ७८४ ॥ "चारों तरफ से उत्पन्न अग्नि के विषय में पड़े व्याकुल यूथ को यूथाधिप ही निकालने का ढंग जानता है ।" उपर्युक्त संक्षिप्त अनुवाद केवल पूर्वार्ध के कतिपय पदों और उत्तरार्धं के वर्णन पर अवलम्बित है। न तो त्रुटित पाठ के पूरण का प्रयास किया गया है और न विकृत वर्णाकृति का निवारण । द्वितीय पादस्थ हः प्राकृत की प्रकृति के प्रतिकूल होने के कारण सर्वथा हेय है । यदि 'हवेढणा पिउल' में अवस्थित प्रारम्भिक हकार को समूह शब्द का अन्तिम अवशिष्ट भाग स्वीकार कर लेते हैं। तो समूहवेढणा पिडलं ( समूहवेष्टनापिचुलम् ) - यह एक सार्थक पद संहति बन जाती है । अब समूह के पूर्व समुह्यमान वस्तु का भी निर्देश आवश्यक है। प्रथम पादगत 'हुयवह' ( हुतवह = अग्नि ) को सन्निधि से ज्ञात होता है कि उक्त वस्तु अग्नि से सम्बद्ध ही होगी । ऐसी वस्तु का वाचक शब्द अच्चि ( अच ) है । यदि विषम और समूह के मध्य में अच्चि शब्द और जोड़ देते है तो गाथा का आंगिक वैकल्य दूर हो जाता है । गाथा की संस्कृतच्छाया यह है चतुष्पार्श्व भिन्न हुतवहविषमार्चिर्वेष्टनापिचुलम् । निर्वोदु जानाति यूथं यूथाधिप एव ॥ शब्दार्थ - भिन्न = लगी हुई । पिचुल = रूई अर्थ - चारों पावों में लगी आग की विषम अचियों ( लपटों ) के समूह Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण को लपेट में जो रूई बन गया है (रूई के समान जल रहा है । ) उस यूथ ( झण्ड) को निकाल ले जाना यथाधिप ( प्रमुख गज) ही जानता है। ___यहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा में प्रयुक्य यथाधिप शब्द किसी संकटापन्न जनोद्धारक शूर का प्रतीक है। अल्लग्गकवोलेण वि गयमइणा पत्तदसावसणम्मि । अज्ज वि माए सणाहं गयवइजूहं धरतेण ॥ ७८५ ॥ प्रस्तुत गाथा का अर्थ अस्पष्ट बताया गया है । न तो इस की संस्कृतच्छाया है और न अनुवाद । द्वितीय पाद में लिपिभ्रंश के कारण 'गयवइणा' के स्थान पर गयमइणा हो गया है । इसकी संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी आग्रकपोलेनापि गजयतिना प्राप्तदशाव्यसने । अद्यापि मातः सनाथं गजपतियूथंध्रिगमाणेन ॥ ( जीवता) गाथा अप्रस्तुत प्रशंसा-शैली में गजपति के प्रतीक द्वारा एक ऐसे प्रथितपराक्रम ग्राम्यपाल का वर्णन करती है जो आजीवन ग्रामवासियों की रक्षा करते. करते अतिवृद्ध हो चुका है, परन्तु उसके कारण अब भी लोग अपने को पूर्ण सुरक्षित समझते हैं। गाथार्थ-हे मां! वृद्धावस्था (आर्ह हुई दशा आप्ता दशा) के व्यसन ( संकट ) में भी जिसके कपोल का अग्रभाग ( मद से ) आई हैं उस जीवित गजेन्द्र ( गजपति ) के द्वारा आज भी गजों का झुण्ड सनाथ है। यह किसी ग्राम्या का कथन है । गामम्मि मोहणाई दिण्णे खग्गे व्व चोरहित्थाई । गहव इणो णामेणं कियाइ अण्णण वि जाणेण ॥ ७८७॥ "तलवार-अस्पष्ट ॥ ७८७" । इस गाथा की भी अस्पष्टता का उल्लेख किया गया है । न अनुवाद है; न संस्कृतच्छाया । सम्पादक के अनुसार इसमें तलवार का वर्णन है, परन्तु यह उसका भ्रममात्र है, क्योंकि, खग्ग ( तलवार ) के अनन्तर सम्भावना-द्योतक व्व निपात के प्रयोग से उस (खग्ग ) का अप्रकृत होना निश्चित है । कवि का वर्ण्यविषय अप्रकृत नहीं, प्रकृत होता है। अतः उद्धृत गाथा का वर्ण्यविषय कुछ और ही वस्तु होगी जिसमें 'खग्ग' को सम्भावना को गई है। "दिणे', 'खग्गे' और 'गामम्मि'-इन तीनों पदों में समासनिमुक्त या समासयुक्त अवस्था में पारस्परिक विशेषण-विशेष्य-भाव सम्भव नहीं है । ये ऐसी उपमा के अंगभूत उपमान भी नहीं हो सकते क्योंकि उत्तरार्ध में कोई भी प्रकृतभूत सप्तम्यन्त पद नहीं है । उत्तरार्धगत तृतीयान्त जणेण पद निष्ठान्तक्रिया कियाइ का कर्ता है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो उसके साधन या करण के रूप में तृतीयान्तपद 'नामेणं' आया है। यदि साधनरूप 'खग्ग' को साधनरूप, णामेणं का उपमान मानते हैं तो अन्वय के लिये 'खग्ग' में भी णाम के समान तृतीया विभक्ति आवश्यक हो जाती है। अतः पदान्विति के लिये :दिण्णे नग्गे व्व' के स्थान पर दिण्णखग्गेण व ( दत्तखड्गेनेव ) पाठ समीचीन ठहरता है । चतुर्थपादगत 'हित्थ' की प्रसंगानुकूल व्याख्या सम्भव नहीं है । यदि 'हित्थ' में 'हि' के स्थान पर स रख देते हैं तो सत्थ शब्द बन जाता है । यह प्रसंगानुकूल अर्थ भी देता है। अतः गाथा को इस प्रकार पढ़ना होगा गामम्मि सोहणाई दिण्णखग्गेण व चोरसत्थाई। गहवइणो णामेणं कियाइँ अण्णण वि जणेण ।। संस्कृतच्छाया यह होगी ग्रामे मोहनानि दत्तखड्गेनेव चौरस्वस्थानि । गृहपतेनम्निा कृतान्यन्येनापि जनेन ॥ अन्वय-गृहपतेर्नाम्ना दत्तखड्गेनेव अन्येनापि जनेन ग्रामे मोहनीय चौरस्वस्थानि कृतानि । प्रसंग-किसी ग्राम का प्रचंड शर एवं प्रतापी गृहपति दिवंगत हो चुका है, फिर भी उसके नाम का आतंकपूर्ण प्रभाव अब भी शेष है। वह ग्रामवासियों को खड्ग ( तलवार ) के समान अपना विश्रुत नाम देकर मरा है । साधारण मनुष्य भी उसका नाम लेकर दस्युओं को भगा देता है । इस प्रकार दस्युमुक्त वातावरण में तरुणियां निर्भय होकर रतिकोड़ायें करती रहती हैं। उनके रमणकाल में आक्रान्ताओं का भय नहीं रहता। अर्थ-गृहपति के नाम से अन्य जन्य ने भी ग्राम में (तरुणियों के ) रमण (मोहन ) चोरों से स्वस्थ ( भयमुक्त ) कर दिया है, मानो उसे ( नाम के रूप में ) तलवार दे दी गई है। मलिनाई अंगाई बाहिरलोएण मंसलुद्धण । हिययं हियएण विणा ण वेइ वाही भमइ हटें ॥ ७८८॥ [ मलिनांन्यङ्गानि बाह्यलोकेन मांसलुब्धेन । हृदयं हृदयेन विना न ददाति व्याधी भ्रमति हाटम् ॥] उपयुक्त संस्कृतच्छाया में हाटम् के स्थान पर हट्टं होना चाहिये। इस गाथा का अनुवाद यों किया गया है "बाजार-व्याध की स्त्री के अंग मलिन हैं, बाहर के मांस-लोभी लोगों को वह हृदय के बिना हृदय नहीं देती और बाजार में घमती है।" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण उपयुक्त अनुवाद के सम्बन्ध में अनुवादक ने 'विमर्श' में यह लिखा है"विमर्श-वेबर के अनुसार इस गाथा का अर्थ ठोक नहीं लगता।" इससे विदित होता है कि प्रस्तुत गाथा की आर्थिक विसंगति का अनुभव पाश्चात्य विद्वान् वेबर ने भी किया था। अनुवादक के द्वारा बाजार को गाथा का प्रतिपाद्य विषय मानना अयुक्त है । वस्तुतः विलक्षण लावण्यवती व्याधी का ही वर्णन कवि को अभिप्रेत है। 'वाहिरलोएण मंसलुद्धण' का अर्थ 'बाहर के मांसलोभी लोगों को' करना प्राकृत व्याकरण की अनभिज्ञता का द्योतक है। उक्त वर्णन अंगमालिन्य का साधक है । गाथा के पूर्वार्ध का अन्वय इस प्रकार होगा-मंसलुद्धण बाहिरलोएण अंगाई मलिणाई। ( मांसलुब्धेन बाह्यलोकेन अङ्गानि मलिनानि अर्थात् मांस के लोभी बाह्य लोगों ने अंगों को मलिन कर दिना है । ) गाथा में एक ऐसी सुन्दर व्याध-तरुणी का वर्णन है जो बाजार में निर्भय घूमती है, परन्तु किसी लम्पट के चंगुल में नहीं फंसतो। वह अपने अंग तो दूसरों को यह कहकर नहीं सौंपती है कि ये तो मांसलोभी बाहरी लोगों के द्वारा दूषित हो चुके हैं। इनका स्पर्श भी सम्भ्रान्त पुरुषों के लिये निन्दनीय है। रह गया हृदय। उसे भी वह किसी को तभी देने के लिये तत्पर है जब उसके बदले हृदय (सच्चा हादिक प्रेम) प्राप्त हो। न कोई हृदय देने वाला सच्चा प्रेमी मिल रहा है और न वह किसी के वश में हो रही है । निर्भय होकर बाजार में घूमती रहती है । इस प्रकार उसे क्षणिक वासना-पूर्ति के लिये पाखंड-पूर्ण प्रणय का नाटक रचने वाले शील विच्युत एवं लोलुप नरों से आत्मरक्षा का अनुपम उपाय मिल गया है। गाथा में अंगानि ( अंगाई) और हृदयं (हिययं )-दोनों का अन्वय ददाति ( देइ) क्रिया से है। कढिणरवरवीरपेल्लण हलं व पत्थरविणिग्गयग्गिकणे । धचलोआयरियवहे कसरा वि सुहेण वच्चंति ॥७८९॥ अनुवादक ने इस गाथा को अस्पष्ट कहकर अनूदित नहीं किया है । संस्कृतच्छाया भी नहीं दी है । तृतीय पाद में धवल के स्थान पर धचल हो गया है। प्रथम पाद का पाठ अनर्गल, विकृत और अशुद्ध है। 'कढिण' के पश्चात रवर के स्थान पर, खर और वीर के स्थान पर सीर पाठ होना चाहिये। 'हलं' का अनुस्वार उस पर लगी हुई ए को गलित मात्रा का अवशेष वर्तुल शिरोभाग है क्योंकि आर्थिक दृष्टि से वहां उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। हल शब्द फल का प्राकृतरूप है । गाथा का संशोधित पाठ यह है कढिणरवरसीरपेल्लणहले व पत्थरविणिग्गयग्गिकणे । धवलोआयरियवहे कसरा वि सुहेण वच्चंति ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ संस्कृतच्छाया शब्दार्थ - कठिनरवरसीरप्रेरणफले इव प्रस्तरविनिर्गताग्निकणे । _arraavesधमवृषभा अपि सुखेन व्रजन्ति ॥ धवलापावतपथेऽधमवृषभा गाथासप्तशत सीर हल R धवलापावृत पथे = धवलेन श्रेष्ठवृषभेण अपावृते प्रकाशिते ( अप + आ + वृ = ढकना + क्ते ) पथि मार्गे श्रेष्ठ बैल के द्वारा प्रकटीकृत मार्ग पर । कसर = अधम बैल जो कठिन एवं गाथार्थ - जिस पर पत्थर से अग्नि के कण निकलते थे, प्रखर हल के कर्षण का फल ( परिणाम ) है, श्रेष्ठ वृषभ के द्वारा अपावृत किये गये ( प्रकाशित किये गये ) उस मार्ग पर अधम बैल भी सुख से चलते हैं | गाथा में अन्योक्ति है । छतम्मि जेण रमिया, ताओ किर तस्स चेअ मंदेह । जद्द तीअ इमं णिसुयं, फ़ुट्टइ हिययं हरिसयाए ॥ ७९१ ।। संस्कृतच्छाया -रहित इस गाथा का अनुवाद इस प्रकार किया गया है" ताप - खेत में जिससे रमण किया है उसी का ताप मन्द पड़ रहा है, यदि उसने सुन लिया है सो उसका हृदय हर्ष से फूट पड़ेगा ( ? ) 1" इस अनुवाद का आशय स्पष्ट नहीं है । अनुवादक ने स्वयं इस पर प्रश्नचिहन लगाया है । अत: इसकी प्रामाणिकता के सम्बन्ध में कुछ भी लिखना व्यर्थ हैं । गाथा की संस्कृतच्छाया यों होगी क्षेत्रे येन रमिता तापः किल तस्यैव मन्दायते ? यदि तयेदं निश्रुतं स्फुटति हृदयं हर्षतया ॥ इसके पूर्वार्ध में काकु से आक्षिप्त प्रश्न विद्यमान है ( जैसे तुम जाओगे ? ) वर्तमान कालिक क्रिया 'फुट्टइ' व्यत्ययचश्म ( है ० सू०, ४।४४७ ) के अनुसार भूतकाल का अर्थं देती है । प्रस्तुत छन्द को हृदयंगम करने के पूर्व प्रसक्त प्रकरण का परिज्ञान आवश्यक है । नायिका ने जिस दूती को नायक के निकट सन्देश देकर भेजा था वह उसी ( नायक ) के साथ खेत में नायिका की सखी विपरीत लक्षणा में उस पर व्यंग्य रमण करके लौटी है । कस रही है अर्थ - जिसने खेत में तुम से रमण किया है, क्या उसी का अनंग-संताप Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण २७ मन्द हो रहा है ? यदि उस ( नायिका ) ने इस घटना को सुना होगा तो उसका 'भी' हृदय हर्षातिरेक से फट गया होगा। यहाँ विपरीत लक्षणा से हर्ष का आर्थिक पर्यवसान दुःख में हो रहा है । दुःख और सुख-दोनों के अतिरेक में हृदय फटना लोक प्रसिद्ध है। प्रश्न पुरस्सर तस्यैव पद से यह ध्वनि निकलती है कि तुमने अपने कृत्यद्वारा केवल नायक का ही सन्ताप नहीं कम किया है अपितु नायिका को भी दुःख से मुक्त कर दिया है, क्योंकि इस वृत्तान्त को सुनकर दुःख से हृदय फट जाने के कारण वह मर गई होगी और अहरह उत्पीडित करने वाली मर्मान्तक विरह-वेदना से सर्वदा के लिये छुटकारा पा गई होगी। हिययं णियामि कढिणं" पा हासेण घडियं मे। विरहाणलेण तत्तं, रससित्तं अंतिता फुटह ॥ इसकी न तो संस्कृतच्छाया दो गई है और न इसका अनुवाद ही किया गया है । अनुवादक ने इसे अस्पष्ट घोषित कर छोड़ दिया है । मूल प्राकृत पाठ खंडित और अशुद्ध है । द्वितीय पाद का प्रारंभिक अंश नष्ट हो गया है। उत्तरार्ध के अन्वय में दो शब्द बाधक है-अनुज्ञार्थक बहुवचनान्त क्रिया फुटह और अंतता नियमानुसार जिसका प्रतपन वणित है उसी का स्फोट भी आवश्यक है । अनलताप और रससेक-दोनों का आधार हृदय है । यह शब्द व्याकरणानुसार प्रथम पुरुष एकवचन हैं। अतः अनुज्ञार्थक बहुवचनान्त क्रिया फुटह का मध्यम पुरुष असंगत है । वहाँ प्रथम पुरुष की वर्तमानकालिक क्रिया फटह होगी । लिपि में इ का ह हो जाना स्वाभाविक है 'अंतता' तो स्पष्टतः अन्ततो का विकृत रूप है। " पूर्वार्ध का प्रथम पाद शुद्ध है। गाथा में कढिणं, (कठिनम्) धडियं (घटितम्, तत्तं, (तप्तम्) रससित्तौं (रससिक्तम्)-ये चारों पद हृदय के विशेषण है। इन्हीं विशेषणों की सहायता से खोये हुए पाठ का परिमार्जन संभव है । उत्तरार्घ में तप्त हृदय के रससिक्त होने पर फूट जाने का वर्णन है । इसका कोई कवि कल्पित कारण अवश्य होगा। उसे किसी ऐसी धातु से निर्मित होना चाहिए जो तपने के पश्चात् पानी पड़ने पर फूट जाती हो। पूर्वार्ध में हेतुभूत तृतीया विभक्ति से अनुबद्ध घड़ियं (घटितम) पद हृदय की प्रौढोक्ति सिद्ध संरचना की दिशा में संकेत करता है । प्रथम पादस्थ कढिणं (कठिनम्) पद शब्द में हृदय के काठिन्य का प्रतिपादन है । अतः उसकी रचना किसी कठिन उपादान से होनी चाहिए । 'हासेण' की तृतीया विभक्ति बताती है कि यहाँ कोई हृदय-घटक धातु वाचक शब्द रहा होगा । यदि उपलब्ध पाठ में दूरवर्ती पा को 'हासेण' से संयुक्त करते हैं तो 'पाहासेण' बनता है, यह शक निरर्थक है । यदि 'पाहासेण' में स के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो स्थान पर ण रख देते हैं तो पाहाणेण (पाषाणेण) पद बन जाता है । यह सार्थक हैं और कवि-प्रौढोक्ति-सिद्ध कठिन हृदय की रचना के अनुकूल भी है । यह ऐसा उपादान है जो प्रतप्त होने के पश्चात् रस-सेक से फूट जाता है । यद्यपि इतने से ही पूर्वाधं आर्थिक दृष्टि से संघटित हो जाती है तथापि उसका विकलांगत्व दूर नहीं होता। उसमें पांच मात्राओं की कमी रह जाती है। उनकी पूर्ति के लिये ऐसे शब्दों की आवश्यकता है जिनके साथ आर्थिक तालमेल हो सके । 'मे' पद से स्पष्ट है कि गाथा नायिका की उक्ति है । विरहाणलेण तत्तं (विरहानलेन तप्तम् ) से हृदय की वह पूर्वावस्था सूचित हो रही है जिसमें स्फोट का अभाव है और रससिक्तं (रससिक्तम्) से वह उत्तरावस्था लक्षित हो रही है जिसमें स्फोट अवश्यम्भावी है । नायिका अपने हृदय को उस चरमपरिणति से वचाना चाहती है । अतः यह अनिष्टकर परिस्थिति अवश्य ही किसी अन्य के द्वारा उपस्थित की गई होगी। कोई स्वयं ऐसी घातक परिस्थिति क्यों उत्पन्न करेगा ? संभव है मानवती चिरविरहिणी नायिका को सखी ने सहानुभूति पूर्वक नायक का रसमय संयोग कराने का प्रस्ताव किया हो । यदि ऐसा है तो रिक्त स्थान पर सखी का सम्बोधन होना चाहिए । द्विमात्रिक सम्बोधन सहि ( सखि ) शब्द का निवेश कर देने पर शेष तीन मात्राओं के लिये या तो कोई विशेषण रख सकते हैं या फिर सर्वनाम सर्वनाम अधिक उपयुक्त है, क्योंकि विशेषण साभिप्रायता के अभाव से आंगिक शोथ के समान वैरूपय उत्पन्न कर देता है । यहाँ हृदय के लिए इणं ( इदम् ) सर्वनाम का प्रयोग अधिक व्यंजक होगा । उसमें विरहानलोत्तप्त हृदय को प्रत्यक्ष एवं अनुभवमात्रैकगम्य अवस्था-विशेष को प्रतोति अन्तनिहित हैं। अब खंडित गाथा का अखंडित पाठ यों होगाहिययं णियामि कढिणं सहि! इणं पाहाणेण घडियं मे । विरहाणलेण तत्तं रससित्त अंततो फुडइ ॥ 'फ्डइ' का इकार पदान्त में होने के कारण दोघं पढ़ा जायेगा । यह क्रिया 'वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद्वा' के अनुसार भविष्यकाल का अर्थ देती है । इसकी संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी हृदयं पश्यामि कठिनं सखि ! इदं पाषाणेन घटितं मे । विरहानलेन तप्तं रसासिक्तमन्ततो स्फुटति ॥ प्रसंग-विरहिणी नायिका विछोह सहते-सहते निराश हो गई है। वह समझती है कि मेरा हृदय पाषाण से बना है तथा विरह में तप चुका है। रस (विषयानन्द ) से सिक्त होते ही वह वैसे ही फूट जायेगा जैसे आग में तपाया Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण २९ पत्थर रस (जल) से सिक्त होने पर फूट जाता है । वह अपनी यह आशंका सखी को बता रही है । गाथार्थ - हे सखि ! मैं देख रही हूँ कि मेरा यह कठिन हृदय पाषाण से निर्मित है । यह विरहानल से सन्तप्त है ( तपा हुआ है अतः रस ( स्नेह, जल ) से सिक्त होने पर फूट जायेगा ( क्योंकि पाषाण तपने के पश्चात् पानी पढ़ने पर फट जाया करती है | ) अण्णे ते किल सिहिणो सिणरससेएण हंति विच्छाया । आसाइयरस सेओ होइ विसेसेण णेहजो दहणो ॥७९३ ॥ निर्मित वस्तु आग में [ अन्ये ते किल" शिखिनः रससेकेन भवन्ति विच्छायाः । आसादितरससेको भवति विशेषेण स्नेहजो दहनः ॥ ] " स्नेहाग्नि -- वे अन्य अग्नि हैं जो पानी से सींचे जाने पर बुझ जाते हैं, स्नेह से उत्पन्न अग्नि, रस का सेक पाकर भड़क उठता है ।" उपर्युक्त अनुवाद ठीक नहीं है, क्योंकि मूल में आग भड़कने का अर्थ प्रदान करने वाला कोई भी शब्द नहीं है । संस्कृतच्छाया की शब्दावली के अनुसार उत्तरार्ध का सीधा और स्पष्ट अर्थं तो यह है - स्नेहज अग्नि विशेष रूप से ऐसा है जो रससेक को प्राप्त करता है । इसमें अग्नि भड़क उठने की बात कहाँ से अनुवादक ने घुसेड़ दी है ? मूल प्राकृत की संस्कृतच्छाया इस प्रकार भी संभव है P [ अन्ये ते किल शिखिनः स्वकीर्णरससेकेन भवन्ति विच्छायाः । आस्वादित रससेको (आसादित रसश्वेतो; आसादित रसश्रेयाः वा) भवति स्नेहजो दहनः ॥ ] पूर्वार्धगत 'सि' स्व ( प्राकृत स ) और कीर्ण ( प्राकृत किष्ण ) शब्दों के संयोग से बना है । स ( संस्कृत स्व ) के अनन्तरवर्ती समासस्थ किष्ण के ककार का लोप हो जाने पर इष्ण शब्द बन गया । पुनः पूर्वस्थ स के साथ सन्धि होने पर सिण' की निष्पत्ति हो गई। अपभ्रंश के प्रभाव से सिण्ण का सिण हो जाना स्वाभाविक है । छन्द के अनुरोध से भी ऐसा हो सकता है । 'स्वकीर्णरस सेकेन विच्छायाः' का अर्थ होगा - अपने भीतर फेंके गये रस ( जल ) के निष्पन्द ( बूँद ) से कान्तिहीन । ( स्वस्मिन् आत्मनि कीर्णः प्रक्षिप्तो यो रसः जलं तस्य सेकेन निष्पन्देन विगता छाया येषाम् ) । सिण की ग्रासार्थक संस्कृत सिन शब्द का प्राकृत रूप मानकर भी व्याख्या १. बहुलाधिकार से उद्वृत्त स्वर में भी सन्धिकार्य होता है । इसके लिये सू० स्वरस्योदवृत्ते (१/८७) को वृत्ति द्रष्टव्य है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती संभव है । प्राकृत में समस्त पदों का पूर्वनिपात और परनिपात संस्कृत के समान निश्चित नहीं है। कभी-कभी उसका व्यत्यय भी हो जाता है। इस दृष्टि से 'सिणरससेएण' को 'रससेअसिणण' ( रस के सेक के ग्रास अर्थात् भक्षण से) के अर्थ में भी ले सकते हैं। 'सिण को' थिण का लिपिभ्रष्ट रूप भी माना जा सकता है । थिण शब्द थीण (स्त्यान - संचित किये गये ) के इकार के ह्रस्वीकरण का परिणाम है। इस दृष्टि से (स्त्यानेन संचितेन रससेकेन) संचित रस-सेक से यह अर्थ होगा। ___ 'आसाइयरससेओ' का संस्कृत रूपान्तर कई प्रकार से संभव है१. आस्वादितरससेकः= आस्वादितो अनुभूतो रसस्य वीर्यस्य सेको निष्यन्दो येन अर्थात् जिन ने शुक्रनिषेक का आस्वादन किया है । २. आसादितरसश्वेतः = आसादितेन प्राप्तेन रसेन अनन्देन श्वेतः प्रोज्ज्वलः दीप्तिमान्-मिले हुये आनन्द से दीप्तियुक्त । ३. आसादितरसश्रेयाः - आसादितेन लब्धेन रसेन वीर्येण श्रेयो मङ्गलं यस्य प्राप्त हुये वीर्यपात से जिसका कल्याण होता है। गाथार्थ-निश्चय ही वह आग अन्य है जो अपने भीतर रससेक (जलसेचन) होने से कान्तिहीन हो जाती है, स्नेह ( अनुराग और तैलादि स्निग्ध पदार्थ ) में उत्पन्न आग रससेक ( वीर्यक्षरण ) का स्वाद लेती है ( आनन्द लेती है, बुझती नहीं है)। अथवा स्नेह में उत्पन्न आग विशेषतया उपलब्ध रस-निषेक ( वीर्य-निषेक ) से और दीप्तिमान् हो उठती है । अथवा स्नेह में उत्पन्न आग विशेष रूप से ऐसी है कि प्राप्त हुये रससेक ( वीर्य निषेक ) से उसका श्रेय ( मंगल ) होता है ( पुत्र के रूप में )। - स्नेह शब्द में श्लेष है। वह अनुराग के साथ-साथ तैलादि स्निग्ध पदार्थों का भी अर्थ देता है। स्निग्धपदार्थों में लगी आग पानी पड़ने पर सरलतया नहीं बुझती है, एक बार और भभक उटती है । अंतोणिहुअटिअपरिअणाइ ओरुद्धदारणअणाइ । गिम्हे घरटुघग्घररवेण घोरंति घराइं ॥ ७९४ ॥ [ अन्तर्निभृतस्थितपरिजनान्यवरुद्धदारनयनानि । ग्रीष्मे घरट्टघर्घर रवेण घुरघुरन्तीव गृहाणि ॥] "गर्मी में भीतर घर के लोग चुपचाप पड़े हैं, पलियों की आंखें मूंद रखी हैं, चक्की की घर्घर आवाज से मानो घर ही चिल्ला रहे हैं।" Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण ३१ उपर्युक्त अनुवाद और संस्कृतच्छाया - दोनों अशुद्ध हैं । 'पत्नियों की आँखें मूंद रखी हैं - यह कर्तृहीन वाक्य असम्बद्ध प्रलाप-सा प्रतीत होता है । 'घोरंति' का अर्थ 'चिल्लाना' नहीं है । सोते समय नाक से जो घर्घर शब्द निकलता है उसके लिये प्राकृत में देशज घोरंति क्रिया का प्रयोग होता है । गाथा का शुद्ध संस्कृत रूपान्तर यह होगा - [ अन्तर्निभृतस्थितपरिणनान्यवरुद्धद्वारनयनानि । ग्रीष्मे घरघररवेण घुरघुरायन्त इव गृहाणि ॥ ] शुद्ध संस्कृतच्छायानुसारी अनुवाद यह है ग्रीष्म में जिनके भीतर परिजन शान्त हो गये हैं, जिन के द्वार नयनों के समान बन्द हैं, वे घर मानों चक्की को घर्घर-ध्वनि-द्वारा सोते समय नाक से निकलने वाला घर्घर शब्द कर रहे हैं ( अर्थात् मानो नींद में खर्राटे ले रहे हैं । ) गाथा में मध्याहन की निस्तब्धता में भीतर चलने वाली चक्की की घर्घराहट और द्वारावरोध के आधार पर प्रसुप्त घर के खर्राटे लेने की संभावना की गई है जइ वेल्लीहि ण माअसि जह इच्छसि परवई पि लंघेउ । तह पूर्ण कोहलिए ! अज्जं कल्हि व फुल्लिहिसि ।। ७९७ ।। [ यथा वल्लीभिर्न मासि यथेच्छसि परवृतिमपि लङ्घयितुम् । तथा नूनं कूष्माण्डके ! अद्य कल्यं वा स्फुटिष्यसि ॥ ] "री कुम्हड़ी ! तू तो अपनी लतरों में नहीं अँटती और दूसरों के घेरे ( वृति) को पार कर जाना चाहती है तो निश्चय ही आज या कक में ही टूट जायेगी ।" यह अनुवाद अशुद्ध है क्योंकि 'स्फुटिष्यति' का प्राकरणिक अर्थं टूटना नहीं, खिलना है | अनुवादक ने श्लेष पर भी ध्यान नहीं दिया है । हलिए, 'परवद्द', और 'फुल्लिहिसि' में अत्यन्त स्वाभाविक रूप से श्लेष आया है । 'परवइ' के दो अर्थ हैं - १. ( परवृति ) पराई बाड़, २. ( परपति ) पराया पति । शेष दोनों पदों के अर्थ इस प्रकार हैं कोहलिआ = १ . ( वनस्पति पक्ष ) कुम्हड़े की लता । २. ( नायिका पक्ष ) कुतूहल रखने वाली । फुल्लिहिसि = १. ( लता पक्ष ) फूल जायेगो अर्थात् पुष्पित हो जायेगी । २. ( नायिका पक्ष ) फूल जायेगी अर्थात् गर्भवती हो जायेगी । गाथा का वास्तविक अर्थ यह होगा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती ___लतापक्ष में-हे कष्माण्डिके (कुम्हड़े की लता ) तू अपनी शाखाओं में नहीं समा रही है, और जिस प्रकार दूसरे की बाड़ को भी लांघ जाना चाह रही है उससे तो आज या कल में ही पुष्पित हो जायगी, क्योंकि पूर्णवृद्धि के पश्चात् हो फूल आते हैं )। नायिका पक्ष-हे कुतुहल रखने वाली 'मृगलोचने' तू मर्यादा ( देहली') में नहीं समा रही है ( मर्यादा का अतिक्रमण कर रही है ) और जिस प्रकार पराये पति के पास भी जाना ( लघि = जाना ) चाह रही है उससे तो आज या कल में ही फूल जायेगी अर्थात् गर्भवती हो जायेगी । विरहकिसिआ वराई दिणाइ आसण्णगिम्हपरिणामाई। कढिणहिअओ पवासी ण आणिमो कह समप्पिहिइ ॥८००॥ [विरह कृशिता वराकी दिनान्यासन्नग्रीष्मपरिणामानि । कठिनहृदयः प्रवासी न जाने कथं समर्पिष्यते ॥] "बेचारी विरह के मारे दुबरा गई है, समीप पहुँचे ग्रीष्म काल में दिन बड़े होने लगेंगे, प्रवासी कठिन हृदय वाला है, कैसे गुजरेगा? हमें समझ में नहीं आता।" इस अनुवाद में 'गुजरेगा' किसके लिये आया है-यह स्पष्ट नहीं है । 'समप्पिहिसि' क्रिया एकवचन है उसका अन्वय बहुवचन दिनानि से सम्भव नहीं है । वराकी स्त्रीलिंग अतः 'गुजरेगा' यह क्रिया उससे सम्बद्ध हो नहीं सकती। रह गया प्रवासी । वह तो कठिन हृदय ठहरा । उसे गुजरने और न गुजरने की चिन्ता ही कहाँ है ? वस्तुतः 'समप्पिहिइ' का संस्कृत रूपान्तरण ही अप्रासंगिक है । रोआविअम्हि माए अंगणपहिएण दरपसुत्तेण । परिवत्तसुमाणिणि माणिणि त्ति सिविणे भणतेण ॥ ८०१॥ ] रोदिताऽश्मि मातः! अङ्गण पथिकेन दर प्रसुप्तेन । परिवर्तस्व मानिनि मानिनीति स्वप्ने भखता ॥] "आँगन में सोये पथिक ने सपनाते हुये कहा-हे स्वामिनि, हे मानिनि, प्रसन्न हो' (यह सुनकर) माँ, हमें रुलाई आ गई है। उपयुक्त अनुवाद में परिवर्तस्व का अर्थ ठीक नहीं है। उसका अर्थ "करवट लो" है "प्रसन्न" नहीं। १. मर्यादावाचक वेला शब्द लकारद्वित्व की दशा में वेल्ला का आकार धारण करेगा । पुनः आदीतो बहुलम् ( प्राकृत प्रकाश ५।२४ के अनुसार ईकारान्त हो जाने पर वेल्ली बन जायेगा। २. लघि धातु ( लंघ् ) गत्यर्थक है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण ३३ पथिक स्वप्न में देख रहा है कि उसकी मानिनी प्रिया शय्या पर उसकी ओर पीठ करके सोई हुई है । अतः वह उससे करवट बदल कर अपनी ओर मुँह करने की प्रार्थना कर रहा है । 'समपिहिइ' सम् उपसर्गपूर्वक आप् धातु का भविष्यत्कालिक प्राकृत रूप है । संस्कृत में इसका रूप ' समाप्स्यसि ( समाप्त करेगी या समाप्त करेगा ) है | गाथा का अन्वय इस प्रकार करें तो अर्थ स्पष्ट झलकने लगेगा प्रवासी कठिनहृदय: ( अस्तीति शेष: ) विरहकुशिता वराकी आसन्नग्रीष्मपरिणामानि दिनानि कथं समाप्स्यति ( इति न जानीमः ) । गाथार्थ - प्रवासी ( नायक ) का हृदय कठोर है । विरह से दुबली वह बेचारी ( विरहिणी नायिका ) आसन्नवर्ती ग्रीष्म के दीर्घ दिनों को कैसे समाप्त करेगी ( बितायेगी ) - यह समझ में नहीं आता है । यह नायिका की सहेली की उक्ति है । कप्पासं कुप्पासंतरम्मि तह वित्तमित्ति भणिऊण । अत्ता ! बलाहिरेणं थणाण मह कारिआस्था ।। ८०५ ।। [ कर्पासं कूर्पासान्तरे त्वया क्षिप्तमिति भणित्वा । श्वश्रु ! बलाभीरेण स्तनानां मम कारितावस्था ॥ ] "चोली के अन्दर तूने ( मेरा ) कपास रख लिया है - यह कह कर जबर अहीर ने मेरे स्तनों की यह हालत कर डाली है ।" इस गाथा की संस्कृतच्छाया का उत्तरार्ध यों होना चाहियेश्वश्रु ! बलादाभीरेण स्तनयोर्मम कारितावस्था । अनुवादक द्वारा स्वीकृत संस्कृतच्छाया में स्तनों का बहुवचन में पाठ तो अनुचित ही है बल शब्द में विद्यमान पंचमी विभक्ति की भी उपेक्षा कर दी गई है । प्राकृत में ङसि ( पंचमी एकवचन, विभक्ति में 'बल' का रूप 'बला' होता है 'बला' और 'अहिरेणं' में सन्धि होने पर 'बलाहिरेणं' पद बनेगा । 'बल' शब्द का अर्थं बलवान् ( जबर ) नहीं है । यहाँ उसका अर्थ है बलपूर्वक । " कारितावस्था' में विपरीत लक्षणा है । 'अहीर के द्वारा बलपूर्वक मेरे स्तनों की दशा ( अवस्था ) बना दी गई है ।" इस वाक्य का अर्थ है -- अहीर के द्वारा मेरे स्तनों की दशा बिगाड़ दी गई है । 'मेरे स्तनों की यह अवस्था कर डालो है ।' यह अर्थ उचित नहीं है क्योंकि मूल में 'यह' का अर्थ देने वाला सर्वनाम नहीं है । ३५ - गाइउ पंचरवारिम्भरोउ, चत्तारि पक्कलवइल्ला । संपण्णं वालावल्लरअं सेवा सिवं कुणउ ॥। ८०६ ॥ *" गाथार्थ ठीक नहीं लगता है ( वेबर ) । " Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ गाथासप्तशती पाश्चात्य पंडित वेबर के अनुसार गाथा का ठीक अर्थ नहीं लगता है । अस्पष्टार्थता के कारण इसे अनूदित नहीं किया गया है। प्रस्तुत गाथा की संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी गावः पञ्च रवारम्भणशीलाश्चत्वारः समर्थवलीवर्दाः । सम्पन्नं कक्षेत्र सेवाशिवं करोतु ॥ इसमें एक ऐसे सम्पन्न कृषक का वर्णन है जो अपनी गृहस्थी से पूर्ण सन्तुष्ट है और नौकरी ( सेवा ) नहीं करना चाहता। __ गाथार्थ- ( मेरे पास ) शब्द पूर्वक ( जोर-जोर ) राँभने ( गाय का शब्द ) वाली पाँच गायें हैं, चार समर्थ बैल है, काकुनि ( कङ गू= एक विशेष प्रकार का अन्न ) का खेत पक ( सम्पन्न ) गया है। सेवा (नौकरी) मुक्ति ( शिव ) प्रदान करें ( मुझे छुट्टी दे, या मुक्त कर दे, मुझे उसकी आवश्यकता ही नहीं है।) शब्दार्थ- पक्कल = समर्थ वाला = काकुनि वल्लरअं = खेत ३६-विज्जः पिआसा बहलइ घणताओ रवणखणम्मि रोमंचो। हिअए ण भाइ अण्णं लज्जापत्थेहि तेजिआ पाणा ॥८०८॥ [ वैद्य! पिपासा वर्धते घनतापः क्षणे क्षणे रोमाञ्चः । हृदये न भात्यन्यत् लज्जापथ्यैस्त्याजिताः प्राणाः ॥] "वैद्यजी, प्यास जोर से लगती है, खूब ताप रहता है, तुरंत-तुरंत रोमांच होता है, अन्न अच्छा नहीं लगता, लज्जा के पथ्य से प्राण छूट रहे हैं।" ___ उपयुक्त अर्थ और संस्कृतच्छाया-दोनों अपूर्ण हैं । गाथा में जिस रुग्णा नायिका का वर्णन है वह चिकित्सक की प्रच्छन्न प्रयसी है । वह प्रेमी वैद्य को श्लिष्ट शब्दों के माध्यम से अपनी मर्मान्तक विरह-यन्त्रणा की सूचना दे रही है। उसके वचन-विन्यास का एक पक्ष रोग से सम्बद्ध है और द्वितीय पक्ष प्रणय से । पूर्वोद्धृत एकपक्षीय अनुवाद में प्रणयान्वित अर्थ को भ्रम वश रोग के प्रकरण में रख दिया गया है । रोग के प्रसंग में लज्जा के पथ्य का कोई औचित्य ही नहीं है। वहाँ लज्जा का अर्थ श्लेषानुरोध से लाजा ( लावा ) है । रोगियों को लाजा ( लावा ) का पथ्य प्रायः दिया जाता है ( क्योंकि वह सुपाच्य होता गाथा के उभयपक्षीय संस्कृत रूपान्तरण यों होंगे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ अर्थनिरूपण रोग पक्ष-वैद्य ! पिपासा वर्धते घनतापो क्षणे क्षणे रोमाञ्चः । हृदये न भात्यन्नं लाजापथ्यैस्त्याजिता प्राणाः ॥ प्रणय पक्ष-वैद्य ! प्रियाशा वर्धते घनतापः क्षणे क्षणे रोमाञ्चः । १. हृदये न भाल्यन्यत् लज्जापथ्यैस्त्यागिताः प्राणाः॥ गाथार्थ रोग-पक्ष-हे वैद्य ! प्यास बढ़ रही है, घना ताप ( ज्वर) है, क्षण-क्षण रोमाञ्च होता है। ( शीत ज्वर में ताप भी बढ़ता है और शीत के कारण रोमाञ्च भी होता है।) हृदय में अन्न ( अनाज या भोजन ) अच्छा नहीं लगता, लावा के पथ्यों के द्वारा ( अर्थात् लावा खिला-खिला कर ) मेरे प्राण निकाल लिये गये हैं ( अर्थात् मैं लगभग मर चुकी हूँ।) प्रणयपक्ष-हे वैद्य ! प्रिय की आशा ( तृष्णा) बढ़ रही है, धना ताप है, (विरह-ताप) क्षण-क्षण रोमाञ्च हो रहा है, ( प्रियतम के आंगिक सम्पर्क की परिकल्पना से ) हृदयमें अन्य पुरुष अच्छा नहीं लगता, पथ्यके समान ( अप्रिय ) लज्जा ( लोकलज्जा ) के द्वारा मेरे प्राण छुड़ाये जा चुके हैं । ३८-छ'प्प! गम्मसु सिसिरं पासाकुसुमेहि ताव मा मरसु । जीअन्तो वच्छिहिसि अ पुणो बि रिद्धि वसंतस्स ॥८१३॥ इस गाथा की विस्तृत व्याख्या मैं वज्जालग्ग में कर चुका हूं। यहां इसे उद्धृत करने का उद्देश्य एक शब्द से सम्बन्धित भ्रान्ति का निवारण करना है। वह शब्द है पाशाकुसुम । अनुवादक ने उसका अर्थ पुष्पविशेष किया है । पाइअसद्दमहण्णव में भी पाशाकुसुम शब्द संगृहीत है । कोशकार ने उसका अर्थ पुष्पविशेष ही लिखा है । किसी ने यह नहीं लिखा है कि उक्त पुष्प विशेष की पहचान क्या है । पाइअसद्दमहण्णवकार ने अपने दिये हुए अर्थ के प्रमाण में उपयुक्त गाथा को उद्धृत किया है जिसका पाठ वज्जालग्ग में निम्नलिखित है छप्पअ ! गम्मसु सिसिरं वासव कुसुमेहिं ताव मा मयसु । मन्ने नियंतो पेच्छसि पउरा रिद्धी वसंतस्स ।। इस पाठ में पासाकुसुम (पाशाकुसुम ) के स्थान पर वासवकुसुम शब्द आया है। अतः प्रस्तुत गाथा में पाशाकुसुम का प्रयोग संदिग्ध है। किसी संदिग्ध स्थिति वाले शब्द का कोश में संग्रह होने से एक व्यापक भ्रम उत्पन्न १- हे भ्रमर ! अड़ से के पुष्पों से तब तक शिशिर बिता दो । मरो मत । यदि जीवित रहोगे तो वसन्त की प्रचुर समृद्धि पुनः देखोगे । २- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी से प्रकाशित । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती हो सकता है। पाइअसद्दमहण्णवकार ने पाशाकुसुम को देशी शब्द भी नहीं लिखा है अतः उसको संस्कृत कोशों में संगृहीत होना चाहिए था । परन्तु प्रचलित शब्दकोशों में वह दिखाई नहीं देता। इसके विपरीत वज्जालग्ग के पाठान्तर में स्वीकृत वासव शब्द का अर्थ असा होता है । इस कटु वृक्ष में श्वेत पुष्प लगते हैं । आयुर्वेदीय वासारिष्ट इसी से बनाया जाता है । संस्कृत वासव मा वासक का प्राकृत रूप वास होगा। वासम का रूप वासा भी हो सकता है। लगता है, वासा शब्द ही लिपि दोष से पाशा ( प्राकृत पासा ) बन गया है । अन्य कोशों में अनुपलब्ध होने के कारण इसका अस्तित्व प्रामाणिक नहीं है। ३९-एह इमीअ णिअच्छह विम्हिअहिअआ सही पुलोएइ। अद्धाअम्मि कवोलं कवोलपट्टम्मि अदा ॥ १८ ॥ "यहाँ आओ, देखो ! आश्चर्य-भरे हृदय से सखी आइने में गाल को और गाल में आइने को देख रही है।" इस अनुवाद में 'इमीम' पद की उपेक्षा कर दी गई है। इससे गाथा का अर्थ विपर्यस्त हो गया है । ऐसा लगता है, जैसे सखी ही अपना कपोल दर्पण में और अपने कपोल में दर्पण को देख रही है। अनुवाद का उचित स्वरूप यह है यहाँ आओ, देखो, विस्मित-हृदया सखी इस ( नायिका) के कपोल को दर्पण में और दर्पण को इसके कपोल में देख रही है। गाथा में नायिका के कपोलों का नैर्मल्य एवं दर्पणवद् प्रतिबिम्ब ग्राहकत्व वर्णित है। ४०-मग्गिअलद्धे बलमोडिचुम्बिए अप्पाणेण उवणीए । एक्कम्मि पिआअहरे अण्णण्णा होति रसहेआ॥८२१॥ मागित लब्धे बलमोडचुम्बिते आत्मनोपनोते। एकस्मिन् प्रियाऽधरेऽन्यान्या भवन्ति रससेकाः ॥ उपयुक्त संस्कृतच्छाया अशुद्ध है । शुद्ध संस्कृतच्छाया यों होगी मागितलब्धे बलादामोट्य चुम्बिते आत्मनोपनीते । एकस्मिन् प्रियाऽधरेऽन्यान्या भवन्ति रसभेदाः ॥ अर्थ-प्रिया का अधर कभी मांगने पर (चुम्बनार्थ ) उपलब्ध होता है, कभी बलपूर्वक चम लिया जाता है और कभी वह उसे स्वयं ही दे देती हैइन तीनों स्थितियों में एक ही अधर के चुम्बन के आनन्द ( रस ) में अन्तर ( भेद ) होता है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिरूपण ३७ प्राकृत-शब्द-कोशों में बलामोडिअ और बलामोडि शब्दों को देशी शब्द शिखा गया है । वस्तुतः ये संस्कृत के दो पृथक्-पृथक् पद हैं जिन्हें भूल से एक एक पद समझ लिया गया है । 'बला' तो स्पष्ट संस्कृत बलात् का पंचम्यन्त प्राकृत रूप है। _ 'आमोडि' आमोट्य (आ+ मुट+ णिच् + ल्यप् = त्वा) का अपभ्रंश-प्रभावित रूप है । अपभ्रंश में क्त्वा के स्थान पर इ का विधान है। इसी प्रकार मोडि शब्द भी निष्पन्न होगा। 'बलामोडिअ' में बला तो पूर्ववत् पंचम्यन्त बलात् शब्द ही है । 'आमोडिअ' आमोट्य (आ० मुट् + णिच् + ल्यप् = क्त्वा) का शौरसेनी-रूप है । शौरसेनी में क्त्वा के अर्थ में इअ या इय का प्रयोग होता है । यहाँ मोडिअ शब्द भी बनेगा। ४१. मह पइणा थणजुअले पत्तं लिहि ति गविआ कोस ? । आलिहइ महं पि पिओ जइ से कंपो च्चिअ ण होइ ॥२४॥ मम पत्या स्तनयुगले पत्रं लिखितमिति गर्विता कस्मात् ? । आलिखति ममापि प्रियो यदि तस्याः कम्प एव न भवति । उपयुक्त संस्कृतच्छाया में तस्याः के स्थान पर तस्य होना चाहिये । यह अन्य तरुणी के प्रति नायिका का कथन है। वह कहती है___यदि पति ने तेरे स्तनों पर पत्ररचना कर दी है तो तू गर्व क्यों कर रही है ? यदि कम्पन न हो जाये तो मेरा पति भी वैसी पत्ररचना कर सकता है। इस कथन द्वारा नायिका यह व्यक्त करना चाहती है कि सफल पत्ररचना से तुझे गर्वित न होकर लज्जा से डूब मरना चाहिये। यदि पति का तेरे प्रति प्रगाढ़ प्रणय होता तो वह निरतिशय उद्दीपक पीनोन्नत पयोधरों पर पत्ररचना कर ही न पाता । प्रणयोद्वेलन के कारण उक्त कर्म में अवश्य स्खलन हो जाता। तेरे लावण्य में तल्लीन न होकर पति का पत्ररचना में रम जाना दुर्भाग्य का सूचक है । देखो, एक मैं भी हूँ। मेरा पति पत्ररचना शिल्प में पूर्ण पटु है। परन्तु वह जब पत्ररचना करने लगता है तब पयोधरों का स्पर्श होते ही उसके हाथ कांपने लगते हैं । वह तेरे पति के समान जड़ चित्रकार नहीं है, वह एक निश्छल एवं भावुक प्रणयी है । ४२. जंपीभ मंगलवासणाए पत्थाणपढमदिअहम्मि । वाहसलिलं ण चिटुइ तं चिअ विरहे रुवंतीए ॥ ३१॥ १. क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः-प्राकृतव्याकरण ४/४३९ २. क्त्व इयदूणी-प्राकृतव्याकरण ४/२७१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ गाथासप्तशतो यत् पीतं मङ्गलवासनया प्रस्थानप्रथमदिवसे । वाष्पसलिलं न तिष्ठति तदेव विरहे रुदत्याः॥ "जिस वाष्पजल को ( प्रियतम के ) प्रस्थान के प्रथम दिन पान कर लिया था वही विरह में रुदन करती हुई के नहीं थमता।" यह अनुवाद अपूर्ण एवं अस्पष्ट है । 'मंगल वासणाए' का अर्थ न देने के कारण बाष्पसलिल के अहेतुक पान की संगति नहीं बैठती है। गाथा का आशय यह है प्रवासी के प्रयाण के समय रोना अशुभ माना जाता है । अतः प्रयाण करते समय नायक की कल्याणकामना से नायिका रोई नहीं, उस दिन आँसुओं का चूंट पीकर रह गई । किन्तु वे ही आँसू नायक के चले जाने पर आज रोंके नहीं रुक रहे हैं। ४३. जह दिअहविरामो णवसिरीसगंधुधुराणिलग्धविओ। पहिअघरिणीअ ण तहा तवेइ तिव्वो वि मज्झण्हो ॥८३३॥ यथा दिवसविरामो नवशिरीषगन्धोद्धरानिल धौतः। पथिकगृहिण्या न तथा तापयति तीव्रोऽपि मध्याह्नः॥ "जो कि दिन का अन्त, नये शिरीष की गन्ध से भरी हवा से युक्त होता है, उससे वियोगिनी को तीव्र भी मध्याह्न सन्तप्त नहीं करता।" यह अनुवाद अपभ्रष्ट है। इसका आशय यह है कि उक्त विशेषण-विशिष्ट सन्ध्या काल के कारण वियोगिनी को मध्याह्न की तीव्र ऊष्मा का अनुभव नहीं होता । यह अर्थ अनुभव-विरुद्ध है । गाथा में 'जह' और 'तह' ( यथा और तथा ) नायिका की अनुभूति की तुलना के लिये प्रयुक्त है। वे हेतुवाचक नहीं हैं। गाथा का सीधा-सा अर्थ यह है कि उक्त विशेषणों से विशिष्ट सन्ध्याकाल ( जिसे शीतल होना चाहिये था ) वियोगिनी को जितना सन्तप्त करता है उतना तीव्र मध्याह्न भी नहीं करता । ( क्योंकि सान्थ्य-सुगन्धि-समीरण से विरह का उद्दीपन होता है।) ‘णवसिरीसगंधुद्धराणिलग्घविओ' की संस्कृतच्छाया 'नवशिरीषगन्धोद्धरानिलपूरितः' होगी । अग्घ का अर्थ पूरित होना है । ४४. दोहुण्हा गोसासा रणरणओ रुज्जगग्गिरं गेअं। पियविरहे जीविअवल्लहाण एसोच्चि विणोओ॥३७॥ . दीर्घोष्णा निःश्वासाः, रणरणको....."गेअं । प्रियविरहे जीतिवल्लभानामेव विनोदः ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण "दीर्घ-उष्ण निःश्वास, परेशानी, जोर से रुदन की आवाज और गीत यही प्रिय के विरह में प्राणवल्लभाओं का विनोद है।" इस गाथा की संस्कृतच्छाया का द्वितीय पाद खण्डित है। रिक्त स्थान पर 'रोदनगद्गदं' होगा। रणरणक का अर्थ औत्सुक्य है । 'जीवितवल्लभानाम्' में बहुव्रीहि समास है । ( जीवितमेव वल्लभं प्रियं यासाम्, जिन्हें जीवन ही प्रिय है।) शुद्ध एवं अखण्डित संस्कृतच्छाया यह होगी दीर्घोष्णा निःश्वासाः रणरणको रोदनगद्गदं गेयम् । प्रियविरहे जीवितवल्लभानामेष एव विनोदः ।। इस गाथा का वास्तविक अर्थ यह है प्रियतम के विरह में जिन्हें जीवन प्रिय है ( अर्थात् जो जीवित रहना चाहती हैं।) उनका यही विनोद (दिन काटने का साधन ) है-दीर्घ एवं उष्ण निःश्वास, औत्सुक्य ( उत्कण्ठा ) रुलाई से गद्गद् गीत ।। यहाँ विरहिणी नायिका का आशय यह है कि दीर्घनिःश्वासादि उन विरहिणियों के दिन काटने के साधन है जो प्रिय के दारुण वियोग में भी जीवित रहना चाहती हैं और प्रिय की अपेक्षा अपने जीवन को ही महत्त्व देती हैं । मैं तो प्रिय के वियोग में जीवित ही नहीं रहना चाहती, अतः ये जीवनोपयोगी सम्बल व्यर्थ हैं। ४५. कंठग्गहणेण सअज्ज्ञिआए अब्भागओवआरेण । वहुआएँ पइम्मि वि आगअम्मि सामं मुहं जाअं ॥८४३॥ कण्ठग्रहणेन प्रतिवेशिन्या अभ्यागतोपकारेण । वध्वाः पत्यावपि आगते श्यामं मुखं जातम् ॥ - "स्वागत में पड़ोसिन द्वारा अतिथि के कण्ठग्रहण से वधू का मुख पति के आने पर भी मलिन बना रहा।" गाथा की संस्कृतच्छाया प्रसंगानुकूल नहीं है। अभ्यागतोपकारेण के स्थान पर अभ्यागतोपचारेण होना चाहिये । उपयुक्त अनुवाद में "वधू का मुख पति के आने पर भी मलिन बना रहा।" इस उल्लेख से यह ध्वनि निकलती है कि पति के आगमन के पूर्व नायिका का मुख जैसे मलिन था वैसे ही उसके आगमन के पश्चात् भी मलिन रह गया। उसके मुखमालिन्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ऐसा होना संभव नहीं है । यदि पत्नी का पति से प्रेम था तो विरह में उसका मुख मलिन रहना जितना स्वाभाविक है उतना ही पति के लौट आने पर मुखमालिन्य का दूर हो जाना भी स्वाभाविक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० गाथास्सप्तशती है। यदि पत्नी का प्रवासी पति से प्रेम नहीं था तो विरह में मुखमालिन्य का कोई प्रश्न नहीं है । अतः अनुवाद का उक्त उद्धृत अंश आपत्तिजनक है। गाथा का आशय यह है कि अभ्यागत के स्वागत की औपचारिकता का निर्वाह करने के लिये जब पड़ोसिन ने प्रवास से लौट नायक को गले लगा लिया तब पति के आ जाने पर भी विरहिणी बहू का मुख काला पड़ गया । ( अर्थात् पड़ोसिन से पति के प्रणय की आशंका से वह उदास हो गई । ) इस अर्थस्वरूप में 'मुंह काला पड़ गया या काला हो गया' से यह ध्वनि निकलती है कि संयोग सुख की आशा से पत्नी का जो मुंह प्रसन्न हो गया था वह उसके आ जाने पर भी उदास हो गया। ४६-सो गागओ त्ति पेच्छह परिहासुल्लाविरोए दूईए । णूमंतीअ पहरिसो ओसट्टइ गंडपासेसु ॥ ८५० ॥ स नागत इति प्रेक्षध्वं परिहासोल्लापिन्या दूत्याः । अनुमानयन्त्याः प्रहर्षोऽवशिष्यते गण्डपाशयोः॥ " देखो, वह नहीं आया-परिहास पूर्वक कहती हुई दूती के गालों में प्रहर्ष दौड़ आया" उपयुक्त संक्षिप्त अनुवाद तो ठीक है, परन्तु गाथा की संस्कृतच्छाया अशुद्ध है । शुद्ध संस्कृत-रूपान्तरण यों होगा : स नागत इति प्रेक्षध्वं परिहासोल्लापशीलायाः इत्याः । प्रच्छादयन्त्याः प्रहर्षः प्रसरति गण्डपाशयोः ।। णम क्रिया का अर्थ आच्छन्न करना है और ओसट्ट का अर्थ है फैलना (प्रसरण )। नायिका ने नायक को बुलाने के लिये जिस दूती को भेजा था वह उसे लेकर लौट आई है । वह नायिका के पास पहले पहुँच कर परिहास करती हुई कह रही है "नायक तो मेरे साथ नहीं आया है" परन्तु छिपाने पर भी उसके ( दूती के ) कपोलों पर हर्ष फैल गया है । ४७-अप्पाहिआइ तुह तेण जाइ ताई मए ण मुणिआइ । अच्चुण्हस्सास परिक्खलंतविसमक्खर पआई ॥ ८५३ ॥ अशिक्षितायास्तव तेन यानि तानि मया न ज्ञातानि । अत्युष्णश्वास परिस्खलद्विषमाक्षर पदानि ।। १-पाइअ सद्दमहण्णवो Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण "तुझे शिक्षा देती हुई मैंने .... . ..." अत्यन्त उष्ण श्वास के कारण परिस्खलित होते हुये विषमाक्षर पदों को नहीं सुना (?)" इसकी संस्कृतच्छाया शुद्ध नहीं है अनुवाद भी खंडित है । अनुवादक ने उस पर स्वयं प्रश्नचिह्न लगाया है। अप्पाहिआइ 'का अर्थ अशिक्षितानि' = नहीं, अपितु 'अध्यापितानि' ( पढ़ाये गये ) है यह पदानि का विशेषण है। गाथा का अन्वय इस प्रकार होगा : तेन यानि अत्युष्ण विषमाक्षर परिस्खलत्पदानि तव अध्यापितानि तानि मया न ज्ञातानि । नायिका नायक को जिस गुप्त प्रणयिनी से गद्गद् स्वरों में बातें करते देख चुकी है उसी को यह आभास करा रही है कि तुम दोनों का अनुचित प्रेम मुझसे छिपा नहीं है । मैं उसे तुमसे बातें करते स्वयं देख चुकी हूं, केवल वे शब्द नहीं समझ सकी हूँ जिनके अक्षर अत्युष्ण श्वास से टूटते जा रहे थे। अर्थ- उसने ( नायक ने ) अत्युष्ण श्वासों से परिस्खलित हो जाने के कारण विषमाक्षरों वाले जिन पदों ( शब्दों) को तुम्हें पढ़ाया था उसे मैं नहीं जान पाई। __ 'नहीं जान पाई ।' में विपरीत लक्षणा है। उसका अर्थ है-जान गई हैं। 'अध्यापितानि' में जो व्यंग्यपूर्ण वक्र वचन विन्यास है वह नायक-द्वारा गुप्त प्रणयिनी को प्रेम का पाठ पढ़ाने की दिशा में स्पष्ट इंगित करता है । अत्युष्ण श्वास से पदों के अक्षरों का स्खलित और विषम हो जाना नायिका के प्रति नायक की अनुरक्ति का साधक है । ४८-णवलअ पहरुत्तत्थाएं तं कसं हलिअवहुआए । जं अज्ज वि जुवइजणो घरे घरे सिक्खिउं महइ ८५६ ॥ पतिनामकप्रश्नपूर्वकप्रहारतुष्ट्या तत्कृतं किमपि हलिकस्नुषया। यदद्यापि युवतिजनो गृहे गृहे शिक्षितु भ्रमति ।। इसकी संस्कृतच्छाया यह होगी :पतिनामक प्रश्नपूर्वक प्रहारोत्त्रस्तया तत्कृतं हलिकवध्वा । यदद्यापि युवतिजनो गृहे गृहे शिक्षितु काँक्षति ॥ अनुवादक ने 'उत्तत्थाए के स्थान पर तुट्ठाए' पाठ स्वीकार किया है । गाथा में हलवाहे की वधू के सत्यरक्षण और साहस का वर्णन है। प्राचीन काल में एक व्रत प्रचलित था, जिसमें स्त्रियों को पूछने पर अपने पति का नाम बताना पड़ता था। यद्यपि स्त्रियाँ पति का नाम नहीं लेती हैं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो तथापि व्रत के अनुरोध से उन्हें वैसा करना पड़ता था। जो स्त्री पूछने पर पति का नाम नहीं बताती थी उसे लता से मारा जाता था । शीलवती महिलायें तो व्रत-भंग के भय से पति का नाम बता देती थीं । परन्तु जिस विवाहिता स्त्री का प्रेम अन्य पुरुष से होता था वही दुविधा में पड़ती थी और मार सहती थी। हलवाहे की उक्त वधू भी ऐसी ही शीलविच्युत स्त्री थी। वह लता के प्रहार से पहले तो डरी, फिर उसने निर्भीकता से अपने उप पति का नाम बता दिया । उसकी यह निर्भीकता प्रणयोत्सुक युवतियों के लिए सीखने का विषय बन गई। गाथार्थ-नवलता के प्रहार से त्रस्त हलिकवधू ने वह किया जिसे आज भी घर-घर में युवतियाँ सीखना चाहती हैं। ४९-धण्णो सिरे हलिद्दअ ! हलिअसुआपीणथण भरुच्छंगे। पेच्छंतस्सविरे पइणो जह तुह कुसुमाइ निवडंति ॥८५७॥ धन्योऽसि रे हरिद्रक ! हलिकसुतापीनस्तन भरोल्सङ्गे । प्रेक्षमाणस्यापि पत्युर्यथा तव कुसुमानि निपतन्ति । "हे हरिद्रावृक्ष ! तू धन्य है कि हलिकसुता के पीन स्तनों से युक्त अंक में तेरे फूल गिरते रहते हैं और ( मेरा ) पति देखता रहता है।" यह अनुवाद असंगत है । यदि हरिद्रा के पुष्प हलिकसुता के पीन स्तनयुक्त अंक में गिरते हैं और उसके कारण कोई स्पृहयालु तरुण उसे ध्यान पूर्वक देखने लगता है तो उसकी प्रियतमा को प्रसन्नता नहीं, ईर्ष्या होनी चाहिये । इस स्थिति में वह ( तरुण की प्रिया ) हरिद्र । वृक्ष को धन्य क्यों कहेगी ? गाथा में 'पेक्खंतस्स वि पइणो' (प्रेक्षमाणस्यापि पत्युः) में 'वि' के माध्यम से जो विरोध व्यंजित हो रहा है उसे अनुवाद छ ही नही पाया है। हलिकसुता पिता के गृह में रहकर हरिद्रा-क्षेत्र में काम कर रही है। उसका पति भी ससुराल में आया है और निकट ही खड़ा है। वह अपनी पत्नी ( हलिकसुता ) के स्तन भार समृद्ध अंक में ( जहाँ केवल पति को ही स्थान मिलता है ) हरिद्रा पुष्पों को स्थान प्राप्त करते देख रहा है । इस स्पृहणीय दृश्यसे ईर्ष्या-कलुषित होकर कोई लोलुप तरुण कह रहा है : हे हरिद्रक ! तू धन्य है, क्योंकि पति के देखते रहने पर भी ( उसी के सामने ) तेरे पुष्प हलिकसुता के पोन पयोधरों से परिपूर्ण अंक में गिर रहें हैं। यह सौभाग्य हमारे जैसे अभागे युवकों का नहीं है । ) ५०-एमेअ अकअपुण्णा अप्पत्तमणोरहा विवज्जिस्सं । जणवाओ वि.ण जाओ, तेण समं हलिअउत्तेण ॥ ८५९ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण एवमेवाकृत पुण्याऽप्राप्तमनोरथा विपत्स्ये । जनवादोऽपि न जातस्तेन समं हलिकपुत्रेण ।। "उस हलिक के छोकरे के साथ न कोई लोगों में अपवाद फैला है, यू हो अभागिन, मनोरथ को न प्राप्त मैं विपत् भोगने वाली हूँ।" न तो यह अनुवाद ठीक है न इसकी भाषा । विवज्जिस्सं' का अर्थ विपद् भोगना नहीं है । उक्त क्रिया यहाँ मरण का अर्थ देती है । गाथा में जिस तरुणी का वर्णन है उसका गुप्त प्रेम किसी हलिक पुत्र से है । वह सामाजिक प्रतिबन्धों के कारण अपने प्रणयी से प्रत्यक्ष मिल नहीं पाती है। अहरह विरह-वेदना से तड़पती हुई सोचती है कि मैं बड़ी पापिन हूँ। इसी प्रकार तड़पते-तरसते मर जाऊँगी, मेरे मनोरथ कभी पूरे ही नहीं होंगे। यदि उस हलिक पुत्र के प्रम को लेकर समाज में मेरी निन्दा भी हो गई होती तो यह अकृतार्थ जीवन सार्थक हो गया होता। खेद है, मैं लोगों में उसकी प्रणयिनी के रूप में अपनी पहचान भी न बना पाई। गाथार्थ-मैं अकृतपुण्या ( जिसने पुण्यकर्म नहीं किये हैं ) बिना मनोरथ पूर्ण हुये ( अप्राप्तमनोरथा) ऐसे ही ( तरसती हुई ) मर जाऊँगी ! ) लोगों में हलिकपुत्र के साथ मेरी निन्दा भी न हुई । ___ 'विवज्जिस्सं' क्रिया से नायिका के नैराश्य की चरमावस्था-अभिव्यक्त होती है । 'जणवाओ वि ण जाओ' से लोक निन्दा भीरु नायिका का पश्चात्ताप ध्वनित होता है । यदि वह निर्भय होकर हलिकपुत्र से संयुक्त हुई होती तो संभोग सुख अवश्य प्राप्त हुआ होता, इच्छा पूरी हो गई होती। इसके पश्चात् लोग करते क्या ? निन्दा ही तो करते ! परन्तु वह इतनी भीरु ठहरी कि प्रिय संयोग के लिये लोकनिन्दा का शाब्दिक दण्ड भोगने का भी साहस नहीं जुटा पाई। ५१. कालक्खरदूसिक्खिअर्धाम्मअ रेगिम्बकोइअसरिच्छ । दोण्ण वि णिरअणिवासो समअं जं होइ ता होदु ॥७२॥ कालाक्षरदुःशिक्षित बालक रे लग भम कण्ठे । द्वयोरपि नरकनिवासः समकं यदि भवति तद् भवतु ॥ "हे धार्मिक ! तू काले अक्षर तक को नहीं जानता और नीम के कीड़े के समान है दोनों तरह तुझे नरक में ही रहना है, यदि बराबर हो तो हो।" उपयुक्त अनुवाद भ्रष्ट है और संस्कृतच्छाया भी अशुद्ध है । द्वयोः (दोण्णं) का अर्थ "दोनों प्रकार से''-यह करना व्याकरण की बलाद् अवहेलना है। षष्ठयन्त 'द्वयो': का अर्थ है-दोनों का । षष्ठी प्रकारवाचक नहीं, सम्बन्ध Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो वाचक होती है। 'काले अक्षर तक को न जानना और नीम के कीड़े के समान होना'-इन दोनों स्थितियों को नरक-निवास का हेतु नहीं कहा जा सकता। 'यदि बराबर हो तो हो'-इस वर्णन का आशय स्पष्ट नही है । गाथा की संस्कृतच्छाया यों होगी कालाक्षरदुःशिक्षित धार्मिक रे निम्ब कीटकसदृश । द्वयोरपि निरयनिवासः समकं यदि भवति तद् भवतु ॥ यह किसी धार्मिक और अध्ययनपरायण तरुण को सुरत के लिये प्रेरित करने वाली कुलटा की उक्ति है । उसकी दृष्टि में अध्ययन काले अक्षरों की कुशिक्षामात्र है और नोरस शास्त्रों के चिन्तन एवं धर्म पालन में समय व्यतीत करने वाला विद्वान् उस कीड़े के समान है जो नीम के कड़ वे फलों के आस्वादन में निरन्तर निरत रहता है। ___ गाथार्थ हे काले अक्षरों को कुशिक्षा प्राप्त करने वाले, हे नीम के कीड़े के समान धार्मिक ! दोनों ( मुझे और तुम्हें ) को भी यदि एक साथ नरक हो तो होने दो। कुलटा कामिनी के द्वारा प्रयुक्त तरुण के विशेषणों की व्यंजकता दर्शनीय है। तरुण की अध्ययनपरायणता और धार्मिकता उक्त कामिनी की मनोरथ सिद्धि में बाधक है । अतः वह वचन पाटवपूर्वक दोनों का विरोध करती है । वह 'कालाक्षर' के प्रयोग के द्वारा अक्षरों में कालुष्य की प्रतीति कराकर उनकी हेयता का ही प्रतिपादन नहीं करती अपितु उसो पद में दुःशिक्षण का हेतु भी उपस्थित करती है। निम्ब कीट सदृश पद के द्वारा धार्मिकता और अध्ययनपरायणता की नीरसता पर किये गये कटाक्ष में यह व्यंजना है कि तुम्हारे जीवन में कोई रस नहीं रह गया है, अतः वह व्यर्थ है। जीवन की सार्थकता केवल रतिसुख में है। उत्तरार्ध में नरक-निवास की स्वीकृति का ध्वनन-व्यापार भी विलक्षण है । नायिका नायक को यह जताना चाह रही कि तुम धार्मिक मान्यता जन्य नरक-भय के कारण मेरा प्रणय अंगीकार नहीं कर रहे हो वह भय तो मुझे भी होना चाहिये था। खेद है, एक अबला होकर भी मैं जिसकी कुछ भी परवाह नहीं करती हूँ, तुम शौर्य एवं पौरुष के पुज पुरुष होकर उसौ से डर रहे हो। इससे बड़ी कायरता और क्या होगी ? होने दो नरक ! हम दोनों साथ-साथ नरक चलेंगे। 'द्वयोरपि' के द्वारा नरक में भी वह तरुण का साथ न छोड़ने की बात कहकर अपने प्रणय की एकनिष्ठता और सत्यता सूचित करती है। उसका अभिप्राय यह है कि हम दोनों को साथ-साथ रहना है, इसका अवसर यदि नरक में ही मिलता है तो क्या आपत्ति है ? Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण अनुवादक - द्वारा दी गई संस्कृतच्छाया में गाथा की व्यंजकता नष्ट हो गई है । नायिका का प्रणय स्वशब्द निवेदित होने के कारण वाच्य बन गया है । कथन में उसकी वचनपटुता नहीं, घृष्टतापूर्ण निर्लज्जता झलकती है । ५२. आणा अणालवंतीए कीरए दोसए पराहुत्तो । ८ णितम्मि णीसिसिज्जइ पुत्ति ! अपुग्यो क्खु दे माणो ।८९० आज्ञाऽनालपन्त्या क्रियते दृश्यते पराभूतः । निभृते निःश्वस्यते पुत्रि ! अपूर्व: खलु ते मानः ॥ " तू बिना बोले ही आज्ञा करती है, वह पराङमुख होकर तुझे देखता है, अकेले में निःश्वास लेता है, बेटी ! तेरा मान अपूर्व है ।" यह अनुवाद और संस्कृतच्छाया — दोनों दोषपूर्ण हैं । 'पराहुत्तो' का संस्कृत रूपान्तर ‘पराग्मुतः' है। 'पाइयसद्दमहण्णव' में 'पराहुत्तों' को पराङमुख के अर्थ में देशी शब्द लिखा गया है, किन्तु यह देशी नहीं है । प्राकृत में गम् के अर्थ में -णी' क्रिया व्यवहृत होती है । उसमें शतृ प्रत्यय लगने पर 'णित' या 'णिन्त' रूप बनता है । 'णितम्मि' उसका सप्तम्यन्त रूप है । उसका संस्कृतरूपान्तर 'निभृते' नहीं, 'निर्गच्छति' है । गाथा में नायिका के लिये प्रयुक्त तृतीयान्त 'अनालपन्त्या' ( अणालवंतीए ) पद ही 'क्रियते' (कीरए) के समान 'दृश्यते' ( दीसए) और 'निःश्वस्यते' ( णीसिसिज्जइ ) क्रियाओं का भी कर्ता है | अनुवाद में 'क्रियते' के साथ तो उसे अन्वित किया गया है, किन्तु शेष दोनों क्रियाओं के कर्तृत्व के लिये 'वह' अनर्गल आक्ष ेप किया गया है । गाथा में नायिका के मान की जिस अपूर्वता का प्रतिपादन है उसकी सिद्धि उक्त अशुद्ध अनुवाद से नहीं होती बिना बोले ही द्वारा नायिका । वैसी नायक के व्यापार हैं । आज्ञा देने में जैसी अपूर्वता की प्रतीति संभव है को देखने ओर लम्बी सासें लेने में नहीं है । ये तो निसर्ग -सिद्ध सभी प्र ेमी मानवती प्रणयिनी को मुड़-मुड़ कर देखते हैं और दीर्घ हैं । परन्तु उक्त आंशिक अपूर्वता भी तब स्वीकार्य थी जब बिना देना संभव होता । आज्ञा देना मौखिक व्यापार है जिसमें बोलना अनिवार्य है । यदि आज्ञा ( शारीरिक क्रियाओं के द्वारा ) सांकेतिक है तो मान की स्थिति साँसें लेते बोले आज्ञा ही कहाँ है ? आज्ञा क्रियते ( आणा कीरए) का अर्थ आज्ञा आज्ञा का पालन करना है । देना नहीं, अपितु फिर भी उसकी घर की बहू रूठ गई है । वह पति से नहीं बोल रही है, आज्ञा का चुपचाप पालन करती जा रही है । जाता है तब उसे ( छिपकर ) देखती है और जब वह ( पति ) पराङमुख हो जब ( घर से ) बाहर निकल जाता है तब दीर्घ श्वास लेती है । उसकी यह विलक्षण दशा देखकर सास कहती है Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो __ बेटी ! तेरा मान अपूर्व ( विलक्षण ) है क्योंकि ( पति से ) न बोलती हुई तू ( उसकी ) आज्ञा का पालन करती है, पराङ मुख हो जाने पर उसे देखती है और उसके बाहर चले जाने पर दीर्घ साँसें लेती है । तात्पर्य यह है कि यदि इतर महिलाओं के ही समान तेरा मान होता तो तू न पति की आज्ञा का पालन करती, न उसे देखती और न उसके लिये दीर्घ श्वास लेती, अतः तेरा मान अन्य मानिनियों से विलक्षण है। ५३. अल्लिअइ दिट्ठिणिभच्छिओ वि विहुओ वि लग्गए सिचए। पहओ वि चुम्बइ बला, अलज्जए कह णु कुप्पिस्सं ॥८९२॥ आलीयते दृष्टि निर्भत्सितोऽपि विधूतोऽपि लगति सिचये। प्रहतोऽपि चुम्बति बलात् अलज्जके कथं नु कुप्पिष्यामि ॥ "नजर से डाँटने पर भी पास आने लगता है, झाड़ देने पर भी कपड़ा पकड़ लेता है, प्रहार करने पर भी बलपूर्वक चुम्बन करता है, ऐसे निर्लज्ज पर कैसे नहीं कोप करूं।" ____ यह अनुवाद उपहासास्पद है । नायक के समस्त वणित व्यापार कोप-उपशमन के साधक है। यदि वे कोप के हेतु होते तो नायिका कह सकती थी कि ऐसे निलंज्ज व्यक्ति पर मैं क्रोध क्यों न करूं ? यहाँ तो निर्लज्ज होने पर भी नायक की विनम्रता पर नायिका को रोझ जाना चाहिए । गाथा में णु ( नु) निषेधार्थक नहीं है । वह वितर्क एवं वक्रोक्ति का व्यंजक है। 'अलज्जके, में नायक की निन्दा नहीं,प्यार छिपा है । 'विहुओ' का अर्थ है-परित्यक्त ।'झाडू देने पर भी कपड़ा पकड़ लेता है।"--इस वर्णन से प्रतीत होता है, जैसे नायक कोई खटमल है जो झाड़ने पर भी कपड़े से चिपक जाता है । ___नायिका को उसकी सहेली मान करने के लिये उसका रही है । वह बेचारी अपनी विवशता का वर्णन इस प्रकार कर रही है : गाथार्थ-तिरस्कृत कर देने पर भी ( नायक ) निकट आता है, परित्यक्त होने पर भी वस्त्र ( आँचल ) पकड़ लेता है और प्रहार करने पर बलपूर्वक चुम्बन करता है, (ऐसे ) निर्लज्ज पर मैं कैसे कोप करूं । ( अर्थात मैं ऐसे प्रणयोच्छ्वसित पति के प्रति कोप कर ही नहीं सकती। ) ५४-हिमजोअचुण्णहत्थाओ जस्स दप्पं कुणंति राईओ। कह तस्स पिअस्स मए तीरइ माणो हला ! काडं ? हिमयोगचूर्णहस्ता यस्य दर्पं कुर्वन्ति रात्र्यः । कथं तस्य प्रियस्य मया शक्यते मानो हल! ! कर्तुम् ॥ "बर्फीली ठंडक से हाथ तोड़ देने वाली रातें जिसका दर्प करती है, सखी ! Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण मैं कैसे उस प्रिय से मान कर सकती हूँ ।" "हिमयोगचूर्णहस्ता' का अर्थ 'बर्फीली ठंडक से हाथ तोड़ देने वाली' करना भाषा के साथ बलात्कार है । यदि afa को वही अर्थ अभीष्ट होता तो वह 'हिमयोग चूर्णितहस्ता' ( हिमजोअचुण्णिअहत्थाओ ) लिखता । पूर्वोद्धृत शब्दानुसारी अशुद्ध अनुवाद ने इस सरस एवं अलंकृत गाथा का अनुपम काव्य-सौन्दर्य ही नष्ट कर दिया है । 'हिमजोअचुण्ण हत्थाओ' और राईओ पदों में स्थित सहज श्लेष को अनुवादक ht ऋजु बुद्धि नहीं समझ सकी । गाथा का भाव समझने के लिये श्लिष्ट और पारिभाषिक शब्दों का अर्थ दे देना आवश्यक है। योगचूर्ण = तान्त्रिकों के द्वारा वशीकरण के लिये प्रयुक्त होने वाला चूर्णं या भस्म । केवल चूर्णं का भी वही अर्थ होता है । .... हत्थ (हस्त ) - सहायता, हाथ में होना, अधीन होना । २ राई १ - रात्रि २ - राई ( राजी ) काली सरसों प्रायः किसी को वश में करने के लिये तन्त्रानुसार सरसों के साथ भस्म ( भभूत) या चूर्ण का प्रक्षेप किया जाता है । कवि ने तान्त्रिक प्रयोग को श्लेष के माध्यम से बड़ी निपुणता से अभिव्यक्त किया है। तरुणी नायिका की सख उसे मान करने की शिक्षा दे रही है । नायिका मान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करती है । वह कहती है- हे सखी ! हिम ( शीत ) रूपी योग्य चूर्ण जिनके अधीन है, ( हाथ में है | ) ( या जिनकी सहायता करता है । ) वे राई के समान रातें जिसके दर्प ( अभिमान ) को उत्पन्न करती हैं, उस प्रियतम के प्रति मैं कैसे मान कर सकती हूँ ? आशय यह है : -- शिशिर और हेमन्त में शीताधिक्य के कारण महिलायें आवश्यक उष्णता के लिये स्वयं आलिंगन बद्ध हो जाती हैं । ऐसे भयावह शीतकाल में मान की शिक्षा देना व्यर्थ है । हिम ( शीत ) वशीकरणकारी योगचूर्ण है और रात है राई । वे दोनों मिलकर मुझे अनायास ही पति के वशीभूत कर देंगे । मेरा पति मेरी इस दुर्बलता को भली भाँति समझता है । इसीलिये अभिमान में ऐंठा हुआ है । परतु मैं भी तो विवश हूँ । मान मेरे वश का नहीं है । ५५ - किं भणह मं सहीओ ! करेहि माणं ति कि थ माणेण । सम्भावबहिरे तम्मि मज्झ माणेण वि ण कज्जं ॥ ८९४ ॥ 1 १ - पाइअसद महण्णव २ - आप्टे कृत संस्कृत कोश ४७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ गाथासप्तशती किं भणथ मां सख्यः! कुरु मानमिति किं स्यान्मानेन ?। सद्भावबाह्ये तस्मिन् मम मानेनापि न कार्यम् ।। 'सखियों ! मुझसे क्या कहती हो कि मान कर ? मान से क्या होगा? सद्भाव रहित उसके प्रति मान की भी जरूरत नहीं।" इस गाथा का मूल पाठ त्रुटित है । द्वियीय पाद में आवश्यक मात्रायें नहीं है फलतः संस्कृतच्छाया भी ठीक नहीं है । मूल पाठ और संस्कृतच्छाया का स्वरूप यह होना चाहिये : किं भणह मं सखिओ ! करेहि माणं ति किमेत्थ माणेण । सब्भावबहिरे तम्मि मज्झ माणेण वि ण कज्ज ॥ कि भणथ मां सख्यः ! कुरुमानमिति किमत्र मानेन । सद्भावबाह्ये तस्मिन् मम मानेनापि न कार्यम् ।। अनुवाद ठीक है। ५६-जइआ पिओण दोसइ भण ह हला! करस कोरए माणो? । अह विट्ठम्मि वि माणो ? ता तस्स पिअत्तणं कत्तो । यदा प्रियो न दृश्यते भणत हला! कस्य क्रियते मानः ? । अथ दृष्टेऽपि मानस्तत्तस्य प्रियत्वं कुतः ॥ "अरी सखियों ! जब प्रिय नगर के सामने नहीं तो, कहो, किससे मान करें ? और जब नजर के सामने है तो भी मान ? तो फिर प्रेम कहाँ ?" पिअत्तण भाववाचक संज्ञा है उसका अर्थ प्रियत्व है, प्रम नहीं । प्रम की स्थिति नियत नहीं है, वह उभयनिष्ठ भी हो सकता है और एकनिष्ठ भी। प्रियत्वं एक ऐसा धर्म है जो केवल प्रिय में रहता है । नायिका का आशय यह है कि प्रिय की अनुपस्थिति में आश्रयहीन मान व्यर्थ है और जब प्रिय दृष्टि के समक्ष है तब भी मान करें तो प्रिय का प्रियत्व ही कहाँ रह जायेगा (अर्थात् उसके लिए प्रिय शब्द का प्रयोग ही निष्फल है।) ५७-सुहअ! मुहुत्तं सुप्पउ जं ते पडिहाइ तं पि भणिहिसि । अज्ज ण पेच्छंति तुहं णिदागरुआइ अच्छीइ ॥९००॥ सुभग ! मुहूर्त स्वपिहि, यत्ते प्रतिभाति तद् भणिष्यसि । अद्य न प्रेक्षेते त्वां निद्रागुरुके अक्षिणो ।। "हे सुभग ! मुहूर्त भर सो जा, जो तुझे अच्छा लगे वही कह लेना, आज नींद से भारी आँखें तुझे नहीं देख रही हैं।" इस गाथा का अनुवाद और संस्कृतच्छाया-दोनों भ्रष्ट है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण 'सुप्पउ' को सोने के अर्थ में प्रचलित सामान्य प्राकृत क्रिया 'सुप्प' का रूप मानने पर मध्यम पुरुष में प्रथमपुरुषीय प्रत्यय 'उ' के कारण च्युतसंस्कृत दोष आता है । यहाँ सुप्पउ, का 'उ' प्रत्यय भाववाच्य का सूचक है । 'सुप्प' संस्कृत 'सुप्य' का प्राकृत रूप है। 'तुह' युष्मद् का षष्ठ्यन्त प्राकृतरूप ही उसका अर्थ है-तव ( तुम्हारा) गाथा का संस्कृत रूपान्तर यह होगा : सुभग ! मुहूर्त सुप्यतां यत्तं प्रतिभाति तदपि भणिष्यामि । अद्य न प्रेक्षते तव निद्रागुरुके अक्षिणो॥ नायक अन्य प्रेयसी के साथ रात भर जगकर प्रातःकाल घर आया है और नींद के आलस्य में पत्नी को रखैल के नाम से बुलाने की भूल कर बैठता है । पत्नी व्यंग्य करती हुई कहती है गाथार्थ-हे सुभग ! क्षण भर सो जाइये, जो तुम्हें अच्छा लगता है, मुझे वह भी कह लेना, ( अर्थात् जो प्रिय लगे उसी नाम से बुला लेना । ) आज तुम्हारी, निद्रा से भारी आँखें नहीं देख रही हैं अर्थात् मुझे नहीं पहचान पा रही हैं। पत्नी का आशय यह है कि नींद से अन्धी आँखों के कारण तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि मैं कौन हूँ और मेरा नाम क्या है। ५८-वेआरिज्जसि मुद्धे ! गोत्तक्खलिएहिं मा खु तं रुवसु । किंव ग पेच्छइ अण्णह एदहमेहि अच्छीहि ॥ व्याक्यारितारासि मुद्धे ! गोत्रस्खलिता खलु तद् रुदिहि । किमिव न प्रेक्षतेऽन्यथा एतावन्मात्राभ्यामक्षिभ्याम् ॥ "अरी ना समझ ! उसने तुझे अन्य नामों से पुकारा है, इस कारण उसे मत रुला, क्या वह इतनी ( एतावन्मात्र) आँखों से तुझे नहीं देखती।" पह अनुवाद प्रसंग विरुद्ध और असंगत है। वेआरिज्जासि की संस्कृतच्छाया 'व्याकारिताऽसि' नहीं होगी क्योंकि 'इज्ज' या 'इज्जा' का निष्ठा (क्त ) के अर्थ में प्रयोग नहीं होता। यहाँ 'इज्ज' कर्मवाच्य का प्रत्यय है। 'सि' मध्यमपुरुष एक वचन की विभक्ति है । 'वेआर' क्रिया वञ्चनार्थक है । 'रुदिहि' का अर्थ रुलाना नहीं, रोना है । 'तं' का अर्थ न तो तम् ( उसको) है न तट, वह त्वम् के अर्थ में प्रयुक्त है । अतः संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार होगा वञ्च्यसे मुग्धे! गोत्रस्खलिता खलु त्वं रुदिहि । किमिव न प्रेक्षतेऽन्यथा एतावन्मात्राभ्यामाक्षिभ्याम् ।। अनुवाद के अन्तर्गत 'अरी नासमझ !" यह लिखकर जिस तरुणी को स्त्री १. ईस इज्जो क्यस्य है० सू० ३/१६० । ४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती लिंग में सम्बोधित किया गया है उसे अन्य नामों से पुकारने वाली भी स्त्री ही प्रतीत होती है क्योंकि उसके लिये नहीं देखती' क्रिया का प्रयोग है। कोई युवती किसी स्त्री के द्वारा अन्य नामों से पुकारे जाने पर न दुःखी होती है और न कोप ही करती है। जब पति अथवा प्रेमी अन्य नाम से पुकारता है तब उसको अन्यत्र अनुरक्त समझकर दुःख अथवा कोप का होना स्वाभाविक है । अतः उक्त अनर्गल अनुवाद उपेक्षणीय है। गाथा का भाव यह है कि । नायक ने चिढ़ाने और छलने के लिये नायिका को अन्य नामों से बुलाया है। इससे उसको ( नायक को) सचमुच अन्य महिलाओं में ( जिनके नामों से उसे बुलाया गया है ) अनुरक्त समझ कर वह रो पड़ती है ! उसकी सखी वास्तविकता को स्पष्ट करती हुई कहती है-'तुम रोओ मत । पति ने केवल वंचना के लिये तुम्हें अन्य महिलाओं के नामों से बुलाया है। वह तुम्हें चिढ़ाकर केवल आनन्द लेना चाहता है। यदि उसमें चारित्रिक स्खलन होता तो वह गोत्रस्खलन के कारण अवश्य लज्जित हो जाता और शिर नीचा कर लेता । परन्तु यह सब कुछ नहीं हुआ। वह औत्सुक्य और विस्मय से विस्फारित नेत्रों से तुम्हें देख रहा है। लज्जा के स्थान पर औत्सुक्य और विस्मय का प्रकाशन उसे निर्दोष सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। अतः तुम्हारा दुःखी होना अनुचित है । गाथा में 'गोत्रस्खलनः' और 'एतावन्मात्राभ्याम्'-पदों के द्वारा अद्भुत व्यंजकता आ गई है । 'गोत्रस्खलनः' का बहुवचन नायक के कृत्रिम गोत्रस्खलन का प्रत्यायक है क्योंकि इतनी अधिक तरुणियों से एक साथ उसका अनुराग विश्वसनीय नहीं। 'एतावन्मात्र' से नेत्रविस्फारण का वास्तविक और अनुभवमात्रैकगम्य स्वरूप बताकर एक ही अनुभाव से औत्सुक्य एवं विस्मय-इन दोनों भावों की प्रतीति कराना कवि के असाधारण काव्यवैदग्ध्य का परिचायक है। उक्त भाव नायक को निर्दोषता के अभिव्यंजक है। 'मुग्धे' पद उनका सहायक है । "किमिव' से प्रेक्षण व्यापार की अनिर्वचनीयता ध्वनित हो रही है । ___गाथार्थ-हे मुग्धे! पति ने अन्य महिलाओं के नामों से तुझे बुलाया है ( गोत्रस्खलन किया है ) तो रोओ मत । तुम छली जा रही हो। क्या वह इतनी मात्रा वाले ( इतने बड़े-बड़े ) नेत्रों से कुछ अन्य प्रकार से नहीं देख रहा है ? ५९-सोत्तुं सुहं ण लब्भइ अव्वो ! पेम्मस्स वंकविसमस्स । दुग्धडिअमंचअस्स व खणे खणे पाअपडणेण ।। श्रोत सुखं न लभ्यते अव्वो! प्रेम्णो वक्रविषमस्य । दुर्घटितमञ्चकस्येव क्षणे क्षणे पादपतनेन ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण "ओहो ! गलत ढंग से बने मष्चक (खाट) के समान, जिसके पाये क्षणक्षण गिरा करते हैं, वक्र और विषम प्रेम के कारण सोने का सुख नहीं मिलता है।" यह अनुवाद अधूरा है । इसके दोषपूर्ण वाक्य-विन्यास ने अधूरे अर्थ को भी उलझा दिया है। गाथा में वक्र विषम-प्रेम की उपमा दुर्घटित मंचक से दी गई है । वह अवश्य ही किसी साधर्म्य पर अवलम्बित होगी। परन्तु अनुवादक ने उसे स्पष्ट नहीं किया है। ___ अनुवाद में 'न सो पाने' का हेतु 'वक्रविषम' प्रेम को बताया गया है। उक्त शब्द में षष्ठी है, हेतु में तृतीया होती है या पंचमी । गाथा में हेतुवाचक तृतीयान्त पद 'पादपतनेन' (पाअपडणेण ) विद्यमान है। अतः 'वक्रविषमप्रेम' का हेतुत्व असंगत है । 'पादपतन' ( पाअपडण ) में श्लेष है। उसका एक अर्थ है, पाये का गिर जाना और दूसरा अर्थ है, ( नायक का) चरणों पर गिरना। प्रथम अर्थ का सम्बन्ध उपमान मंच से है और द्वितीय का उपमेयभूत 'वक्रविषमप्रेम' से । 'अव्वो' खेदसूचक प्राकृत निपात है। सोत्तुं की संस्कृतच्छाया प्रकरण विरुद्ध है, वहाँ स्वस्तु होना चाहिये । प्राकृत गाथा अत्यन्त सरस एवं चमत्कृतिपूर्ण है। भ्रष्ट अनुवाद ने उसका साहित्यिक स्तर ही गिरा दिया है। नायक खंडिता अथवा मानवती नायिका को प्रसन्न करने के लिये बार-बार उसके चरणों पर गिर रहा है। वह प्रत्येक बार उस अपराधी का तिरस्कार ही करती जा रही है। वह इतना धृष्ट है कि मानता ही नहीं। नायिका उसके छलपूर्ण प्रणय से विरक्त हो चुकी है और निद्रा की अवस्था में अपनी मानसिक अशान्ति भुलाना चाह रही है। हठो नायक क्षण-क्षण पैरों पर गिर कर उसे सोने नहीं दे रहा है । अतः वह खोक्ष कर कहती है खेद है, जिस प्रकार अच्छे ढंग से न बने हुये मंचक ( पर्यक) के पायों के गिर पड़ने के कारण सोने का सुख नहीं मिलता है उसी प्रकार ( इस) वक्र (छलपूर्ण ) और विषम ( प्रेमी और प्रेमिका में समान रूप से न रहने वाले, असमान ) प्रेम से सम्बन्धित (तुम्हारे ) पादपतन ( मेरे पैरों पर गिरने की क्रिया ) से भी मैं सुखपूर्वक सो नहीं पा रही हूँ । ६०-चड्ढउ ता तुह गव्यो, भण्णसि रे जह विहंडणं वअणं । सच्चं ण एइ णिहा तुए विणा, देहि ओआसं ॥ ९०६ ॥ वर्धतां तावत् तव गर्वो भणसि रे यथा विभण्डणं वचनम् । सत्यं नैति निद्रा त्वया विना देहि अवकाशम् ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती "तेरा गर्व बढ़े और जो कि तू झगड़े की बात करती है पर सचमुच तेरे बिना नींद नहीं आती ( मुझे भी सेज पर ) जगह दे ।" झगड़े की बात की अपेक्षा सम्बन्ध विच्छेद की बातों से दूरी बढ़ना अधिक संभव है । झगड़े तो प्रायः परिवार में होते ही रहते हैं । अतः 'विहंडणं' का अर्थ 'विभण्डनं ' ( विशेष झगड़ा करने वाला ) न करके 'विखण्डनं' ( विशेष रूप से सम्बन्धविच्छेद करने वाला ) करना अधिक उपयुक्त है । वचन का यह विशेषण 'विभण्डनं' की अपेक्षा गर्ववृद्धि के अधिक अनुकूल है । नायिका सोच सकती है कि मैं सम्बन्ध तोड़ने की बात करती हूँ तब भी यह मेरा पीछा नहीं छोड़ता । अतः उसका गवं बढ़ना स्वाभाविक है । शेष अनुवाद ठीक ही है । ६१ - कअविच्छेओ सहिभंगिभणिअसम्भाविआवराहाए । ५२ झाड आपल्लवइ पुणो णअणकवोलेसु कोवतह ॥ ९०७॥ कृतविच्छेद: सखीभङ्गिभणितसम्भावितापराधायाः । झटिति आपल्लवति पुनर्नयनकपोलयोः कोपतरुः ॥ "सखी की लटपट बातों से तेरा अपराध मानकर उसका विच्छेद किया हुआ भी कोपतरु फिर नेत्र और कपोलों में तुरत पल्लवित हो गया ।" 'सम्भाविवराहाए' का अर्थ 'संभावितापराधायाः' नहीं है । उक्त पद की संस्कृतच्छाया 'सद्भावितापराधायाः ' है । सम्भावित अपराध प्रचण्ड कोप का नहीं, हल्के मान का ही हेतु हो सकता है । गाथा नायिका के उत्कट कोप का वर्णन करती है, जिसके लिये वास्तविक एवं सत्य अपराध की अपेक्षा है । 'सहिभं गभणिअसम्भाविआवराहा' का अर्थ है - सखी के वक्रवचन विन्यास से जिसने ( नायक के ) अपराध की सत्यता का निश्चय कर लिया है । ( सहीए आलीए भगि भणिण कवअणविण्णासेण सब्भाविओ सच्चत्तणेण णिच्छिओ अवराहो जीए । ) गाथा का अर्थ यह है : सखी के वक्रवचनविन्यास से जिसने ( नायक के ) अपराध की सत्यता का निश्चय कर लिया था, उस नायिका का कटा हुआ कोपरूपी वृक्ष भी नयनों और कपोलों में पुन: पूर्णतः पल्लवित हो गया । ( अर्थात् उसके नयन और कपोल आरक्त हो गये । ) रूपक पुरस्कृत पल्लवित शब्द पल्लवनिष्ठ लोहित्य का व्यंजक है । उससे नयनों और कपोलों के आरक्त हो जाने की सूचना मिलती है । ६२ - हिअए रोसुक्खित्तं पाअपहारं सिरेण पत्थंतो । ण हओ दइओ माणसिणीए, थोरंसुअं रुण्णं ॥ ११० ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण हृदये रोषोद्गीणं पादप्रहारं शिरसि प्रार्थयमानः । तथैवेति प्रियो मनस्विन्या स्थूलाश्रु रुदितम् ।। "प्रिय ने रोष के कारण मन ही मन पदप्रहार को सिर पर मांगा तो मनस्विनी ने नहीं मारा और मोटे-मोटे आंसू ढार कर रोने लगी।" "विमर्श-नायिका प्रिय पर रुष्ट होकर उस पर मन ही मन पादप्रहार करने लगी, जब प्रिय ने प्रत्यक्ष रूप से उसके पादप्रहार को अपने शिर पर मांगा तो रोने लगी।" यह अनुवाद नितान्त उपहासास्पद है । प्रिय के द्वारा मन ही मन की गई पाद प्रहार की प्रार्थना को नायिका जान कैसे गई ? और बिना जाने उसने मारना कैसे छोड़ दिया ? अनुवाद में नायक के द्वारा मन ही मन पादप्रहार के माँगने का वर्णन है । विमर्श में नायिका के द्वारा मन ही मन पादप्रहार करने की बात लिखी गई है और नायक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से पादप्रहार की याचना है । दोनों में एक ही संभव है । "प्रिय ने रोष के कारण मन ही मन पदप्रहार को सिर पर मांगा।" इस अनुवादस्थ वाक्य में नायक के रोष को पदप्रहार शिर पर मांगने का हेतु बताया गया है। यह नितान्त अनुचित है । कोई भी रोषाविष्ट व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उस पर प्रहार हो । वस्तुतः न तो नायिका की मनोगत प्रहारेच्छा नायक को ज्ञात हो सकती है और न नायिका ही नायक की मनोगत प्रहार-याचना को जान सकती है। अतः यह अनुवाद एक तमाशा बन गया है। गाथा की संस्कृतच्छाया मूलानुसारिणी नहीं है । अनुवादक के अनुसार वह वज्जालग्ग से ली गई है, परन्तु वज्जालग्ग में गाथा का पाठ इस प्रकार है : हिअए रोसुग्गिण्णो पायपहारं सिरम्मि पत्थंतो । तह उत्ति पिओ माणंसिणीइ थोरंसुअं रुण्णं ॥ उक्त संस्कृतच्छाया इसी पाठ पर अवलम्बित है । अनुवादक ने पाठ भेद होने पर भी इसी के अनुसार गाथा को अनूदित किया है । प्रस्तुत गाथा की शब्दानुसारिणी संस्कृतच्छाया यों होगी : हृदये रोषोत्क्षिप्तं पादप्रहारं शिरसि प्रार्थयमान : । न हतो दयितो मनस्विन्या स्थलाश्रकं रुदितम् ।। यह खंडिता नायिका का वर्णन है । नायिका ने अपराधो नायक की छाती (हृदय) पर प्रहार करने के लिए जैसे ही चरण उठाया तैसे ही उसने ( नायक ने ) अपना शिर आगे कर दिया। यह देखकर मनस्विनी नायिका ने उसे मारा नहीं । वह स्थूलाच गिराकर रो पड़ी। नायक ने छाती को प्रहार से बचाने की जो चेष्टा की उसी में नायिका के रोने का हेतु छिपा है । वह तुरन्त समझ गई Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो कि इसके हृदय में अवश्य कोई प्रेयसी बसी है जिसकी रक्षा के लिये छाती के प्रहार से बचना चाहता है । यह वास्तविक अपराधी है । 'वज्जालग्ग' में इस गाथा का जो पाठ है उसमें तह उत्ति (तथैवेति) की उपस्थिति के कारण व्यंग्य की दिशा का ईषद् सांकेतिक आभास मिल जाता है । परन्तु प्रस्तुत पाठ में व्यंग्य की प्रतीति निगूढ है । व्यंग्य की अवगति के अभाव में रोषाविष्ट नायिका के रोने का कारण स्पष्ट नहीं हो सकता। यहां व्यंग्य वाच्यार्थ का साधक होने के कारग गुणीभूत हो गया है। ६३-पिअअमविइण्णचसअं अचक्खि पिअसहीए देतीए । अभणंतीएँ विमाणंसिणीएँ कहिओ चिचम विरोहो॥९११|| प्रियतमवितीर्ण चषकमनास्वादितं प्रियसख्या ददत्या । अभणन्त्याऽपि मनस्विन्या कथित एव विरोधः ।। "प्रियतम के द्वारा अर्पित मदिरा-चषक को न चखकर प्रिय सखी जब देने लगी तब कुछ न बोलती हुई भी मनस्विनी ने विरोध प्रकट कर ही दिया।" बिना बोले विरोध प्रकट करनेवाली मनस्विनी और प्रिय सखी-दोनों पृथक-पृथक् महिलायें हैं । यहाँ प्रश्न यह उठता है कि मदिराचषक प्रदान करने वाला प्रियतम किसका है ? यदि प्रिय सखी का है तो जिसने बिना बोले विरोध प्रकट कर दिया उसकी गाँठ से क्या चला गया था ? यदि विरोध प्रकट करने वाली का है तो उसने (प्रियतम ने) प्रियतमा के अतिरिक्त अन्य को चषक क्यों दिया और उसने क्यों चखा नहीं ? अनुवाद की भाषा से लगता है कि मनस्विनी नायिका की सखी के प्रियतम ने उसे ( सखी को) मदिराचषक दिया था । वह उसे बिना चखे हो मनस्विनी नायिका को देने लगी। तब नायिका ने बिना बोले विरोध प्रकट कर दिया। इस वर्णन में विरोध का कारण स्पष्ट नहीं है। कोई प्रियतम अपनी प्रिया को मदिराचषक प्रदान करे और वह (प्रिया) उसे बिना चखे अपनी प्रिय सखी को दे दे तो उसकी बहुत बड़ी उदारता है। इससे सखी का सम्मान सूचित होता है । प्रसन्न होने के स्थान पर वह विरोध क्यों प्रकट करेगी ? यदि मदिराचषक प्रदान करने वाले से उसका प्रच्छन्न-प्रणय है तो विरोध भी सम्भव है । किन्तु यह स्थिति तो तब आती जब गाथा की संस्कृतच्छाया शुद्ध होती । "पिअसहीए' में सम्प्रदानार्थक चतुर्थी है। मनस्विनी और प्रियसखी का समानाधिकरण अप्रासंगिक है। शुद्ध संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी : प्रियतमवितीर्ण चषकमनास्वादितं प्रियसख्यै ददत्या। अभणन्ल्याऽपि मनस्विन्या कथित एव विरोधः। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण गाथा का भाव यह है। अपराधी नायक नायिका को प्रसन्न करने के लिये उसे मदिराचषक प्रदान करता है। नायिका उसे स्वयं न पीकर अपनी सखी को दे देती है। इस प्रकार वह यद्यपि वाणी से नायक का विरोध नहीं करती तथापि उसके द्वारा सादर और सप्रणय प्रदत्त मधुचषक को अस्वीकृत कर अपना विरोध व्यंजित कर देती है । यहाँ चषक का अस्वीकरण ही वाणी के अभाव में विरोध का प्रकाशक है। ६४. तणुआइआ वराई दिअहे दिअहे मिअंकलेहाव्व । बहुलपओसेण तुए णिसंस ! अंधारिअ मुहेण ॥९१३॥ तनुकायिता बराकी दिवसे दिवसे मृगाङ्कलेखेव । बहुलप्रदोषेण त्वया नृशंस ! अन्धकारितमुखेन ॥ ___ "रे नृशंस ! बहुत दोषों से भरे कलमुंहे तेरे कारण (पक्ष में बहुल प्रदोष = कृष्णपक्ष के कारण ) वह बेचारी चन्द्रलेखा की भाँति दिन-दिन दुबराती जा रही है।" ___इस अनुवाद में क्षीण होने (दुबराने) का सामान्य कारण ही उल्लिखित है । दिन-दिन क्षीण होने का कोई विशेष कारण भी अपेक्षित है । अनुवादक ने प्रदोष और अन्धकारितमुख के उभयपक्षीय अर्थों का उद्घाटन नहीं किया है। गाथा का उचित अर्थ यह है : नृशंस जिसका अगला भाग ( मुख ) अन्धकारयुक्त है, उस कृष्णपक्ष (बहुल) के सन्ध्याकाल ( प्रदोष ) में जैसे चन्द्रकला दिन-दिन क्षीण होती जाती है, उसी प्रकार अत्यधिक दोषों वाले एवं ( उसके ) मुख पर कालिक पोतने वाले ( अन्धकारितमुखेन') तेरे कारण वह बेचारी क्षीण हो गई है। ___ यहाँ नायक के कुकृत्यों से नायिका के मुख पर कालिख लगना क्षीणता का विशेष कारण है। ६५. भिउडी ण कआ कडुअं णालविअं अहरअं ण पज्जु । उवऊहिआ ण रुण्णा एएण वि जाणिमो.माणं ॥९१५॥ भृकुटिर्न कृता कटुकं नालपितं अधरकं न प्रजुष्टम् । उपगूढा न रुदिता एतेनापि जाने मानम् ॥ "उसने भृकुटी नहीं की, कडुई न बोली, अधर को न काटा, मुझे आलिंगन किया और न रोई, इतने पर भी हमें मालूम है कि वह रूठ गई है।" गाथा में नायिका को चेष्टाओं एवं क्रियाओं से मान का प्रत्यक्ष प्रकाशन १. अन्धकारितं श्यामीकृतं ( नायिकायाः ) मुखं येन इत्यर्थः। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ गाथासप्तशती न होने पर भी नायक को उसका आभास हो जाने का जो सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक वर्णन है उसे अनुवाद व्यक्त नहीं कर सका है। 'अधर को न काटना' ऐसो चेष्टा है जिससे मान का प्रत्यक्ष प्रकाशन हो जाता है । गाथा में 'एतेनापि ' ( इससे भी ) के माध्यम से मानप्रकशनाभाव वर्णित है । जो मान चेष्टा के द्वारा प्रकाशित हो जाता है उसे सभी जान लेते हैं, यदि नायक ने भी जान लिया तो ऐसी कौन-सी अनहोनी बात हो गई जिसके कारण वह अपने ज्ञान का ढिढोरा पीटने लगा । नायिका का उपगूहन व्यापार ( मुझे आलिंगन किया ) तो मान का अस्तित्व ही समाप्त कर देता है । अत: असद्भूत मान का ज्ञान निरर्थक है । 'पज्जुट्ठ' कम्पनवाची देशी शब्द है । 'अहरअं ण पज्जुट्ठ' का अर्थ हैअधर काँपे नहीं । संस्कृतच्छाया में 'प्रजुष्ट' के स्थान पर 'प्रकम्पितम्' होना चाहिये | गाथा का अर्थ यह है : ( प्रिया ने ) भौंहें नहीं चढ़ाई, ( टेढी कीं ) कटु भाषण नहीं किया, उसके अधर भी नहीं काँपे, आलिंगित होने पर वह रोई भी नहीं, इतने पर भी मैं जानता हूँ कि वह रूठ गई है । यद्यपि ये सभी उपयुक्त व्यापार प्रणयानुकूल हैं तथापि नायक को प्रिया के मनोगत मान का आभास मिल ही जाता है । यदि प्रेयसी ने रोष से भ्रूभंग नहीं किया तो प्रणयव्यंजक हाव-भाव ही कहाँ प्रदर्शित किये ? यदि कटु भाषण नहीं किया तो मधुर वचनों से स्वागत भी नहीं किया, यदि वह आलिंगित होने पर रोई नहीं तो उसने स्वयं प्रियतम का आलिंगन भी तो नहीं किया । प्रणयसूचक उपगूहन व्यापार भी नायक की ही ओर से हुआ है । नायिका का यह निर्लिप्त और निर्विकार भाव ही मान का अनुभावक है । प्रणय अवरोध और सहयोग दोनों का आकांक्षी है । नायक को दोनों में से एक भी नहीं मिला । मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह गाथा साहित्यिक दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि की है । ६६. परिपुच्छिआ ण जंपसि चुम्ब्रिज्जंती बला मुहं हरसि । परिहासमाणविमुहे ! पसिअच्छि ! मअं मह वूमेसि ॥ परिपृष्टा न जल्पसि चुम्ब्यमाना बलान्मुखं हरसि । परिहासमानविमुखे ! प्रसृताक्षि ! मनो मे दुनोषि ॥ " पूछने पर नहीं बोलती, चुम्बन करने पर बल से मुंह फेर लेती है, परिहास करने पर विमुख हो जाती है, अरी ! फैली आँखों वाली ! तू हमारा मन दुखा रही है ।" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण अनुवादक ने परिहासमान विमुखे (परिहास माण विमुहे) का अर्थ यह दियाहै-"परिहास करने पर विमुख हो जाती है।" इस अर्थ में मान शब्द का उपयोग नहीं किया गया है ।। ___ गाथा में मानिनी नायिका का वर्णन है । नायक नायिका के वास्तविक मान को परिहास बताकर उसे अनुकूल करने का वैदग्ध्यपूर्ण प्रयास कर रहा है । 'परिहासमानविमुखे' नायिका का सम्बोधन है। उसका अर्थ है-परिहास के रूप में किए गये मान के कारण मुख फेर लेने वाली ( परिहासम्मि जो माणो तेण विवरीअं मुहं जीए)। अतः उत्तरार्ध का अर्थ यों करें । हे परिहास (हंसी) में (झूठा ) मान करके मुंह फेर लेने वाली विशाल नेत्रे ! तुम मेरा मन दुखी कर रही हो। ६७-अइ पोणत्थण उत्थंभिआणणे ! सुणसु सुणसु मह वअणं । अथिरम्मि जुज्जइण जोव्वणम्मि माणो पिए काउं ॥९१८॥ अयि पोनस्तनि ! उत्तम्भितानने शृणु शृणु मम वचनम् । अस्थिरे युज्यते न यौवने मानः प्रिये कर्तुम् ॥ " हे पीनस्तनि ! उन्मुखि ! सुतनु ! मेरा वचन सुन, यौवन स्थिर नहीं है, अतः प्रिय के प्रति मान करना ठीक नहीं है।" पीणत्थण उत्थंमिआणणे की संस्कृतच्छाया 'पीनस्तनोत्तम्भितानने' होगी और गाथा का अर्थ यह होगा = अरी! पीनस्तनों के कारण उत्तम्भितानने ! ( ऊंचे और पुष्ट स्तनों के कारण जिसका मुंह ऊपर ही रहता है अर्थात् जो स्तनों को ऊँचाई के कारण नीचे मुंह करके देख भी नहीं सकती। ) सुनो, मेरी बात सुनो, प्रिये ! अस्थिर यौवन में मान करना उचित नहीं है । ६८-तरलच्छि ! चंदवअणे! थोरत्थणि ! करिअरोरु! तणुमो । दीहा ण समपइ सिसिरजामिणी, कह णुदे माणो ॥९१९॥ - तरलाक्षि ! चन्द्रवदने ! स्तोकस्तनि ! करिवरोरु ! तनुमध्ये ॥ दीर्घा न समाप्यते शिशिरयामिनी कथं नु ते मानः ॥ " हे तरल आँखों वाली, चन्द्रमुखि ! थोड़े स्तनों वाली, हाथी के सूड़ के सदृश ऊरु वाली एवं क्षीण कटि वाली ! लम्बी यह शिशिर की रात नहीं बीत रही है, तेरा मान कैसा है।" 'थोरत्थणि' और 'करिअरोरु' की संस्कृतच्छाया अशुद्ध है। 'थोर' स्थूल का प्राकृत रूप है।' १. द्रष्टव्य स्थूले लोरः प्रा० व्या० १/२५५ सेवादी वा , , २/९९ Jain Education in . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती द्वितीयपाद की संस्कृतच्छाया यों होगी:स्थूलस्तनि ! करिकरोरु तनुमध्ये । कह (कथं ) का अर्थ 'कैसे' नहीं क्यों है । इसमें मान के प्रकार की नहीं, हेतु की जिज्ञासा है । तरुणियों के स्तनों का स्तोकभाव ( लघुत्व ) प्रशस्य नहीं है । उनकी पीनता ( स्थूलता) में ही लावण्य है । गाथार्थ हे चंचल नयने.! हे चन्द्रवदने ! हे पोनपयोधरे ! हे करिकरोरु ! हे तनुमध्ये ! (क्षीण कटिवाली ) शिशिर की दीर्घ रात्रि ( अकेले ) नहीं बीत रही है, तेरा मान क्यों है । ( अर्थात् तू क्यों रूठ गई है । ) ६९-कज्जं विणा वि कअमाणडंबरा पुलअभिण्ण सव्वंगी। । उज्जल्लालिंगणसोक्खलालसा पुत्ति ! मुणिआसि ॥९२३॥ कार्यं विनाऽपि कृतमानडम्बरा पुलकभिन्नसर्वाङ्गी। उज्ज्वलालिंगनसौख्यलालसा पुत्रि ! ज्ञाताऽसि ॥ "कार्य के बिना भी मानाडम्बर किये हुई रोमांचित शरीर वाली है पुत्रि ! मुझे मालूम हो गया कि तुझे आलिंगन सुख की तीव्र लालसा है।" गाथा में कार्य शब्द हेतुवाचक है। 'उज्जल्ला' देशी शब्द है। उसका अर्थ है :-बलात्कार ( बलपूर्वक की जाने वाली क्रिया' ) महत्वपूर्ण होने पर भी इस शब्द का उपयोग अनुवाद में नहीं किया गया है । 'उज्जल्लालिंगण सोक्खलालसा' नायिका का साभिप्राय विशेषण है । उसका अर्थ है :-बलाद् आलिंगन के सुख को लालसा ( इच्छा ) करने वालो । ( उज्जल्लाए बलक्कारेण जं आलिंगणसोक्खं तम्मि लालसा जिस्सा ) गाथा का अर्थ इस प्रकार है :- ( कोई प्रौढ़ा नायिका से कहती है ) तू बिना कारण के ही मान का आडम्बर ( प्रदर्शन या दिखावा ) कर रही है, तेरा सर्वांग पुलकों से परिव्याप्त है। हे पुत्रि ! मैंने जान लिया है कि तुझे ( पति के द्वारा कृत) बलपूर्वक आलिंगन के सुख की इच्छा हो गई है। नायिका सर्वदा नायक के अनुकूल रहती थी, अतः एक ही प्रकार के आलिंगन से, ऊब चुकी थी। उसकी लालसा थी कि नायक कभी बलपूर्वक भी आलिंकरे । इसीलिए उसने कृत्रिम मान का नाटक किया था। 'पुलकभिन्नसर्वाङ्गी' पद मान की कृत्रिमता का व्यंजक होने के साथ-साथ आलिंगन-सुख के अभिलाष का भी प्रत्यायक है । वास्तविक मान में रोमांच नहीं होता। १. पाइअसहमहण्णव Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण ७०-माणहरिएहि गंतु ण तोरए सो ण एइअवराही।। को वि अपत्थिअमुणिओ णेज्ज मंतं व आणेज्ज ॥९२६॥ मानहरितैर्गन्तु न शक्यते स नैति अपराधी । कोऽपि अप्रार्थितज्ञो नेयं मन्त्राभिवानयेत् ।। __ " मान धारण किये हुए हम जा नहीं सकते, वह अपराधी नहीं आता है, कोई पहुँचाने वाले मन्त्र की भाँति अभिलषित जानने वाला उसे ला दे।" "विमर्श-गाथा का अर्थ स्पष्ट नहीं लगता।" इस गाथामें 'अपत्थिअमुणिओ' का पाठ 'अ पत्थिअमुणिओ' होना चाहिए। तृतीय पाद की संस्कृतच्छाया का समुचित स्वरूप यह होगा : 'कोऽपि च ज्ञात प्रार्थितः' 'यहाँ मूल में प्राकृतत्वात् मुणिअ शब्द का पर निपात हो गया है 'मान हरिएहि' की संस्कृतच्छाया 'मानधरितः' या 'मानभरितैः' है। अपराधी नायक और मानिनी नायिका एक दूसरे से दूर रह रहे है। नायिका का कोप शान्त हो चुका है । वह प्रिय से मिलने के लिये उत्सुक है। अब यदि वह स्वयं नायक के निकट जाती है तो आत्म-प्रतिष्ठा को आघात लगता है । लोग कहेंगे, बड़ी मान वाली बनी थी, मान का निर्वाह भी नहीं कर सकी! दूसरी ओर नायक के आने की भी कोई आशा नहीं है। वह अपने अपराध की गुरुता के कारण भयभीत है । इस जटिल परिस्थिति में वाञ्छनीय संयोग को दैवाधीन समझ कर नायिका कह रही है : जिन्हें मान ने ग्रहण कर लिया है, ( या जो मान से भरे हैं )वे तो ( नायक के निकट) जा नहीं सकते, वह ( नायक ) अपराधी है, अतः वह आ नहीं रहा है । जैसे वशीकरण मन्त्र नेय (जिसे ले जाना है) को ला देता है, वैसे ही कोई हमारे प्रार्थित ( लभिलषित ) को जानने वाला उसे ला देता ! ( तो कितना सुन्दर होता, इच्छा भी पूरी हो जाती और प्रतिष्ठा भी रह जाती। ) आणेज्ज में काकु है। ७१-तुंगो थिरो विसालो जो सहि ! मे माणपव्वओ रइओ । सो दइअदिठ्ठिवज्जासणीए घाए वि ण पहुन्तो । तुङगः स्थिरो विशालो यो रचितो भानपर्वतस्तस्याः । स दयितदृष्टि वज्राशने_तमेव न प्राप्तः ॥ .. " हे सखि ! जो मेरे सान का पर्वत तुग, स्थिर और विशाल बना है, उसने प्रिय के दृष्टिवज्र का प्रहार नहीं पाया है।" " विमर्श-छाया वज्जालग्ग से प्राप्त" Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती उपयुक्त विमर्श के अनुसार अनुवादक को इस गाथा की संस्कृतच्छाया 'वज्जालग्ग' से प्राप्त हुई है । 'वज्जालग्ग' में प्राकृत पाठ इस प्रकार है : तुगो थिरो विसालो जो रइओ माणपव्वओ तोए । सो दइयदिठ्ठिवज्जासणिस्स घायं चिय ण पत्तो ॥ यह भिन्न पाठ की संस्कृतच्छाया के प्रस्तुत गाथा का वास्तविक अर्थ कैसे दे सकती है ? व्याख्येय गाथा की विशुद्ध संस्कुतच्छाया यह है : तुङ्ग स्थिरो विशालो यः सखि! मे मानपर्वतो रचितः । स दयित दृष्टिवज्राशने_तेऽपि न प्रभूतः ॥ गाथार्थ-हे सखी! ( तुम्हारे द्वारा ) मेरा जो तुग स्थिर और विशाल मानरूपी पर्वत बनाया गया था वह प्रिय के दृष्टिरूपी वज्र के आघात (प्रहार ) के लिए भी पर्याप्त नहीं था। सखी ने बहुत प्रयत्नपूर्वक नायिका से मान का अभिनय करवाया था किन्तु वह नायक की दृष्टि पड़ने के पहले ही भग्न हो गया। ७२-पच्चक्खमंतुकारअ. (?) जह चुंबसि मे इये हमकवोले। ता भज्म पिअसहीए विसेसओ कीस तण्हाओ॥ ९३२॥ प्रत्यक्षमन्युकारक यदि चुम्बसि मे इमौ हतकपोलौ । ततो मम प्रियसख्या विशेषकः कस्मात् तृष्णाः (?)| हे प्रत्यक्ष अपराध करने वाले ! जब तुम मेरे इन अभागे गालों को चूमते हो तो मेरी प्रिय सखी का गाल गीला कैसे हो गया ?" "विमर्श-गाथा में "विसेसओ कीस तण्हाओ' का प्रयोग प्रसंगतः नहीं जमता । इसकी छाया 'विशेषकः कस्मात् तृष्णाः' जैसी ही सम्भव है, जिसका अर्थ कुछ संगत नहीं बैठता,अतः प्रस्तुत में कुछ परिवर्तन करके अर्थ बैठाया गया है, जैसा श्री जोगलेकर ने भी किया है।" उपर्युक्त अनुवाद और विमर्श के अनुसार गाथा का संगत अर्थ नहीं लगता है । मराठी अनुवादक श्री जोगलेकर ने भी मूलपाठ में परिवर्तन करके इसका अर्थ देने का प्रयत्न किया है । अतः प्रस्तुत अनुवाद की युक्तता अथवा अयुक्तता के सम्बन्ध में कुछ लिखना निरर्थक है। गाथा में प्रयुक्त 'तण्हाओ' देशी शब्द तण्णाओ या तण्णायो के पाठस्खलन का परिणाम है । तण्णाओ का अर्थ है१-बहुलाधिकार के कारण यलोप वैकल्पिक है। वसुदेवहिंडी में य, अ और ओ के स्थान पर बहुशः 'त' की प्रविष्टि दृष्टिगत होती है, जैसे वातू ( वाऊ = वायुः) विवातो ( विवाओ- विवादः) तातो (ताओ = ताः) इत्यादि । यह प्रवृत्ति पैशाची की है। .:. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण आद्र या गीला' । विसेसओ ( विशेषकः ) तिलक का वाचक है । तण्णाओ इसी का विशेषण है । उत्तराध का संस्कृतरूपान्तर यों होगा :-- ततो मम प्रिय सख्या विशेषकः कस्मादाद्रः। प्रसंग-नायिका को सखी का चुम्बन करते समय नायक का आई तिलक उस ( नायिका की सखी ) के मुंह या मस्तक में लग गया है । फिर वही नायक जब नायिका के कपोलों का चुम्बन करता है, तब वह सखी को आद्र' तिलक में लांछित देखकर सब रहस्य ताड़ जाती है और रोषपूर्वक कहती है : गापार्थ-अरे प्रत्यक्ष अपराध करने वाले ! यदि तू मेरे इन मरे (अभागे) कपोलों को चमता है, तो मेरी प्रिय सखी के आर्द्र तिलक कहाँ से हो जाता है ? ( अथवा मेरी सखी का तिलक कैसे गीला हो जाता है । ) बाशय यह है कि तू मेरा ही नहीं, मेरी सखी का भी कामुक है । प्रिय सखी शब्द में विपरीत लक्षणा है। ७३. को सुहअ ! तुज्झ दोसो ? हअहिअ गिठ्ठरं मज्जा । पेच्छसि अणिमिसणअणो जंपसि विण जंपसे पिटुं॥ कः सुभग ! तव दोषः ? हतहृदयं निष्ठुरं मम । प्रेक्षसेऽनिमिषनयनो जल्पसि विनयं जल्पसि पृष्ठम् ॥ "हे सुभग ! तुम्हारा कौन दोष है ? मेरा अभागा हृदय निष्ठुर है । तुम तो निनिमेष आंखों से निहारते हो, विनय से बोलते हो और पूछे गये को नहीं बोलते हो।" इस भोंड़े अनुवाद ने गाथा का काव्य-चमत्कार ही चौपट कर दिया है । प्राकृत कवि ने 'जंपसे पिट्ठ' के द्वारा पूछे गये' को बताने की बात लिखी है । अनुवादक ने उसका प्रतिषेधात्मक अर्थ किस आधार पर दिया है-यह समझ में नहीं आता। जंप क्रिया का दो बार प्रयोग साभिप्राय है, अतः गाथा में पुनरुक्ति दोष नहीं है । अर्थनिरूपण के पूर्व 'पिट्ठ' शब्द की निरुक्ति आवश्यक है । इष्ट ( इष् + क्त ) का अर्थ वांछित, अभिलषित या मनोनुकूल होता है । इसमें प्र जोड़ देने पर (प्र+ इष्ट ) प्रेष्ट शब्द निष्पन्न होता है। 'प्रेष्ट' का प्राकृत रूप 'पेट्ठ' होगा । जैसे 'सेट्ठ' का प्राकृत में 'सिट्ठ' हो जाता है वैसे ही 'पेट्ठ' का पिट्ठ' हो गया। इस शब्द का अर्थ है-मनोनुकूल या वांछित । ___ अब गाथा के प्रकरण का प्रेक्षण करें। अपराधी नायक अन्य तरुणी से रमण करके रुष्ट नायिका के निकट आया है और अपना दोष छिपाकर उसे प्रसन्न करना चाहता है । उसकी पलकों में प्रेयसी ( रखैल ) का अंजन लगा १-पाइअसद्दमहण्णव Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ गाथासप्तशती है और अधरों पर दन्तक्षत के चिन्ह हैं ! अतः अंजनलक्ष्म को छिपाने के लिये निनिमेष नेत्रों से देख रहा है, दन्तक्षत को प्रकाशित होने से बचाने के लिये नीचे मुह करके बातें कर रहा है और पत्नी के मनःप्रसादन के लिये प्रिय भाषण कर रहा है। वह उसका अपराध समझकर व्यंग्य एवं तिरस्कारपूर्वक कह रही है :___अरे सुभग ! तुम्हारा क्या दोष है ? तुम तो मुझे अपलक नयनों से देख रहे हो, विनत होकर बात कर रहे हो और जो मुझे इष्ट है वही बात कर रहे हो, मेरा ही मरा हृदय निष्ठुर है ( जो इस प्रकार निर्दोष और भोले प्रेमी को खिन्न कर रही हूँ।) यहाँ नायिक अपने वचनपाटव से नायक के अपराध गोपन-व्यापारों को प्रणयपक्ष में यों संघटित कर रही है मैं इतनी प्रिय लग रही हूँ कि मुझे देखते हुए तुम्हारी पलके हो नहीं गिर रही हैं, तुम इतने विनम्र हो गये हो कि शिर नीचे करके बात कर रहे हो और वही बात कर रहे हो जो मुझे प्रिय लगती है। इतने विनम्र प्रियभाषी और सतत मुखप्रेक्षी प्रणयो का तिरस्कार करके मैंने निष्ठुरता का परिचय दिया है । अतः अपराध मेरा है, तुम निर्दोष हो। नायिका की उक्ति में विपरीतलक्षणा है । अतः द्वितीयार्थ इस प्रकार होगा अरे दुर्भग ! ( अभागे ) तू अंजनलांछन गोपन के लिये अपलक नयनों से देखता है, दन्तक्षत गोपनार्थ मुख नीचे करके बात करता है और अपराध से भीत होने के कारण मुझे रुचने वाली बातें कहता है । सब दोष तेरा है । मेरा हृदय न भरा है और न मैं निष्ठुर ही हूँ। 'जंपसि विण' की संस्कृतच्छाया 'जल्पसि विनतम्' होगी। ७४. अणुवतंतो अम्हारिसं जणं आहिजातीए । चितेसि उणो हिअए अणाहिजाई सुहं जअइ ।। ९३९ ।। अनुवर्तमानोऽस्मादृशं जनमभिजात्या । __ चिन्तयसि पुनर्हृदयेऽनभिजातिः सुखं जयति ॥ - "हमारे सदृश जन का कुलीनता से अनुगमन करते हुये भी तुम सोचा करते हो कि अकुलीनता के कारण सुख से जीते हैं।" अनुवादक ने गाथा का अर्थ ही विपर्यस्त कर दिया है। इसमें एक ऐसे प्रेमी का वर्णन है जो किसी अन्य तरुणी में आसक्त होने पर भी बाह्य कुलीनता के कारण अनिच्छा से अपनी पत्नी का अनुवर्तन करता है और मन में चिन्तित भी रहता है। उसकी पत्नी इस रहस्य को जानकर कहती है : Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण तुम हम-जैसे लोगों का कुलीनता के कारण अनुवर्तन करते हो और फिर मन में चिन्तित हो जाते हो ( मनमें सोचने लगते हो या दुःखी हो जाते हो)। जो कुलीन नहीं है वह सुख को जीत लेता है । ( वश में कर लेता है, क्योंकि उसे कृत्रिम अनुराग से अभिनय का कष्ट नहीं झेलना पड़ता )। यहाँ 'जअई' ( जयति ) से 'जिभई' (जीवति ) का भी अर्थ लिया जा सकता है । हेमचन्द्र के अनुसार धातुओं में किसी स्वर के स्थान पर दूसरा स्वर भी संभव है।' उस स्थिति में" सुख को जीत लेता है ।" के स्थान पर सुख से जीता है' अर्थ होगा। ७५. मलिणवसणाण किअवणिआण आपंडगंडपालीणं । पुप्फवइआण कामो अंगेसु काउहो वसइ ।। मलिनवसनानां कृतवनितानां (?) आपाण्डुगण्डपालीनाम् । पुष्पवतीनां कामोऽङ्गेषु कृतायुधो वसति ॥ "मैले वस्त्रों वाली, अलग रहने वाली (?) पीले गालों वाली पुष्पवतियों (रजस्वलाओं) के अंगों में कामदेव आयुध धारण किये हुये निवास करता है।" 'किअवणिआणं' की संस्कृतच्छाया अशुद्ध है। प्राचीनकाल में पुष्पवती महिलायें अपने अंगों में हरिद्रामिश्रित लेप लगाती थीं। उस लेप को वणिका कहते थे। 'वणिआ' शब्द 'वर्णिका' का प्राकृत रूप है । संस्कृतच्छाया में कृतवनितानां के स्थान पर 'कृत वणिकानाम्' होना चाहिये ।। उपयुक्त अनुवाद में 'अलग रहने वाली' के स्थान पर 'हरिद्रामिश्रित लेप लगाने वाली' जोड़ देने पर त्रुटि नहीं रह जायेगी। ७६. णिअदइअदसणू सुअ पंथिय! अण्णेण वच्चसुपहेण । घरवइधूआ दुल्लंघवाउरा ठाइ हअग्गामे ॥ निजदयितदशनोत्क्षिप्त पथिकान्येन व्रज पथा। गृहपतिदुहिता दुर्लध्यवागुरेह हतग्रामे ॥ "अपनी प्रिया के दर्शन के लिये उत्सुक हे पथिक ! दूसरे मार्ग से जा, इस दुष्ट गांव में गृहपति की पुत्री रहती है, जिससे बच कर निकलना मुश्किल हो जायगा।" 'सु' की संस्कृतच्छाया 'उत्सुक' होगी, 'उत्क्षिप्त' नहीं । अनुवादक ने वागुरा का अर्थ नहीं दिया है। उसी शब्द में अन्य मार्ग से जाने का हेतु सन्निहित है। कथन का आशय है कि इस दुष्ट गांव में रहने वाली सुन्दरी १. स्वराणां स्वरा:-प्रा० व्या ४॥२३८ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती गृहपति पुत्री एक दुर्लङ घ्य जाल है, उसमें फंस जाने पर अपने घर नहीं जा पाओगे। ७७. आसाइअमण्णासण जेत्तिअं, ता तुइ ण बहुआ थिई । उवरमसु वुसह ! एण्हिं रक्खिज्जइ गेहबइखेत्तं ।। आस्वादितमज्ञातेन यावत्तावदेव व्रीहीणाम् । उपरम वृषभेदानीं रक्ष्यते गृहपतिक्षेत्रम् ॥ इसका अनुवाद तो ठीक ही किया गया है, परन्तु संस्कृतच्छाया अशुद्ध है । 'ता तुइ ण बहुआ धिई' का संस्कृत रूपान्तर तावदेव व्रीहीणाम्' करना आँख में धूल झोंकना है । उसका संस्कृत रूपान्तर यह होगा तावत् स्वयि न बहुधा धृतिः।। गाथार्थ-अरे वृषभ ! अनजाने में जितना चर गये हो ( आस्वादन कर चुके हो) उतने से तुम्हारे भीतर अधिक धर्य नहीं आया। रुको, अब गृहपति के क्षेत्र की (खेत की) रक्षा को जा रही है। ____गाथा में वृषभ उपपति का प्रतीक है और क्षेत्र नायिका का । ७८. उच्चिणसु पडिअकुसुमं मा धुण सेहालिअं हलिअसुण्हे । एस अवसाणविरसो ससुरेण सुओ वलयसद्दो ॥९५३॥ उच्चिणु पतितानि कुसुमानि मा धुनीः शेफालिका हलिकस्नुषे । एष ते विषमविरावः श्वशुरेण श्रुतो वलयशब्दः ॥ "अरी हलिक की पुत्र-बधू ! गिरा हुआ ही फूल चुन ले, शेफालिका को मत कपा । तेरे ससुर ने विषम आवाज करने वाले वलय का शब्द सुन लिया है (इस का परिणाम बुरा होगा) ।" यहाँ 'एस अवसानविरसो' की छाया 'एष ते विषमविरावः' दी गई है । जो मूलपाठ से सर्वथा विपरीत अर्थ प्रकट करती है । अनुवादक ने इसे ध्वन्यालोक से लिया है। ध्वन्यालोक में इस गाथा का पाठ इस प्रकार है उच्चिणसु पडिअकुसुमं मा धुण सेहालिअं हलिअसुण्हे । अह दे विसमविरावो ससुरेण सूओ वलयसहो। इसमें तृतीयपाद सर्वथा भिन्न है । पूर्वोद्धृत छाया इसी पाठ पर अवलम्बित है । ध्वन्यालोकलोचन में इस गाथा का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार मिलता है उच्चिनु पतितं कुसुमं मा धुनीहि शेफालिका हलिकस्नुषे । एष ते विषमविपाकः श्वशुरेण श्रुतो वलयशब्दः॥ इस रूपान्तर के अनुसार प्राकृत गाथा के प्रथमपाद में 'पडि अकुसुमं' के स्थान पर 'पडियं कुसुम' ( पतितं कुसुमं ) रख देने पर एक मात्रा अधिक हो Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिरुपण जाती है । अतः इसे संस्कृतच्छाया नहीं कह सकते । यह संक्षिप्त अर्थ है जिसमें 'पडि अकुसुम' (पतितकुसुमं ) के समासस्थ पदों को विभक्ति सहित पृथक् कर दिया गया है। सूत्रोपाव में 'एष ते विषमविपाकः' लिखना अवश्य पाठभेद का सूचक है। बतः लगता है लोचनकार के समक्ष प्राकृत गाथा का स्वरूप यह वा उच्चिणसु पडिअकुसुमं मा धुण सेहालिअं हलिअसुण्हे । अह दे विसमविवाओ ससुरेण सुओ वलयसद्दो ॥ अर्थात् हे हलिक की पुत्रवध ! गिरे फूल को चुन ले, शेफालिका ( हरसिंगार ) को हिला मत (झकझोर मत ) यह विषमपरिणाम वाला तेरा वलयशब्द ससुर ने सुन लिया है अथवा अब ( अह = अथ ) तेरे उस कंकण शब्द को ससुर ने सुन लिया है जिसका परिणाम भयानक होगा। गाथासप्तशती की अतिरिक्त गाथाओं में उपलब्ध पाठ के अनुसार प्राकृत गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगी : उच्चिनु पतितकुसुमं मा धुनीहि शेफालिका हलिकस्नुषे । एषोऽवसानविरसः श्वशुरेण श्रुतो वलयशब्द : ॥ पाठान्तरयुक्त उत्तरार्ध का अर्थ यह होगा :अन्त में विरस हो जाने वाला तेरा यह कंकण-शब्द ससुर ने सुन लिया है। इस प्रकार प्रस्तुत गाथा के तीन पाठ उपलब्ध हैं। ७९-मा पन्ध ! संघसु पहमवेहि बालअ! असेसिअहिरीअ !। अम्हे अणिरिक्काओ सुण्णं घरअं व अक्कमसि ॥९५५।। मा पन्थानं रुषः अपेहि बालक अप्रौढ़ अहो असि अहोकः । वयं परतन्त्रा यतः शून्यगृहं मामकं रक्षणीयं वर्तते ।। "राह मत रोक, अपनी राह ले, बालक ! निर्लज्ज ! हम अकेली हैं, सूने घर में चला जा रहा है।" इसकी संस्कृतच्छाया आँख मदकर ध्वन्यालोकलोचन से उद्धृत की गई है । अनुवादक ने यह भी नहीं देखा कि गाथा का पाठ क्या है और हम उसकी छाया क्या दे रहे हैं । प्रस्तुत गाथा क्यालोक में पाठभेद से इस प्रकार समुदाहृत मा पंधं रुग्धीयो अवेहि बालअ अहोसि अहिरोओ । यस णिरिन्छामो सुण्णधरं रविखदब्वं णो ॥ लोचनकार से इसका संक्षिप्तार्थ इन शब्दों में दिया है : Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती 'मा पन्थानं रुधः अपेहि बालक अप्रौढ अहो असि अह्रीकः। वयं परतन्त्रा यतः शून्यं गृहं मामकं रक्षणीयं वर्तते ॥ इस प्रामाणिक संक्षिप्तार्थ को भ्रमवश संस्कृतच्छाया समझने के कारण परवर्ती व्याख्याकारों ने ध्वन्यालोक की ऊपर उद्धृत गाथा की भ्रामक एवं अशुद्ध व्याख्या की है । आचार्य विश्वेश्वर ने भी अन्धपरम्परा का ही अनुसरण किया है। कविशेखर बदरीनाथ शर्मा ने अवश्य दीधिति टीका में परम्परा से हटकर णिरिच्छाओ ( निरिच्छाः ) का वास्तविक अर्थ इस प्रकार दिया है: " वयं निरिच्छाः सर्वथास्पृहाशन्याः पराधीना वा स्मः ।" परन्तु 'पराधीना वा स्मः' लिखकर मूलपाठ विरोधी अर्थ को भी मान्यता दे दी है। यही नहीं, हिन्दीमें मल विरोधी एवं परम्परापोषित अर्थ ही दिया है। ____ध्वन्यालोक के सभी संस्करणों में 'अम्हेअ णिरिच्छाओ' की संस्कृतच्छाया 'वयं निरिच्छाः' दी गई है, किन्तु उसके वास्तविक अर्थ-निरूपण की दृढता किसी व्याख्याकार ने नहीं दिखाई । सबने लोचन को प्रमाण मानकर 'निरिच्छ' का अर्थ 'परतन्त्र' दिया है । किसी ने यह भी नहीं सोचा कि 'निरिच्छ' तो इच्छा शून्य का वाचक है, इस शब्द का अर्थ 'परतन्त्र' कैसे होगा ? इसी सन्दर्भ में एक और तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक है, ध्वन्यालोक के समस्त व्याख्याकार 'अम्हेअ' के अन्तिम 'अ' की निरन्तर उपेक्षा करते आये हैं। 'णिरिच्छाओ' की संस्कृतच्छाया 'निरिच्छाः' करना तो उचित है, परन्तु अम्हेल का अर्थ 'वयं' ( हम ) कैसे हो जायेगा ? प्राकृत में 'वयं' के लिये मात्र अम्हे का प्रयोग होता है, अम्हेअ का नहीं। अतः 'अम्हेअ णिरिच्छाओ' को 'अम्हे अ णिरिच्छाओ' पढ़ना होगा । उसकी छाया होगी :-वयं च निरिच्छाः । अब प्रश्न यह है कि यदि णिरिच्छाओ (निरिच्छाः) का अर्थ 'इच्छा शून्य' है तो लोचन जैसी परम प्रामाणिक टीका में उसका अर्थ 'परतन्त्र' कैसे लिय दिया गया ?। लोचनकार आचार्य अभिनवगुप्त उद्भट विद्वान् थे। वे इस साधारण शब्द का अर्थ न समझ पायें हो-ऐसी बात नहीं है । निःसन्देह उनके समक्ष ध्वन्यालोक की जो हस्तलिखित प्रति थी उसमें 'णिरिच्छाओ' के स्थान पर कुछ और ही शब्द था। उस शब्द की सूचना गाथासप्तसती की अतिरिक्त गाथाओं में पाठ भेद से संगृहीत इस गाथा से मिलती है : मा पन्थ रुन्धसु पहमवेहि बालअ! असेसिअ हिरीअ । __ अम्हे अणिरिक्काओ सुण्णं घरअं व अक्कमसि ।। १-अप्रौढ, यतः, मामकं और वर्तते का अतिरिक्त निक्षेप, तथा अहो असि के रूप में अहोसि के संश्लिष्ट पदों का विश्लेषण एवं शन्यगृहं के समस्त पदों का सविभक्ति पृथक्करण इसे गाथा का संक्षिप्तार्थ घोषित करते हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण ६७ इस पाठान्तर में 'अम्हेअ णिरिच्छाओ' के स्थान पर 'अम्हे अणि - रिक्काओ' मिलता है । इससे 'अम्हेभ' शब्द की आर्थिक अनुपपत्ति का निवारण हो जाता है । उसका अतिरिक्त अन्त्य अकार 'अणि रिक्काओ' का प्रारम्भिक अवयव बन जाता है । 'पाइअसद्दमहण्णव' के अनुसार 'अणिरिक्क' का अर्थ 'परतन्त्र' है । इस अर्थ की पुष्टि में कोशकार ने इसी गाथा को और इसके काव्य प्रकाशीय पाठ को इंगित किया है । इसके विपरीत हेमचन्द्रकृत देशीनाममाला में 'अण रिक्क' शब्द संगृहीत है । वहाँ 'अणि रिक्क' शब्द है ही नहीं । अब विचारणीय यह है कि अणरिक्क और अणि रिक्क - दोनों पृथक-पृथक शब्द हैं या अण रिक्क ही वर्तनी भेद से अणिरिक्क लिख लिया गया है । प्राकृत में अण ( संस्कृत अन् ) का रूप 'अणि' भी उपलब्ध है । 'ऋण' शब्द का प्राकृत रूप 'रिण' है । उसमें नन्समास होने पर ( अण + रिण की दशा में ) 'अणि रिण ' शब्द बनता है । लगता है, अणिरिक्क भी अणरिक्क का ही पाठान्तर है । देशीनाममाला में इसका अर्थ इस प्रकार दिया गया है : " खणम्मि अवरिक्क-अण रिक्का" X X X " raftant तथा अणरिक्को क्षण रहितः । निरवसर इति यावत् । " ॥ १२० ॥ अर्थात् अवरिक्क और अणरिक्क का अर्थ है- निरवसर । लोचन टीका में ध्वन्यालोक की उपयुक्त गाया का संक्षिप्तार्थं मात्र संकेतित है । उसकी विस्तृत व्याख्या नहीं की गई है । अतः वहाँ 'वयं परतन्त्रता: ' में शब्दार्थ का नहीं; अपितु भावार्थं की दिशा का मनाक् स्पर्श किया गया है। हेमचन्द्र ने 'अण रिक्क' का अर्थं 'निरवसर' लिखा है । यह गाथा के प्रकरण के सर्वथा अनुकूल है । इस प्रकार इस गाथा के निम्नलिखित तीन पाठ मिलते हैं १ - ध्वन्यालोक स्वीकृत २ – लोचनकार स्वीकृत ३- गाथासप्तशती की अतिरिक्त गाथाओं में स्वीकृत इन तीनों पाठों की संस्कृतच्छायाएँ और अर्थ इस प्रकार होंगे ध्वन्यालोक सम्मत पाठ की संस्कृतच्छाया और उसका अर्थ : मा पन्थानं रौत्सीः ( रुधः वा ) ओ (अरे) अपे ह + बालक ! अहो अस्यह्रोकः । वयं च निरिच्छाः शून्यगृहं रक्षितव्यं नः ॥ अर्थ - अरे बालक ( बुद्धिहीन ) मार्ग मत रोक, अहो, बड़ा ही निर्लज्ज है तू हट जा, हमें सूने घर की रखवाली करनी पड़ती है और हमारी इच्छा ( उस काम को करने की ) नहीं है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती भाव यह है कि अकेले सूने घर की रक्षा में मेरा मन नहीं लगता, तू वहीं चलेगा तो मैं ऊबूगी नहीं और एकान्त में तेरी इच्छा भी पूर्ण हो जायेगी । लोचनकार सम्मत पाठ की संस्कृतच्छाया और उसका अर्थ ६८ मा पन्थानं रुधः ओ ( अरे ) अपेहि बालक अहो अस्यह्रीकः । वयमनवसराः ( परतन्त्रा ) शून्यगृहं रक्षितव्यं नः ॥ अर्थ - अरे अप्रौढ ( बुद्धिहीन ) मार्ग मत रोक, तू, हट जा, ( कर्तव्यपालन में परतन्त्र होने के कारण ) ही नहीं है क्योंकि ( हमें ) सूने घर की रखवाली करनी पड़ती है । आशय यह है कि मार्ग में क्यों छेड़ रहा है ? चल, मेरा घर सूना है, वहीं तेरी इच्छा पूरी कर दूँगी । अरिक्क को अरिक्त ( अण + रिक्क रिक्त ) के अर्थ में भी ले सकते हैं । तब गाथा के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार होगा - हम रिक्त (खाली) नहीं है ( हमें फुर्सत नहीं है ) क्योंकि हमें सूने घर की रक्षा करनी पड़ती है । गाथासप्तशती की अतिरिक्त गाथासंग्रह में स्वीकृत पाठ की संस्कृतच्छाया और उसका अर्थ : - अहो, बड़ा ही निर्लज्ज है हमें अवसर ( फुर्सत ) मा पान्थ ! रुन्द्धि पथमपेहि बालक ! अशेषित हीकः । गृहमेवाक्रमसि || वयमनवसराः शून्यं अर्थ -- अरे लज्जा को पूर्णतः नष्ट कर देने वाले ( निर्लज्ज ) बुद्धिहीन पथिक ! हट जा । मेरे सूने घर में ही घुसा चला आ रहा है, हमें ( तेरे आतिथ्य का ) अवसर ( फुर्सत ) ही नहीं है । यहाँ आगमन के निषेध में विधि छिपी है । 'अवसर नहीं है ।' से यह ध्वनि निकलती है कि सूने घर में आतिथ्य का पर्याप्त अवसर मिलेगा । ८० - पुप्पभरो णमिअभूमिगअसाहंरूण (?) विष्णवणं । गोलाअडविअडकुड्डंगमहुअ ॥ ९५८ ॥ यह गाथा खंडित पाई गई है । अनुवादक ने इसका अनुवाद नहीं किया है । अपूर्ण कहकर इसे छोड़ दिया है । ... यह गाथा गाथासप्तशती में निम्नलिखित पाठभेद से संगृहीत है बहु पुप्फभारो णमिअभूमिगअसाह ! सुणसु विष्णति । गोलाअडविअडकुड्डंग महुअ ! सणिअं गलिज्जासु ॥ अतः पूर्वोद्भुत गाथा का खंडित भाग स्वतः पूर्ण हो जाता है । पूर्वार्ध में द्वितीयपाद का पाठ विकृत होने के कारण अर्थ स्पष्ट नहीं है । मेरे विचार से सम्पूर्ण गाथा का निम्नलिखित पाठ करने पर भाव स्पष्ट हो जायेगा - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थनिरूपण पुप्फभरोणमिअभूमिगअसाहंत ! उण्णविण्णवण ! । गोलाअडविअडकुड्डंगमहुअ ! सणिअं गलिज्जासु ॥ संस्कृतच्छाया पुष्पभरावनतभूमिगतशाखान्त ! पुण्यविज्ञपन !। गोदातटविकटनिकुञ्जमधूक ! शनैर्गलिष्यसि ।। अर्थ हे गोदावरी-तट के विकट निकुंज के मधूक ( महुआ ) वृक्ष ! हे पुष्यविशपन ! ( पुण्य का विज्ञापन या प्रकाशन करने वाले ) तुम्हारी शाखाओं का अग्रभाग पुष्प के भार से अवनत होकर भूमि पर पहुँच गया है, तुम धीरेधीरे चूना ( टपकना )। इसमें किसी कुलटा का वर्णन है। जब तक महुआ टपकेगा तभी तक वह उसी के व्याज से अपने प्रेमी से मिल सकेगी। ८१. गृहिणिप्रवेशितजारे गृहे गृहे ( गृहिणी?) स्थापिता । मिलिता वदति(असती?)जारउ पश्चात् गृहिणी गृहस्थश्च ॥९५९॥ इस पर निम्नलिखित टिप्पणी है : "गाथा अपूर्ण एवं अशुद्ध है ।" प्रस्तुत गाथा का लगभग सम्पूर्ण भाग ( जारउ को छोड़ कर ) संस्कृत में है । छन्द की दृष्टि से वांछित मात्राओं में भी न्यूनता है। लगता है, यह किसी लुप्त प्राकृत गाथा की विकृत संस्कृतच्छाया है । अतः सर्वप्रथम संस्कृत पाठ के आधार पर इसका प्राकृत पाठ देना है। उसके पश्चात् ही अर्थनिरूपण होगा। गाथा का प्राकृत पाठ यह होगा : घरिणिपवेसिअजारे घरम्मि घरम्मि हु ठाविआ घरिणि । मिलिआ वति असईजारे घरणिं गहत्थं अ॥ इस निर्धारित प्राकृत-पाठ में उपलब्ध संस्कृत पाठ में विद्यमान 'पश्चात' शब्द छन्द के अनुरोध से छोड़ दिया गया है और अविद्यमान हु' का निवेश कर दिया गया है। 'पश्चात्' अर्थ की दिशा का संकेत करने के कारण टीका का अंश प्रतीत होता है। गाथा का भावार्थ यह है : किसी सम्पन्न विलासी और बाह्यकार्यानुषक्त गृहस्थ की पत्नी घर में जार ( उपपति ) को छिपाकर रखती थी । गृहस्थ ने सोचा, यदि प्रत्येक घर (कमरे) में एक-एक गृहिणी (पत्नी) और लाकर रख दें तो जार को छिपाने का स्थान नहीं मिलेगा और वह भाग जायेगा । उसने ठीक वैसा ही किया । प्रत्येक कक्ष Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो में एक-एक पत्नी और लाकर रख दो। वे सब नवागत पत्नियां मिलकर पहले से विद्यमान जार और अपनो सौत (पूर्व पत्नी ) को गृहस्थ और गृहिणो ( पति और पत्नी ) कहगे लगीं। उन्होंने यह नहीं समझा कि यह स्त्री हमारो सौत है और उसके साथ रहने वाला पुरुष उसका उपपति है । इस प्रकार उन्होंने दोनों के अवैध सम्बन्ध को वैधता प्रदान कर दी। ८२. होमि वहत्थिअरेहो णिरंकुसो अह विवेअरहिओ वि । सिविणे वि तुमम्मि पुणो पत्तिहि भत्ति ण सुभिरामि ॥९९३॥ भवाम्यपहस्तितरेखो निरङ्कशोऽथ विवेकरहितोऽपि । स्वप्नेऽपि त्वयि पुनः प्रतोहि भक्ति न प्रमोक्ष्यामि ॥ "हे राजन् ! मैंने मर्यादा छोड़ दी है, मैं निरंकुश और विवेकरहित भी हूँ, फिर भी तुम विश्वास करो, स्वप्न में भी तुम्हारे प्रति भक्ति नहीं छोडूंगा।" 'भत्ति ण सुमिरामि' की संस्कृतच्छाया 'भक्ति न प्रमोक्ष्यामि' कैसे हो जायेगी ? 'सुमिरामि' की संस्कृतच्छाया तो 'स्मरामि' है । वह मोक्षण का अर्थ दे ही नहीं सकती। मूल प्राकृत की वर्तमानकालिक क्रिया संस्कृत रूपान्तर में भविष्यकालिक नहीं हो जाती। काव्यप्रकाश में उदाहृत इस गाथा का चतुर्थपाद इस प्रकार है : पत्तिहि भत्ति ण पसुमिरामि । परन्तु इस अंश की संस्कृतच्छाया यह दो गई है : प्रतीहि भक्ति न प्रस्मरामि । और अर्थ दिया गया है :"विश्वास कीजिये कि मैं आपकी भक्ति को कदापि न भूलंगा।"१ यह अनुवाद भ्रामक है । 'न प्रस्मरामि' का अर्थ 'न भूल गा' नहीं होता, उसका अर्थ है :-विशेष रूप से स्मरण नहीं करता हूँ। वस्तुतः उक्त संस्कृतच्छाया अशुद्ध है । 'भत्ति प पसुमिरामि' का संस्कृतरूपान्तर भक्ति नापस्मरामि ( न अप + स्मरामि ) होगा। प्राकृत में पर्ववर्ती 'ण' के अन्त्य अकार का लोप होने और 'अपसुमिरामि' आद्य 'अ' के उस स्थान 'पर 'आ' जाने से ‘णपसुमिरामि' हो जायेगा। गाथा के ऊपर उद्धृत पाठान्तर में 'होमि वहत्थि अरेहो' का प्रयोग है। वहाँ होमि का अनन्तरवर्ती अव ( अप) का आह्य अकार लुप्त हो गया है । गाथा के चतुर्थ पाद का अर्थ यह है :विश्वास रखिये, भक्ति को नहीं भूलता हूँ। -- १. हरि मंगल मित्र कृत काव्यप्रकाश का अनुवाद पृ० २६५. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् पसुवइणो रोसारुणपडिमासंकंतगोरिमहअन्दं । गहिअग्घपंकअं विअ संझासलिलञ्जलि णमह ॥१॥ [ पशुपते रोषारुणप्रतिमासंक्रान्तगौरीमुखचन्द्रम् । गृहीतार्घपङ्कजमिव संध्यासलिलाञ्जलिं नमत ॥] भगवान् शिव की उस सन्ध्या-सलिलाञ्जलि को नमस्कार कीजिये, जिसमें प्रतिबिम्बित होने पर गौरी का रोषारुण मुखचन्द्र अध्य-पद्म-सा प्रतीत होने लगता है ॥१॥ अमिश्र पाउअकव्वं पढिउं सोउं अ जे ण आणन्ति । कामस्स तत्ततन्ति कुणन्ति ते कह ण लज्जन्ति ॥२॥ [ अमृतं प्राकृतकाव्यं पठितुं श्रोतुं च ये न जानन्ति । कामस्य तत्त्वचिन्तां कुर्वन्तस्ते कथं न लज्जन्ते ॥] जो प्राकृत भाषा के अमृतमय काव्यों को पढ़ना-सुनना नहीं जानते, वे कामशास्त्र की चिन्ता करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते ? ॥ २ ॥ सत्त सताई कइवच्छलेण कोडीअ मज्झआरम्मि । हालेण विरइआइं सालङ्काराण गाहाणं ॥३॥ [सप्तशतानि कविवत्सलेन कोटेमध्ये । हालेन विरचितानि सालङ्काराणां गाथानाम् ॥] कविवत्सल हाल ने कोटि गाथाओं से सात सौ अलंकृत गाथायें चुन कर इस ग्रंथ को बनाया है ॥ ३ ॥ उअ णिच्चलणिप्पन्दा भिसिणीपत्तम्मि रहइ बलाआ। हिम्मलमरगअभाअणपरिट्ठिआ संखसुत्ति व्व ॥४॥ [पश्य निश्चलनिःस्पन्दा बिसिनीपत्रे राजते बलाका। निर्मलमरकतभाजनपरिस्थितता शङ्खशुक्तिरिव ॥ ] देखो, वह बलाका कमलपत्र पर निश्चल एवं निस्पन्द होकर यो बैठी है जैसे नीलम के स्वच्छ पात्र पर शंख-शुक्ति रख दी गई हो ॥ ४ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती तावच्चिअ रइसमए महिलाणं बिब्भमा विराअन्ति । जाव ण कुवलअदल सेच्छआइँ मउलेन्ति णअणाई ॥ ५ ॥ [ तावदेव रतिसमये महिलानां विभ्रमा विराजन्ते । यावन्न कुवलयदलसच्छायानि मुकुलीभवन्ति नयनानि ॥ ] रति के समय तभी तक महिलाओं के विभ्रम शोभित होते हैं, जब तक कुवलयदल के सदृश कान्ति वाले उनके नेत्र मुकुलित नहीं हो जाते ॥ ५॥ णोहलिअमप्पणो किं ण मग्गसे मग्गसे कुरबअस्स । एअं तुह सुहग हसइ वलिआणणपंकअं जाओ ||६|| [ दोहदमात्मनः किं न मृगयसे मृगयसे कुरबकस्य । एवं तव सुभग हसति वलिताननपङ्कजं जाया ॥ ] अरे तुम अपना दोहद क्यों नहीं खोजते हो ? कुरबक का दोहद (फलोद्गम ) खोजते हो । इस प्रकार तुम्हारी जाया कमलरूपी मुँह फिरा कर हँस रही है ॥ ६ ॥ तावज्जन्ति असोएहिँ लडहवणिआओ दइअविरहम्मि | किं सहइ कोवि कस्स वि पाअपहारं पहुप्यन्तो ॥७॥ [ ताप्यन्ते अशोक विदग्धवनिता दयितविरहे । कि सहते कोऽपि कस्यापि पादप्रहारं प्रभवत् ॥ ] प्रिय की विरह वेला में विदग्ध वनिताओं को अशोक भी संतप्त कर डालता है | अपना वश चलने पर कौन किसके पैरों की मार चुपचाप सह लेगा ? ॥७॥ अत्ता तह रमणिज्जं अह्यं गामस्स मण्डणीहूअं । लुअतिलवा डिसरिच्छं सिसिरेण कअं भिसिणिसण्डं ॥ ८ ॥ [ श्वश्रु तथा रमणीयमस्माकं ग्रामस्य मण्डनीभूतम् । लून तलवाटीसदृशं शिशिरेण कृतं बिसिनोषण्डम् ॥ ] आयें ! हमारे गाँव को अलंकृत करने वाले उस रमणीय कमल वन को तुषार ने कटे हुये तिल के खेत सा बना डाला है ॥ ८ ॥ कि रुअसि ओणअमुही धवलाअन्तेसु सालिछित्तेसु । हरिआलमण्डिअमुही गडि व्व सणवाडिआ जाभा ॥ ९ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् [किं रोदिष्यवनतमुखी धवलायमानेषु शालिक्षेत्रेषु । हरितालमण्डितमुखी नटीव शणवाटिका जाता ॥] आर्ये ! शालि क्षेत्रों के पक जाने पर मुंह झुकाये रो क्यों रही हो ? हरिताल से लिप्त मुख वाली नटी के समान यह सन की वाटिका तो प्रस्तुत ही है ॥ ९॥ सहि ईरिसिम्विअ गई मा रुव्वसु तंसवलिअमुहअन्द । एआण वालवालुङ्कितन्तुकुडिलाण पेम्माणं ॥१०॥ [ सखि ईदृश्येव गतिर्मा रोदोस्तिर्यग्वलितमुखचन्द्रम् । __ एतेषां बालकर्कटीतन्तुकुटिलानां प्रेम्णाम् ॥ ] सखी ! अपना चन्द्र सा मनोहर मुख फेर कर रूदन मत करो, ककड़ी के क्षीण तन्तुओं की भाँति कुटिल प्रणय की ऐसी ही सुकुमार गति होती है ॥ १० ॥ पाअपडिअस्स पइणो पुट्टि पुत्ते समारुहत्तम्मि । दढमण्णुदुण्णिआएँ वि हासो धरिणीएं गेक्कन्तो ॥११॥ [पादपतितस्य पत्युः पृष्ठं पुत्रे समारुहति । दृढमन्युदूनाया अपि हासो गृहिण्या निष्क्रान्तः । ] चरणों पर गिरे हुए पति की पीठ पर जब पुत्र चढ़ गया, तो दृढ़ कोप से तमतमाती हुई नायिका के अधरों पर भी हँसी आ गई ॥ ११ ॥ सच्चं जाणइ दट्टुं सरिसम्मि जणम्मि जुज्जए राओ। मरउ ण तुमं भणिस्सं मरणं वि सलाहणिज्जं से ॥१२॥ [सत्यं जानाति द्रष्टुं सदृशे जने युज्यते रागः। म्रियतां न त्वां भणिष्यामि मरणमपि श्लाघनीयं तस्याः।।] वह सत्य को देखना जानती है। सहृदय व्यक्ति पर अनुरक्त होना उचित ही है। मर रही है तो मरे। मैं तुम से कुछ कह नहीं सकती क्योंकि उसका मर जाना भी श्लाध्य है ।। १२ ॥ धरणीएँ महाणसकम्मलग्गमसिमलिइएण हत्थेण । छित्तं मुहं हसिज्जइ चन्दावत्थं गधे पइणा ॥१३॥ [ गृहिण्या महानसकर्मलग्नमषीमलिनितेन हस्तेन । स्पृष्टं मुखं हस्यते चन्द्रावस्थां गतं पत्या ।। ] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती रसोई वनाते समय कालिख-लगा हुआ हाथ छु जाने से बेचारी गृहिणी के मुख की दशा चन्द्रमा जैसी हो गई। यह देख कर उसके पति को हंसी आ गई ॥ १३ ॥ रन्धणकम्मणिउणिए मा जूरसु, रत्तपाडलसुअन्धं । मुहमारु पिअन्तो धूमाइ सिही ण पज्जलइ ॥१४॥ [ रन्धकर्मनिपुणिके मा क्रुध्यस्व रक्तापाटलसुगन्धम् । __मुखमारुतं पिबन्धूमायते शिखी न प्रज्वलति ।। ] अरी रसोई बनाने वाली ! यदि बार-बार फूंकने पर भी धुआँ देकर अग्न्ि नहीं जल रहा है, तो तुम उस पर कोप मत करो । क्योंकि यदि वह शीघ्र जल जायेगा, तो उसे रक्तपाटल सा सुगन्धित तुम्हारा मुख-मारूत पीने को कहाँ मिलेगा ? ॥ १४ ॥ किं किं दे पडिहासइ सहोहिं इअ पुच्छिआएँ मुद्धाए । पढमुग्गअदोहणीएँ णवरं दइ गआ दिट्ठी ॥१५॥ [किं किं ते प्रतिभासते सखीभिरिति पृष्टाया मुग्धायाः। प्रथमोद्गतदोहदिन्याः केवलं दयितं गता दृष्टिः ॥] प्रथम बार गर्भ धारण करने वाली मुग्धा से उसकी सहेलियों ने पूछा"तुम्हारी क्या इच्छा है” तो उसकी दृष्टि केवल पति की ओर दौड़ गई ॥ १५ ॥ अमअमअ गुअणसेहर रअणीमुहतिलअ चन्द दे छिवसु । छित्तो जोहिँ पिअअमो ममं पि तेहिं विअ करेहि ॥१६॥ [ अमृतमय गगनशेखर रजनीमुखतिलक चन्द्र हे स्पृश । स्पृष्टो यैः प्रियतमो मामपि तैरेव करैः।। हे रजनी के मुखतिलक ! गगन शेखर चन्द्र ! तुम अमृतमय हो। मेरा स्पर्श अपने उन्हीं करों (किरणों ) से करना, जिनसे मेरे प्रियतम का स्पर्श किया है ॥ १६ ॥ एहिइ सो वि पउत्थो अहं अ कुपेज्ज सो वि अणुणेज्ज । इअ कस्स वि फलइ मणोरहाण माला पिअअमम्मि ॥१७॥ [ एष्यति सोऽपि प्रोषितोऽहं च कुपिष्यामि सोऽप्यनुनेष्यति । इति कस्या अपि फलति मनोरथानां माला प्रियतमे ॥] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् " जब प्रवासी लौट कर आयेंगे तो मैं रूठ जाऊँगी और वे मुझे मनायेंगे ।” प्रियतम के विषय में किसी की ही ऐसी मधुर कल्पनायें सत्य हुआ करती हैं ।। १७ ।। दुग्गअकुडुम्बअट्ठी कहँ णु मए धोइएण सोढव्वा । दसिओसरन्त सलिलेण उअह रुणं व पडएण ॥ १८ ॥ [ दुर्गतकुटुम्बा कृष्टिः कथं नु मया धौतेन सोढव्या । दशापसरत्सलिलेन पश्यत रुदितमिव पटकेन ॥ ] देख लो ! धुल जाने पर दरिद्र कुटुम्ब की खींचा तानी मैं कैसे सह पाऊँगा - यह सोच कर मानों वस्त्र किनारों से चूते हुए जल के व्याज से रो पड़ा है ॥ १८ ॥ कोसॅम्बकि सलअवण्णअ-तण्णअ उष्णामिएहिँ कण्णेहि । हिअअअं घरं वच्चमाण धवलत्तणं पाव ॥१९॥ [ कोशा किसलयवर्णक तक उन्नामिताभ्यां कर्णाभ्याम् । हृदयस्थितं गृहं व्रजन्धवलत्वं प्राप्नुहि ॥ ] हे वत्स ! ( बछड़ा ) तुम्हारा वर्ण नूतन आम्र पल्लव के तुल्य है । मन चाहे घर में दोनों कान उठाये चले जा रहे हो, श्रेष्ठ बैल बन जाओ ( उजले बन जाओ ) ॥ १९ ॥ अलिअपसुत्तअ विणिमीलिअच्छ दे सुहअ मज्झ ओआसं । गण्डपरिउम्बणापुलइअङ्ग ण पुणो चिराइस्सं ॥ २० ॥ [ अलीकप्रसुप्तक विनिमीलिताक्ष हे सुगभ ममावकाशम् । गण्डपरिचुम्बनापुलकिताङ्ग न पुनश्चिरयिष्यामि ॥ ] कपोल का चुम्बन करते ही तुम्हारे अंग पुलकित हो गये हैं । तुमने सोने का बहाना कर अपने नेत्र बन्द कर लिये हैं । प्राणेश ! मुझे लेटने दो, अब फिर कभी देर न होगी ॥ २० ॥ असमत्तमण्डना विअ वच्च घरं से सकोउहल्लस्स । बोलाविअहलहल अस्स पुत्ति चित्ते ण सकौतूहलस्य । [ असमाप्तमण्डनैव व्रज गृहं तस्य व्यतिक्रान्तौत्सुक्यस्य पुत्रि चित्ते न लगिष्यसि ॥ ] लग्गिहिसि ॥२१॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती बेटी ! तुम्हारा शृंगार अपूर्ण है तो भी उत्कंठित प्रेमी के पास चलो जाओ, अन्यथा उत्कंठा शिथिल हो जाने पर तुम उसे प्रिय न लगोगी ॥ २१ ॥ आअरपणामिओटु अघडिअणासं असंहअणिडालं । वण्णधिअतुप्पमुहिए तीए परिउम्बणं भरिमो ॥२२॥ [ आदरप्रणामितौष्ठमघटितनासमसंहतललाटम् । वर्णघृतलिप्तमुख्यास्तस्याः परिचुम्बनं-स्मरामः ॥ ] हरिद्रामिश्रित घृतसे लिप्त मुखवाली प्रिया ने आदर से अपना ओष्ठ स्वयं झुका दिया था, नासिका और ललाट को संयुक्त न करते हुए तब उसका जो चुम्बन किया था उसका स्मरण करता हूँ ॥ २२ ॥ अण्णासआई देन्ती तह सुरए हरिसविअसिअकवोला । गोसे वि ओणअमुही अह सेत्ति पिआं ण सदहिमो ॥२३॥ [आज्ञाशतानि ददती तथा सुरते हर्षविकसितकपोला। प्रातरप्यवनतमुखी इयं सेति प्रियां न श्रद्दध्मः ।।] - रति के समय प्रफुल्ल मुख से जो सैकड़ों सूझाव देती थी उसी नतवदना प्राणेश्वरी को प्रातःकाल लाज में गड़ी हुई देखकर विश्वास नहीं होता कि वह वही है ॥ २३ ॥ पिअविरहो अप्पिअदसणं अ गरुआई दो वि दुक्खाई। जीएँ तुमं कारिज्जसि तीएँ णमो आहि जाईएँ ॥२४॥ [प्रियविरहोऽप्रियदर्शनं च गुरुके द्वे अपि दुःखे । यया त्वं कार्यसे तस्यै नम आभिजात्यै ॥] प्रिय का वियोग और अप्रिय का दर्शन-ये संसार के दो बड़े दुःख जिसके कारण मुझे भोगने पड़ते हैं, मैं तुम्हारी उस कुलीनता को नमस्कार करती हूँ ॥ २४ ॥ एक्को वि कह्नसारो ण देइ गन्तु पआहिणवलन्तो। कि उण बाहाउलिअं लोअणजुअलं पिअअमाए ॥२५॥ [एकोऽपि कृष्णसारो न ददाति गन्तुं प्रदक्षिणं वलन् । किं पुनर्बाष्पाकुलितं लोचनयुगलं प्रियतमायाः॥] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् मार्ग में दायीं ओर से बायीं ओर जाता हुआ कृष्णसार (मृगविशेष) अकेला होने पर भी जाने नहीं देता है तो फिर बाधाओं से भरे हुए ( श्लेष से - आँसुओं से भरे हुए ) प्रियतमा के दो-दो नेत्र [ जो कृष्णसार ही नहीं हैं, अपितु कृष्ण ( काले ) और शार ( विविध रंगों वाले ) भी हैं । ] कैसे जाने देंगे ? ।। २५ ।। ण कुणन्तो व्विअ माणं णिसासु सुहसुत्तदर विबुद्धाणं । सुण्णइअपासपरिमूसणवेअणं जइ सि जाणन्तो ॥ २६ ॥ [ नाकरिष्य एव मानं निशासु सुखसुप्तदर विबुद्धानाम् । शून्यीकृत पार्श्वपरिमोषणवेदनां यद्यज्ञास्यः ॥ ] रात्रि में सुख से सोते समय किंचित् नींद टूटने पर पार्श्व में सोई हुई प्रेमिका का स्थान रिक्त जान कर अपनी वंचना पर जो वेदना होती है, यदि उसका लेशमात्र भी अनुभव होता तो तुम इस प्रकार कभी भी मान न करते ।। २६ ।। पणअकुविआण दोह्र वि अलिअपसुत्ताणं माणइल्लाणं । णिञ्चलणिरुद्धणोसास दिण्णकण्णाण को मल्लो ॥२७॥ [ प्रणयकुपितयोर्द्वयोरप्यलीकप्रसुप्तयोर्मानवतोः । निश्चलनिरुद्धनिःश्वासदत्तकर्णयोः को मल्लः ॥ ] आपस में रूठ कर निद्रा के व्याज से अपने श्वास निश्चल एवं निरुद्ध किये एक दूसरे की ओर कानलगा कर लेटे हुए दम्पत्ति में कौन बड़ा है ? ।। २७ ।। णवलअपहरं अङ्ग जेहिँ जेहिं महइ देवरो दाउं । रोमञ्चदण्डराई तह तहि दीसह यत्रेच्छति देवरो दातुम् । [ नवलताप्रहारमङ्गे यत्र रोमाञ्चदण्डरा जिस्तत्र तत्र दृश्यते वध्वाः ॥ ] बहूए ॥ २८ ॥ चूतलतिका की क्रीड़ा में देवर जिस अंग पर लता का प्रहार करता है, वधू काही अंग पुलकों से पूर्ण हो जाता है ॥ २८ ॥ अज्ज मए तेण विणा अणुहूअसुहाइँ संभरन्तीए । अहिणवमेहाणं रवो णिसामिओ वज्झपडहो व्व ॥ २९ ॥ [ अद्य मया तेन विना अनुभूतसुखानि संस्मरन्त्या । अभिनवमेघानां रखो निशामितो वध्यपटह इव ॥ ] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती आज उनके वियोग में पूर्वानुभूत सुखों का स्मरण करते हुए मैंने वध्य-पटह के समान अभिनव मेघों की गर्जना सुनी है ॥ २९ ॥ णिक्किव जाआभीरुअ दुदंसण णिम्बईडसारिच्छ । गामो गाणिणन्दण तुज्झ कए तह वि तणुआइ ॥३०॥ [ निष्कृप जायाभीरुक दुर्दर्शन निम्बकीटसदृक्ष । ग्रामो ग्रामणीनन्दन तव कृते तथापि तनुकायते ।। ] जायाभीरु ! निर्दय !! अलभ्यदर्शन !!! ग्रामणीनन्दन !!!! तुम नीम के कीड़े हो, फिर भी यह सारा गांव तुम्हारे लिए कृश होता जा रहा है । ।। ३० ॥ पहरवणमग्गविसमे जाआ किच्छेण लहइ से णिदं । गामणिउत्तस्स उरे पल्ली उण सा सुहं सुवई ॥३१॥ [प्रहारव्रणमार्गविषमे जाया कृच्छेण लभते तस्य निद्राम् । ग्रामणीपुत्रस्योरसि पल्ली पुनः सा सुखं स्वपिति ॥] शस्त्रों के प्रहार से विषम, ग्रामणी-पुत्र की छाती पर उस की भार्या तो कठिनता से ही सो पाती है किन्तु एक प्रहर में समाप्त होने वाले जंगली मार्ग के कारण दुर्गम वह पल्ली सुख से सोती है ॥ ३१ ॥ अह संभाविअमग्गो सुहअ तुए जेव्व गवर पिन्बूढो । एह्नि हिआए अण्णं अण्णं वाआइ लोअस्स ॥३२॥ [ अयं संभावितमार्गः सुभग त्वयैव केवलं नियूंढः । इदानीं हृदयेऽन्यदन्यद्वाचि लोकस्य ॥] लोगों के मन में कुछ रहता है और वाणी में कुछ और । सज्जनों की प्राचीन परम्परा का निर्वाह तो केवल तुम्हीं ने किया है, क्योंकि तुम्हारे मन में जो रहता है वही वाणी से व्यक्त भी करते हो ॥ ३२ ॥ उहाइँ गीससन्तो किंति मह परम्मुहीऍ सअणद्धे । हिअअं पलीविअ वि अणुसरण पुट्ठि पलोवेसि ॥३३॥ [उष्णानि निःश्वसन्किमिति मम पराङ्मुख्याः शयनार्धे । हृदयं प्रदोयाप्यनुशयेन पृष्ठं प्रदीपयसि ॥] तुम ने मेरे हृदय को पहले ही जला डाला था, आज आधी शया पर पराङ्. मुख होकर सो रही हूँ, तो गर्म श्वासों से मेरी पीठ को भी क्यों जला रहे हो ॥ ३३ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् तुह विरहे चिरआरअ तिस्सा णिवडन्तवाहमइलेण । रइरहसिहरधरण व मुहेण छाहि विअ ण पत्ता ॥ ३४ ॥ [ तव विरहे चिरकारक तस्या निपतद्बाष्पमलिनेन । रविरथशिखरध्वजेनेव मुखेन च्छायैव न प्राप्ता ॥ ] हे देर करने वाले निर्मोही ! तुम्हारे वियोग में अविरल बहती हुई अश्रुधारा से मलिन उस विरहिणी के मुख पर सूर्य के रथ की ध्वजा के समान छाया ( सौन्दर्य, परछाई ) ही नहीं है ॥ ३४ ॥ दिअहं कहेइ दिअरस्स असुद्ध मणस्स कुलवहू णिअअकुड्डुलिहिआई । रामाणुलग्गसोमित्तिचरिआई ||३५|| कूलवधूर्ध्निजककुड्य लिखितानि । रामानुलग्नसौमित्रि चरितानि ॥ ] कुलवधू देवर के मन का अपवित्र भाव समझकर दिन भर दीवार पर अंकित राम भक्त लक्ष्मण का चरित पढ़कर उसे सुनाया करती है ।। ३५ ।। [ देवरस्याशुद्धमनसः दिवसं कथयति चत्तरधरिणी पिअदंसणा अ तरुणी पउत्थपइआ अ । असई सअज्जिआ दुग्गआ अ ण हु खण्डिअं सीलं ॥ ३६ ॥ [ चत्वरगृहिणी प्रियदर्शना च तरुणी प्रोषितपतिका च । असतीप्रतिवेशिनी दुर्गता च न खलु खण्डितं शोलम् ॥ ] उसका घर चौराहे पर है । देखने से अत्यन्त सुन्दर और तरुणी है । पति परदेश में रहता है । पड़ोस में एक कुलटा रहती है । दरिद्रता के भार से दबी जा रही है, लेकिन शील पर धब्बा नहीं लगा है ।। ३६ ।। पूरेण । कलम्बो ॥३७॥ [ जलावर्तभ्रमाकुलखण्डितकेसरो गिरिनद्या: पूरेण । दरमग्नोन्मग्ननिमग्नमधुकरो हियते कदम्बः ।। ] तालूरभमा उखु डि अकेसरो दरवुड्डउवुडुणिबुडुमहुअरो गिरिणईऍ हीरइ पहाड़ी नदी के प्रवाह में कदम्ब का वृक्ष बहता चला जा रहा है । यद्यपि • उसका पराग - कोष आवर्तों के आघात से क्षीण हो चुका है तथापि उसमें लिपटे हुए लोभी भ्रमर पानी में कभी ऊपर आते हैं, कभी नीचे ॥ ३७ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती अहिआअमाणिणो दुग्गअस्स छाहिं पिअस्स रखन्ती । णिअबन्धवाणं जूरइ धरिणी विहवेण पत्ताणं ॥३८॥ [ आभिजात्यमानिनो दुर्गतस्य छायां पत्यू रक्षन्ती । निजबान्धवेभ्यः क्रुध्यति गृहिणी विभवेनागच्छद्भयः ।।] आभिजात्य का गर्व रखने वाले दरिद्र पति की मर्यादा की रक्षा करती हुई गृहिणी अपने यहाँ ठाट-बाट से आने वाले जाति-बान्धवों पर भी रुष्ट हो जाती है ॥ ३८॥ साहीणे वि पिअअमे पत्ते वि खणे ण मण्डिओ अप्पा। ' दुग्गअपउत्थवइअं सअज्झिअं सण्ठन्वतीए ॥३९॥ [ स्वाधीनेपि प्रियतमे प्राप्तेपि क्षणे न मण्डित आत्मा। दुर्गतप्रोषितपतिका प्रतिवेशिनी संस्थापयन्त्या ॥] अपने प्रिय को वश में जान कर भी शोलवती नायिका ने उत्सव का दिन आने पर भी इसलिये शृंगार नहीं किया कि कदाचित् उसकी दरिद्रा प्रतिवेशिनी जिसका पति परदेश चला गया है-अधीर न हो जाय ।। ३९ ॥ तुज्झ वसइ ति हिअअं इमेहि दिट्ठो तुमं ति अच्छोहि । तुह विरहे किसिआई ति तीएँ अङ्गाई वि पिआइं ॥४०॥ [तव वसतिरिति हृदयमाभ्यां दृष्टस्त्वमित्यक्षिणी। ___तव विरहे कृशितानोति तस्या अङ्गान्यपि प्रियाणि ॥] __वह अपने हृदय को इसलिये प्यार करती है कि उसमें तुम्हारा निवास है, आँखों को इसलिये प्यार करती है कि उन्होंने तुम्हारे दर्शन किये हैं और शरीर अंगों को भी इसलिए प्यार करती है कि वे तुम्हारे विरह में कृश हो गये है ॥ ४० ॥ सब्भावणेहभरिए रत्ते रज्जिज्जइ त्ति जुत्तमिणं । अणहिअ उण हिअअं जं दिज्जइ तं जणो हसइ ॥४१॥ [सद्भावस्नेहभरिते रक्ते रज्यते इति युक्तमिदम् । अन्यहृदये पुनर्हृदयं यद्दीयते तज्जनो हसति ।।] स्नेह और सद्भावना पूर्ण एवं अनुरक्त व्यक्ति से प्रेम होना उचित है। जिसका मन अन्यत्र आसक्त हो चुका है, उससे प्रेम करने वाले का लोग उपहास करते हैं ॥ ४१ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतकम् आरम्भन्तस्स धुआं लच्छी मरणं वि होइ पुरिसस्स । तं मरणमणारम्भे वि होइ लच्छी उण ण होइ ॥४२॥ [ आरभमाणस्य ध्रुवं लक्ष्मीमरणं वा भवति पुरुषस्य । तन्मरणमनारम्भेऽपि भवति लक्ष्मीः पुनर्न भवति ।। ] जो किसी कार्य को आरम्भ कर देता है उसको या तो लक्ष्मी को ही प्राप्ति होती है या मृत्यु की। जो किसी कार्य को आरम्भ ही नहीं करता मृत्यु तो उसकी भी अवश्य ही होती है परन्तु लक्ष्मी कभी भी प्राप्त नहीं होती ॥ ४२ ॥ विरहाणलो सहिज्जइ आसाबन्धेण वल्लहजणस्स । एकग्गामपवासो माए मरणं विसेसेइ ॥४३॥ [विरहानलः सह्यत आशाबन्धेन वल्लभजनस्य । एकग्रामप्रवासो मातर्मरणं विशेषयति ।।] मिलन की आशा से प्रेमो का विरह ताप तो सह लिया जाता है, किन्तु माँ! एक ही गांव में रहकर प्रवासी सा व्यवहार तो मरण से भी बढ़ कर है ॥ ४३ ॥ अक्खडइ पिआ हिअए अण्णं महिलाअणं रमन्तस्स । विट्ठ सरिसम्मि गुणे असरिसम्मि गुणे अईसन्ते ॥४४॥ [आस्खलति प्रिया हृदये अन्यं महिलाजनं रममाणस्य । ___ दृष्टे सदृशे गुणे असदृशे गुणे अदृश्यमाने ॥] अन्य महिला से रमण करने वाले युवक के मन में तुल्य गुणों को देखकर एवं विपरीत गुणों को न पाकर पूर्वानुभूत प्रियतमा की स्मृति आ ही जाती है ॥ ४४ ॥ णइऊरसच्छहे जोव्वणम्मि अइपवसिएसु दिअसेसु । अणिअत्तासु राईसु पुत्ति किं दड्ढमाणेण ॥४५॥ १. निम्नलिखित गाथा में यही भाव पदावली के अनुकरण के साथ व्यक्त हुआ है दूरयरदेसपरिसंठियस्स पियसंगम महन्तस्स । आसाबन्धो च्चिय माणुसस्स परिरक्खए जीयं ॥ -गुणपाल मुनिकृत, जम्बूचरिय Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ गाथासप्तशती [ नदीपूरसदृशे यौवने अतिप्रोषितेषु दिवसेषु । अनिवृत्तासु च रात्रिषु पुत्रि किं दग्धमानेन ॥] बेटी ! यह यौवन नदी के प्रवाह सा चंचल है तथा ये दिन और ये रातें फिर लौट कर नहीं आयेंगी । तुम मान क्यों करती हो ? ॥ ४५ ॥ कल्लं किल खरहिअओ पवसिइहि पिओत्ति सुण्णइ जणम्मि । तह बढ्ढ भअवइ णिसे जह से कल्लं विअ ण होइ ॥४६॥ [ कल्यं किल खरहृदयः प्रवत्स्यति प्रिय इति श्रूयते जने । तथा वर्धस्व भगवति निशे यथा तस्य कल्यमेव न भवति।।]मैंने सुना है कि मेरे पाषाण हृदय प्रियतम कल प्रयाण करेंगे। हे रात तुम बढो, इतना बढो कि सबेरा ही न हो ॥ ४६ ॥ होन्तपहिअस्स जाआ आउच्छणजीअधारणरहस्सं । पुच्छन्ती भमइ घरं घरेण पिअविरहसहिरीओ ॥४७॥ [ भविष्यत्पथिकस्य जाया आपृच्छन जीवधारणरहस्यम् । पृच्छन्ती भ्रमति गृहं गृहेण प्रियविरहसहनशोलाः ॥] 'मेरे प्रिय परदेश चले जायेंगे'-यह जान कर वह घर-घर जाकर विरह वेदना को सहने वाली विरहनियों से पूछती है-"जब गमनोद्यत प्राणेश मुझ से प्रयाण के लिये अनुमति लेने आयें हों तो क्या उस समय शरीर से बाहर निकलते हुए प्राणों को धारण करने का कोई उपाय है" ॥ ४७ ॥ अण्णमहिलापसङ्गं दे देव करेसु अह्म दइअस्स । पुरिसा एक्कन्तरसा ण हु दोषगुणे विआणन्ति ॥४८॥ [अन्यमहिलाप्रसङ्गं हे देव कुर्वस्माकं दयितस्य । पुरुषा एकान्तरसा न खलु दोषगुणौ विजानन्ति ।। ] मेरा भी पति अन्य महिलाओं में अनुरक्त हो जाय, क्योंकि एक ही नारी से प्रेम करने वाले को गुण-दोष का ज्ञान नहीं होता ॥ ४८ ॥ थो पि ण णीसरई मज्झण्णे उह सरीरतललुक्का । आअवभएण छाई वि पहिअ ता कि ण वीसमसि ॥४९॥ [स्तोकमपि न निःसरति मध्याह्न पश्य शरीरतललीना। आतपभयेन च्छायापि पथिक तत्कि न विश्राम्यसि ॥ ] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् देखो. मध्यान्ह में आतप से भीत होकर शरीर से चिपटी हई छाया भी किंचित् बाहर नहीं निकलती । पथिक ! तुम विश्राम क्यों नहीं कर लेते ॥४९॥ सुहउच्छअं जणं दुल्लहं पि दूराहि अम्ह आणन्त । उअआरअ जर जीअं पि गेन्त ण कआवराहोसि ॥५०॥ [ सुखपृच्छकं जनं दुर्लभमपि दूरादस्माकमानयन् । उपकारक ज्वर जीवमपि नयन्न कृतापराधोऽसि ।। ] हे ज्वर ! तुम ने मेरा सुख-दुख पूछने वाले दुर्लभ व्यक्ति को भी दूर से बुला कर बड़ा ही उपकार किया है, इससे यदि मेरे प्राण भी ले लो तो भी तुम्हारा कुछ अपराध नहीं है ॥ ५० ॥ आमजरो मे मन्दो अहव ण मन्दो जणस्स का तन्ती। सुहउच्छअ सुहअ सुअन्ध अन्ध मा अन्धि छिवसु ॥५१॥ [आमो ज्वरो मे मन्दोऽथवा न मन्दो जनस्य का चिन्ता। सुखपृच्छक सुभग सुगन्धगन्ध मा गन्धितां स्पृश ।। ] मेरा अजीर्णोत्पन्न ज्वर मन्द है या तीव्र, दूसरे लोग इसकी चिन्ता क्यों करते हैं ? कुशल पूछने वाले सुगन्धित सुभग ! तुम मेरे दुर्गन्धपूर्ण शरीर का. स्पर्श मत करना ॥ ५१ ॥ सिहिपिच्छलुलिअकेसे बेवन्तोरु विणिमोलिअद्धच्छि । दरपुरिसाइरि विसुमरि जाणसु पुरिसाणे जं दुःखं ॥५२॥ [शिखिपिच्छलुलितकेशे वेपमानोरु विनिमीलिततार्धाक्षि । ईषत्पुरुषायिते विश्रामशोले जानीहि पुरुषाणां यदुःखम् ।। 1 प्रिये ! मयूर पुच्छ के समान तुम्हारा केश पाश बिखर गया है । आँखें अर्द्ध मुकुलित हो रही हैं । तुम्हारे उरु कम्पित हो रहे हैं । तुम श्रान्त होकर विश्राम कर रही हो । थोड़ी देर में ही पुरुषों का अभिनय करके तुमने जान लिया होगा कि उन्हें कितना परिश्रम करना पड़ता है ।। ५२ ॥ पेम्मस्स विरोहिअसंधिअस्स पच्चक्खदिविलिअस्स । उअअस्स व ताविअसोअलस्स विरसो रसो होइ ॥५३॥ [प्रेम्णो विरोधितसंधितस्य प्रत्यक्षदृष्टव्यलोकस्य । उदकस्येव तापितशोतलस्य विरसो रसो भवसि ॥] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती एक बार टूटा हुआ प्रेम जब किसी प्रकार जुड़ जाता है, तब उसके पश्चात् फिर कोई प्रत्यक्ष त्रुटि हो जाने पर वह वैसा ही नीरस हो जाता है, जैसे तपाकर ठंड़ा किया हुआ जल ।। ५३ ।। १४ वज्जवडणाइरिक्कं पइणो सोऊण सिज्जिणीघोसं । पुसिआई करिमरिए सरिसवन्दीणं पि णअणाई ॥ ५४ ॥ [ वज्रपतनातिरिक्तं पत्युः श्रुत्वा शिञ्जिनीघोषम् । प्रोञ्छितानि बन्द्या सदृशबन्दीनामपि नयनानि ॥ ] वज्रपात से भी घोर पति की प्रत्यंचा की टंकार सुनकर बन्दिनी ने अपने समान अन्य महिलाओं को भी आँखें पोंछ दीं ।। ५४ ।! सहद्द सहइ त्ति तह तेण रामिआ सुरअदुव्विअद्वेण । पम्पाअसिरीसाइँ वजह से जाआई अंगाई ॥ ५५ ॥ [ सहते सहत इति तथा तेन रमिता सुरतदुर्विदग्धेन । प्रम्लानशिरीषाणीव यथास्या जातान्यङ्गानि ॥ ] नौसिखिये ने बेचारी को बचा-बचा कर भी इतनी निर्दयता से रमण किया कि उसके सम्पूर्ण अंग मुरझाये शिरीष पुष्प के समान शिथिल हो गये ।। ५५ ।। अगणिअसेसजुआणा वालअ वोलीणलोअमज्जाआ । अह सा भमइ दिसामुहपसारिअच्छी तुह कएण ॥ ५६ ॥ [ अगणिताशेषयुवा बालक व्यतिक्रान्तलोकमर्यादा | अथ सा भ्रमति दिशा मुखप्रसारिताक्षी तव कृतेन ॥ ] बालक ! तुम्हारे लिये अनेक नवयुवकों की परवाह न करने वाली वह बाला लोक-लज्जा को तिलांजलि देकर सब दिशाओं में आँखें पसारे भटक रही है ।। ५६ ।। करिमरि अआलगज्जिरजलआसणिपडनपडिरवो एसो । पइणो धणुरवकङि खरि रोमञ्चं कि मुहा वहसि ॥५७॥ [ बन्दि अकालगजनशीलजलदाशनिपतनप्रतिरव एषः । पत्युर्धन् रवाकाङ्क्षणशीले रोमाञ्चं कि मुधा वहसि ॥ ] बन्दिनी ! पति के धनुष की टंकार की कल्पना से व्यर्थ पुलकित न हो जाओ, यह अकाल मेघ से गिरने वाले वज्र की प्रतिध्वनि है ।। ५७ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् अज्ज व्वेअ पउत्थो उज्जाअरओ जणस्स अज्जे अ । अज्ज अ हलिद्वापिञ्जाराइँ गोलाणइतडाई ॥५८॥ [ अद्यैव प्रोषित उज्जागरको जनस्याद्यैव । अद्यैव हरिद्रापिञ्जराणि गोदाननदीतटानि ॥ ] आज उनके प्रवास में जाते हीं लोग रात में जगने लगे हैं और गोदावरी की तट भूमि हल्दी से पीली हो गई है ॥ ५८ ॥ असरिसचित्ते दिअरे सुद्धमणा पिअअमे विसमसीले । ण कहइ कुडुम्बविहडणभएण तणुआअए सोहा ॥५९॥ [ असदृशचित्ते देवरे शुद्धमनाः प्रियतमे विषमशीले । न कथयति कुटुम्बविघटनभयेन तनुकायते स्नुषा ॥ ] देवर का अन्तःकरण कलुषित होने पर शुद्धमना वधू दुर्बल होती जा रही है, परन्तु कौटुम्बिक कलह के भय से उद्धत स्वभाव वाले पति से कुछ नहीं - कहली ।। ५९ ।। १५ चित्ताणिअदइअसमागमम्मि कअमण्णुआइँ भरिऊण । सुण्णं कलहाअन्ती सहीहिँ रुण्णा ण ओहसिआ ॥ ६०॥ [चित्तानोतदयितसमागमे कृतमन्युकानि स्मृत्वा । शून्यं कलहायमाना सखीभिः रुदिता नोपहसिता ॥ ] ध्यानावस्था में प्रिय के समागम को कल्पना कर पुनः उसके अपराधों की • स्मृति हो जाने के कारण व्यर्थ ही कलह करतो हुई, उन्मत्त विरहिणी को देखकर सखियों को हँसी के स्थान पर रुलाइ आ गई ॥ ६० ॥ हिअअण्णएहिँ समअं असमत्ताई पि जह सुहावन्ति । कज्जाइँ मणे ण तहा इअरेहिँ समाविआई पि ॥ ६१ ॥ [ हृदयज्ञैः सममसमाप्तान्यपि यथा सुखयन्ति । कार्याणिमन्ये मन्ये न तथा इतरैः समापितान्यपि ॥ ] हृदय का रहस्य समझने वाले के साथ किया हुआ अधूरा कार्य भी जितना सुखद होता है, मैं समझती हूँ, अन्य लोगों के साथ किया हुआ कार्य पूरा हो जाने पर भी उतना सुखद नहीं होता ॥ ६१ ॥ दरफुडिअसिप्पिसंषुडणिलुक्कहालाहलग्ग छेप्पणिहं पक्कम्ब द्विविणिग्गअकोमलमम्बुङ्कुरं # अह ॥६२॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती [ ईषत्स्फुटितशुक्तिसम्पुटनिलीनहालाहलाग्रपुच्छनिभम् । पक्काम्रास्थिविनिर्गतकोमलमाम्राकुरं पश्यत ।। ] वह देखो, आम की गुठली से निकला हुआ कोमल अंकुर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे किंचित् फूटे हुए सीप के संपुट से ब्राह्मणी (जन्तु विशेष, जो चिपकली के आकार का होता है) को पूछ निकल पड़ी हो ॥ ६२॥ उअह पडलन्तरोइण्णणिअअतन्तुद्धपडिलग्गं । दुल्लक्खसुत्तगुत्थेक्कबउलकुसुमं व मक्कडअं ॥६३॥ [ पश्यत पटलान्तरावतोर्णनिजकतन्तूर्ध्वपादप्रतिलग्नम् । दुर्लक्षसूत्रग्रथितैकबकुल कुसुममिव मर्कटकम् ॥ ] .. देखो, छत के भीतर मकड़ो अपने तने हुए तन्तुओं के नीचे पैर ऊपर किए यों लटक रही है जैसे दुर्लक्ष्य सूत्रों में गुथा हुआ कोई बकुल-पुष्प हो ॥ ६३ ॥ उअरि दरदिटुथण्णुअणिलुक्कपारावआण विरुएहि । णित्थणइ जाअरेवेअण सूलाहिण्णं व देअउलं ॥६४॥ [ उपरोषवष्टशंकुनिलीन पारावतानां विरुतैः । निस्तनति जातवेदनं शूलाभिन्नमिव देवकुलम् ॥] प्राचीन मन्दिर का कलश टूट जाने पर भी बची हुई कील पर दुबक कर बैठे हुए पारावत बोल रहे है, मानों यह देव मंदिर शूली पर चढ़ा दिये जाने की व्यथा से कराह रहा है ।। ६४ ॥ जइ होसि ण तस्स पिआ अणुदिअहं णीसहेहि अनेहिं । णवसूअपीअपेऊसमत्तपाडि व्व किं सुवसि ॥६५॥ [ यदि भवसि न तस्य प्रियानुदिवसं निःसहैरङ्गैः।। नवसूतपीतपीयूषमत्तमहिषोवत्सेव किं स्वपिषि ।। ] यदि तुम उसकी प्रिया नहीं हो तो पीयूष ( नव प्रसूता गाय या भैंस का दूध ) पीकर मतवाले भैंस के बच्चे की तरह अलसाये अंगों से क्यों सो रही हो ॥ ६५ ॥ हेमन्तिआसु अइदीहरासु राइसु तं सि अविणिद्दा । चिरअरपउत्थवइए ण सुन्दरं जं दिआ सुवसि । ६६॥ [ हैमन्तिकास्वतिदीर्घासु रात्रिषु त्वमस्यविनिद्रा। चिततरप्रोषितपतिके न सुन्दरं यदिवा स्वपिषि ॥] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् हेमन्त की लम्बी रातों में तुम्हें अवश्य जी भर सोने को नहीं मिला । तुम चिरकाल से प्रवासी की पत्नी हो, अतः तुम्हारा दिन में सोना उचित नहीं जइ चिक्खल्लभउप्पअपअमिणमलसाइ तुह पए दिण्णं । ता सुहअ कण्टइज्जन्तमंगमेण्हि किणो वहसि ॥ ६७ ॥ [ यदि कर्दमभयोत्प्लुतपदमिदमलसया तव पदे दत्तम् ।। तत्सुभगकण्टकितमङ्गमिदानी किमिति वहसि ।।] यदि पंक के भय से, उस अलसाती-सी सुन्दरी ने उछल कर तुम्हारे पदचिह्न पर अपना चरण रख दिया तो तुम्हारे अंग पुलकित क्यों हो गये ।। ६७ ।। पत्तो छणो ण सोहइ अइप्पहा एण्व पुण्णिमाअन्दो । अन्तविरसो व्व कामो असंपआणो अ परिओसो ॥ ६८॥ [प्राप्तःक्षणो न शोभते अतिप्रभात इव पूर्णिमाचन्द्रः । अन्तविरस इव कामोऽसम्प्रदानश्च परितोषः ॥] बीता हुआ उत्सव और दान-शून्य परितोष, प्रभातकालिक चन्द्रमा और अन्त में विरस हो जाने वाले काम के समान सुशोभित नहीं होते ॥ ६८ ॥ पाणिग्गहणे विअ पवईए णा सहीहि सोहग्गं । पसुवइणा वासुइकङ्कणम्मि ओसारिए दूरं ।। ६९ ॥ [पाणिग्रहण एव पार्वत्या ज्ञातं सखीभिः सौभाग्यम् ।। पशुपतिना वासुकिकङ्कणेऽपसारिते दूरम् ।।] विवाह-वेला में जब शिव ने वासुकी का कंकण अपने हाथसे दूर हटा दिया तभी सखियों को पार्वती के अक्षुण्ण सौभाग्य का आभास मिल गया था ।। ६९ ॥ गिटे दवग्गिमसिमइलिआई दीसन्ति विज्झसिहराई। आससु पउत्थवइए ण होन्ति णवपाउसब्भाइं ॥ ७० ॥ [ ग्रीष्मे दवाग्निमषीमलिनितानि दृश्यन्ते विन्ध्यशिखराणि ।। आश्वसिहि प्रोषितपतिके न भवन्ति नवाप्रावृडभ्राणि ॥ ] अयि प्रोषित पतिके ! धीरज धारण करो, ये वर्षा के काले मेघ नहीं है, अपितु ग्रीष्म में लगने वाली दावाग्नि की मसि से मैले विन्ध्य पर्वत की श्रेणियाँ दिखाई दे रही है।॥ ७० ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ गाथासप्तशती जेत्तिअमेत्तं तीरइ णिव्वोढु देसु तेत्तिसं पण। ण अणो विणिअत्तपसाअदुक्खसहणक्खमो सब्बो ॥ ७१॥ __[यावन्मानं शक्यते निर्वोढुं देहि तावन्तं प्रणयम् । न जनो विनिवृत्तप्रसाददुःखसहनक्षमः सर्वः॥] तुम जितना निभा सको, मुझे उतना हो प्रेम प्रदान करना, क्योंकि सभी महिलायें प्रणय टूट जाने की व्यथा सहने में समर्थ नहीं होतीं ॥ ७१॥ बहुवल्लहस्स जा होइ वल्लहा कह वि पञ्च दिअहाई। सा कि छठें मग्गइ कत्तो मिटुं व बहुअं अ॥ ७३ ॥ [ बहुवल्लभस्य या भवति वल्लभा कथमपि पञ्च दिवसानि । सा किं षष्ठं मृगयते कुतो मृष्टं च बहुकं च ॥] जो पांच दिन भी अनेक महिलाओं में आसक्त पुरुष का प्रेम प्राप्त कर लेती है उन्हें छठे दिन का कामना ही नहीं होती। मीठा और कठौती भर किसे मिलता है ॥ ७२ ॥ जं जं सो णिशाअइ अलोआसं महं अणिमिसच्छो । पच्छाएमि अ तं तं इच्छामि अ तेण दोसन्तं ॥ ७३ ॥ . [ यद्यत्स निवा॑यत्यङ्गावकाशं ममानिमिषाक्षः। प्रच्छादयामि च तं तमिच्छामि च तेन दृश्यमानम् ॥] वह मेरे जिस-जिस अनावृत्त अंग को देखता था, मैं उसी उसी को ढक लेती थी, किन्तु जो चाहता था कि वह ऐसे ही देखता रहे ॥ ७३ ।। विढमण्णुदूणिआएँ वि गहिओ दइअम्मि पेच्छह इमाए। ओसरइ बालुआमुठिी उच्च माणो सुरसुरन्तो ॥ ७४ ॥ [ दृढमन्यु(नयापि गृहोतो दयिते पश्यतानया। अपसरति बालुकामुष्टिरिव मानः सुरसुरायमाणः॥] प्रणयी के प्रति अत्यन्त रोषपूर्वक किया हुआ मान उसके हृदय से मुट्ठी के बालू की भाँति सुरसुरा कर दूर होता जा रहा है ।। ७४ ।। उअपोम्मराअमरगअसंवलिआ णहअलाओं ओअरइ । णह सिरिकण्ठन्भद्र व्व कण्ठिआ कोररिज्छोली ॥ ७५ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् [पश्य पद्मरागमरकतसंवलिता नभस्तलादवतरति । नभःश्रीकण्ठभ्रष्टेव कण्ठिका कीरपंक्तिः ॥] देखो, आकाश से शुकों की पंक्ति उतर रही है, जैसे आकाश से लक्ष्मी का ‘पद्मराग एवं मरकत मणि से बना हुआ कोई कंठभरण च्युत हो गया हो ।। ७५ ।। ण वि तह विएसवासो दोग्गच्चं मह जणेइ संतावं । आसंसिअत्थविमणो जह पणइजणो णिअत्तन्तो ।। ७६ ॥ [नापि तथा विदेशवासो दौर्गत्यं मम जनयति सन्तापम् । __ आशंसितार्थविमना यथा प्रणयिजनो निवर्तमानः ।। ] कत्सित गाँव का निवास और दरिद्रता भी मुझे उतनी दुःखदायक नहीं है, जितना अभिलपितार्थ से वंचित होकर निराश लौटने वाला प्रेमी ॥ ७६ ॥ खन्धग्गिणा वणेमु तणेहि गामम्मि रक्खिओ पहिओ। अरवसिओ गडिज्जइ साणुसएण व्व सीएण ॥ ७७ ॥ [स्कन्धाग्निना वनेषु तृणैामे रक्षितः पथिकः । नगरोषितः खेद्यते सानुशयेनेव शीतेन ॥] वनों में काठ एवं गांवों में तृणों से सुरक्षित पथिक को नगर में जाने पर शीत मानो पुराने वैर को याद कर कष्ट देने लगता है ।। ७७ ।। भरिमो से गहिआहरधुअसोसपहोलिरालआउलिअं। वअणं परिमलतरलिअभमरालिपइण्णकमलं व ॥ ७८ ॥ [स्मरामस्तस्या गृहीताधरधुतशीर्षप्रघूर्णनशीलालकाकुलितम् । वदनं परिमलतरलितभ्रमरालिप्रकीर्णकमलमिव ।।] चुम्बन के समय अधरों का ग्रहण करने पर चंचल शोश पर लहराती हुई अलकों से व्याप्त उसका सुगन्ध में डूबा भ्रमर-मंडित कमल सा मनोहर मुख याद आ रहा है ॥ ७८॥ हल्लफलण्हाणपसाहिआणे छणवासरे सवत्तीणं । अज्जाएँ मज्जणाणाअरेण कहि व सोहग्गं ।। ७९ ॥ [ उत्साहतरलत्वस्नानप्रसाधितानां क्षणवासरे सपत्नोनाम् । आर्यया मज्जनानादरेण कथितमिव सौभाग्यम् ॥] उत्सव के दिन उत्साह से चंचल सपलियों ने नहा कर शृंगार किया, किन्तु उसने स्नान के प्रति उपेक्षा दिखला कर ही मानों अपने सौभाग्य की सूचना दे दी॥७९॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती व्हाणहलिद्वाभरिअन्तराइँ जालाइँ जालवलअस्स । सोहन्ति किलिञ्चिअकण्टएण कं काहिसी कअत्थं ॥ ८० ॥ [ स्नानहरिद्राभरितान्तराणि जालानि जालवलयस्य । शोधयन्ती क्षुद्रकण्टकेन कं करिष्यसि कृतार्थम् ॥ ] नहाते समय हल्दी से भरे हुये जालीदार कंकण को बाँस के कांटे से साफ करती हुई तू किसे कृतार्थं करेगी ॥ ८० ॥ अदंसणेण पेम्मं अवेइ अइदंसणेण वि अवेह | पिसुणजणजम्पिएण वि अवेइ एमेअ वि अवेइ ॥ ८१ ॥ [ अदर्शनेन प्रेमा पैत्यतिदर्शनेनाप्यपैति । पिशुन जनजल्पितेनाप्यपैत्येवमेवाप्यपैति ।। ] २० प्रेम अदर्शन से नष्ट हो जाता है और अतिदर्शन से भी । पिशुनों के सम्भाषण से भी नष्ट हो जाता है और अकारण भी ।। ८१ ॥ अदंसणेण महिलाअणस्स अइदंसणेण णोअस्स । मुक्खस्स पिसुणअणजम्पिएण एमेअ वि खलस्स ॥ ८२ ॥ [ अदर्शनेन महिलाजनस्यातिदर्शनेन नीचस्य | मूर्खस्य पिशुनजन जल्पितेनैवमेवापि खलस्य ॥ ] महिलाओं का प्रेम अदर्शन से, नीचों का अतिदर्शनसे, मूर्खो का पिशुनों के सम्भाषण से एवं खलों का अकारण हो नष्ट हो जाता है ।। ८२ ।। पोटृपडिएहिं दुःखं अच्छिज्जह उण्णएहि होऊण । इअ चिन्तआणं मण्णे यणाणं कसणं मुहं जाअं ॥ ८३ ॥ [ उदरपतिताभ्यां दुःखं स्थीयत उन्नताभ्यां भून्वा । इति चिन्तयतोर्मन्ये स्तनयोः कृष्णं मुखं जातम् ॥ ] पहले उन्नत होकर फिर पेड़ का आश्रय ले लेना कितना दुखद है, मानों यही सोचकर पयोधरों का मुख श्याम हो गया ॥ ८३ ॥ सो तुज्झ कए सुन्दरि तह छीणो सुमहिला हलिअउत्तो । जह से मच्छरिणीएँ वि दोच्चं जाआएँ पडिवण्णं ॥ ८४॥ [ स तव कृते सुन्दरि तथा क्षीणः सुमहिलो हालिकपुत्रः । यथा । तस्य मत्सरिण्यापि दौत्यं जायया प्रतिपन्नम् ॥ ] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं शतकम् २१ सुन्दर पत्नी वाला वह हलिक पुत्र तेरे लिये इतना क्षीण हो गया है कि उसकी ईर्ष्यालु पत्नी ने भी दूती बनना स्वीकार कर लिया ॥ ८४ ॥ दक्खिणेण वि एन्तो सुहअ सुहावास अम्ह हिअआई । णिक्कइअवेण जाणं गओसि का णिव्वदी ताणं ॥ ८५ ॥ [ दाक्षिण्येनाप्यागच्छन्सुभग सुखयस्यस्माकं हृदयानि । निष्कैतवेन यासां गतोऽसि का निर्वृतिस्तासाम् ॥ ] तुम मन में कपट रखकर आते हो तो भी हमारे हृदयों को आनंदित कर हो, जिनके साथ तुम्हारा निष्कपट प्रेम होगा उनकी तृप्ति का क्या कहना है ॥ ८५ ॥ एक्कं पहरुब्विण्णं हृत्थं मुहमारुएण वोअन्तो । सो वि हसन्तीए मए गहिओ बीएण कण्ठम्मि ॥ ८६ ॥ [ एकं प्रहारोद्विग्नं हस्तं मुखमारुतेन वीजयन् । सोऽपि हसन्त्या मया गृहीतो द्वितीयेन कण्ठे ॥ ] जब मैंने उन्हें थप्पड़ से मार दिया तो वे मेरा पीड़ित हाथ पकड़ कर मुँह - से। फूँकने लगे । उस समय मैंने भी हँस कर दूसरे बाहु से उनका आलिंगन कर "लिया ।। ८६ ।। अवलम्बिअमाणपरम्मुहोएँ एन्तस्स माणिणि पिअस्स । पुट्ठपुल उग्गमो तुह कहेइ संमुहट्ठिअं हिअअं ॥८७॥ [ अवलम्बितमानपराङ्मुख्या आगच्छतो मानिनि प्रियस्य । पृष्ठपुलको नमस्तव कथयति सम्मुखस्थितं हृदयम् ॥ ] मानिनी ! तू यद्यपि प्रिय के आने पर रूठ कर मुँह फिराये बैठी है, फिर भी तेरी रोमांचित पीठ बतला रही है कि तेरा हृदय सम्मुख है ॥ ८७ ॥ जाणइ जाणावेउं अणुणअविद्दविअमाणपरिसेसं । अरिक्कम्मि वि विणआवलम्बणं सच्चि कुणन्ती ॥ ८८ ॥ [ जानाति ज्ञापयितुमनुनयविद्रावितमानपरिशेषम् । विजनेऽपि विनयावलम्बनं सैव कुर्वती ॥ ] एकान्त में भी निश्चेष्ट रह कर सुन्दरी नायिका यह बतलाना चाहती है कि अनुनय-विनय के पश्चात् भी मान का कुछ अंश शेष रह गया है ॥ ८८ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती मुहमारुएण तं कण्ह गोरअं राहिआएँ अवणेन्तो। एताण वल्लवीणं अण्णाण वि गोरअं हरसि ॥ ८९ ।। [ मुखमारुतेन त्वं कृष्ण गोरजो राधिकाया अपनयन् । एतासां वल्लवीनामन्यासामपि गौरवं हरसि ।। ] कृष्ण ! तुम अपने मुख-मारुत से राधा के नेत्रों की धलि ( गोरज) दूर करते हुए वल्लवियों का गौरव भी दूर कर देते हो ।। ८९ ॥ । कि दाव कआ अहवा करेसि कारिस्सि सुहअ एत्ता हे। अवराहाणं अल्लज्जिर साहसु कअए खमिज्जन्तु ॥९॥ [किं तावत्कृता अथवा करोषि करिष्यसि सुभगेदानीम् ।। अपराधानामलज्जाशील कथय कतरे क्षम्यन्ताम् ।] निर्लज्ज ! तुमने जो अपराध किये हैं, जो कर रहे हो तथा जो भविष्य में करोगे, बताओ, उनमें से कौन सा क्षमा कर दूं ॥ ९० ॥ णूमेन्ति जे पहुत्तं कुविअं दासा व्व जे पसाअन्ति । ते ग्विअ महिलाणं पिआ सेसा सामि विअ वराआ ॥९१॥ [गोपायन्ति ये प्रभुत्वं कुपितां दासा इव ये प्रसादयन्ति । त एव महिलानां प्रियाः शेषाः स्वामिन एव वराकाः ।। ] ___ जो अपना स्वामित्त्व प्रकट नहीं करते तथा कुपित हो जाने पर दास को भांति मनाया करते हैं, वे ही पुरुष तो महिलाओं को प्रिय होते हैं, शेष केवल पति कहलाने के पात्र है ॥ ९१ ॥ तइआ कअग्ध महुअर ! ण रमसि अण्णासु पुष्फजाईसु। बद्धफलभारिगुरुई मालइँ एहि परिच्चअसि ॥ ९२॥ [ तदा कृतार्घ मधुकर न रमसेऽन्यासु पुष्पजातिषु । बद्धफलभारगुर्वी मालतीमिदानी परित्यजसि ।। ] मधुकर ! जिससे तृप्त होकर अन्य जाति के पुष्पों से रमण नहीं करते थे, अब फलों के भार से झुकी हुई उसी मालती को त्याग रहे हो ॥ ९२ ॥ अविअण्हपेक्खणिज्जेण तक्खणं मामि ! तेण दिgण । सिविणअपीएण व पाणिएण तण्ह विअ ण फिट्टा ॥ ९३ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ९४॥ प्रथमं शतकम् [ अवितृष्णप्रेक्षणीयेन तत्क्षणं मातुलानि तेन दृष्टेन । स्वप्नपीतेनेव पानोयेन तष्णव न भ्रष्टा ॥] मामी ! उन्हें देख कर भी देखने की साध पूरी नहीं होती। स्वप्न के जलपान के समान उनके आकस्मिक दर्शन से मेरी तृष्णा शान्त नहीं हुई ॥ ९३ ॥ सुअणो जं देसमलंकरेइ, तं विअ करेइ पवसन्तो। गामासण्णुम्मूलिअमहावडट्ठाणसारिच्छं [सुजनो यं देशमलंकरोति तमेव करोति प्रवसन् ।। ग्रामासन्नोन्मूलितमहावटस्थानसदृशम् ] सज्जन जिस देश को अलंकृत करता है उसे ही अपने वियोग से गांव के निकट की उस भूमि के समान बना देता है, जिस पर छाया करनेवाला वट-वृक्ष काट डाला गया हो ।। ९४ ॥ सो णाम संभरिज्जइ पन्भसिओ जो खणं पि हिअआहि । संभरिअव्वं च कसं गअंच पेम्मं णिरालम्बं ॥९५॥ [स नाम संस्मयते प्रभ्रष्टो यः क्षणमपि हृदयात् । स्मर्तव्यं च कृतं गतं च प्रेम निरालम्बम् ॥ ] जो क्षण मात्र भी हृदय से पृथक् न हो, स्मरण उसी का किया जाता है। जहाँ प्रेमी की स्मृति बनाये रखने की आवश्यकता हो, वह प्रेम तो आश्रयहीन हो गया है ॥ ९५ ॥ णासं व सा कवोले अज्ज वि तुह दन्तमण्डलं बाला। भिण्णपुलअवइवेढपरिगअं रक्खइ वराई ॥ ९६ ॥ [न्यासमिव सा कपोलेऽद्यापि तव दन्तमण्डलं बाला। ___ उद्भिन्नपुलकवृत्तिवेष्टपरिगतं रक्षति वराको ।। ] उस बाला ने कपोल पर उद्भिन्न पुलकों के वेष्ठन में तुम्हारा दन्नक्षत न्यास की तरह आज भी सुरक्षित रखा है ॥ ९६ ।। टिट्ठा चूआ, अग्धाइआ सुरा, दक्षिणाणिलो सहिओ। कज्जाइं विवअ गरुआईं, मामि ! को वल्लहो कस्स ? ॥९७॥ [ दृष्टाश्चूता आघ्राता सुरा दक्षिणानिलः सोढः। कार्याण्येव गुरुकाणि मातुलानि को वल्लभः कस्य ।।] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गाथासप्तशती नूतन रसाल-पल्लव देखे, मतवाली सुरा की गन्ध का अनुभव किया । दक्षिणपवन का घातक स्पर्श भी सह लिया। मामी संसार में कार्यों का ही अधिक गौरव है, प्रेमी कौन किसका है ? ॥ ९७ ॥ रमिऊण पपि गओ जाहे उवऊहिऊ पडिणिउत्तो। अहअं पउत्थपइआ व्व तक्खणं सो पवासि च ॥ ९८ ॥ [रन्त्वा पदमपि गतो यदोपगुहितु प्रतिनिवृत्तः। ___ अहं प्रोषितपतिकेव तत्क्षणं स प्रवासीव ॥] मेरे प्रिय रमण के पश्चात् जैसे ही एक डग बाहर गये कि आलिंगन को तृष्णा से पुनः लौट आये । क्षण भर के लिये वे प्रवासो थे और मैं प्रोषित पतिका ।। ९८ ॥ अविइण्हपेच्छणिज्जं समसुहदुःखं विइण्णसन्भावं । अण्णोण्ण हिअअलग्गं पुण्णेहिं जणो जण लहइ ॥ ९९ ॥ [ अवितृष्णप्रेक्षणीयं समसुखदुःखं वितीर्णसद्भावम् । अन्योन्यहृदयलग्नं पुण्यैर्जनो जनं लभते ।। ] जिन्हें देखने पर भी साध पूरी नहीं होती, जिनका सुख-दुःख एक हो गया है, जो सद्भाव प्रकट करते हैं, और जिनका परस्पर प्रगाढ़ अनुराग रहता है, लोग ऐसे प्राणियों को पुण्य से हो प्राप्त करते हैं ।। ९९ ॥ दुःखं देन्तो वि सुह जणेइ जो जस्स वल्लहो होइ । दइअणहणिआणं वि वड्ढइ थणाण रोमञ्चो ॥ १०० ॥ [ दुःखं दददपि सुखं जनयति यो यस्य वल्लभो भवति । दयितनखदूनयोरपि वर्धते स्तनयो रोमाञ्चः ॥] जो जिसे प्रिय लगता है उसका दुःखद व्यवहार भी सुखदायक हो जाता है । प्रिय के नखों से आहत होकर भी पयोधर आनन्द से पुलकित हो उठते हैं ॥१० ॥ रसिअजणहिअअइए कवइच्छलपमुहसुकइणिम्मविए । सत्तसअम्मि समत्तं पढम गाहासअं एअं॥१०॥ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सलप्रमुखसुकविनिर्मिते । सप्तशतके समाप्तं प्रथमं गाथाशतकमेतत् ।।] जिनमें कविवत्सल हाल प्रमुख हैं उन कवियों द्वारा बनाये हुए, रसिकों के प्यारे सप्तशतक का प्रथम शतक पूर्ण हो गया ।। १०१ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् धरिओ धरिओ विमलइ उअएसो पिहसहोहिं दिज्जन्तो। मअरद्धअबाणपहारजज्जरे तीएं हिअअम्मि ॥ १ ॥ [धृतो धृतो विगलत्युपदेशः प्रियसखीभिर्दीयमानः। मकरध्वजबाणप्रहारजजरे तस्या हृदये ॥] मकरध्वज के बाणों से जर्जर सुन्दरी के हृदय में सखियों द्वारा दिया हुआ उपदेश बार-बार स्थिर करने पर भी बाहर निकल जाता है ॥ १ ॥ तडसंठिअणोडेक्कन्तपीलआरक्खणेक्कदिण्णमणा । अगणिअविणिबाअभआ पूरेण समं वहइ काई ॥२॥ [ तटसंस्थितनोडैकान्तशावकरक्षणे कदत्तमनाः । अगणितविनिपातभया पूरेण समं वहति काको ॥] नदी के तट पर स्थित नीड़ में बैठे शावकों को रक्षा में दत्तचित्त काको अपनी मृत्यु का भय छोड़ कर प्रवाह में बही जा रही है ।। २ ॥ बहुपुष्फभरोणामिअभमोगअसाह सुणसु वित्ति। गोलातडविअडकुडल महुअ सणिअं गलिज्जासु ॥ ३ ॥ [बहुपुष्पभरावनाभितभूमोगतशाख शृणु विज्ञप्तिम् । गोदातटविकटनिकुञ्जमधूक शनैर्गलिष्यसि ॥] पुष्पों के प्रचुर भार से झुकी हुई शाखाओं से भूमि को चूमने वाले, गोदावरी तट के गहन कुञ्ज में खड़े विशाल मधूक ने मेरी विनती सुन ली ! धीरेधीरे चूंओ ॥३॥ णिप्पच्छिमाइँ असई दुःखालोआई महुअपुष्फाई। चीए बन्धुस्स व अठिठ आई रुअई सगुच्चिणइ ॥ ४ ॥ [निष्पश्चिमान्यसतो दुःखालोकानि मधूकपुष्पाणि । चितायां बन्धोरिवास्थोनि रोदनशोला समुच्चिनोति ।।] जिन्हें देखते ही हृदय आहत हो जाता है, झड़े हुये मधूफ के उन अवशिष्ट पुष्पों को आज रोती हुई व्यभिचारिणो बाला ऐसे चुन रही है जैसे कोई चिता ‘पर अपने बन्धु की अस्थियाँ चुनता हो ॥ ४ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती ओ हिअअ मडहसरिआजलरअहोरन्तदीहदारु व्व । ठाणे ठाणे विअ लग्गमाण केणावि डमिहसि ॥ ५॥ [हे हृदय स्वल्पसरिज्जलरयह्नियमाणदोर्घदारुवत् । स्थाने स्थाने एव लगत्केनापि धक्ष्यसे ॥] हे हृदय ! तुम उथली नदी की धारा में बहते हुये दीर्घकाष्ठ के समान स्थान स्थान पर रुकते हुये कहीं-न-कहीं अवश्य दग्ध हो जाओगे ।। ५ ।। जो तीऍ अहरराओ रत्ति उव्वासिओ पिअअमेण। सो विअ दोसइ गोसे सवत्तिणअणेसु संकन्तो ॥६॥ [ यस्तस्या अधररागो रात्रावुद्वासितः प्रियतमेन । स एव दृश्यते प्रातः सपत्नोनयनेषु संक्रान्तः ॥] रात्रि में प्रिय के अविरल चुम्बन से नायिका के अधरों की जो अरुणिमा हटः गई थी, वही सबेरे सपत्नियों के नेत्रों में संक्रान्त हो गई ॥ ६ ॥ गोलाअडट्ठिअं पेछिऊण गहवइसुअं हलिअसोण्हा । आढत्ता उत्तरिउं - दुःखुत्ताराएँ: पअवीए ॥७॥ [ गोदावरीतटस्थितं प्रेक्ष्य गृहपतिसुतं हलिकस्नुषा । आरब्धा उत्तरीतु दुःखोत्तारया पदव्या ॥] हलवाहे की वधू गृहपति के पुत्र को गोदावरी तट पर देख कर उस स्थान पर नदी पार करने लगी जहाँ उसको पार करना कठिन था ॥ ७ ॥ चलणोआसणिसण्णस्स तस्य भरिमो अणालवन्तस्स। पाअट्ठावेट्ठिअकेसदिढाअड्ढणसुहेल्लि ॥८ ॥ [चरणावकाशनिषण्णस्य तस्य स्मरामोऽनालपतः। पादाङ्गुष्ठावेष्टितकेशदृढाकर्षणसुखम् ॥] आज मुझे उस घटना की स्मृति आ रही है, जब वह मेरे चरणों पर चुपचाप पड़ा हुआ था। उस समय मैंने अपने अंगूठे में फंसे हुए उसके केशों को बलपूर्वक खींच-खींच कर कितनी सुखमय क्रीडा की थी ॥ ८॥ फालेइ अच्छभल्लं व उअह कूग्गामदेउलद्दारे। हेमन्तआलपहिओ विज्झाअन्तं पलागि ॥९॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. द्वितीय शतकम् [पाटयत्यच्छभल्लमिव पश्यत कुग्रामदेवकुलद्वारे। हेमन्तकालपथिको विध्मायमानं पलालाग्निम् ।।] वह देखो, इस कुत्सित गाँव में मन्दिर के द्वार पर टिका हुआ हेमन्त-पथिक पयाल की बुझी हुई आग फूंक-फूंक कर यों जला रहा है, जैसे किसी भालू का पेट फाड़ रहा हो ॥ ९॥ कमलाअरा ण मलिआ हंसा उड्डाविआ ण अ पिउच्छा । - केणॉवि गामतडाए, अब्भं उत्ताण व्यूढं ॥१०॥ [ कमलाकरा न मृदिता हंसा उड्डायिता न च पितृष्वसः। केनापि ग्रामतडागे अभ्रमुत्तानितं क्षिप्तम् ।। फूफी ! किसी ने गांव के सरोवर में आकाश ( या मेघ ) को उतान कर फेंक दिया है, किन्तु न तो कमलों का मर्दन हुआ और न हंस हो उड़े ॥ १० ॥ केण मणे भग्गमणोरहेण संलावि पवासो त्ति । सविसाई व अलसाअन्ति जेण बहुआएँ अजाई ॥११॥ [ केन मन्ये भग्नमनोरथेन संलापितं प्रवास इति । सविषाणीवालसायन्ते येन न वध्वा अङ्गानि ।।] किस अभागे ने प्रवास का नाम ले लिया, जिसे सुनकर बहू के अंग यों शिथिल हो गये हैं जैसे उसे विष दे दिया गया हो ॥ ११ ॥ अञ्जवि बालो दामोअरोति इअ जम्पिए जसोआए । कलमुहपेसिअच्छं णिहुअं हसिों वअवहूहिं ॥१२॥ [ अद्यापि बालो दामोदर इति इति जल्पिते यशोदया। कृष्णमुखप्रेषिताक्षं निभृतं हसितं व्रजवधूभिः ।।] "अब भो मेरा ‘दामोदर' निरा बालक हो है" यशोदा के यह कहने पर व्रज की बधूटियां कृष्ण के मुंह पर आँखें डाले घोरे से छिप कर हँस पड़ीं ॥१२॥ ते विरला सप्पुरिसा जाण सिणेहो अहिण्णमुहराओ। अणुदिअह वड्ढमाणो रिणं व पुत्तेसु संकमइ ॥ १३ ॥ [ ते विरलाः सत्पुरुषा येषां स्नेहोऽभिन्नमुखरागः । अनुदिवसवर्धमान ऋणमिव पुत्रेषु संक्रामति ।।] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती वे सत्पुरुष संसार में कम हैं, जिनका प्रेम मुख की प्रसन्नता में कमी नहीं करता, अनुदिन बढ़ता हुआ ऋण की तरह पुत्रों में संक्रान्त हो जाता है ॥ १३ ॥ २८ णच्चणसलाहणणिहेण पासपरिसंठिआ णिउणगोवी । सरिस गोंविआण चुम्बइ कवोलपडिमागअं कण्हं ॥ १४ ॥ [ नर्तनश्लाघननिभेन पार्श्वपरिसंस्थिता निपुणगोपी । सदृशगोपीनां चुम्बति कपोलप्रतिमागतं कृष्णम् ॥ ] नृत्य की श्लाघा के व्याज से निपुण गोपी पार्श्व में स्थित अपनी सहेली के - कपोल पर प्रतिबिंबित कृष्ण को चूम रही है ॥ १४ ॥ सव्वत्य दिसामुहपसाँरिएहि अण्णोष्णकडअलग्गेह । छल्लिब्ध मुअइ विझो मेहेहि विसंघडन्तहि ॥ १५ ॥ [ सर्वत्र दिशामुखप्रसूतेरन्योन्यकटकलग्नेः । छल्लीमिव मुञ्चति विन्ध्या मेघैविसंघटमानैः ॥ ] एक दूसरे के शृंगों से संलग्न एवं दिशाओं में सर्वत्र फैले हुये मेघों के - विघटित होने से विन्ध्याचल ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह अपना वल्कल उतार • रहा हो ॥ १५ ॥ आलोअन्ति पुलिन्दा पव्वअसिहरट्टिआ धणुणिसण्णा । हत्थिउलेहिं व विज्झं पूरिज्जन्तं णवब्भेहिं ॥ १६ ॥ [ आलोकयन्ति पुलिन्दाः पर्वतशिखरस्थिता धुनुर्निषण्णाः । हस्तिकुलेरिव विन्ध्यं पूर्यमाणं नवाभ्रैः 1] शैल-शृंग पर धनुष टेक कर बैठे हुये पुलिन्द, गजराजों के समूह के समान - नवीन मेघों से व्याप्त विन्ध्याचल की छटा देख रहे हैं ॥ १६ ॥ वणदवमसिमइलङ्गी रेहइ विञ्झो गणेहिं धवलेहि । खीरोअमन्थण च्छलिअदुद्धसित्तो व [ वनदवमषीमलिनाङ्गो राजते विन्ध्यो क्षीरोदमथनोच्छलित दुग्धसिक्त इव महुमहणो ॥ १७ ॥ धनैर्धवलैः । मधुमथनः ॥ ] दावानल के घुयें से मलिन विन्ध्य शैल शुभ्र * पर यों प्रतीत होता है जैसे क्षीरोदमन्थन से उच्छलित दुग्ध में स्नात भगवान् मेघमाला से आच्छादित होने विष्णु ॥ १७ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय शतकम् वन्दीअ णिहअबन्धवविमणाइ वि पक्कली ति चोरजुआ। अणुराएण पलोइऔं, गुणेसु को मच्छरं वहइ ॥१८॥ [ वन्द्या निहितबान्धवविमनस्कयापि प्रवोर इति चारयुवा । __ अनुरागेण प्रलोकितो गुणेषु को मत्सरं वहति ।। ] बान्धवों की हत्या से उदास वन्दिनी ने भी तरुण चोर को वोर जान कर अनुराग से देखा । गुणों से किसे द्वेष होता है ॥ १८ ॥ अज्ज कइमो वि दिअहो वाहवहू रूवजोवणुम्मत्ता। सोहागं धणुरुम्पच्छलेण रच्छासु विक्किरइ ॥ १९ ॥ [अद्य कतमोऽपि दिवसो व्याधवधू रूपयौवनोन्मत्ता।। सौभाग्यं धनुस्तष्टत्वक्छलेन स्थ्यासु विकिरति ।।] आज कितने दिनों से रूप और यौवन से मतवाली व्याघवधू पति द्वारा उठाने में अशक्य धनुष को हल्का करने के लिये छील कर गिराई हुई किर्च को अपने सौभाग्य के समान गलियों में बिखेर रही है ।। १९ ॥ उक्खिप्पइ मण्डलिमारुएण गेहाणाहि वाहीए। सोहग्गवअवडाअ व उअह धणुरुम्परिज्छोली ॥ २० ॥ [ उत्क्षिप्यते मण्डलीमारुतेन गेहाङ्गणाद्वयाधस्त्रियाः। सौभाग्यध्वजपताकेव पश्यत धनुः सूक्ष्मत्वक्पङ्क्तिः ।।] देखो, व्याध बधू के आंगन से उसके सौभाग्य की पताका के समान धनुष की सूक्ष्म किर्च को मण्डलाकार हवा उड़ा रही है ॥ २० ॥ गअगण्डस्थलणिहसणमअमइलोकअकरञ्जसाहाहि । एत्तीअ कुलहराओ गाणं वाहीअ पहमरणं ॥ २१ ॥ [गजगण्डस्थलनिघर्षणमदमलिनोकृतकरञ्जशाखाभिः । आगच्छन्त्या कुलगृहाज्ज्ञातं व्याधस्त्रिया पतिमरणम् ।। ] गजों के कपोल-कर्षण से छूटने वाले मद से मलिन करंज को शाखाओं को देख कर नहर से आती हुई व्याघ वधू को अपने पति को मृत्यु का आभास मिल गया ॥ २१ ॥ णववहुपेम्मतणुइओ पणअं पढमघरणोअ रक्खन्तो । आलिहिअदुष्परिल्लं पिइ रणं धगुवाहा ॥२२॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती [ नववधूप्रेमतनूकृतः प्रणयं प्रथमगृहिण्या रक्षन् । तनकृतदुराकर्षमपि नयत्यरण्यं धनुयाधः ।। ] नववधु के प्रेम से दुर्बल होने पर भी पहली पत्नी के प्रणय की रक्षा करता हुआ व्याध उसके दिये हुये धनुष को--जो छील डालने पर भी दुराकर्ष था-वन में ले जाया करता था ॥ २२ ॥ हासाविओ जणो सामलोअ पढमं पसूअमाणाए । वल्लहवाएण अलं मम त्ति बहुसो भणन्तीए ॥ २३ ॥ [ हासितो जनः श्यामया प्रथमं प्रसूयमानया। वल्लभवादेनालं ममेति बहुशो भणन्त्या ॥] षोडश वर्षीया सुकुमारी ने प्रथम बार प्रसव वेदना से आकुल होकर कहा-"अब मैं पति का नाम भी न लूगी" यह सुन कर सखियाँ हँस • पड़ीं ॥ २३ ॥ कइअवरहि पेम्म ण त्थि विअ मामि माणुसे लोए। अइ होइ कस्स विरहो विरहे होत्तमि को जिअइ ॥ २४ ॥ [ कैतवरहितं प्रेम नास्त्येव मातुलानि मानुषे लोके ।। अथ भवति कस्य विरहो विरहे भवति को जीवति ।।] सखी ! मनुष्य लोक में निष्कपट प्रेम नहीं है । यदि होता तो किसी का किसी . से वियोग कैसे होता ? और यदि होता भी तो कौन जीवित रहता ! ॥ २४ ॥ अच्छेरे व णिहि विअसग्गे रज्जं व अमअपाणं व। आसि म्ह तं महत्तं विणिअंसणसणं तीए ॥ २५ ॥ [ आश्चर्यमिव निधिमिव स्वर्गे राज्यमिवामृतपानमिव । आसीदस्माकं तन्मुहूतं विनिवसनदर्शनं तस्याः ॥] मैंने जब नितान्त नग्नावस्था में उस सुन्दरी को देखा तब आश्चर्य में पड़ गया, उस क्षण ऐसा लगा जैसे कोई निधि मिल गई है, स्वर्ग का राज्य मिल गया है और अमृत पी लिया है ॥ २५ ॥ सातुज्झ वल्लहा तं सि मज्म वेसो सि तीअ तुज्म अहं । बालअ फुडं भणामो पेम्मं किर बहुविआरं ति ॥ २६ ॥ [सा तव वल्लभा त्वमसि मम द्वेष्योऽसि तस्यास्तवाहम। बालक स्फुटं भणामः प्रेम किल बहुविकारमिति ॥] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् ३१ वह तुझे प्रिय है और तू मुझे । वह तुझसे घृणा करती है और तू मुझसे । बालक ! प्रेम में अनेक दोष होते हैं ॥ २६ ॥ अहअं लज्जालुइणी तस्स अ उम्मच्छराइँ पेम्माई । सहिआअणो वि पिउणो अलाहि किं पाअराएण ॥ २७ ॥ [ अहं लज्जालुस्तस्य चोन्मत्सराणि प्रेमाणि । ' सखीजनोऽपि निपुणोऽपगच्छ कि पादरागेण ॥] उनका प्रेम अत्यन्त उत्कट है और मैं लज्जाशील हूँ। सखियाँ भार्ण पटु है, हटो ! मेरे चरणों में यावक मत लगाओ ॥ २७ ॥ महुमासमारुआहअमहूअरझंकारणिभंरे रणे । गाअइ विरहक्खरॉबद्धपहिअमणमोहणं गोवी ॥२८॥ [ मधुमासमारुताहतमधुकरझंकारनिर्भरेऽरण्ये । गायति विरहाक्ष राबद्धपथिकमनोमोहनं गोपी ॥] वसन्त-पवन से आहत भ्रमरों की झंकार से पूर्ण कानन में कोई गोपी पथिकों को मोहने वाला, विरह के अक्षरों से ग्रथित, गीत गा रही है ॥ २८॥ तह माणो माणधणाएँ तीअ एमेअ दूरमणुबद्धो । जह से अणुणीअ पिओ एक्कग्गाम विअ पउत्थो ॥ २९ ॥ [ तथा मानो मानधनया तथा एवमेव दूरमनुबद्धः। यथा तस्या अनुनीय प्रिय एकग्राम एव प्रोषितः॥] उस मानधना सुन्दरी का मान अब इतना आगे बढ़ चुका है कि उसका 'प्रिय अनुनय-विनय करते-करते हार कर एक ही गांव में रहता हुआ भी प्रवासीसा हो गया है ॥ २९ ॥ सालोएं विअ सूरे घरिणी घरसामिअस्स घेत्तूण । ङ्गच्छन्तस्स वि पाए धुअइ हसन्ती हसन्तस्स ॥ ३०॥ [ सालोक एव सूर्ये गृहिणी गृहस्वामिनो गृहीत्वा । अनिच्छतोऽपि पादौ धावति हसन्ती हसतः ॥ ] अभी सूर्य का प्रकाश शेष है तो भी हँसती हुई गृहिणी हंसते हुए गृहस्वामो का पैर, उसकी अनिच्छा होने पर भी धो रही है ॥ ३०॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ गाथासप्तशती वाहरउ मं सहीओ तिस्सा गोत्तेण किं त्थ भणिएन । थिरपेम्मा होउ जहिं तहिं पि मा कि पिणं भणइ ॥ ३१ ॥ [ व्याहरतु मां सख्यस्तस्या गोत्रेण किमत्र भणितेन । स्थिरप्रेमा भवतु यत्र तत्रापि मा किमप्येनं भणत ॥ ] वे मुझे सपत्नी के नाम से पुकारते हैं, तो पुकारने दो, सखी ! तुम कुछ मत कहना | उनका प्रेम कहीं भी तो स्थिर हो जाय ।। ३१ ।। रूअं अच्छीसु ठिअं फरिसो अङ्गेसु जम्पिअं कण्णे । हिअअं हिअए मिहिअं विओइअं कि त्थ देव्वेण ॥ ३२ ॥ [ रूपमक्ष्णोः स्थितं स्पर्शोऽङ्गेषु जल्पितं कर्णे । हृदयं हृदये निहितं वियोजितं किमत्र देवेन ॥ ] उनका रूप आँखों में, स्पर्श अंगों में, वाणी कानों में और हृदय हृदय में समाया है । दैव ने वियोग किसका किया है ? ॥ ३२ ॥ साणे चिन्तामइअं काऊण पिअं णिमीलिअच्छीए । अप्पाणो उवऊढो पसिठिलवलआहिँ बाहाहि ॥ ३३ ॥ [ शयने चिन्तामयं कृत्वा प्रियं निमीलिताक्ष्या । आत्मा उपगूढः प्रशिथिलवलयाभ्यां बाहूभ्याम् ॥ ] विरहिणी ने ध्यानावस्था में शैया पर प्रिय की कल्पना कर आँखें बन्द कर लीं, फिर जिनके कंकण शिथिल हो चुके थे उन भुजाओं से केवल अपना ही आलिंगन करके रह गई ॥ ३३ ॥ परिहूएण वि दिअहं घरघरभमिरेण अण्णकज्जम्मि । चिरजीविएण इमिणा खविअह्म दड्ढकाएण ॥ ३४ ॥ [ परिभूतेनापि दिवसं गृहगृहभ्रमणशीलेनान्यकार्ये । चिरजीवितेनानेन क्षपिताः स्मो दग्धकायेन ॥ ] अपमानित होकर भी पराये कार्य के लिये एक घर से दूसरे घर में घूमने वाले अन्नलोभी कौए के समान मैं अपने दीर्घजीवी पापी शरीर से ऊब गई हूँ ॥ ३४ ॥ वसइ जहि चेअ खलो पोसिज्जन्तो सिणेहदाणेहि । तं चेअ आलअं दोअओ व्व अइरेण महलेइ ॥ ३५ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् [ वसति तत्रैव खलः पोष्यमाणः स्नेहदानैः । । तमेवालयं दीपक इवाचिरेण मलिनयति ।] दुष्ट मनुष्य दोपक की तरह जहां भी स्नेहदान ( प्रेम या तेल ) से पुष्ट होता है, उसी गृह को मलिन कर देता है ॥ ३५ ॥ होन्ती वि णिप्फलच्चिअधणरिद्धी होइ किविणपुरिसस्स। गिह्माअवसंतत्तस्स णिअअछाहि व्व पहिअस्स ॥ ३६॥ [भवन्त्यपि निष्फलैव धनऋद्धिर्भवति कृपणपुरुषस्य । ग्रीष्मातपसंतप्तस्य निजकच्छायेव पथिकस्य ।। ] कुपण पुरुष के पास धन सम्पत्ति रहने पर भी वैसे ही व्यर्थ हो जाती है जैसे भीष्म के आतप से संतप्त पथिक की परछाईं ॥ ३६ । फुरिए वामच्छि तुए जइ एहिइ सो पिओ ज्ज ता सुइरं । संमोलिअ दाहिण तुइ अवि एहं पलोइस्सं ।। ३७ ॥ [ स्फुरिते वामाक्षि त्वयि यद्येष्यति स प्रियोऽद्य तत्सुचिरम् । संमोल्य दक्षिणं त्वयैवैतं प्रेक्षिष्ये ॥] ___ अरी बायीं आँख ! यदि तेरे फड़कने पर मेरे परदेशी घर आ जायंगे तो दाहिनी आँख मूंद कर तुझसे ही उन्हें देर तक निहारती रहूँगी ॥ ३७ ॥ सुत्तअपउरम्मि गामे हिण्डन्ती तुह कएण सा बाला। पासअसारिव्व घरं घरेण कइआ वि खज्जिहि ॥ ३८ ॥ [शुनकप्रचुरे ग्रामे हिण्डमाना तव कृतेन सा बाला। पाशकशारीव गृहं गृहेण कदापि खादिष्यते ॥] प्रचुर कुत्तों वाले गांव में तुम्हारे लिये चौपड़ की सार की तरह एक घर से दूसरे घर में भटकती हुई वह बाला पाशबद्ध सारिका की भांति कभी-न-कभी खा डाली जायगी ॥ ३८॥ अण्णण्णं कुसुमरसं जं किर सो महइ महुअरो पाउं । तं णिरसाण दोसो कुसुमाणं अ भमरस्स ॥३९॥ [अन्यमन्यं कुसुमरस यत्किल स इच्छति मधुकरः पातुम् । तन्नीरसानां दोषः कुसुमानां नैव भ्रमरस्य ।।] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती भ्रमर एक पुष्प को त्याग कर रसपान की इच्छा से अन्य पुष्प पर बैठ जाता -यह नीरस पुष्पों का ही दोष है, भ्रमर का नहीं ॥ ३९ ॥ रत्थापइण्णणअणुष्पला तुमं सा पडिच्छए एन्तं । दारणिहिएहिँ दोहिं वि मङ्गलकलसेहिँ व थर्णाहि ॥ ४० ॥ [ रथ्याप्रकीर्णनयनोत्पला त्वां सा प्रतीक्ष्यते आयान्तम् । द्वारनिहिताभ्यां द्वाभ्यामपि मङ्गलकलशाभ्यामिव स्तनाभ्याम् ॥ ] रया के भीतर कमल-सी सुन्दर आँखें बिछाये वह तुम्हारी प्रतीक्षा करती है । उसके दोनों पयोधर द्वार पर रखे मंगलकलश के समान प्रतीत होते हैं ॥ ४० ॥ ३४ छिज्जए अङ्ग । तारुण्णं जा रुव्वइ ता छीणं जाव ता पीससिअं वराइअ जाव अ सासा पहुप्पन्ति ॥ ४१ ॥ [ तावद्रुदितं यावदुद्यते तावत्क्षीणं यावत्क्षीयतेऽङ्गम् । तावन्निःश्वसितं वराक्या यावत् [ च ] श्वासाः प्रभवन्ति ॥ ] वह दुःखिनो जितना रो सकी, रोई, जितना दुर्बल हो सकी, हुई, और जितना हो सका उतनी लम्बी साँसें ले चुकी है ॥ ४१ ॥ समसोक्खदुक्ख परिवआिण कालेण रूढपेम्माणं । मिहुणाणं मरइ जं तं खु जिअइ इअरं मुअं होइ ॥ ४२ ॥ [ समसौख्यदुःखपरिवर्धितयोः कालेन रूढप्रेम्णोः । मिथुनयोम्रियते यत्तत्खलु जीवति इतरन्मृतं भवति ॥ ] जो अपना सुख-दुःख एक मान कर रहते आये हैं और समय पाकर जिनका प्रेम पूर्ण पल्लवित हो चुका है, उन दम्पतियों में जिसकी मृत्यु पहले हो जाती है वह तो जीवित रहता है और जो जीवित रहता है, उसकी मृत्यु हो जाती है ॥ ४२ ॥ हरिहिइ पिअस्स णवचूअपल्लवौ पढममञ्ज रिसणाहो । मा रुवसु पुत्ति पत्थाणकलसमुहसंठिओ गमणं ॥ ४३ ॥ [ हरिष्यति प्रियस्य नवचूतपल्लवः प्रथममञ्जरीसनाथः । मा रोदी: पुत्रि प्रस्थानकलशमुखसंस्थितो गमनम् ॥ ] रोती क्यों हो बेटी ? प्रयाण के समय मंगल-घट पर रखा हुआ नई मंजरी से युक्त रसाल पल्लव ही प्रिय को परदेश न जाने देगा ॥ ४३ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् जो कहँ वि मह सहीहिं छिदं लहिऊण पेसिओ हिआए। सो माणो चोरिअकामुअ व्व दिठे पिए गट्ठो ॥४४॥ [यः कथमपि मम सखीभिश्छिद्रं लब्ध्वा प्रवेशितो हृदये । स मानश्चोरकामुक इव दृष्टे प्रिये नष्टः ।। ] सहेलियों ने किसी प्रकार छिद्र देख कर जिसे मेरे हृदय में बैठा दिया था, वही मान प्रिय को देखते ही चोर-कामुक की भांति न जाने कहां सरक गया ।। ४४ ।। सहिआहि भण्णमाणा थणए लग्गं कुसुम्भपुष्पं त्ति । मुद्धबहुआ हसिज्जइ पफोडन्ती णहवआई॥४५॥ [ सखीभिर्भण्यमाना स्तने लग्नं कुसुम्भपुष्पमिति । मुग्धवधूहस्यते प्रस्फोटयन्ती नखपदानि ॥] सखियों ने कहा-"तेरे स्तन पर कुसुम्भ पुष्प लगा है।" यह सुनकर मुग्धा-वधू जब नखचिह्न को झाड़ने लगी तब वे सखियाँ हँस पड़ीं ॥ ४५ ॥ उन्मूलेन्ति व हिअअं इमाई रे तुह विरज्जमाणस्स । अवहीरणवसविसंठुलवलन्तणअणद्धदिट्ठाई ॥४६॥ [उन्मूलयन्तीव हृदयं इमानि रे तव विरज्यमानस्य । अवधीरणवशविसंष्ठुलवलन्नयनार्धदृष्टानि ॥] मुझसे विरक्त होनेवाले ! तेरे नयनों की अनादर के कारण शून्य, पराङ्मुख एवं विवर्तित अधूरी दृष्टियाँ मेरे हृदय को उन्मूलित कर रही हैं ॥ ४६ ॥ ण मुअन्ति दोहसासंग रुअन्ति चिरंण होंन्ति किसिआओ। 'घण्णाओं ताओ जाणं बहुवल्लह वल्लहो ण तुमं ॥४७॥ [न मुञ्चन्ति दीर्घश्वासान्नरुदन्ति चिरं न भवन्ति कृशाः। धन्यास्ता यासां बहुवल्लभ वल्लभो न त्वम् ॥] वे देवियाँ धन्य हैं, जिन्होंने तुम्हारे जैसे बहुवल्लभ पुरुष से प्रेम नहीं किया है। वे न तो दीर्घ उच्छवास ही छोड़ती है, न देर तक रोती हैं और न दुर्बल ही होती है ।। ४७ ॥ णिद्दालसपरिघुम्मिरतंसवलन्तद्धतारआलोआ । कामस्स वि दुविवसहा विट्ठिगिआवा ससिमुहीए ॥४८॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती [निद्रालसपरिघूर्णनशीलतिर्यग्वलदर्धतारकालोकाः । कामस्यापि दुर्विषहा दृष्टिनिपाताः शशिमुख्याः ।।] निद्रा के आलस्य से आपूणित, तिर्यक् चलने वाली आधी पुतलियों की चपल चितवन वाले तेरे कटाक्ष अनंग के लिये भी असह्य हैं ॥ ४८ ॥ जीविअसेसाइ मए गमिआ फहँ कहँ वि पेम्मदुद्दोली। एण्हि विरमसु रे डढहिअअ मा रज्जसु कहिं पि ॥ ४९ ।। [ जीवितशेषया मया गमिता कथं कथमपि प्रेमदुर्दोली। इदानीं विरम रे दग्धहृदय मा रज्यस्व कुत्रापि ॥ ] इतने दिनों से किसी प्रकार प्रणय की ग्रंथि सम्भालती आ रही हैं। मेरे प्राण-मात्र शेष रह गये हैं। हृदय ! अब तुम रुक जाओ, कहीं भी अनुरक्त मत होता ॥ ४९ ॥ अज्जाएँ णवणहक्खअणिरीक्खणे गरुअजोव्वणुत्तुङ्ग । पडिमागअणिअणअणुप्पलच्चिअं होइ थणवळें ॥ ५० ॥ [आर्याया नवनखक्षतनिरीक्षणे गुरुयौवनोत्तुङ्गम् ।। प्रतिमागतनिजनयनोत्पलार्चितं भवति स्तनपृष्ठम् ।। ] प्रगाढ़ यौवन से उन्नत पयोधर पर अंकित नवीन नख-चिह्न को देखते समय उस पर नायिका के नेत्रों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता था जैसे दो कमलों से उसकी अर्चना की गई हो ॥ ५० ॥ तं मह जस्स वच्छे लच्छिमुहं कोत्थहम्मि संकन्तं । दीसइ मअपरिहोणं ससिबिम्बं सूरबिम्ब व्व ।। ५१ ॥ [तं नमत यस्य वक्षसि लक्ष्मोमुखं कौस्तुभे संक्रान्तम् । दृश्यते मृगपरिहीनं शशिबिम्बं सूर्यबिम्ब इव ॥] जिसके वक्षस्थल पर कौस्तुभमणि में प्रतिबिम्बित लक्ष्मी का मुख रविमण्डल में प्रविष्ट निष्कलंक चन्द्र सा प्रतीत होने लगता है, उसे नमस्कार कीजिये ॥५१॥ मा कुण पडिवक्खसुहं अणुणेहि पिअं पसाअलोहिल्लं । अइगहिअगरुअमाणेण पुत्ति रासि व्व छिज्जिहिसि ॥ ५२ ॥ [मा कुरु प्रतिपक्षसुखमनुनथ प्रियं प्रसादलोभयुतम् । अतिगृहीतगुरुकमानेन पुत्रि राशिरिव क्षीणा भविष्यसि ।।] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् __ प्रसाद-लोभी प्रियतम का अनुनय करो। प्रतिपक्षियों को प्रसन्न होने का अवसर मत दो। तुम भारी मान से अन्न की राशि के समान क्षीण हो जाओगी ।। ५२ ॥ विरहकरवत्तदूसहफालिज्जन्तम्मि तीअ हिअअम्मि। अंसू कज्जलमइलं पमाणसुत्तं व्व पडिहाइ ॥ ५३ ॥ [विरहकरपत्रदुःसहपाट्यमाने तस्या हृदये । अश्रु कज्जलमलिनं प्रमाणसूत्रमिव प्रतिभाति ।।] विरहरूपी आरी से चीरते समय उसके वक्ष पर बहती हुई अंजन-मिश्रित अश्रुधारा प्रमाणसूत्र सो प्रतीत होती है ।। ५३ ॥ दुण्णिक्खेवअमेअं पुत्तम मा साहसं करिज्जासु । एत्थ णिहिताई मण्णे हिअआइ पुण्णे ण लब्भन्ति ॥ ५४॥ [ दुनिक्षेपकमेतत्पुत्रक मा साहसं करिष्यसि । अत्र निहितानि मन्ये हृदयानि पुनर्न लभ्यन्ते । ] उसके पास हृदय रूपी धरोहर रखने का दुस्साहस मत करो। बेटा ! यहाँ रक्खे हुए हृदय' फिर वापस नहीं मिलते ॥ ५४ ।। णिन्वुत्तरआ वि वहू सुरअविरामढिई अआणन्तो। अविरअहिअआ अण्णं पि कि पि अस्थि ति चिन्तेइ ॥ ५५ ॥ [निवृत्तरतापि वधूः सुरतविरामस्थितिमजानंती। ___ अविरतहृदयान्यदपि किमप्यस्तीति चिन्तयति ॥] रति के समाप्त हो जाने पर भी, उसकी समाप्ति कैसे की जाती है, यह न जानने वाली वधू का अनुरक्त हृदय विराम नहीं ले रहा था। वह सोचतो थो शायद अभी कुछ और शेष है ।। ५५ ॥ णन्दन्तु सुरअसुहरसतलावहराई सअललोअस्स । बहुकैअवमग्गविणिम्मिआई वेसाण पेम्माई॥५६॥ [नन्दन्तु सुरतसुखरसतृष्णापहराणि सकललोकस्य । बहुकैतवमार्गविनिमितानि वेश्यानां प्रेमाणि ।।] जो सभी प्रकार के लोगों की सुरत-काम-क्रीड़ा को शान्त करते हैं तथा "जिनका निर्माण छल-पाखंड से पूर्ण है, वारांगनाओं की वे प्रेम-क्रीड़ाएँ सदैव विजयो हो ॥५६॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती अप्पत्तमण्णुदुक्खो कि मं किसिअत्ति पुन्छसि हसन्तो। पावसि जइ चलचित्तं पिअं जणं ता तुह कहिस्सं ॥५७॥ [अप्राप्तमन्युदुःख किं मां कशेति पृच्छसि हसन् । प्राप्स्यसि यदि चलचित्तं प्रियं जनं तदा तव कथयिष्यामि ॥] तुम दुबली हो-यह हँसकर क्यों पूछ रही हो? तुमने पराई पीर का अनुभव ही कब किया है ? जिस दिन किसी चंचल चित्त वाले प्रेमी से तुम्हारी भेंट हो जायगी तो बता दूँगी ।। ५७ ॥ अवहत्थिऊण सहिजम्पिआईं-जाणं कएण रमिओसि । “ एआई ताई सोक्खाई संसओ जेहिं जीअस्स ॥ ५८ ॥ [ अपहस्तयित्वा सखीजल्पितानि येषां कृते न रमितोऽसि । एतानि तानि सैख्यानि संशोय यैर्जीवस्य ॥] सखियों की बातें न मान कर, जिनके लिये तुमसे रमण किया था, मेरे प्राणों को संशय में डालने वाले ये वे ही सुख हैं ॥ ५८ ।। ईसालुओ पई से रत्ति महुअं ण देइ उच्चेउं । उच्चेइ अप्पण चिअ माए अइउज्जुनसुहाओ ॥ ५९॥ [ ईर्ष्याशीलः पतिस्तस्या रात्रौ मधूकं न ददात्युच्चेतुम् । उच्चिनोत्यात्मनैव मातरतिऋजुकस्वभावः ।।] उसका ईष्यालु पति उसे रात को मधूक-पुष्प का चयन नहीं करने देता । वह इतना सरल-स्वभावी है कि स्वयं चुन लेता है ।। ५९ ॥ अच्छोडिअवत्थद्धन्तपत्थिए मन्थरं तुमं वच्च ।। चिन्तेसिन्थणहराआसिअस्स मज्झस्स वि ण भङ्गं ॥६० ॥ [ बलादाकृष्टवस्त्रार्धान्तप्रस्थिते मन्थरं त्वं व्रज । चिन्तयसि स्तनभरायासितस्य मध्यस्यापि न भङ्गम् ॥] बलात् अंचल का छोर छड़ा कर जाने वाली ! धीरे-धीरे जाओ । क्या तुम्हें अपनी कटि की चिन्ता नही है, जो पयोघरों के भार से दब कर टूट जायगी? ॥ ६०॥ उवच्छो पिअइँ जलं जह जह विरलगुली चिरं पहिओ। पावालिया वि तह तह धारं तणुई पि तणुएइ ॥ ६१ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् [ ऊर्वाक्षः पिबति जलं यथा यथा विरलाङ्गलिश्चिरं पथिकः । प्रपापालिकापि तथा तथा धारां तनुकामपि तनूकरोति ।।] तुषित पथिक आँखें ऊपर किये शिथिल अंजलि से पानी पीने में जैसे-जैसे विलम्ब करता जाता था वैसे-वैसे पिलाने वाली भी पानी की पतली धार और भी पतली करती जा रही है ॥ ६१॥ भिच्छाअरों पेच्छइ णाहिमण्डलं सावि तस्स मुहअन्दं । तं चटुअं अ. करडूं दोह वि काआ विलुम्पन्ति ॥ ६२॥ [भिक्षाचरः प्रेक्षते नाभिमण्डलं सापि तस्य मुखचन्द्रम् । तच्चटुकं च करकं द्वयोरपि काका विलुम्पन्ति ॥] भिक्षुक वधू की अधखुली नाभि को निहार रहा है और वह उसके मुख चन्द्र को। इस तन्मयता में उनके कलघी और भिक्षापात्र का अन्न कौए खा गये हैं ।। ६२॥ जेण विणा ण जिविज्जइ अणुणिज्जइ सो कआवराहो वि। पत्ते वि अरदाहे भण कस्स ण वल्लहो अग्गी ॥ ६३ ॥ [येन विना न जीव्यतेऽनुनीयते स कृतापराधोऽपि । प्राप्तेऽपि नगरदाहे भण कस्य न वल्लभोऽग्निः ।। ] जिसके बिना जीवित रहना ही कठिन है, अपराध करने पर भी उसका अनुनय करना ही पड़ता है। सारे नगर को जला कर भस्म कर देने वाली आग किसे प्रिय नहीं होती? ॥ ६३ ॥ वेक्कं को पुलइज्जउ कस्स कहिज्जउ सुहं व दुक्खं वा। केण समं व हसिज्जउ पामरपउरे हअग्गामे ॥ ६४ ॥ [वकं कः प्रलोक्यतां कस्य कथ्यतां सुख वा दुःखं वा । केन समं वा हस्यतां पामरप्रचुरे हतग्रामे ।। ] वक्रवृष्टि से किसे देखें ? किससे सुख-दुख कहें ? दुष्टों के इस पापी गाँव में किससे हास-परिहास करें ॥ ६४ ॥ फलहीवाहणपुण्णाहमङ्गलं लङ्गले कुणन्तीए। असईअ मणोरहवब्भिणीम हत्था थरहरन्ति ॥ ६५ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० गाथासप्तशतो [ कार्पासोक्षेत्रकर्षणपुण्याहमङ्गलं लाङ्गले कुर्वत्याः। असत्या मनोरथगभिण्या हस्तौ थरथरायते ॥] कपास का खेत जोतने के शुभ दिन, हल पर मांगलिक आलेपन करने वाली कुलटा के हाथ भविष्य की अनेक आकांक्षाओं की कल्पना से काँप उठे ।। ६५ ॥ पहिउल्लूरणसङ्काउलाहिँ असईहिं वहलतिमिरस्स । आइप्पणेण णिहुअं वडस्स सित्ताई पत्ताई ॥६६॥ [पथिकच्छेदनशङ्काकुलाभिरसतीभिर्बहलतिमिरस्य । आलेपनेन निभृतं वटस्य सिक्तानि पत्राणि ।।] टिकने वाले बटोही उसके पत्ते तोड़ न डाले-इस आशंका से कुलटा स्त्रियों ने अन्धकारमय वटवृक्ष के समस्त पत्तों पर लेप लगा दिया ।। ६६ ॥ भजन्तस्स वि तुह सग्गगामिणो णइकरज्जसाहाओ। पाआ अज्ज वि धम्मिअ तुह कहँ धरणि विह छिवन्ति ॥ ६७॥ [ भञ्जतोऽपि तव स्वर्गगामिनो नदीकरञ्जशाखाः। पादावद्यापि धामिक तव कथं धरणीमेव स्पृशतः ।।] ऐंड़ी उठा कर नदी किनारे की करंज शाखा तोड़ने वाले पुजारी ! जान पड़ता है तुम अभी स्वर्ग चले जाओगे किन्तु पता नहीं अब भी तुम्हारे चरण पृथ्वी का ही स्पर्श क्यों कर रहे हैं ? ॥ ६७ ॥ अच्छउ दाव मणहरं पिआइ मुहदंसणं अइमहग्छ । तग्गामछेत्तसीमा वि झत्ति दिट्ठा सुहावेइ ॥ ६८ ॥ [ अस्तु तावन्मनोहरं प्रियाया मुखदर्शनमतिमहाघम् । तद्ग्रामक्षेत्रसीमापि झटिति दृष्टा सुखयति ।।] प्रिया के मुख के अमूल्य और मनोहर दर्शन दूर रहे, उसके गाँव के खेतों की सोमा को भी सहसा देखकर मैं आनन्द-मग्न हो जाता हूँ ॥ ६८ ।। णिक्कम्महि वि छेत्ताहि पामरो णेअ वच्चए वसई। मुअपिअजाआसुण्णइअगेहदुःक्खं परिहरन्तो ॥ ६९ ॥ [निष्कर्मणोऽपि क्षेत्रात्पामरो नैव व्रजति वसतिम् । मृतप्रियजायाशून्यीकृतगेहदुःखं परिहरन् ॥] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् खेत में कोई काम न होने पर भी कृषक इसलिये लौट कर नहीं आता कि दिवंगता प्रिय पत्नी से शून्य गृह को देख कर उसे शोक होगा ॥ ६९ ॥ जझावाउत्तिण्णिअघरविवरपलोट्टसलिलधाराहि । कुडुलिहिओहिअहं रक्खइ अज्जा करअलेहि ॥ ७० ॥ [ झञ्झावातोत्तृणोकृतगृहविवरप्रपतत्सलिलधाराभिः। कुडयलिखितावधिदिवसं रक्षत्यार्या करतलः।।] झंझावात से जिसकी फूस की छाजन उड़ गई है, उस घर में दीवार पर लिखी हुई परदेशी के आगमन की अवधि को, दोन विरहिणी अपने दोनों हाथों से ढक कर छिद्रों से चूती हुई जलधार से बचा रही है ॥ ७० ॥ गोलाणइए कच्छे चक्खन्तो राइआइ पत्ताई। उप्फडइ मक्कडो खोक्खएइ पोट्ट अ पिट्टेइ ॥ ७१ ॥ [ गोदावरी नद्याः कच्छे चर्वयन्राजिकायाः पत्राणि । उत्पतति मर्कटः खोक्खशब्दं करोत्युदरं च ताडयति ॥] गोदावरी की कछार में राई के पत्तों को चबाता हुआ बंदर कूदता हुआ *खोक्खो' शब्द कर अपना पेट पोट रहा है ॥७१ ॥ गहवइणा मुअसैरिहडुण्डुअदामं चिरं वहेऊण । वग्गसआई उण गवरिअ अज्जाघरे बद्धं ॥७२॥ [ गृहपतिना मृतसैरिभबृहद्धण्टादाम चिरमूढ्वा । वर्गशतानि नीत्वानन्तरमार्यागृहे बद्धम् ।।] के गृहस्वामी ने मृत भैसे के गले से पुरानी घंटी उतार कर रख दी। सैकड़ों भैंसों के झुण्ड में ले गया और अन्त में उसे भवानी के मंदिर में बाँध दिया ॥७२॥ सिहिपेहुणावअंसा बहुआ वाहस्स गव्विरी भमइ । गअमोत्तिअरइअपसाहणाणं मज्झे सवत्तोणं ॥ ७३ ॥ [ शिखिपिच्छावतंसा वाधस्य गविता भ्रमति। गजमौक्तिकरचितप्रसाधनानां मध्ये सपत्नीनाम् ।। ] जिन्होंने गजमुक्ताओं से श्रृंगार किया था, उन सपत्नियों में मयूर-पुच्छ का आभूषण धारण करने वाली व्याघवध गर्व से फिरती है ।। ७३ ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती वच्छिपेच्छिरीणं उल्लविरोणें वकुभमिरीणं । उहसिरीण पुत्तअ पुण्णेहिं जणो पिओ होइ ॥ ७४ ॥ ४२ [ वक्राक्षिप्रेक्षणशीलानां वक्रोल्लपनशीलानां वक्रभ्रमणशीलानाम् । वक्रहासशीलानां पुत्रक पुण्यैर्जन: प्रियो भवति ॥ ] जो टेढ़ा देखती हैं, टेढ़ा बोलती हैं, टेढ़ा चलतो हैं और टेढ़ा ही परिहास करती हैं, उन महिलाओं का प्रेम पुण्य से ही कोई पुरुष प्राप्त कर पाता है ॥ ७४ ॥ भम धम्मिअ वीसत्यो सो सुणओ अज्ज मारिओ तेण । गोलाअडविअडकुडङ्गवासिणा दरिअसोहेण ॥ ७५ ॥ [ भ्रम धार्मिक विस्रब्धः स शुनकोऽद्य मारितस्तेन । गोदातटविकटकुञ्जवासिना दृप्त सिंहेन ॥ ] अरे पुजारी ! निर्भय होकर विचरण करो, उस कुत्ते को गोदावरी तट के घने कुंज में रहने वाले अभिमानी सिंह ने आज मार डाला ।। ७५ । वाएरिएण भरिअं अच्छि कणऊरउप्पलरएण । फुक्कन्तो अविलं चुम्बन्तो को सि देवाणं ॥ ७६ ॥ [ वातेरितेन भृतमक्षि कर्णपूरोत्पलरजसा । फूत्कुर्वन्न वितृष्णं चुम्बन्कोऽसि देवानाम् ॥ ] सुन्दरी के नेत्रों में मारुत कम्पित कर्णोत्पल का पराग पड़ जाने पर मुख से फूँक कर निकालते हुए अतृप्त चुम्बन करने वाले तुम देवताओं में कौन हो ॥ ७६ ॥ सहि दुम्मेन्ति कलम्बाई जह मं तह ण सेसकुसुमाई । णूणं इमेसु दिअहेसु वहs गुडिआधणुं कामो ॥ ७७ ॥ [ सखि व्यथयन्ति कदम्बानि यथा मां तथा न शेषकुसुमानि । नूनमेषु दिवसेषु वहति गुटिकाधनुः कामः ॥ ] सखी ! ये कदम्ब मुझे जितना व्यथित करते हैं, उतना अन्य पुष्प नहीं । अवश्य इन दिनों कामदेव अपने हाथों में गुलेल धारण करता है ॥ ७७ ॥ नाहं दूई ण तुमं पिओ त्ति को अम्ह एत्थ वावारो । सा मरइ तुज्झ अअसो तेण अ धम्मक्खरं भणिमो ॥ ७८ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् [ नाहं दूती न त्वं प्रिय इति कोऽस्माकमत्र व्यापारः । सा म्रियते तवायशस्तेन च धर्माक्षरं भणामः ॥ ] है । मैं न तो दूती हूँ और न तुम प्रेमी हो । वह मर रही है, तुम्हें अपयश होगा, हूँ ।। ७८ ।। मेरा यहाँ कोई प्रयोजन भी नहीं इसलिये धर्म की बात कहती तीअ मुहाहिं तुह मुहँ तुज्झा मुहाओ अ मज्झ चलणम्मि । हत्थाहत्थीअ गओ अहदुक्करआरओ तिलओ ॥ ७९ ॥ [ तस्या मुखात्तव मुखं तव मुखाच्च मम चरणे । हस्ताहस्तिकया गतोऽतिदुष्करकारकस्तिलकः ॥ ] अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाला यह तिलक उसके मुख से तुम्हारे मुख पर और तुम्हारे मुख से मेरे चरणों पर हाथों हाथ आ गया है ।। ७९ ।। ४३ सामाइ सामलिज्जइ अद्धच्छिपलोइरीअ मुहसोहा । जम्बूदलकअकण्णावअंसभरिए हलिअपुते ॥ ८० ॥ [ श्यामाया: श्यामलायतेऽर्धाक्षिप्रलोकनशीलाया मुखशोभा । जम्बूदलकृत कर्णावतंसमभ्रमणशीले हलिकपुत्रे ।। ] जम्बू-पत्र का कर्णाभरण धारण कर विचरते हुए नवयुवक किसान को आधी चितवन से देखकर षोडशी वाला के मुख की कान्ति श्याम हो गई ॥ ८० ॥ दूध तुमं विअ कुसला कक्खमउआइँ जाणसे वोल्ल । कण्डूहअपण्डुरें जह ण होई तह तं करेज्जासु ॥ ८१ ॥ [ दूति त्वमेव कुशला कर्कशमृदुकानि जानासि वक्तुम् । कण्डुयितपाण्डुरं यथा न भवति तथा तं करिष्यसि ॥ ] दूती ! तुम कुशल हो, कठोर और मृदु बोलना जानती हो । अब उसको कुछ ऐसा करो, जिससे खुजली भा दूर हो जाये और चमड़ा भी विरूप न हो ॥ ८१ ॥ महिला सहस्सभरिए तुह हिअए सुअह सा अमाअन्तो । दिअहं अणण्णकम्मा अङ्गं तणुअं पि तणुएइ ॥ ८२ ॥ [ महिला सहस्रभृते तव हृदये सुभग सा अमान्ती । दिवसमनन्यकर्मा अङ्गं तनुकमपि तनूकरोति ॥ ] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती तुम्हारे हृदय में, जहाँ हजारों महिलायें भरी हुई हैं, अपने लिये पर्याप्त स्थान न पाकर वह तन्वंगी दिन भर सब काम छोड़कर अपने पहले से हो • दुर्बल शरीर को और भी दुर्बल करती जा रही है ॥ ८२ ॥ खणमेतं पण फिट्टइ अणुदिअहविद्दण्णगरुअसंतावा । पच्छण्णपावसङ्के व्व सामली मज्झ हिअआओ ॥ ८३ ॥ [ क्षणमात्रमपि नापयात्यनुदिवस वितीर्णगुरुकसंतापा । प्रच्छन्नपापशङ्केव श्यामला मम हृदयात् ॥ ] गुप्त पाप की शंका के समान प्रतिदिन प्रचण्ड संताप प्रदान करने वाली • प्रिया क्षणभर भी मेरे हृदय से दूर नहीं होती ॥ ८३ ॥ ४४ अज्जअ णाहं कुविआ अवऊहसु किं मुहा पसाएसि । तुह मण्णुसमुप्पाअऍण मज्झ माणेण वि ण कज्जं ॥ ८४ ॥ [ अयंक नाहं कुपिता उपगूह कि मुधा प्रसादयसि । तव मन्यसमुत्पादकेन मम मानेनापि न कार्यम् ॥ ] स्वामी ! ( अर्थक) व्यर्थ क्यों मुझे प्रसन्न कर रहे हो ? निर्भय आलिंगन करो। मैं कुपित नहीं हूँ । तुम्हें दुःख देने वाले मान से भी मेरा अब कोई प्रयोजन नहीं रह गया ॥ ८४ ॥ दीप उरणीसासपआविओ वाहसलिलपरिसित्तो । साहेइ सामसवलं व तीऍ अहरो तुह विओए ॥ ८५ ॥ [ दीर्घोष्णप्रचुर निःश्वासप्रतप्तो बाष्पसलिल परिसिक्तः । साधयति श्यामशबलमिव तस्या अधरस्तव वियोगे ॥ ] जो दीर्घ और ऊष्ण श्वासों से संतप्त हो गया है तथा जो अश्रु जल से सिक्त हो गया है, वह विरहिणी का अधर मानों तेरे वियोग में 'श्याम - शबल' ( व्रत - विशेष ) की साधना कर रहा है ॥ ८५ ॥ सरए महद्धदाणं अन्ते सिसिराइँ वाहिरुहाई । जाआइँ कुविअसज्जणहिअअसरिच्छाइँ सलिलाई ॥ ८६ ॥ शरदि महा हृदानामन्तः शिशिराणि बहिरुष्णानि । जातानि कुपितसज्जनहृदयसदृक्षाणि सलिलानि ॥ ] शरत्काल में सरोवरों का जल कुपित सज्जनों के हृदय की भाँति ऊपर गर्म होने पर भी भीतर शीतल हो गया है ॥ ८६ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतकम् आअस्स कि णु करिहिम्मि कि बोलिस्स कहं णु होइहि इमिति । पढमुग्गअसाहसआरिआइ हिअ थरहरेइ ॥ ८७ ॥ [आगतस्य किं नु करिष्यामि किं वक्ष्यामि कथं नु भविष्यति [इदम्] इति । प्रथमोद्गतसाहसकारिकाया हृदयं थरथरायते ।।] उनके आने पर क्या करूँगी ? क्या कहूँगो ? कैसे होगा? यह सोचते ही पहली बार साहस करने वाली अभिसारिका का हृदय धड़कने लगता है ।। ८७ ॥ णेउरकोडिविअग्गं चिउरं दइअस्स पाअपडिअस्स । हिअ पउत्थमाणं उम्मोअन्ती विअ कहेइ ॥ ८८॥ [ नूपुरकोटिविलग्नं चिकुरं दयितस्य पादपतितस्य । हृदयं प्रोषितमानमुन्मोचयन्त्येव कथयति ॥] ___ चरणों पर गिरे हुए प्रिय के बालों को-जो नूपुर को कोटि में फंस गये थे--मुक्त करती हुई चन्द्रमुखी ने बतला दिया कि अब उसके हृदय से मान निकल गया है ॥ ८८॥ तुज्झबराअसेसेण सामली तह खरेण सोमारा। सा किर गोलाऊले हाआ जम्बूकसाएण ॥ ८९ ॥ [तवाङ्गराग शेषेण श्यामला तथा खरेण सुकुमारा । सा किल गोदाकूले स्नाता जम्बूकषायेण ।। ] गोदावरी के किनारे तुम्हारे लगाने से बचे हुए उतने तोखे जामुन के अंगराग से सुकुमारी श्यामांगी ने स्नान किया ॥ ८९ ॥ अज्ज व्वेष पउत्थो अज्ज विअ सुण्ण आईं जाआई। रत्थामुहदेउलचत्तराई अां च हिआईं ॥ ९०॥ [ अद्यैव प्रोषितोऽद्यैव शून्यकानि जातानि । रथ्यामुखदेवकुलचत्वराण्यकस्माकं च हृदयानि ।।] उन्होंने आज हो प्रयाण किया और आज हो गलो, देव मन्दिर का प्रांगण और हमारे हृदय सूने हो गये हैं ॥ ९० ॥ चिरडि पि अआणन्तो लोआ लोएहि गोरवन्भहिआ। सोणारतुले व्व गिरक्खरा वि खन्धेहि उम्भन्ति ॥ ९१ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ गाथासप्तशती [ वर्णावलीमप्यजानन्तो लोका लोकैर्गौरवाभ्यधिकाः । सुवर्णकारतुला इव निरक्षरा अपि स्कन्धैरुह्यन्ते ॥ ] जैसे सोनार की तुला निरक्षर होने पर भी आदर से रखी जाती है वैसे ही कुछ निरक्षर ( अपढ़ - मूर्ख ) लोग कन्धों पर बैठा लिये जाते हैं ( अतिशय आदरास्पद बना दिये जाते हैं । ) ॥ ९१ ॥ आअम्बरन्तकवोलं खलिअक्खरजपिरि फुरन्तोट्ठि । मा छिवसुत्ति सरोसं समोसरन्ति पिअं भरिमो ॥ ९२ ॥ [ आताम्रान्तः कपोलां स्खलिताक्षरजल्पशोलां स्फुरदोष्ठोम् । मा स्पृशेति सरोषं समपसर्पन्तीं प्रियां स्मरामः ॥ ] जिसके कपोल आरक्त हो गये थे, बोलते समय जिसकी वाणी स्खलित हो जाती थी, जिसके ओंठ फड़क रहे थे तथा क्रोध से " मुझे मत छुओ" कहती हुई पीछे हट रही थी, उस प्राणेश्वरी की स्मृति को मैं भूलता नहीं हूँ ।। ९२ ॥ गोलाविसमोआरच्छलेण अप्पा उरम्मि से मुक्को । अणुअम्पाणिद्दोसं तेण वि सा आढमुवऊढा ॥ ९३ ॥ [ गोदावरी विषमावता रच्छलेनात्मा उरसि तस्य मुक्तः । अनुकम्पा निर्दोषं तेनापि सा गाढमुपगूढा ॥ ] नायिका ने गोदावरी के ऊँचे-नीचे ढालों से उतरने के बहाने अपने को नायक के वक्ष पर गिरा दिया और उसने उसको भुजाओं में कस लिया तो कोई दोष नहीं, क्योंकि यह उसकी दयालुता थी ।। ९३॥ सा तुइ सहत्यदिण्णं अज्ज वि रे सुहअ गन्धरहिअं पि । उव्वसिअणअरघरदेवदे aa ओमालिअं वहइ ॥ ९४ ॥ [ सा त्वया स्वहस्तदत्तामद्यापि रे सुभग गन्धरहितामपि । उद्वसितनगर गृहदेवतेव अमालिकां वहति ॥ ] नगर की विसर्जित गृह देवी के समान वह बाला आज भी तुम्हारे हाथों से दी हुई माला, गन्धहीन हो जाने पर भी पहनती है ॥ ९४ ॥ केलोअ वि रूसेउं ण तीरए तम्मि चुक्कविणअम्मि । जाइअएहिए व माए इमेहिँ अवसेहि अहं ॥ ९५ ॥ [ केल्यापि रुषितु ं न शक्यते तस्मिच्युतविनये । याचितकैरिव मातरेभिरवशैरङ्गेः ॥ ] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ द्वितीय शतकम् माँ मैं विनय को भूल जाने वाले प्रेमान्ध पति से हंसी में भी रूठ नहीं सकती क्योंकि उनके सम्मुख अपने विवश-अंगों पर मेरा अधिकार ही नहीं रहता, जैसे मैंने इन्हें किसी से मांग कर पाया हो ॥ ९५ ॥ उप्फुल्लिआइ खेल्लउ मा णं वारेहि होउ परिऊढा। मा जहणभारगरुई पुरिसाअम्तो किलिम्मिहिइ ॥ ९६ ॥ [ उत्फुल्लिकया खेलतु मैनां वारयत भवतु परिक्षामा। मा जघनमारगुर्वी पुरुषायितं कुवती क्लमिष्यति ।।] उसे 'उत्फुल्लिका' खेलने दो, रोको मत, दुबली हो जायगी तो साँसों के बंध जाने पर रति क्रीड़ा में पुरुष का नाट्य करती हुई मोटी जाँघों के भार से श्रान्त न होगी।।। ९६ ॥ पउरजुवाणो गामो महुमासो जोअणं पई ठेरो। जुण्णसुरा साहोणा असई या होउ कि मरउ ॥ ९७ ॥ [प्रचुरयुवा ग्रामो मधुमासो यौवनं पतिः स्थविरः । जीर्णसुरा स्वाधीना असती मां भवतु किं म्रियताम् ।।] युवकों से भरा गाँव, वसन्त का समय, यौवन की उड़ान, वृद्ध पति और 'पुरानी सुरा-इनके रहते स्वाधीन नारी यदि व्यभिचारिणी न हो जाये तो क्या मर जाये? ॥ ९७ ॥ बहुसो वि कहिज्जन्तं तुह वअणं मज्झ हत्थसंदिढें । ण सुअं त्ति जम्पमाणा पुणरुत्तसरं कुणई अज्जा ॥ ९८॥ [बहुशोऽपि कथ्यमानं तव वचनं मम हस्तसंदिष्टम् ।। न श्रुतमिति जल्पन्ती पुनरुक्तशतं करोत्यार्या ॥] मेरे हाथों द्वारा भेजा हुआ तुम्हारा सन्देश जब मैंने उस मृगनयनी को सुनाया तो बार-बार सुनने की इच्छा से "मैंने नहीं सुना, मैंने नहीं सुना" कहकर उसने सैकड़ों बार मुझसे कहलाया ।। ९८ ॥ पाअडिअणेहसब्भावणिब्भरं तीअ जह तुमं दिट्ठो । संवरणवावडाए अण्णो वि जणो तह व्वेअ ॥ ९९ ॥ [प्रकटितस्नेहसद्भावनिर्भरं तया यथा त्वं दृष्टः। संवरणव्यापृतया अन्योऽपि जनस्तथैव ॥] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सप्तशती कुलांगना ने पूर्ण स्नेह और सद्भाव व्यक्त करते हुए जैसे तुम्हें देखा था वैसे ही आत्म संवरण में संलग्न होकर अन्य व्यक्ति को भी ॥ ९९ ॥ गेह पलोअह इमं पहसिअवअणा पइल्स अप्पे | सुअपढमुब्भिण्णदन्तजुअलङ्किअं बोरं ॥ १०० ॥ [ गृह्णीत प्रलोकयतेदं प्रहसितवदना पत्युरर्पयति । जाया सुप्रथमोद्भिन्नदन्तयुगलाङ्कितं बदरम् ॥ ] जाआ "लो यह देखो" ! कह कर मुस्कराती हुई पत्नी ने बालक की नन्हीं दंतुलियों से अंकित बेर पति को अर्पित कर दिये ॥ १०० ॥ रसिअजणहिअअदइए कइवच्छलप मुहसुकइणिम्मइए । सत्तसअम्मि समत्तं बीअं गाहासअं एअं ॥ १०१ ॥ ४८ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सलप्रमुखसुकविनिमिते । सप्तशतके समाप्तं द्वितीयं गाथाशतकमेतत् ॥ ] जिनमें हाल का स्थान प्रमुख है, उन कवियों द्वारा बनाए हुए रसिकों के प्यारे सप्तशतक का द्वितीय शतक पूरा हुआ ॥ १०१ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् अच्छउ ता जणवाओ, हिअ विअ अत्तणो तुह पमाणं । तह तं सि मन्दणेहो जह ण उवालम्भजोग्गो सि ॥१॥ [ अस्तु तावज्जनवादो हृदयमेवात्मनस्तव प्रमाणम् । तथा त्वमसि मन्दस्नेहो यथा नोपालम्भयोग्योऽसि ।।] लोग जो कहते हैं, उसे छोड़िये, तुम्हारा हृदय ही तुम्हारी करतूत का प्रमाण है । अब तो इतने विरक्त हो गये हो कि मैं उपालंभ भी नहीं दे सकती ॥१॥ अप्पच्छन्दपहाविर दुल्लहलम्भं जणं वि मग्गन्त । आआसपहेहि भमन्त हिअअ कइआ वि भन्जिहिसि ॥ २॥ [ आत्मच्छन्दप्रधावनशील दुर्लभलम्भं जनमपि मृगयमाण। आकाशपथैर्धमदहृदय कदापि भक्ष्यसे ।। ] तुम अपनी रुचि से सर्वत्र दौड़ लगाते हो । दुर्लभ व्यक्ति को भी खोजने लगते हो। मेरे आकाशचारी हृदय ! किसी दिन गिर कर चूर-चूर हो जाओगे ॥२॥ अहव गुणविअ लहुआ अहवा गुणअणुओं ण सों लोओ। अहव ह्मि गिग्गुणा वा बहुगुणवन्तो जणो तस्स ॥ ३ ॥ [ अथवा गुणा एव लघवोऽथवा गुणज्ञो न स लोकः । ___ अथवास्मि निगुणा वा बहुगुणवाञ्जनस्तस्य ॥] या तो गुणों का आदर नहीं होता या वह गुणज्ञ ही नहीं है अथवा मैं गुणहीन हूँ या उसकी प्रेयसी मुझसे अधिक गुणवती है ॥ ३ ॥ फुट्टन्तेण व्वि हिअएण मामि कह णिव्वरिज्जए तम्मि । आदंसे पडिबिम्ब वि ज्जम्मि दुःखं ण संकमइ ॥४॥ [स्फुटितापि हृदयेन मातुलानि कथं निवेद्यते तस्मिन् । आदर्श प्रतिबिम्बमिव यस्मिन्दुःखं न संक्रामति ॥] मामी ! हृदय फट रहा है तब भी जिसके भीतर दर्पण में प्रतिबिम्ब की भांति मेरा दुःख नहीं पहुँच पाता, उससे कैसे कहूँ ? ॥ ४ ॥ ४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो पासासङ्की काओ णेच्छदि दिण्णं पि पहिअघरणीए । ओअन्तकरअलोगलिअवलअमज्झटिअं पिण्डं ॥५॥ [पाशाशको काको नेच्छति दत्तमपि पथिकगृहिण्या। अवनतकरतलावगलितवलयमध्यस्थितं पिण्डम् ।।] परदेशी की प्रिया ने बलि प्रदान करने के लिये हाथ झुकाया तो कंकण भी गिर पड़ा। कंकण के बीच में पड़े हुए पिण्ड को जाल समझ कर कौआ देने पर भी नहीं खाता ॥ ५ ॥ ओहिदिअहागमासंकिरीहिं सहिआहिं कुडुलिहिआओ।। दोतिण्णि तहिं विअ चोरिआएँ रेहा पुसिज्जन्ति ॥६॥ [ अवधिदिवसागमाशङ्किनीभिः सखीभिः कुख्यलिखिताः। द्वित्रास्तत्रैव चोरिकया रेखाः प्रोञ्छयन्ते ।।], अवधि का दिन कहीं आकर चला न जाये-इस आशंका से सहेलियां दीवार पर अंकित रेखाओं में से दो तीन रेखायें वहीं छिप कर पोंछ देती है ॥ ६ ॥ तुह मुहसारिच्छं ण लहइ त्ति संपुण्णमण्डलो विहिणा । अण्णम व्व घडइपुणो वि खण्डिज्जइ मिअङ्को ॥ ७ ॥ [ तवमुखसादृश्यं न लभत इति संपूर्णमण्डलो विधिना। अन्यमयमिव घटयितु पुनरपि खण्डयते मृगाङ्कः॥] चन्द्रमा में तेरे मुख का सादृश्य नहीं मिलता, मानों यही सोचकर विधाता नया बनाने के लिये सम्पूर्ण चन्द्रमा को एक बार बनाकर फिर तोड़ डालते अज्जं गओत्ति अज्ज गओत्ति अज्जं गओत्ति गणरीए । पढम विअ दिअहद्धे कुढ्डो रेहाहि चित्तलिओ ॥८॥ [अद्य गत इत्यद्य गत इत्यद्य गत इति गणनशीलया। प्रथम एव दिवसाधं कुडयं रेखाभिश्चित्रितम् ॥] वे आज गये हैं, आज गये हैं, 'आज गये हैं' इस प्रकार गणना करती हुई विरहिणी ने पहले ही दिन दोपहर तक सारी दोवार चित्रित कर डाली ॥८॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् ण वि तह पढमसमागमसुर असुहे पाविएवि परिओसो । जह वीअदिअहसविलक्खलक्खिए वअणकमलम्मि ॥ ९ ॥ [ नापि तथा प्रथमसमागमसुरतसुखे प्राप्तेऽपि परितोषः । यथा द्वितीय दिवससविलक्षलक्षिते वदनकमले ॥ ] प्रथम समागम के समय सम्भोग सुख प्राप्त करने पर भी मुझे उतना सन्तोष नही हुआ, जितना दुसरे दिन सलज्ज दृष्टि वाला उसका मुख कमल देख कर ॥ ९ ॥ जे समुहागअवोलन्तवलिअ पिअपेसिअच्छि विच्छोहा । अम्हं ते मअणसरा, जणस्स जे होन्ति ते होन्तु ॥ १० ॥ [ ये संमुखागतव्यतिक्रांत वलितप्रियप्रेषिताक्षिविक्षोभाः । अस्माकं ते मदनशरा जनस्य ये भवन्ति ते भवन्तु ॥ ] ५१ एक बार अनुनय के लिये सम्मुख आकर निराश लौटते समय प्रिय ने मेरो ओर मुड़ कर जो तरल दृष्टि डाली थी— दूसरे लोग चाहे जो समझें-मैं तो - उसे ही मदन बाण मानती हूँ ॥ १० ॥ इअरो जणो ण पावइ तुह जहणारुहण संगमसुहेल्लिं । अणुहवइ कणअडोरो हुअवहवरुणाणं माहप्पं ॥ ११ ॥ [ इतरो जनो न प्राप्नोति तव जघनारोहणसंगमसुखकेलिम् । अनुभव कनकदोरो हुतवहवरुणयोर्माहात्म्यम् ॥ ] तुम्हारी जांघों पर चढ़कर रमण करने का सुख अन्य कोई न प्राप्त कर -सका, अकेला कनक-सूत्र ही अग्नि और वरुण के माहात्म्य का अनुभव कर रहा है ॥ ११ ॥ जो जस्स विश्वसारो तं सो देइ त्ति किं त्थ अच्छेरं । अणहोन्तं पि खु दिण्णं दोहग्गं तइ सवत्तीर्णं ।। १२ ।। [ यो यस्य विभवसारस्तं स ददातीति किमत्राश्चर्यम् । अभवदपि खलु दत्तं दौर्भाग्यं त्वया सपत्नीनाम् ॥ ] जिसके पास जो धन है, वह उसे प्रदान करे तो कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु तुमने अपने पास न रहने वाला दुर्भाग्य सपत्नियों को दे डाला ॥ १२ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती चन्दसरिसं मुहं से सरिसो अमअस्स मुहरसो तिस्सा । सकअग्गहरह सुज्जलचुम्बणअं कस्स सरिसं से ॥ १३ ॥ [ चन्द्रसदृशं मुखं तस्याः सदृशोऽमृतस्य मुखरसस्तस्याः । सकचग्रहरभसोज्वलचुम्बनकं कस्य सदृशं तस्याः ॥ ] उसका मुख तो चन्द्र के सदृश है और अधर अमृत के किन्तु मैंने प्रेमावेग से उसकी केश - राशि को पकड़ कर जो पवित्र चुम्बन किया था, उसकी उपमा किससे दूँ ।। १३ ।। ५२ उप्पण्णत्थे कज्जे अइचिन्तन्तो गुणागुणे तम्मि | चिरआलमन्दपेच्छित्तणेण पुरिसो हणइ कज्जं ॥ १४ ॥ [ उत्पन्नार्थे कार्येऽतिचिन्तयन्गुणागुणौ तस्मिन् । चिरकालमन्दप्रेक्षित्वेन पुरुषो हन्ति कार्यम् ॥ ] कार्य के फलोन्मुख हो जाने पर जो गुण-दोष की अधिक मीमांसा करने लगता है, वह पुरुष देर तक अनिष्ट की शंका करने के कारण बने कार्य को भी नष्ट कर देता है ॥ १४ ॥ बालअ तुमाहि अहिअं णिभअं विभ वल्लहं महं जीअं । तं तइ विणा ण होइ त्ति तेण कुविअं पसाएमि ॥ १५ ॥ [ बालक त्वत्तोऽधिकं निजकमेव वल्लभं मम जीवितम् । तत्त्वया विना न भवतीति तेन कुपितं प्रसादयामि ॥ ] मुझे अपने प्राण तुमसे अधिक प्रिय हैं, किन्तु वे तुम्हारे बिना रह ही नहीं सकते, इसीलिए बार-बार रूठ जाने पर भी तुम्हें मनाती हूँ ।। १५ ।। पत्तिअ ण पत्तिअन्ती जइ तुज्झ इमे ण मज्झ रुअईए । पुट्ठीअ बाहबिन्दू पुलउब्भे एण निज्जन्ता ॥ १६ ॥ [ प्रतीहि न प्रतीयन्ती यदि तवेमे न मम रोदनशीलायाः । पृष्ठस्य वाष्पबिन्दवः पुलकोद्भेदेन भिद्यमानाः ॥ ] विश्वास न करने वाली प्रिये ! यदि तेरे नेत्रों से गिरे हुये आँसू मेरी पीठके पुलकांकुरों से जर्जर न हो गये हों तो विश्वास कर लो ।। १६ ।। तं मित्तं काअव्वं जं फिर वसणम्मि देसआलम्मि । आलिहियभित्ति वाउलअं व ण परम्मुहं ठाइ ॥ १७ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् [ तन्मित्रं कर्तव्यं यत्किल व्यसने देशकालेषु । आलिखित भित्तिपुत्तलकमिव न पराङ्मुखं तिष्ठति ॥ ] मित्र उसी को बनाना चाहिये जो हर समय और हर स्थान पर दीवार में लिखित पुतले के समान संकट में विमुख न हो ॥ १७ ॥ बहुआ इणिउ पढमुग्गअसीलखण्डणविलक्खं । उड्डेइ विहंगउलं हा हा पक्खेहिं व भणन्तं ॥ १८ ॥ ५३. [ वध्वा नदीनिकुञ्ज प्रथमोद्गतशीलखण्डनविलक्षम् । उड्डीयते विहंगकुलं हा हा पक्षैरिव भणत् ॥ ] नदी के किकुज में पहली बार तरुणवधू का शील खंडित होने से लज्जित विहंग अपने पंखों से हाहाकार सा करते हुए उड़ रहे हैं ।। १८ ।। सच्चं भणामि बालअ णत्थि असक्कं वसन्तमासस्स । गन्धेण कुरवआणं मणं पि असइत्तणं ण गआ ॥ १९ ॥ [ सत्यं भणामि बालक नास्त्यशक्यं वसन्तमासस्य । गन्धेन कुरकाणां मनागष्य सतीत्वं न गता ।। ] सत्य कहती हूँ वसन्त मास के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है, परन्तु वह -तरुणी कुरवक की गन्ध से रंच भर सतोत्व से नहीं डिगी है ।। १९ ।। एक्वेक्कमवइवेठणविवरन्तर दिण्णतरलणअणाए । तइ बोलते बालअ पञ्जरसउणाइअं तीए ॥ २० ॥ [ एकैकवृतिवेष्टनविवरान्तरदत्ततरलनयनया त्वयि व्यतिक्रान्ते बालक पञ्जरशकुनायितं तथा ॥ ] 1 तुम्हारे अदृश्य हो जाने पर वह मृगनयनो बाड़ के वेठन के प्रत्येक छिद्र में, अपने तरल नेत्र डालकर पंजरबद्ध विहंगिनी-सी विवश होकर झाँकती रही । २० ।। ताकि करेउ जइ तंसि तीअ वइवेट्टपेलिअथणीए । पाअङ्गदुद्ध क्खित्तणीसहङ्गोअ वि ण ण दिट्ठो ॥ २१ ॥ [ कि करोतु यदि त्वमसि तया वृतिवेष्टन प्रेरितस्तनया | पादाङ्गुष्ठार्धक्षिप्त निःसहायापि न दृष्टः ।। ] पैरों के पंजों पर असहाय अंगों का भार रख कर खड़ी होने पर जब उसके Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ गाथासप्तशती उन्नत उरोज बाड़ की बेड़ियों में छू गये थे तब भी तुम दिखाई न दिये तो वहः क्या करे ? ॥ २१ ॥ पिअसंभरणपलोट्टन्तवाहधाराणिवाअभीआए। दिज्जइ वङ्कग्गीवाएँ दीवओ पहिअजाआए ॥२२॥ [प्रियसंस्मरणप्रलुष्ठद्वाष्पधारानिपातभोतया। दोयते वक्रगीवया दोपकः पथिकजायया ॥] प्रिय की स्मृति में उमड़े हुए आँसुओं के गिरने से कहीं दोपक बुझ न जाय, इस शंका से पथिक-प्रिया अपनी ग्रीवा मोड़ कर दीप-दान कर रही है ।। २२ ।। तइ वोलन्ते बालअ तिस्सा असाइँ तह णु बलिआई। जह पुट्ठिमज्झणिवतन्तवाहधाराओं दोसन्ति ॥ २३ ॥ [त्वयि व्यतिक्रामति बालक तस्या अङ्गानि तथा नु वलितानि । यथापृष्ठमध्यनिपतद्वाप्यधारा दृश्यन्ते ।। ] उसके निकट से तुम जैसे ही दूसरी ओर गये, उसने अपने अंगों को इतना मोड़ लिया है कि आँसुओं की धार पीठ पर गिरती हुई दिखाई दे रही है ॥ २३ ॥ ता मज्झिमो विवअ वरं दुज्जणसुअणेहिँ दोहि वि ण कज्जं । जह दिट्ठो तवइ खलो तहेअ सुअणो अईसन्तो ॥२४॥ [ तन्मध्यम एव वरं दुर्जनसुजनाभ्यां द्वाभ्यमपि न कार्यम् । यथा दृष्टस्तापयति खलस्तथैव सुजतोऽदृश्यमानः ।।] सज्जन और दुजन दोनों का काम नहीं है। मध्यम पुरुष ही अच्छे है, क्योंकि जैसे दुर्जनों को देखने पर दुःख होता है, वैसे ही सज्जनों को न देखने पर ॥ २४ ॥ अद्धच्छिपेच्छिअं मा करेहि साहाविरं पलोएहि । सो वि सुदिट्ठो होहिइ तुमं पि मुद्धा कलिज्जिहिसि ॥२५॥ [अर्द्धाक्षिप्रेक्षितं मा कुरु स्वाभाविक प्रलोकय । सोऽपि सुदृष्टो भविष्यति त्वमपि सुग्धा कलिष्यसे । ] अरी ! आधी चितवन से क्यों देखती है, स्वाभाविक रूप से देख ले। वहः भो भलीभांति दिख जायगा और तुझे भी लोग मुग्धा हो समझेंगे ।। २५ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् दिअहं खुडक्किआए तीए काऊण गेहवावरं । गरुए वि मण्णुदुःखे भरिमो पाअन्तसुत्तस्स ॥ २६ ॥ [ दिवसं रोषमुकायास्तस्याः कृत्वा गेहव्यापारम् । गुरुकेऽपि मन्युदुःखे स्मरामः पादान्तसुप्तस्य ।। ] दिन-भर क्रोध से चुपचाप गृह-कार्य में संलग्न रहकर अन्त में भारी दुःख में डूबी हुई प्रिया का पैरों की ओर आकर सो जाना स्मरण करता हूँ ॥ २६ ॥ पाणउडीअ वि जलिऊण हुअवहो जलइ जण्णवाडम्मि । ण हु ते परिहरिअव्वा विसमदसासंठिआ पुरिसा ॥२७॥ [पानकुटयामपि ज्वलित्वा हुतवहो ज्वलति यज्ञवाटेऽपि । न खलु ते परिहर्तव्या विषमदशासंस्थिताः पुरुषाः ।।] आगमदिरालय में जल कर यज्ञशाला में भी जलती है । तुम्हें विषम परिस्थिति में पड़े सत्पुरुषों का त्याग न करना चाहिये ।। २७ ॥ जं तुज्झ सई जाआ असईओ जं च सुहअ अह्म वि। ता किं फुट्टउ बीअं तुज्झ समाणो जुआ णस्थि ॥ २८॥ [ यत्तव सती जाया असत्यो यच्च सुभग वयमपि । तरिक स्फुटतु बीजं तव समानो युवा नास्ति ।। ] तुम्हारी पत्नी पतिव्रता है और हम सब व्यभिचारिणी हैं, इसका कारण क्या है ? तुम्हारे समान सुन्दर युवक नहीं है ॥ २८ ॥ सम्वस्सम्मि वि दबै तहवि हु हिअअस्स णिव्वुदि च्चे। जं तेण गामडाहे हत्थाहत्थि कुडो गहिओ ॥ २९ ॥ [ सर्वस्वेऽपि दग्धे तथापि खलु हृदयस्य निर्वृतिरेव । यत्तेन ग्रामदाहे हस्ताहस्तिकया कुटो गृहीतः ॥] सब कुछ जल कर स्वाहा हो गया फिर भी हृदय को आनन्द ही मिला क्योंकि गांव में आग लगने पर उन्होंने शीघ्रता में मेरे हाथ से घड़ा ले लिया ॥ २९॥ जाएज्ज वणुद्देसे कुज्जो वि हु णीसाहो झडितपत्तो। मा माणुसम्मि लोए ताई रसिओ दरिदो अ॥३०॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ गाथासप्तशती [ जायतां वनोद्देशे कुब्जोऽपि खलु निःशाखः शिथिलपत्रः। मा. मानुषे लोके त्यागी रसिको दरिद्रश्च ॥] वन में शाखा-पत्रहीन, कुबड़ा वृक्ष होना अच्छा है किन्तु मानव जगत् में त्यागी, रसिक और दरिद्र होना नहीं ॥ ३०॥ तस्स अ सोहग्गगुणं अमहिलसरिसं च साहसं मज्म । जाणइ गोलाऊरो वासारत्तोद्धरत्तो अ॥ ३१ ॥ [ तस्य च सौभाग्यगुणममहिलासदृशं च साहसं मम। जानाति गादापूरो वर्षा रात्रार्धरात्रश्च ॥] उनके सौभाग्य का उत्कर्ष और मेरा साहस-जो महिलाओं में दुर्लभ हैया तो गोदावरी की धारा जानती है या पावस की अंधेरी आधी रातें ॥ ३१ ॥ ते वोलिआ वअस्सा ताण कुडमाण थाणुआ सेसा । अले वि गअवआओ मलच्छेअं गर्भ पेम्मं ॥ ३२॥ [ते व्यतिक्रान्ता वयस्यास्तेषां कुञ्जानां स्थाणवः शेषाः । वयमपि गतवयस्का मूलोच्छेद्यं गतं प्रेम ॥ ] वे रसीले मीत अब नहीं रहे । उन कुनों के टूठ हो रह गये हैं । हमारी अवस्था भी ढल चुकी । प्रेम की जड़ हो छिन्न हो चुकी है ॥ ३२ ॥ थणजहणणिअम्बोपरि णहरङ्का गअवआण वणिआणं । उव्वसिआणणिवासमूलबन्ध व दीसन्ति ॥ ३३ ॥ [ स्तनजघननितम्बोपरि नखराङ्का गतवयसां वनितानाम् । उद्वसितानङ्गनिवासमूलबन्धा इव दृश्यन्ते ।।] गतयौवना वनिताओं के जघन एवं उरोजों पर अंकित नख-चिह्न, कूच करने वाले अनंग के भग्न भवन की नींव के समान प्रतीत होते हैं ।। ३३ ॥ जस्स जहं विअ पढमं तिस्सा अङ्गम्मिणिवडिआ दिट्ठो। तस्स तहिं चेअ ठिआ सव्वज केण वि ण दिटुं ॥ ३४ ॥ [ यस्य यत्रैव प्रथमं तस्या अङ्गे निपतिता दृष्टिः । तस्य तत्रैव स्थिता सर्वाङ्ग केनापि न दृष्टम् ।। ] उस तरुणी के जिस अंग पर दृष्टि पड़तो है, वहीं रह जाता है, किसा ने उसे भरपूर नहीं देखा है ॥ ३४ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् विरहे विसं व विसमा अमअमआ होइ संगमे अहि। 'कि विहिणा समअं विअ दोहि वि पिआ विणिमिमआ॥३५॥ [विरहे विषमिव विषमामृतमया भवति संग मेऽधिकम् । कि विधिना सममेव द्वाभ्यामपि प्रिया विनिर्मिता ।।] मेरी प्रिया संयोग में अमृत-सी मधुर और वियोग में विष-सो विषम हो जाती है। क्या विधाता ने दोनों को समान भाग लेकर उसको सृष्टि को है ॥ ३५ ॥ अदंसणेण पुत्तअ सुठ्ठ वि हाणुबन्धघडिआई। हत्थउडपाणिआई व कालेण गलन्ति पेम्माइं ॥ ३६ ॥ [ अदर्शनेन पुत्रक सुष्ट्वपि स्नेहानुबन्धघटितानि । हस्तपुटपानीयानीव कालेन गलन्ति प्रेमाणि ।। ] अत्यन्त उत्कट और सुदृढ़ प्रेम, न देखने से अंजलि में रखे हुए जल को भांति ‘कालान्तर में च्युत हो जाता है ॥ ३६ ।। पहपुरओ बिअ णिज्जइ विच्छुअदद्रुत्ति जारवेज्जहरं । णिउणसहोकरधारिअ भुअजुअलन्दोलिणी बाला ॥ ३७ ॥ [पतिपुरत एव नीयते वृश्चिकदष्टेति जारवैद्यगृहम् ।। निपुणसखीकरधृता भुजयुगलान्दोलनशोला बाला ॥] "बिच्छू ने डंक मार दिया है" इस बहाने से दोनों हाथ झिटकती हुई चन्द्रमुखी को निपुण सखी पति के सामने ही पकड़ कर प्रेमी विष वैद्य के घर ले जाती है । ३७ ॥ विक्किणइ माहमासम्मि पामरो पाइडि वइल्लेण । णिळूममुग्मुर विअ सामलोअ थणो पडिच्छन्तो ॥ ३८ ॥ [विक्रोणीते माघमासे पामरः प्रावरणं बलोवर्दैन । निधूममुमुरनिभौ श्यामल्याः स्तनौ पश्यन् ॥ ] षोडशो प्रिया के निधूम करोषाग्नि सदृश पयोधरों को देख कर किसान ने माघ में कम्बल बेंच कर बैल खरीद लिये ॥ ३८ ॥ सच्चं भणामि मरणे टिअह्मि पुण्णे तडम्मि तावोए । अज्ज वि तत्थ कुडने णिवडइ दिट्ठो तह च्चे ॥ ३९ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ गाथासप्तशती [ सत्यं भणामि मरणे स्थितास्मि पुण्ये तटे ताप्याः । अद्यापि तत्र निकुञ्जे निपतित दृष्टिस्तथैव ॥ ] सत्य कहती हूँ, आज तापी के पुनोत तट पर मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठी हूँ. तथापि उस कुञ्ज पर वैसी ही प्रणय तृषाकुल दृष्टि पड़ रही है ।। ३९ ॥ अन्धअरबोरपत्तं व माउआ मह पई विलुम्पन्ति । ईसाअन्ति महं विअ छेप्पाहिन्तो फणो जाओ ॥ ४० ॥ [ अन्धकरबदरपात्रमिव मातरो मम पति विलुम्पन्ति । ईर्ष्यन्ति मह्यमेव लाङ्गूलेभ्यः फणो जातः ॥ ] माँ, वे मेरे प्राणेश्वर को अन्धे के हाथ में स्थित का बेर के पात्र के समान छीन रही हैं और मुझसे ईर्ष्या भी करती है । पूँछों में भी फण निकलने.. लगे ! ॥ ४० ॥ अप्पत्तपत्त पाविऊण णवरङ्गअं हलिअसोहा । उअह तणुई ण माअइ रुन्दासु वि गामरच्छासु ॥ ४१ ॥ [ अप्राप्तप्राप्तं प्राप्य नवरङ्गकं हलिकस्नुषा । पश्यत तन्वी न माति विस्तीर्णास्वपि ग्रामरथ्यासु ॥ ] हलवाहक की वधू जीवन में कभी न मिलने वाली नई कुसुम्भी चीर पा कर दुबली होने पर भी देखो, गाँव की चौड़ी गलियों में नहीं समा रही हूँ ॥ ४१ ॥ आक्वआइँ पिअजम्पिआइँ पर हिअअणिव्वुदिअराइं । विरलो खु जाणइ जणो उप्पण्णे जम्पिअन्वाइं ॥ ४२ ॥ वावक्षेपकाणि प्रियजल्पितानि परहृदयनिर्वृतिकराणि । विरलः खलु जानाति जन उत्पन्ने जल्पितव्यानि ॥ ] जो प्रतिवादियों का मुँह बन्द कर दे, जो सुनने में मधुर हो और शत्रुओं को भी तृप्त कर दे, समय पर ऐसी उपयुक्त बात कहना कोई बिरला ही जानता है ॥ ४२ ॥ छज्जइ पहुस्स ललिअं पिआइ माणो खमा समत्यस्स । जाणन्तस्स अ भणिअं मोणं च अआणमाणस्स ॥ ४३ ॥ [ शोभते प्रलोलंलितं प्रियाया मानः क्षमा समर्थस्य । जानतश्च भणितं मौनं चाजानातः ॥ ] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् धनवान् का स्वच्छन्द विहार, प्रिया का मान, समर्थ की क्षमा, विद्वान् का भाषण और मूर्ख की मौन-ये शोभित होते हैं ॥ ४३ ॥ वेविरसिण्णकरगुलिपरिगहक्खसिअलेहणोमग्गे । सोत्थि विअ ण समप्पइ पिअसहि लेहम्मि किं लिहिमो॥४४ ॥ [ वेपनशीलस्विन्नकराङ्गलिपरिग्रहस्खलितलेखनीमार्गे । स्वस्त्येव न समाप्यते प्रियसखि लेखे किं लिखामः ।।] सखी ! कांपती हुई स्वेदार्द अँगुलियों से पकड़ने पर स्खलित हो जाने वाली लेखनी से 'स्वस्ति' ही पूरा-पूरा नहीं लिख पा रही हूँ तो पत्र) कैसे लिखगी ॥४४॥ देवम्मि पराहुत्ते पत्तिअ घडिपि विहडइ गराणं । कज्जं वालुअवरणं व्व कहँ वि बन्धं विअ ण एइ ॥ ४५ ॥ [ देवे पराङ्गमुखे प्रतीहि घटितमपि विघटते नराणाम् । कार्य वालुकावरण इव कथमपि बन्धमेव न ददाति ॥] विश्वास रखो, दैव के विमुख हो जाने पर बनी हुई वस्तु भी नष्ट हो जाती है । बालू की दीवार के समान कोई भी कार्य स्थिर नहीं हो पाता ॥ ४५ ॥ मामि हिअ व पीतेण जुआणेण मज्जमाणाए। व्हाणहलिद्दाकडुअ अणुसोत्तजलं पिअन्तेण ॥ ४६ ॥ [ मातुलानि हृदयमिव पीतं तेन यूना मज्जन्त्याः । स्नानहरिद्राकटुकमनुस्रोतो जलं पिबता ।।] के मामी ! स्नान करते समय नदी की धारा के पानी को जो हल्दी का अंगराग मिल जाने से कटु हो गया था-पोने वाले युवक ने मानों मेरा हृदय भी पो लिया है ॥ ४६ ॥ जिवि असास विअ ण णिवत्तइ जोव्वणं अतिक्कन्तं । दिअहा दिअहेहिं समा ण होन्ति कि णिठुरो लोओ ॥ ४७ ।। [ जीवितमशाश्वतमेव न निवर्तते यौवनमतिक्रान्तम् । दिवसा दिवसैः समा न भवन्ति किं निष्ठुरो लोकः ।।] जोवन क्षण भंगुर है। गया हुआ यौवन फिर लौट कर नहीं आता । सभी दिन समान नहीं होते, फिर भी लोग इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हैं ? ॥ ४७ ।।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती उप्पाइअदव्वाण वि खलाणे को भाअणं खलो च्चे। पक्काई वि णिम्बफलाई णवर काएहिं खज्जन्ति ॥४८॥ [ उत्पादितद्रव्याणामपि खलानां को भाजनं खल एव । पक्कान्यपि निम्बफलानि केवलं काकैः खाद्यन्ते ।।] धनोपार्जन करने वाले खलों के दान का पात्र कौन है ? खल ! पके हुए नीम के फल कोए ही खाते हैं ॥४८॥ अज्ज मए गन्तव्वं घणन्धआरे वि तस्स सुहअस्स । अज्जा णिमीलिअच्छी पअपरिवाडि घरे कुणइ ॥ ४९ ॥ [ अद्य मया गन्तव्यं घनान्धकारेऽपि तस्य सुभगस्य । आर्या निमीलिताक्षी पदपरिपाटि गृहे करोति ।।] आज रात्रि में घना अन्धकार होने पर भी प्रिय के लिये अभिसार करना है, यह सोचकर नायिका घर में ही आँखें बन्द कर चलने का अभ्यास करने लगी ॥ ४९ ॥ सुअणो ण कुप्पइ व्विअ अह कुप्पइ विप्पिण चिन्तेइ । अह चिन्तेइ ण जम्पइ अह जम्पइ लज्जिओ होइ ॥ ५० ॥ [ सुजनो न कुप्यत्येव अथ कुप्यति विप्रियं न चिन्तयति । अथ चिन्तयति न जल्पति अथ जल्पति लज्जितो भवति ।।] सज्जन कभी कोप हो नहीं करते, यदि करते हैं तो किसी का अहित नहीं चाहते, यदि चाहते है तो मुँह से नहीं कहते, यदि कहते हैं तो लज्जित हो जाते है ॥५०॥ सो अत्थो जो हत्थे तं मित्तं जं णिरन्तरं वसणे । तं रूअं जत्थ गुणा तं विण्णाणं जहिं धम्मो ॥५१॥ [ सोऽर्थो यो हस्ते तन्मित्रं यन्निरन्तरं व्यसने । तद्रूपं यत्र गुणास्तद्विज्ञानं यत्र धर्मः॥] धन वही है, जो अपने हाथ में हो, मित्र वही है, जो विपत्ति में निरन्तर साथ दे, रूप वही है, जिसमें गुण हो और ज्ञान वही है, जिसमें धर्म हो का ५१॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् चन्दमुहि चन्दधवला दोहा दोहच्छितुह विओअम्मि । चउजामा सअजाम व जामिणी कहँ वि वोलीना ॥ ५२ ॥ [ चन्द्रमुखि चन्द्रधवला दीर्घा दीर्घाक्षि तव वियोगे । चतुर्यामा शतयामेव यामिनी कथमप्यतिक्रान्ता ॥ ] चन्द्रवदने ! विशाल नेत्रे ! तेरे वियोग में चार पहर की लम्बी शुभ्र चाँदनी रात सौ पहर समान किसी प्रकार बीत गई ।। ५२ ॥ अउलीणो दोमुहओ ता महुरो भोअणं मुहे जाव । मुरओ व्व खलो जिण्णम्मि भाअणे विरसमारसइ ॥ ५३ ॥ [ अकुलीनो द्विमुखस्तावन्मधुरो भोजनं मुखे यावत् । मुरज इव खलो जीर्णे भोजने विरसमारसति ॥ ] असत्कुल में उत्पन्न दोमुह दुष्ट मनुष्य, पृथ्वी का स्पर्श न करने वाले ( अ + कु + लीन ) दोमुहें मृदंग के समान मुँह में भोजन ठूप देने पर मधुर शब्द करता है परन्तु उसके जीण हो जाने पर कटु शब्द करने लगता है ॥ ५३ ॥ तह सोण्हाइ पुलइओ दरवलिअन्तद्वतारअं पहिओ । जह वारिओ वि धरसामिएण ओलिन्दए वसिओ ॥ ५४ ॥ [ तथा स्नुषया प्रलोकितो दरवलितार्धतारकं पथिकः । यथा वारितोऽपि गृहस्वामिता अलिन्दके सुप्तः ॥ ] ६१ आँखों की आधी पुतलियों को किंचित् नचाती हुई बहू ने कुछ यों देखा कि गृहस्वामी के मना करने पर भी वह पथिक अलिन्द पर टिक ( बस ) गया ॥ ५४ ॥ लहुअन्ति लहुं पुरिसं पव्वअमेतं पि दो वि कज्जाई । णिव्वरणमणिव्वूढे णिव्वूढे जं अ णिश्वरं ॥ ५५ ॥ [ लघयतो लघु पुरुषं पर्वतमात्रमपि द्वे अपि कार्ये । निर्वरणमनिर्व्यूढे निर्व्यूढे यच्च निर्वरणम् ॥ ] किसी कार्य को न करने के पूर्व और करने के पश्चात् कह देना, ये दो बातें पर्वत के भी समान मनुष्य का गौरव घटा देती हैं ।। ५५ ।। कं तुमथणुक्खितेण पुत्ति दारट्टिआ पलोएसि । उणामिअकलस णिवेसिअग्घकमलेण व मुहेण ॥ ५६ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो [कं तुङ्गस्तनोत्क्षिप्तेन पुत्रि द्वारस्थिता प्रलोकयसि । उन्नामितकलशनिवेशितार्घकमलेनेव मुखेन ॥ ] तुम द्वार पर खड़ी होकर किसे निहार रही हो ? उन्नत उरोजों पर झुका हुआ तुम्हारा बदन यों प्रतीत होता है जैसे ऊँचे कलश पर पूजा का पद्म रखा हो ॥ ५६ ॥ वइविवरणिग्गअदलो. एरण्डो साहइ व्व तरुणाणं । एत्थ घरे हलिअवहू एद्दहमेत्तत्थणो वसइ ॥ ५७ ॥ [वृतिविवरनिर्गतदल एरण्डः साधयतोव तरुणेभ्यः । अत्रगृहे हलिकवधूरेतावन्मात्रस्तनी वसति ॥] जिसके पत्ते बाड़ के छिद्रों से बाहर निकल आये हैं, वह रेड का पौधा मानों तरुणों को सूचना दे रहा है कि इस घर में इतने बड़े स्तनों वाली कृषकवधू विद्यमान है ॥ ५७ ॥ गअकलहकुम्भसंणिहघणपीणणिरन्तरेहिं तुमहि । उस्ससिपि ण तोरइ किं उण गन्तुं हअथणेहि ॥ ५८ ॥ [ गजकलभकुम्भसंनिभघनपोननिरन्तराभ्यां तुङ्गाभ्याम् । उच्छ्वसितुमपि न तीरयति किं पुनर्गन्तुहतस्तनाभ्याम् ।।] गजकुंभ के समान कसे, मोटे और सटे हुए उत्तुंग उरोजों के भार से वह -सुकुमारी साँस भी नहीं ले सकती चलना तो बहुत दूर है ॥ ५८ ॥ मासपसूअं छम्मासगन्भिणि एक्कदिअहजरिअॅच । रगुत्तिण्णं च पि पुत्तअ कामन्तओ होहि ॥ ५९ ॥ [ मासप्रसूतां षण्मासभिणोमेकदिवसज्वरितां च। रङ्गोत्तीर्णा च प्रियां पुत्रक कामयमानो भव ॥] पुत्र ! एक दिन की रुग्णा, छः मास की गर्भिणी, मास-प्रसूता एवं रंगशाला से लौटी हुई प्रिया की कामना करो ॥ ५९ ॥ पडिवक्खमण्णुपुज्जे लावण्णउडे अणमगअकुम्भे । पुरिससअहिअअधरिए कोस थणन्ती थणे वहसि ॥ ६॥ [प्रतिपक्षमन्युपुजौ लावण्यकुटावनङ्गगजकुम्भो। पुरुषशतहृदयघृतौ किमिति स्तनन्तो स्तनौ वहसि ॥] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् जो प्रतिपक्षियों के संताप-पुंज, लावण्य के कलश तथा अनंग-मदकल के कुम्भ हैं, तथा जिनकी अभिलाषा सैकड़ों तरुणों के मन में रहती है, उन पयोधरों को इतने गर्व से क्यों ढो रही हो ? ॥ ६० ॥ घरिणिघणत्थणपेल्लणसुहेल्लिपडिअस्त होन्तपहिअस्स । अवसउणङ्गारअवारविट्ठिदिअहा सुहावेन्ति ॥ ६१ ॥ [गृहिणोधनस्तनप्रेरणसुखकेलिपतितस्य भविष्यत्पथिकस्य । अपशकुनाङ्गारकवारविष्टिदिवसाः सुखयन्ति ।। ] लेटे-लेटे पत्नी के उन्नत कुचों का मर्दन करने की सुखद क्रीड़ा करते हुए 'प्रेमी को-जिसे शीघ्र ही परदेश की यात्रा करनी है-अपशकुन मंगलवार और भद्रा के दिवस बहुत सुख देते हैं ।। ६१ ॥ सा तुह कएण बालअ अणिसं घरदारतोरणणिसण्णा । ओससई वन्दणमालिअ व विअहं विअ वराई ॥६२॥ [सा तव कृतेन बालकानिशं गृहद्वारतोरणनिषण्णा । अवशुष्यति वन्दनमालिकेव दिवसमेव वराको ॥] बेटा! तुम्हारी प्रतीक्षा में गृह द्वार के तोरण पर अहरह बैठी हुई वह तरुणी वन्दनवार को भांति दिनों-दिन सूखती जा रही है ।। ६२ ।।। हसि सहत्थतालं सुक्खवडं उवगएहिं पहिएहि । पत्तअफलाणं सरिसे उड्डोणे सूअविन्दम्मि ॥ ६३ ॥ _ [हसितं सहस्ततालं शुष्कवटमुपगतैः पथिकैः । पत्रफलानां सदृशे उड्ढाने शुकवृन्दे ।।] बरगद का वृक्ष सूख गया था किन्तु शुकों के बसेरा लेने से पत्तों और फलों से लदा सा प्रतीत होता था। श्रान्त पथिक छाया के लोभ से जैसे हो उसके नीचे पहुँचे, वे 'फुर' से उड़ गये, यह देख वे बटोही तालियां बजाकर हंस *पड़े ॥ ६३ ॥ अज्ज म्हि हासिआ मामि तेण पाएसु तह पडन्तेण । तोए वि जलन्ति दीववत्तिमन्भुण्णअन्तीए ॥ ६४ ॥ [अद्यास्मि हासिता मातुलानि तेन पादयोस्तथा पतता। तयापि ज्वलन्तीं . . दीपवर्तिमभ्युत्तेजयन्त्या ॥] ... Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती मामी ! जब वह उस प्रकार चरणों पर गिरकर प्रिया की आराधना कर रहा था तो उसने जलते हुये दोपक की बाती और भी उसका दी, यह देख मुझे हंसी आ गई ।। ६४ ॥ अणुवत्तणं कुणन्तो वेसे वि जणे अहिण्णमुहराओ। अप्पवसो वि हु सुअणो परव्वसो आहिआईए ॥६५॥ [ अनुवर्तनं कुर्वन्द्वेष्येऽपि जनेऽभिन्नमुखरागः। आत्मवशोऽपि खलु सुजनः परवशः कुलोनतायाः ।।] द्वैष्य व्यक्तियों का अनुवर्तन करने पर भी उसके मुख पर कोई विकार लक्षित नहीं होता। सज्जन स्वच्छन्द होने पर भी कुलीनता के अधीन होता है ।। ६५ ॥ अणुदिअहवड्ढिआअरविण्णाणगुणेहि जणिअमाहप्पो । पुत्तअ अहिआअजणो विरज्जमाणो वि दुल्लक्खो ॥६६॥ [ अनुदिवसधितादरविज्ञानगुणैर्जनितमाहात्म्यः । पुत्रकाभिजातजनो विरज्यमानोऽपि दुर्लक्ष्यः ।।] बेटा ! अहरह वर्द्धमान आदर एवं विज्ञान के गुणों से जिसने महत्त्व प्राप्त कर लिया है। वह कुलीन पुरुष विरक्त होने पर भी कठिनाई से लक्षित होता है ॥ ६६ ॥ विण्णाणगुणमहग्धे पुरिमे वेसत्तणं पि रमणिज्ज । जणणिन्दिए उण जणे पिअत्तणेणावि लज्जामो ॥ ६७ ॥ [विज्ञानगुणमहाघे पुरुषे द्वेष्यत्वमपि रमणीयम् । जननिन्दिते पुनजने प्रियत्वेनापि लज्जामहे ॥] ज्ञान सम्पन्न होने से जिसका मूल्य बढ़ गया है, वह व्यक्ति यदि द्वेष भी रखे तो श्लाघ्य है किन्तु लोक में दिन पुरुष के प्रेम से भी मैं लज्जित हूँ ॥ ६७॥ कहँ णाम तीअ तह सो सहावगुरुओ वि थणहरो पडिओ। अहवा महिलाण चिरं को वि ण हिअम्मि संठाइ ॥६८॥ [ कथं नाम तस्यास्तथा स स्वभावगुरुकोऽपि स्तनभरः पतितः। अथवा महिलानां चिरं कोऽपि न हृदये संतिष्ठते ।] स्वभाव से ही उन्नत उसके पयोधर अब गिर गये हैं, महिलाओं के हृदय में कोई चिरकाल तक स्थान नहीं पाता ।। ६८॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् सुअणु वअणं छिवन्तं सूरं मा साउलीअ वारेहि । एअस्स पङ्कअस्स अ जाणउ कअरं सुहप्पंसं ॥६९ ॥ [ सुतनु वदनं स्पृशन्तं सूर्य मा वस्त्राञ्चलेन वारय । एतस्य पङ्कजस्य च जानातु कतरत्सुखस्पर्शम् ॥] कृशांगि ! आनन का स्पर्श करते हुये सूर्य को वस्त्रांचल से मत रोको, जिससे वह समझ ले कि इसमें और पंकज में किसका स्पर्श अधिक सुखद माणोसहं व पिज्जइ पिआइ माणंसिणीअ दइअस्स । करसंपुडवलिउद्घाणणाइ महराइ गण्डूसो॥ ७० ॥ [ मानौषधमिव पीयते प्रियया मनस्विन्या दयितस्य । करसंपुटवलितो/ननया मदिराया गण्डूषः ॥] प्रिय ने दोनों हाथों से पकड़ कर जिसका मुख उन्नमित कर लिया था, वह मनस्विनी दयिता मदिरा का घूट मानौषधि के समान पी रही है ।। ७० ॥ कह सा णिव्वणिज्जइ जीअ जहा लोइअम्मि अङ्गम्मि । विट्ठी दुव्वलगाई व्व पङ्कपडिआ ण उत्तरइ ।।७१॥ [कथं सा निर्वर्ण्यतां यस्या यथालोकितेऽङ्गे । दृष्टिदुर्बला गौरिव पङ्कपतिता नोत्तरति ।। ] उसे कैसे देखू ? जिसके अंग पर दृष्टि पड़ने पर, पंक में फंसी दुर्बल गाय के समान निकल ही नहीं पाती ॥ ७१ ।। कोरन्ती स्विअ णासइ उअए रेह व्व खलअणे मेत्ती। सा उण सुअणम्मि कआ अणहा पाहाणरेह व्व ॥७२॥ [क्रियमाणैव नश्यत्युदके रेखेव खलजने मैत्रो। सा पुनः सुजने कृता अनघा पाषाणरेखेव ॥] खलों को मैत्री पानी की रेखा के समान होते ही मिट जाती है और सज्जनों की मैत्री शिलारेख के समान अमिट रहती है ॥ ७२ ॥ अव्वो दुक्करआरअ पुणो वि तन्ति करेसि गमणस्स । अज्ज वि ण होन्ति सरला वेणीअ तरङ्गिणो चिउरा ॥७३॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो [अन्वो दुष्करकारक पुनरपि चिन्तां करोषि गमनस्य । अद्यापि न भवन्ति सरला वेण्यास्तरङ्गिणाश्चिकुराः ॥] अरे दुष्करकारक ! तुम फिर प्रवास की चिन्ता करने लगे, अभी तो विरहवेला में बिखरी हुई मेरी कुटिल अलकें सीधी भो नहीं हुई हैं ।। ७३ ॥ ण वि तह छेअरआईं वि हरन्ति पुणरुत्तराअरसिआई। जह जत्थ व तत्थ व जह व तह व सब्भावणेहरमिआई ॥७४॥ [नापि तथा छेकरतान्यपि हरन्ति पुनरुक्तरागरसिकानि । यथा यत्र वा तत्र वा यथा वा तथा वा सद्भावस्नेहरमितानि।] विदग्ध पुरुषों के द्वारा जो बार-बार आसक्तिपूर्ण एवं रसमय रमण किया जाता है, वह भी वैसा मनोरंजक नहीं होता जैसा प्रेम में आप्लुत पुरुषों द्वारा जैसे-तैसे और जहां-तहाँ भी किया हुआ रमण ॥ ७४ ।। उज्झसि पिआइ समअंतह वि हु रे भणसि कोस किसित्ति । उवरिभरेण अ अण्णुअ मुअइ बइल्लो वि अढाई ॥७५।। [ उह्यसे प्रियया समं तथापि खलु रे भणसि किमिति कृशेति । उपरि भरेण च हे अज्ञ मुञ्चति वलोवर्दोऽप्यङ्गानि ।।] तेरी प्रिया के साथ तुझे हृदय में धारण कर रही हूँ । मूर्ख ! फिर भी तू पूछता है-"दुर्बल क्यों हो गई हो।" अधिक भार पड़ने पर बैल भी क्षीण हो जाता है ।। ७५ ॥ दिढमूलबन्धगण्ठि व्व मोइआ कहँ वि तेण मे बाहू । अह्म हिं वि तस्स उरे खुत्त व्व समुक्खआ थणा ॥ ७६ ॥ [ दृढमूलबन्धग्रन्थी इव मोचितौ कथमपि तेन मे बाह। अस्माभिरपि तस्योरसि निखाताविव समुत्खातौ स्तनौ ॥] उन्होंने दृढ़ता से ग्रन्थि के समान बँधो हुई मेरी भुजाओं से अपने को किसी प्रकार मुक्त किया और मैंने भी उनके वक्ष में धंसे हुए उरोजों को मानों उखाड़ लिया ॥ ७६ ॥ अणुणअपसाइआए तुज्न वराहे चिरं गणन्तीए । अपहुत्तोहअहत्थगुरीअ तोए चिरं रुण्णं ॥ ७७ ॥ [ अनुनयप्रसादितया तवापराधांश्चिरं गणयन्त्या । अप्रभूतोभयहस्ताङ्गुल्या तया चिरं रुदितम् ।। ] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् ६७ अनुनय से प्रसन्न होने पर भी वह सुन्दरी देर तक तुम्हारे अपराध गिनती रही। जब गिनते-गिनते दोनों हाथों की अंगुलियाँ समाप्त हो गई तब देर तक रोती रही ॥ ७७ ॥ सेअच्छलेण पेच्छह तणुए अङ्गम्मि से अमाअन्तं ।। लावण्णं ओसरइ व तिवलिसोवाणवत्तीए ॥ ७८ ॥ [ स्वेदच्छलेन पश्यत तनुकेऽङ्ग तस्या अमात् । लावण्यमपसरतीव त्रिवलोसोपानपंक्तिभिः ॥ ] तन्वंगी नायिका के शरीर में न समाता हुआ सौन्दर्य मानों स्वेद के व्याज से 'त्रिवली की सोपान-पंक्ति द्वारा नीचे उतर रहा है ।। ७८ ॥ देव्वाअत्तम्मि फले कि कीरइ एत्ति पुणो भणिमो। कङ्केल्लिपल्लवाणं ण पल्लवा होन्ति सारिच्छा ॥७९॥ [ देवायत्ते फले कि क्रियतामियत्पुनर्भणामः । कङ्कल्लिपल्लवानां न पल्लवा भवन्ति सदृशाः ॥] __ क्या किया जाय ? फल तो देवाधीन है परन्तु मैं इतना कहे देती हैं कि अन्य वृक्षों के पल्लव अशोक के पल्लवों की समानता नहीं कर सकते ॥ ७९ ॥ धुअइ व्व मअकलङ्कं कवोलपडिअस्स माणिणी, उअह !। अणवरअवाहजलभरिअणअणकलसेहिं चन्दस्स ॥ ८०॥ [धावतीव मृगकलकं कपोलपतितस्य मानिनी पश्यत । अनवरतबाष्पजलभृतनयनकलशाभ्यां चन्द्रस्य ।] देखो, वह मानिनी मानों अनवरत अश्रु -सलिल पूर्ण नेत्र कलशों से कपोल पर प्रतिबिंबित मृगांक का कलंक धो रही है । ८० ॥ गन्धेण अप्पणो मालिआणे णोमालिआ ण फुट्टिहइ । अण्णो को वि हआसइ मसलो परिमलुग्गारो ॥ ८१ ॥ [ गन्धेनात्मनो मालिकानां नवमालिका त च्युता भविष्यति । अन्याःकोऽपि हतशाया मांसलः परिमलोद्गारः ॥] पुष्प-मालाओं में अपने गन्ध के कारण नवमालिका का स्थान न्यून नहीं हो सकता क्योंकि उस मुंहजलो का परिमल-कोष हो कुछ और है ।। ८१ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती फलसंपत्तीम समोणआई तुझाई फलविपत्तीए । हिसआइ सुपुरिसाणं महातरूणं व सिहराई ॥ १२ ॥ [ फलसंपत्त्या समवनतानि तुङ्गानि फलविपत्या । हृदयानि सुपुरुषाणां महातरूणामिव शिखराणि ।। ] सत्पुरुषों का हृदय विशाल वृक्ष की शाखा के समान फल-संपत्ति में अवनत' एवं फलहीन होने पर उन्नत हो जाता है ॥ ८२ ॥ आसासेइ परिअणं परिवत्तन्तीअ पहिअजाआए । णित्थाणुवत्तणे वलिअहत्थमुहलो वलअसद्दो ॥ ८३ ।। [आश्वासयति परिजनं परिवर्तमानायाः पथिकजायायाः। निःस्थामवर्तने वलितहस्तमुखरो वलयशब्दः ।। विरह-वेदना में स्थाणु (खम्भे) के समान निश्चेष्ट पड़ी हुई पथिक प्रिया जब करवट बदलतो है तब उसके स्पन्दित हाँथों की कंकण-ध्वनि सखियों को पाश्वस्त कर देती है ॥ ८३ ॥ तुझो चिज होइ मणो मणंसिणो अन्तिमासु वि दसासु । अत्थमणम्मि वि रइणो किरणा उद्धं चिअ स्फुरन्ति ॥ ८४॥ [तुङ्गमेव भवति मनो मनस्विनोऽन्तिमास्वपि दशासु । ___ अस्तमनेऽपि रवेः किरणा ऊर्ध्वमेव स्फुरन्ति ।।] अन्तिम अवस्था में भी मनस्वी पुरुषों का मन उन्नत ही बना रहता है, क्योंकि सूर्य की किरणे अन्तिम बेला में भी ऊपर को स्फुरित होती है । ८४ ॥ पोट्टे भरन्ति सउणा वि माउआ अप्पणो अणुविरगा। विहलुखरणसहावा हुवन्ति जइ के वि सप्पुरिसा ॥ ५ ॥ [उदरं बिभ्रति शकुना अपि हे मातर आत्मनोऽनुद्विग्नाः। विह्वलोद्धरणस्वभावा भवन्ति यदि केऽपि सत्पुरुषाः ।। ] मां ! अपना पेट तो पक्षी भी सरलता से भर लेते हैं, परन्तु विपन्न प्राणियों का उद्धार करना ही जिनका स्वभाव बन गया है, वे सत्पुरुष बहुत ही कम है॥८५॥ ण विणा सम्भावेण ग्घेप्पइ परमत्थजाणुओ लोओ। को जुण्णमजरं कञ्जिएण वेआरिलं तरइ ॥८६॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् [न विना सद्भावेन गृह्यते परमार्थज्ञो लोकः । को जीर्णमार्जारं काजिकया प्रतारयितुं शक्नोति ॥] वास्तविकता के बिना जानकार व्यक्ति कभी अनुरक्त नहीं होते, कौन बूड़ी बिल्ली को कांजी से धोखे में डाल सकता है ॥ ८६ ॥ रण्णाउ तणं रणाउ पाणिअं सव्वजं सअंगाहं । तह वि मआण मईण अ आमरणन्ताई पेम्माइं ॥ ७ ॥ [अरण्यात्तृणमरण्यात्पानोयं सर्वतः स्वयंग्राहम् । तथापि मृगाणां मृगीणां चामरणान्तानि प्रेमाणि ।।] यद्यपि हरिन और हरिनियों को वन से ही तृण और वन से ही जल स्वतः उपलब्ध हो जाते हैं, फिर भी उनके प्रेम का आमरण अन्त नहीं होता ॥ ८७॥ तावमवणेइ ण तहा चन्दणपङ्को विकामिमिहुणाणं । जह दूसहे वि गिम्हे अण्णोण्णालिङ्गणसुहेल्लो ॥ ८॥ [ तापमपनयति न तथा चन्दनपङ्कोऽपि कामिमिथुनानाम् । यथा दुःसहेऽपि ग्रीष्मे अन्योन्यालिङ्गन सुखकेलिः ।।] पोष्म में विलासी दम्पति का ताप चन्दन भी उतना नहीं दूर कर पाता, जितना परस्पर आलिंगन को सुखमय क्रीडा ।। ८८ ॥ तुप्पाणणा किणो चिट्ठसि त्ति पडिपुच्छिआएँ वहुआए। विउणावेअिजहणत्थलाइ लज्जोणअं हसि ॥ ८९ ॥ [घृतलिप्तानना किमिति तिष्ठसीति परिपृष्टया बध्वा । द्विगुणावेष्टितजघनस्थलया लज्जावनतं हसितम् ॥] तुमने मुख में घृत क्यों लगा लिया है" यह पूछने पर अपनी जाँघों को और भी छिपाती हुई लजीली बहू ने सिर झुकाकर मुस्करा दिया॥ ८९ ॥ हिअअ च्चेअ विलोणो ण साहिओ जाणिऊण घरसारं । बान्धवदुव्वअणं विअ दोहलंओ दुग्गअवहूए ॥ ९०॥ [हृदय एव विलोनो न कथितो ज्ञात्वा गृहसारम् । बान्धवदुर्वचनमिव दोहदो दुर्गतवध्वा ।।] ___ घर की दोन दशा जानकर दरिद्र को गभिणी वधू का मनोरथ हृदय में ही विलीन हो गया, बन्धुओं को खलने वाली वाणी के समान वह बाहर न 'निकला ॥ ९ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० गाथासप्तशती धावs विअलिअधम्मिल्लसिचअ संजमणवावडकरग्गा । चन्दिलभअविवलाअन्तडिम्भपरिमग्गिणी घरिणी ।। ९१ ॥ [ धावति विगलितधम्मिल्ल सिचयसंयमनव्यापृत कराना । चन्दिलभयविपलायमानडिम्भपरिमार्गिणी गृहिणी ॥ ] जिसका हाथ छूटे हुये केशपाश और शिथिल वस्त्रों को सँभालने में संलग्न है, वह गृहिणी नाई के भय से भागने वाले बालक को ढूंढती हुई दौड़ रही है ।। ९१ ॥ जह जह उव्वह वहू णवजोव्वणमणहराइँ अङ्गाई । तह तह से तणुआअ मज्झो दइओ अ पडिवक्खो ॥ ९२ ॥ [ यथा यथोद्वहते वधूर्नवयौवन मनोहराण्यङ्गानि । तथा तथा तस्यास्तनूयते मध्यो दयितश्च प्रतिपक्षः ॥ ] बहू जैसे-जैसे युवावस्था के मनोहर अंगों को धारण करती है, वैसे-वैसे उसका पति, कटि और सपत्नियां क्षीण होने लगती हैं ।। ९१ ।। जह जह जरापरिणओ होइ पई दुग्गओ विरूओ वि । कुलवालिआण तह तइ अहिअअरं वल्लहो होइ ॥ ९३ ॥ [ यथा यथा जरापरिणतो भवति पतिदुर्गती विरूपोऽपि । कुलपालिकानां तथा तथाधिकतरं वल्लभो भवति ॥ ] दरिद्र और कुरूप पति भी जैसे-जैसे वृद्ध होता जाता है वैसे-वैसे कुलांगनाओं को अधिक प्रिय होता जाता है ।। ९३ ।। एसो मामि जवाणो वारंवारेण जं अडअणाओ । गिम्हे गामेक्कवडोअअं व किच्छेण पावन्ति ॥ ९४ ॥ यमसत्यः । [ एष मातुलानि युवा वारंवारेण ग्रीष्मे ग्रामैकवटोदकमिव कृच्छ्रेण प्राप्नुवन्ति ॥ ] मामी ! यह वही युवक है, जिसे ग्रीष्म में छायादार बरगद के नीचे एक - मात्र कुएँ के पानी के समान असती युवतियाँ बारी-बारी से कठिनाई से प्राप्त कर पाती हैं ।। ९४॥ गामवडस्स पिउच्छा आवण्डुमुहीणं पण्डुरच्छाअं । हिअएण समं असईणं पडइ वाआहअं पत्तं ॥ ९५ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् [ ग्रामवटस्य पितृष्वस आपाण्डुमुखीनां पाण्डुरच्छायम् । हृदयेन सममसतीनां पतति वाताहतं पत्रम् ॥ ] फूफी ग्राम्य वट के पीले पत्ते वायु से आहत होकर पाण्डु वदना पुश्चलियों 'हृदय के साथ नोचे गिर रहे हैं ।। ९५ ।। के पेच्छs अलद्धलक्खं दीहं णीससइ सुण्णअं हसइ । जह जम्पइ अफुडत्थं तह से हिअअट्ठिअं किंपि ॥ ९६ ॥ [ पश्यत्यलब्धलक्ष्यं दीर्घं निःश्वसिति शून्यं हसति । यथा जल्पल्यस्फुटार्थं तथा तस्या हृदयस्थितं किमपि ॥ ] यह सुन्दरी लक्ष्यहीन नेत्रों से देखती है । दीर्घ निःश्वास लेती है | हँसती है । अर्थहीन प्रलाप करती है । अतः इसके हृदय में कुछ होगा ॥ ९६ ॥ ७१ [ हृदयेप्सितस्य दीयतां तनूभवन्तों न पश्यथ पितृष्वसः । हृदयेप्सितोऽस्माकं कुतो भणित्वा मोहं गता कुमारी ॥ ] गहबइ गओम्ह सरणं रक्खसु एअं त्ति अडअणा भणिरी । सहसागअस्स तुरिअं पणो व्विअ जारमध्पेइ ।। ९७ ।। [ गृहपते गतोऽस्माकं शरणं रक्षैनमित्यसती भणित्वा । सहसागतस्य त्वरितं पत्युरेव जारमर्पयति ॥ ] "गृहस्वामी ! यह हमारी शरण में आया है, इसकी रक्षा कीजिये" यह कह कर व्यभिचारिणी युवती ने सहसा आगये पति के हाथों में जार को सौंप दिया ।। ९७ ।। में हिअअट्ठिअस्स दिज्जउ तणुआअन्ति ण पेच्छह पिउच्छा ? । हिअअट्टिओम्ह कंतो भणिउ मोहं गआ कुमरी ॥ ९८ ॥ शून्य अवश्य "फूफी ! देख नहीं रही हो ? यह कितनी दुबली होती जा रही है । जो इसके हृदय में बस गया है, उसी से इसका विवाह कर दो ।" यह सुनते ही "हम कुमारियों के हृदय में कोई कैसे बसेगा ।" यह कह कर वह कन्या मूच्छित हो गई ।। ९८ ॥ खिणस्स उरे पइणी ठवेइ गिम्हावरण्हरमिअस्स । ओलं गलन्तकुसुमं ण्हाणसुअन्धं चिउरभारं ॥ ९९ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती [खिन्नस्योरसि पत्युः स्थापयति ग्रोष्मापराहरमितस्य । आद्रं गलत्कुसुमं स्नानसुगन्धं चिकुरभारम् ॥] जिसके पुष्प विगलित हो गये थे, जो स्नान से आर्द्र एवं सुगन्धित था, सुन्दरी बघ अपना वही केशपाश ग्रीष्म के अपराह्न में रमण से थके हुए प्रिय के वक्ष पर फैला देती है ॥ ९९ ॥ अह सरदन्तमण्डलकवोलपडिमागओ मअच्छोए । अन्तो सिन्दुरिअसङ्खवत्तकरणिं वहइ चन्दो ॥१०॥ [ असौ सरसदन्तमण्डलकपोलप्रतिमागतो मृगाक्ष्याः। अन्तः सिन्दुरितशङ्खपात्रसादृश्यं वहति चन्द्रः ।।] मृगनयनी के कपोल पर अंकित मण्डलाकार दशनलेखा में बिम्बित चन्द्रमा उस शंख पात्र-सा प्रतीत होने लगता है, जिसके भीतर सिन्दूर लगा हो ॥१०॥ रसिअजणहिअअदइए कइवच्छलपमुहसुकइणिम्मअए । सत्तसअम्मि समत्तं तीअं गाहास एअं॥१०१॥ [ रतिकजन हृदयदयिते कविवत्सलप्रमुखसुकविनिमिते । सप्तसतके समाप्तं तृतीयं गाथाशतकमेतत् ।। ] जिनमें कविवत्सल हाल का प्रमुख स्थान है, उन कवियों द्वारा बनाये हुए रसिकों को प्यारे सप्तशतक का तृतीय शतक समाप्त हो गया ॥१०१॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतकम् अह अह आउदो अज्ज कुलहराओ त्ति छेन्छई जारं । सहसागअस्स तुरिअं पणो कण्ठं मिलावेइ ॥ १ ॥ [ असावस्माकमागतोऽद्य कुलगृहादित्यसतो जारम् । सहसागतस्य त्वरितं पत्युः कण्ठे लगयति ॥ ] 'ये आज ही हमारे पिता जी के यहाँ से पधारे हैं' कह कर व्यभिचारिणी पत्नी अपने प्रेमी को सहसा आये हुए पति के गले मिलवा देती है ॥ १ ॥ पुसिआ अण्णाहरणेन्दणील किरणाहआ ससिमऊहा । माणिणिवअणम्मि सकज्जलंसुसङ्काइ दइएण ॥ २ ॥ [ प्रोञ्छिताः कर्णाभरणेन्द्रनील किरणाहताः शशिमयूखाः । मानिनीवदने सकज्जलाश्रुशङ्कया दयितेन । ] मानिनी प्रिया के कर्णाभरण में खवित नील मणि की प्रभा से मिली हुई चन्द्रमा की किरणों को उसके आनन पर कज्जल मिश्रित अश्रु की आशंका से पति ने पोंछ दिया ॥ २ ॥ एहमेत्तम्मि जए सुन्दर महिलासहस्सभरिए वि । अणुहरइ णवर तिस्सा वामद्धं दाहिणस्स ॥ ३ ॥ [ एतावन्मात्रे जगति सुन्दर महिलासहस्रभूतेऽपि । अनुहरति केवलं तस्या वामार्धं दक्षिणार्धस्य ॥ ] सहस्रों सुन्दरी महिलाओं से भरे हुए इतने बड़े जगत् में भो उसका वामपार्श्वं केवल उसी के दक्षिण पार्श्व के समान है ॥ ३ ॥ जह जह वाएइ पिओ तह तह णच्चामि चञ्चले पेम्मे । वल्लो वलेइ अङ्गं सहावथद्वे वि रुक्खम्मि ॥ ४ ॥ [ यथा यथा वादयति प्रियस्तथा तथा नृत्यामि चञ्चले प्रेम्णि । वल्लो वलयत्यङ्गं स्वभावस्तब्धेऽपि वृक्षे ॥ ] प्रिय जैसे - जैसे बजाता है, मैं वैसे-वैसे प्रेम से चंचल होकर नाचती हूँ । लता - स्वभावतः स्तब्ध वृक्ष से लिपट जाती है ॥ ४॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती दुक्खेहिँ लम्भइ पिओ लद्धो दुक्खेहिँ होह साहीणो । लद्धो वि अलद्धो विअ जड़ जह हिअअं तत ण होइ ॥ ५ ॥ ७४ [ दुःखैर्लभ्यते प्रियो लब्धो दुःखैर्भवति स्वाधीनः । लब्धोऽप्यलब्ध एव यदि यथा हृदयं तथा न भवति ॥ ] प्रिय दुःख से ही उपलब्ध होता है और मिलने पर कठिनता से वशीभूत होता है । यदि कहीं हृदय के अनुकूल न हुआ तो मिलना न मिलने के समान जाता है ॥ ५ ॥ roat अणुणअसुहकङ्खिरीअ अलंअ कअ कुणन्तीए । सरलसहावो वि पिओ आवणअमग्गं बलण्णीओ ॥ ६ ॥ [ कष्टमनुनयसुखकाङ्क्षणशीलयाकृतं कृतं कुर्वत्या । सरलस्वभावोऽपि प्रियोऽविनयमार्ग बलान्नोतः ॥ | हाय ! अनुनय-सुख की आकांक्षा करने वालो मैंने न किये हुए अपराधों का भी आरोप कर सरल स्वभाव पति को हठात् कुमार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया ॥ ६॥ हत्थे अ पाए अ अङ्गुलिगणणाइ अइगआ दिअहा । एहि उण केण गणिज्जउ त्ति भणेउ रुअइ मुद्धा ॥ ७ ॥ [ हस्तयोश्च पादयोश्चाङ्गुलिगणनयातिगता दिवसाः । इदानीं पुनः केन गण्यतामिति भणित्वा रोदिति मुग्धा ॥ ] "हाथों और पैरों की अँगुलियाँ गिन गिनकर मैंने आज तक विरह के दिन बिताये, अब कैसे गिनू ?" यह कहकर मुग्धा रो पड़ो ॥ ७ ॥ फोरमुहसच्छ्हेहिँ रेहइ वसुहा पलासकुसुमेहि । बुद्धस्स चलणधन्दणपडिएहिँ व भिक्खुसंघेहिँ ॥ ८ ॥ [ कीरमुखसदृक्षै राजते वसुधा पलाशकुसुमैः । बुद्धस्य चरणवन्दनपतितैरिव भिक्षुसंघैः ॥ ] बुद्ध के चरणों की वन्दना के लिये गिरे हुए भिक्षु संघ की भांति यह पृथ्वी शुकों की चोंच के तुल्य पलाश - पुष्पों से सुशोभित हो रही है ॥ ८ ॥ जं जं पिहुलं अङ्गं तं तं जाअं किसोअरि किसं ते । जं जं तणुअं तं तं वि णिट्ठअं किं त्थ माणेण ॥ ९ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं शतकम् [ यद्यत्पृथुलमङ्गं तत्तज्जातं कृशोदरि कृशं ते । यद्यत्तनुकं तत्तदपि निष्ठितं किमत्र मानेन ॥ ] कृशोदरि ! तुम्हारे जो अंग स्थूल थे, वे कुश हो गये हैं और जो कृश थे, वे भी शतर हो गये हैं । अब मान से क्या लाभ है ? ।। ९ ।। ण गुणेण हीरइ जणो होरइ जो जेण भाविओ तेण । मोत्तूण पुलिन्दा मोत्तिआइँ गुज्जाओं गेह्णन्ति ॥ १० ॥ [ न गृणेन ह्रियते जनो ह्रियते यो येन भावितस्तेन । मुक्त्वा पुलिन्दा मोक्तिकानि गुञ्जा गृह्णन्ति ॥ ] कोई किसी के गुणों पर मोहित नहीं होता । जिस पर जिसका अनुराग हो जाता है, वह उसी के वश में हो जाता है । वनवासी पुलिन्द मुक्ता का परित्याग कर गुंजा को ही धारण करते हैं || १० | लङ्कालआणं पुत्तअ वसन्तमासेक्कलद्धपसराणं । आपीअलोहिआणं वीहेइ जणे पलासाणं ॥ ११ ॥ ७५ [ लङ्कालयानां पुत्रक वमन्तमासैकलब्धप्रसराणाम् । आपीतलोहितानां बिभेति जनः पलाशानाम् ॥ ] केवल वसन्त में फैलने वाले, डाली पर खिले, पीले और लाल पलाश - पुष्पों से वियोगी भयभीत हो जाते हैं ।। ११ ।। द्वितीय अर्थ जो वसा, आंत और मांस खाकर खूब मोटे हो गये हैं, तथा जिन्होंने रक्तपान किया है, उन लंकावासी मांसभक्षी राक्षसों से लोग भयभीत हो जाते हैं ॥ घेत्तूण चुण्णमुट्ठि हरिसससिआए वेपमाणाए । भिसिणमित्ति पिअअमं हत्थे गन्धोदअं जाअं ॥ १२ ॥ [ गृहीत्वा चूर्णमुष्टि हर्षोत्सुकिताया वेपमानायाः । अवकिरामोति प्रियतमं हस्ते गन्धोदकं जातम् ॥ ] हर्ष से उत्सुक कंपित नायिका ने प्रिय के ऊपर कंकुम चूर्ण फेंकने लिये जैसे ही मुट्ठी में लिया, वह सुगन्धित जल में परिणत हो गया ।। १२ ।। पुट्ठि पुससु किसोअरि पडोहरङ्कोल्लपत्तचित्तलिअं । आहिं दिअरजाआहिँ उज्जुए मा कलिज्जिहिसि ॥ १३ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ गाथासप्तशती [ पृष्टं प्रोञ्छ कृशोदरि पश्चाद्गृहाङ्कोटपत्रचित्रितम् । विदग्धाभिर्देवरजायामि ऋजुके मा कलिष्यसे ॥ ] कृशांगि ! तुम कितनी सरल हो ? पिछवाड़े के अंकोट की पत्तियों से चिह्नित • पीठ तो पोंछ डालो, नहीं तो देवर की चतुर पत्नियाँ जान लेंगी ॥ १३ ॥ अच्छी इँ ता थइस्सं दोहिं वि हत्थेहिँ वि तस्सि दिट्ठे । अङ्ग कलम्बकुसुमं व पुलइअ' कहँ णु ढक्किस्सं ॥ १४ ॥ [ अक्षिणी तावत्स्थगयिष्यामि द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यां तस्मिन्दृष्टे । अङ्गं कदम्बकुसुममिव पुलकितं कथं नु च्छादयिष्यामि ॥ ] प्रिय को देखते ही दोनों हाथों से आँखें तो ढँक लूँगी, किन्तु कदम्ब की भाँति पुलकित अंग कैसे छिपा सकूँगी ? ॥ १४ ॥ झञ्झाबा उत्तणिए घरम्मि रोऊण णोसहणिसण्णं । दावेद व गअवइअ' विज्जुज्जोओ जलहराणं ॥ १५ ॥ [ झञ्झावातोत्तृणिते गृहे रुदित्वा निःसहनिषण्णाम् । दर्शयतीव गतपतिकां विद्युद्योतो जलधराणाम् ॥ ] झंझा के झकोर से जिसका फूस उड़ गया था, उस गृह में रोकर असहाय -बैठी हुई परदेशी की प्रिया को बिजली को कौंध में मेघों को दिखा देती है ।। १५ ।। भुज्जसु जं साहीणं कुत्तो लोणं कुगामरिद्धम्मि । सुहअ सलोणेण वि किं तेन सिणेहो जहिं णत्थि ॥ १६ ॥ [ भुङ्क्ष्व यत्स्वाधीनं कुतो लवणं कुग्रामरिद्धे । सुभग सलवणेनापि किं तेन स्नेहो यत्र नास्ति ॥ ] जो मेरे अधिकार में है, उसे आप स्वीकार करें, दरिद्र गाँव की रसोई में नमक कहाँ ? जिसमें स्नेह हो नहीं है, वह सलोना होकर ही क्या करेगा ? ॥ १६ ॥ सुहपुच्छिआइ हलिओ मुहपङ्क असुरहिपवणणिव्वविअ । तह पिअइ पअइकडुअ पि ओसहं जण ण गिट्ठाइ ॥ १७ ॥ [ सुखपृच्छिकाया हलिको मुखपङ्कजसुरभिपवन निर्वापितम् । तथा पिबति प्रकृतिकटुकमप्यौषधं यथा न तिष्ठति ॥ ] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं शतकम् कुशल पूछने वाली के मुख-पंकज के सुरभित पवन से शीतल की हुई स्वभाव से कटु ओषधि को, वह हलवाहा ऐसे पी जाता है कि लेश भी न बचता ॥ १७ ॥ अह सा तह तह व्विअ वाणीरवणम्मि चुक्कसंकेआ । तुह दंसणं विमग्गइ पब्भट्टणिहाणठाणं व ॥ १८ ॥ [ अथ सा तत्र तत्रैव वानीरवने विस्मृतसङ्केता | तव दर्शनं विमार्गति प्रभ्रष्टनिधानस्थानमिव ॥ ] वह अपना संकेत स्थान भूल जाने से बेतों के उस वन में तुम्हारा दर्शन ढूढ़ रही है, जैसे कोई गड़ी हुई निधि का स्थान भूल गया हो ॥ १८ ॥ दढरोसकलुसिअस्स वि सुअणस्स मुहाहिँ विप्पिअं कत्तो । राहुमहम्मि विससिणो किरणा अमअं विअ मुअन्ति ॥ १९ ॥ [ दृढरोष कलुषितस्यापि सुजनस्य मुखादप्रियं कुतः । राहुमुखेऽपि शशिन: किरणा अमृतमेव मुञ्चन्ति ॥ ] ७७ दृढ़ रोष से कलुषित होने पर भी सज्जन के मुख से अप्रिय वाणी कब निकलती है ? चन्द्रमा की किरणें राहु के मुख में भी अमृत ही हैं ॥ १९ ॥ अमाणिओ विण तहा दुमिज्जइ सज्जणो विहवहीणो । पडिकाऊ असमत्थो माणिज्जन्तो जह परेण ॥ २० ॥ [ अवमानितोऽपि न तथा दूयते सज्जनो विभवहीनः । प्रतिकर्तु समर्थो मान्यमानो यथा परेण ॥ ] धनहीन सत्पुरुष तिरस्कृत होने पर भी उतना संतप्त नहीं होता, जितना दूसरे के किये हुए सम्मान का प्रत्युपकार न कर पाने पर ॥ २० ॥ कलहन्तरे वि अविणिग्गआइँ हिअअम्मि जरमुवगआई । सुअणक आइ रहस्साइँ उहइ आउक्खए अग्गी ॥ २१ ॥ [ कलहान्तरेऽप्यविनिर्गतानि हृदये जरामुपगतानि । सुजनश्रु तानि रहस्यानि दहत्यायुः क्षयेऽग्निः ॥ ] जो कलह में भी वाहर नहीं निकलते तथा जो हृदय में ही जीर्ण हो जाते हैं, वे सत्पुरुषों के सुने हुये रहस्य मृत्यु के पश्चात् अग्नि में भस्म हो जाते हैं ।। २१ ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती जाआउ । लुम्बीओ अङ्गणमाहवीण दारगलाउ आसासो पान्थपलोअणे वि पिट्ठो गअवईणं ॥ २२ ॥ अङ्गणमाधवनां द्वारार्गला आश्वासः पान्थप्रलोकनेऽपि नष्टो गतपतिकानाम् ॥ ] [ स्तबका जाता: । अर्गला के समान फैल गये हैं। आश्वासन मिलता था, वह ७८ आँगन की माधवी लता के स्तवक द्वार पर - अतः प्रोषित पतिकाओं को पथिकों को देखकर जो भी नष्ट हो गया || २२ ॥ पण हरसमउलिआइँ जइ से ण होन्ति णअणाई | ता केण कण्णरइअं लक्खिज्जइ कुवलअं तिस्सा ॥ २३ ॥ [ प्रियदर्शन सुखरसमुकुलिते यदि तस्या न भवतो नयने । तदा केन कर्णरचितं लक्ष्यते कुवलयं तस्याः ॥ ] यदि प्रिय को देखकर उसकी आँखें आनन्द से मुकुलित न हो जातीं तो कानों में लटकते हुये कुवलयों को कौन पहचान सकता था ? ॥ २३ ॥ चिक्खिल्लखुत्त हलमुहकद् ढणसिठिले पइम्मि पासुत्ते । अप्पत्तमोहणसुहा घणसमअं पामरी सवइ ॥ २४ ॥ [ कर्दममग्नहलमुखकर्षणशिथिले पत्यो प्रसुप्ते | अप्राप्तमोहनसुखा घनसमयं पामरी शपति ॥ ] पंक में मग्न हल को चलाकर थके हुये पति के सो जाने पर रतिक्रीड़ा से : वंचित ग्राम्या वर्षाकाल को शाप देती है ।। २४ ॥ दुम्मेन्ति देन्ति सोक्खं कुणन्ति अणुराअअं रमावेन्ति । अरइरइबन्धवाणं णमो णमो मअणवाणाणं ।। २५ ।। [ दून्वन्ति ददति सौख्यं कुर्वन्त्यनुरागं रमयन्ति । अरतिरबान्धवेभ्यो नमो नमो मदनबाणेभ्यः ॥ ] अरति और रति प्रदान करने वाले उन मदन बाणों को नमस्कार है, जो - सन्ताप देते हैं, सुख देते हैं, अनुराग उत्पन्न करते हैं और रमण कराते हैं ||२५|| कुसुममआ वि अइखरा अलद्धफंसा वि दूसहपआवा । भिन्दन्तावि रइअरा कामस्स सरा बहुविअप्पा ॥ २६ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतकम् [कुसुममया अप्यतिखरा अलब्धस्पर्शा अपि दुःसहप्रतापाः। भिन्दन्तोऽपि रतिकराः कामस्य शरा बहुविकल्पाः ।। पुष्पमय होने पर भी अत्यन्त कठोर, स्पर्श शून्य होने पर भी असह्य-सन्तापकारी एवं हृदय को बींध डालने पर भी प्रिय लगने वाले मदन-वाणों का स्वरूप ही अनेक प्रकार का है ॥ २६ ॥ ईसं जणेन्ति दावेन्ति मम्महं विप्पि सहावेन्ति । विरहे ण देन्ति मरिउं अहो गुणा तस्स बहुमग्गा ॥ २७ ॥ [ ईर्ष्या जनयन्ति दीपयन्ति मन्मथं विप्रियं साहयन्ति । विरहे न ददति मर्तुमहो गुणास्तस्य बहुमार्गाः॥] अहा ! उनके गुण असंख्य है, जो ईर्ष्या उत्पन्न कर देते हैं, काम को उद्दीप्त करते हैं, प्रतिकूलता को भो सद्य बना देते हैं और विरह में भी मरने नही देते ।। २७ ॥ णीआई अज्ज णिविकव पिणद्धणवरणऑइ वराईए। घरपरिवाडीअ पहेणआई तुह दंसणासाए ॥२८॥ [ नीतान्यद्य निष्कृप पिनद्धनवरङ्गकया वराक्या। गृहपरिपाटया प्रहेणकानि तव दर्शनाशया ॥] अरे निर्दय ! यह बेचारी तेरे दर्शन की आशा से नई रँगी साड़ी पहन कर 'घर-घर घूमती हुई बायने बाँटती रही ॥ २८ ॥ सूइज्जइ हेमन्तम्मि दुग्गओ पुप्फुआसुअन्धेण । धूमकविलेण परिविरलतन्तुणा जुण्णवडएण ॥ २९ ॥ [सच्यते हेमन्ते दुर्गतः करीषाग्निसुगन्धेन । धूमकपिलेन परिविरलतन्तुना जीर्णपटकेन ।] जिससे करसी को आग की सुगन्ध निकल रही है, जो धूयें से पीला हो गया है तथा जिसके सूत्र विरल हो चुके हैं, वह जीर्ण वस्त्र हेमन्त में दरिद्र मनुष्य की सूचना दे देता है ॥ २९ ॥ खरसिप्पिरउल्लिहिआइँ कुणइ पहिओ हिमागमपहाए । आअमणजलोल्लिअहत्थफंसमसिणाई अङ्गाई ॥३०॥ [ तीक्ष्णपलालोल्लिखितानि करोति पथिको हिमागमप्रभाते। आचमनजलादितहस्तस्पर्शमसृणान्यङ्गानि Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० गाथासप्तशती जाड़े की रात में सोने के लिये बिछाये हुये तीक्ष्ण पुआल से अंकित अंगों को सबेरा होने पर वह पथिक मुंह धोते समय भोंगे हाथों के स्पर्श से चिकना कर रहा है ॥ ३० ॥ णक्खक्खुडीअं सहआरमञ्जरि पामरस्य सीसम्मि । बन्दिम्मिव हीरन्ती भमरजुआणा अणुसरन्ति ॥ ३१॥ [ नखोत्खण्डितां सहकारमजरी पामरस्य शीर्षे । बन्दोमिव ह्रियमाणां भ्रमरयुवानोऽनुसरन्ति ।।] नखों से खंडित आम्र मंजरी को वन्दिनो की भाँति शिर पर ले जाते हुये अधम पुरुष के पोछे तरुण भ्रमर दौड़ रहे हैं ।। ३१ ॥ सूरच्छलेण पुत्तअ कस्स तुमं अञ्जलिं पणामेसि । हासकडक्खुम्मिस्सा ण होन्ति देवाणं जेक्कारा ॥ ३२ ॥ [ सूर्यच्छलेन पुत्रक कस्मै त्वमञ्जलिं प्रणामयसि। हास्यकराक्षोन्मिश्रा न भवन्ति देवानां जयकाराः ॥] पुत्र ! तुम सूर्य के व्याज से किसे हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे हो ? देवताओं की जयध्वनि हास्य और कटाक्ष से मिश्रित नहीं होती ।। ३२ ॥ मुहविज्झविअपईवं णिरुद्धसासं ससङ्किओल्लावं । सवहस अरक्सिओळं चोरिअरमिअं सुहावेइ ॥ ३३ ॥ [ मुखविध्मापितप्रदीपं निरुद्धश्वासं सशङ्कितोल्लापं । शपथशतरक्षितोष्ठं चोरिकारमितं सुखयति ॥ ] जहां मुंह से फूंककर दोपक बुझा दिया जाता है, सांसें रोककर डरते-डरते बात को जातो है और सौ-सौ शपथों से अधर सुरक्षित रखे जाते हैं, वह चोरी-- चोरी होने वाली रति-क्रीड़ा कितनी सुखद होती है ।। ३३ ।।। गेअच्छलेण भरिउ कस्स तुमं रुअसि णिभरुक्कण्ठं । मण्णुपडिरुद्धकण्ठद्धणिन्तखलिअक्खरुल्लावं ॥३४॥ [गेयच्छलेन स्मृत्वा कस्य त्वं रोदिषि निर्भरोत्कण्ठम् । मन्युप्रतिरुद्धकण्ठार्धनिर्यत्स्खलिताक्षरोल्लापम् ॥] किसकी स्मृति में अत्यन्त उत्कंठित होकर गीत के व्याज से रो रही हो?' क्योंकि शोक से निरुद्ध कण्ठ से निकलने वाले तुम्हारे अधरे वाक्य स्खलित होते जा रहे हैं ॥ ३४ ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं शतकम् बहलतमा हसराई अज्ज पउत्थो पई घरं सुण्णं । तह जग्गेसु सअज्जिअ ण जहा अम्हे मुसिज्जामो ॥ ३५ ॥ [ बलहतमा हतरात्रिरद्य प्रोषितः पतिर्गृहं शून्यम् । तथा जागृहि प्रतिवेशिन्न यथा वयं मध्यामहे ॥] अँधेरी रात आ गई है। आज स्वामी भी परदेश चले गये। मेरा गृह सूना सूना है । पड़ोसी ! जागते रहना नहीं तो मुझे चोर लूट ले जायेंगे ॥ ३५ ॥ संजीवणोसहिम्मिव सुअस्स रक्खइ अणण्णवावारा । सासू णवब्भदंसणकण्ठागअजीविअं सोल्॥३६ ॥ [संजीवनौषधमिव सुतस्य रक्षत्यनन्यव्यापारा । श्वनवाभ्रदर्शनकण्ठागतजीवितां स्नुषाम् ॥] नये मेघों को देखते ही जिसके प्राण कंठ में आ गये हैं, सास पुत्र की पुनरुज्जीवनी ओषधि के समान उस बहू को, सब काम छोड़कर बचाती गुणं हिअअणिहित्ताइ वससि जाआइ अम्ह हिअअम्मि । अण्णह मणोरहा मे सुहअ कहं तीअ विण्णाआ ॥ ३७॥ [ नूनं हृदयनिहितया वससि जाययास्माकं हृदये। अन्यथा मनोरथा मे सुभग कथं तया विज्ञाताः॥] तुम अवश्य हो हृदयवासिनी प्रिया के साथ मेरे हृदय में निवास करते हो अन्यथा उसने मेरे मनोरथों को कैसे जान लिया ।। ३७ ॥ तई सुहम अईसन्ते तिस्सा अच्छीहि कण्णलग्गेहि । दिणं घोलिरवाहेहिं पाणिरं दसणसुहाणं ॥ ३८॥ [ त्वयि सुभग अदृश्यमाने तस्या अक्षिभ्यां कर्णलग्नाभ्यां । दत्तं घूर्णनशीलबाष्पाभ्यां पानीयं दर्शनसुखेभ्यः । ] प्यारे ! तुम्हारे अदृश्य होते ही कानों तक फैली हुई सजल आँखों से उसने दर्शन-सुख को तिलांजलि दे दी ॥ ३८ ॥ उप्पेक्खागअ तुह मुहदसण पडिरुद्धजीविआसाइ । दुहिआइ मए कालो कित्तिअमेत्तो व्व अव्वो ॥३९॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती [ उत्प्रेक्षागत त्वन्मुखदर्शनप्रतिरुद्धजीविताशया। - दुःखितया मया कालः कियन्मात्रो वा नेतव्यः ॥ ] ध्यानावस्था में तुम्हारे मुख का दर्शन पाकर जोवन की आशा रखने वाली मुझ दुःखदायिनी को अभी और कितने दिन बिताने होंगे ।। ३९ ॥ वोलीणालक्खिअरूअजोवणा पुत्ति कं ण दुम्मेसि । दिट्ठा पणट्टपोराणजणवआ जम्मभूमि व्व ॥४०॥ [ व्यतिक्रान्तालक्षितरूपयौवना पुत्रि कं न दुनोषि। दृष्टा प्रणष्टपौराणजनपदा जन्मभूमिरिव ।। बेटी ! तुम्हारा रूप और यौवन अब नष्ट हो चुका है, पुराने परिचित जन-समूह ( जन व्रज ) से शन्य जन्मभूमि के समान तुम्हें देखकर किसे दुःख न' होगा ॥ ४० ॥ परिओसविअसिएहि भणिों अच्छोहि तेण जणमजले । पडिवण्णं तीअ वि उव्वमन्तसेएहि अनेहि ॥४१॥ [परितोषविकिसिताभ्यां भणितमक्षिभ्यां तेन जनमध्ये । प्रतिपन्नं तयाप्युद्वमस्त्वेदैरङ्ग ।] नायक ने लोगों के बीच में हर्ष-विकसित नेत्रों से कह दिया और नायिका ने स्वेद बहाते हुए अंगों से स्वीकार कर लिया ॥ ४१ ॥ एक्कक्कमसंदेसाणुराअवड्ढन्त कोउहल्लाई। दुःखं असमत्तणोरहाइँ अच्छन्ति मिहुणाई ॥ ४२ ॥ [अन्योन्यसंदेशानुरागवर्धमानकौतूहलानि । दुःखमसमाप्तमनोरथानि तिष्ठन्ति मिथुनानि ।।] परस्पर सन्देश द्वारा उत्पन्न अनुराग से जिनका कुतूहल बढ़ गया है तथा जिनकी इच्छाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, वे दोनों प्रेमी बड़े ही कष्ट से जी रहे हैं ॥ ४२ ॥ जइ सो ण वल्लहो विवअ गोत्तग्गहणेण तस्स सहि कीस । होइ मुहं ते रविअरफंसव्विसई व तामरसं ॥४३॥ [ मदि स न वल्लभ एव गोत्रग्रहणेन तस्य सखि किमिति । यवति मुखं तव रविकरस्पर्शविकसितमिव तामरसम् ॥] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतकम् ८३ यदि तू उससे प्रेम नहीं करती है तो उसका नाम लेते ही तेरा मुख सूर्य की किरणों स्पष्ट विकसित पद्म सा क्यों हो जाता है ? ॥ ४३ ॥ माणदुमपरुसपवणस्स मामि सव्वङ्गणिव्वुइअरस्स । भद्दं रइणाडअपुव्वरङ्गस्स ॥४४॥ अवऊहणस्स [ मानद्रुमपरुषपवनस्य मातुलानि सर्वाङ्गानिवृतिकरस्य । अवगूहनस्य भद्रं रतिनाटकपूर्व रङ्गस्य ॥ ] मामी ! जो सभी अंगों को तृप्ति प्रदान करता है, जो मान-वृक्ष का प्रभंजन ★ एवं रति-नाटक का पूर्वं रंग है, उस आलिंगन का मंगल हो ॥ ४४ ॥ णिअआणुमाणणीस, हिअअ दे पसिअ विरम एताहे । अमुणिअपरमत्थजणाणुलग्ग फीस ह्म लहुएसि ॥४५॥ [ निजकानुमाननिःशङ्क हृदय हे प्रसोद विरमेदानीम् । अज्ञातपरमार्थजनानुलग्न किमित्यस्माल्लघयसि ॥ ] " जैसे मैं विरह से व्यथित हूँ, वैसे ही दूसरे भो होंगे" यह सोचकर निश्चिन्त रहने वाले हृदय ! रुक जाओ, जिसने परायी पीर नहीं जानी है, उस व्यक्ति में आसक्त होकर मेरा गौरव क्यों कम करते हो ? ।। ४५ ।। ओसहिअजणो पइणा सलाहमाणेण अइचिरं हसिओ । चन्दोसि तुज्झ वअणे विइण्णकुसुमञ्जलिविलक्खो ॥४६॥ [ आवसथिकजनः पत्या श्लाघमानेनातिचिरं हसितः । इन्द्र इति तव वदने वितीर्णं कुसुमाञ्जलिविलक्षः ॥ ] जब वह व्रती चन्द्रमा के धोखे में तुम्हारे मुख को ही पुष्पांजलि देकर लज्जित हो गया तो पतिदेव उसकी प्रशंसा करते हुये देर तक हँसते रहे ॥ ४६ ॥ छज्जतेहि अणुदिणं पच्चक्खम्मि वि तुमम्मि अहि । बालअ पुच्छिज्जन्ती ण आणिमो कस्स किं भणिमो ॥४७॥ [क्षीयमाणौरनुदिनं प्रत्यक्षेऽपि त्वय्यङ्गैः । बालक पृच्छ्यमाना न जानीमः कस्य किं भणामः ॥ ] तुम्हारी उपस्थिति में भी अहरह मेरे अंग क्यों क्षीण होते जा रहे हैं, सखियाँ जब इसका कारण पूछने लगती हैं, तो मेरी समझ में नहीं आता कि कौन सा उत्तर दूँ ॥ ४७ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ गाथासप्तशतो अङ्गाणं तणुआरअ सिक्खावअ दोहरोइअव्वाणं । विणआइक्कमआरअ मा मा णं पह्मसिज्जासु ॥ ४८॥ [अङ्गानां तनुकारक शिक्षक दीर्घरोदितव्यानाम् । विनयातिक्रमकारक मा मा एनां प्रस्मरिष्यसि ।।] जिसके अंगों को तुमने दुर्बल किया है, जिसे चिरकाल से रोने की शिक्षा दो है तथा जिसने तुम्हारे लिये शील का उल्लंघन किया है, उसे फिर याद मत करना ॥ ४८ ॥ अण्णह ण तीरइ चिअ परिवड्ढन्तगरुअं पिअअमस्स । - मरणविणोएण विणा विरमावेउं विरहदुक्खं ॥४९॥ [ अन्यथा न शक्यत एव परिवर्धमानगुरुकं प्रियतमस्य । मरणविनोदेन विना विरमयितु विरहदुःखम् ॥] प्रिय की विरह व्यथा बढ़ते-बढ़ते बहुत बढ़ गई है। अब तो मृत्यु के बिना उसकी शान्ति का कोई आय ही नहीं है ॥ ४९ ।। वण्णन्तीहि तुह गुणे बहुसो अम्हि छिज्छईपुरओ। बालअ सअमेअ कोसि दुल्लहो कस्स कुप्पामो ॥ ५० ॥ [वर्णयन्तोभिस्तव गुणान्बहुशोऽस्माभिरसतोपुरतः। बालक स्वयमेव कृतोऽसि दुर्लभः कस्मै कुप्यामः ।।] व्यभिचारिणी स्त्रियों के सम्मुख तुम्हारे अनन्त गुणों का वर्णन कर हमने स्वयं ही तुम्हें दुर्लभ बना दिया है, अब कोप किस पर करें ।। ५० ॥ जाओ सो वि विलक्खो मए वि हसिऊण गाढमुवगूढो । पढमोसरिअस्स णिसणस्स गण्ठि विमग्गन्तो ॥५१॥ [ जातः सोऽपि विलक्षो मयापि हसित्वा गाढमुपगूढः ।। प्रथमापसृतस्य निवसनस्य ग्रंथि विमार्गयमाणः ।। ] पहले ही खुली हुई नीवी को ग्रंथि जब ढूढने पर भी न मिली, तो के लज्जित हो गये और मैंने हंसकर दोनों भुजाओं से उन्हें कस लिया ।। ५१ ।। कण्डज्जुआ वराई अज्ज तए सा कआवराहेण । अलसाइअरुण्णविअम्मिआई दिअहेण सिक्खविआ ॥५२॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ चतुर्थ शतकम् [ काण्डर्जुका वराकी अद्य त्वया सा कृतापराधेन । अलमायितरुदितविजृम्भितानि दिवसेन शिक्षिता ॥] तुमने आज अपराध कर एक दिन में ही सरकंडे सी सीधी नायिका को आलस्य, रोदन और ज॑भायी को शिक्षा दे दी है ।। ५२ ॥ अवराहेहि वि ण तहा पत्तिअ जह में इमेहि दुम्मेसि । अवहत्थिअसब्भावेहिं सुहअ दक्खिण्णभणिएहिं ॥५३॥ [अपराधैरपि न तथा प्रतीहि यथा मामेभिदुनोषि । अपहस्तितसद्भावैः सुभग दाक्षिण्यभणितैः ॥] विश्वास रखो, तुम मुझे अपराधों से भी उतना दुःख नहीं पहुँचाते, जितना चतुराई से भरी हुई उन बातों से, जिनमें स्नेह लेशमात्र भी नहीं होता ॥ ५३ ॥ मा जूर पिआलिङ्गणसरहसभमिरीण बाहुलइआणं । तुहिक्कपरुण्णण अ इमिणा माणंसिणि मुहेण ॥५४॥ [मा क्रुध्यस्त्र प्रियालिङ्गनसरभसभ्रमणशीलाभ्यां बाहुलतिकाभ्याम् । तूष्णीकारुदितेन चानेन मनस्विनि मुखेन ॥] मानिनी ! भीतर हो भीतर मूक रोदन करते हुये इस मुख द्वारा, सहसा प्रिय के आलिंगन के लिये चंचल भुजाओं पर मत खीझो ॥५४ ॥ मा वच्च पुप्फलाविर देवा उअअजलोहि तूसत्ति । गोआअरीम पुत्तम सोलुम्मूलाई कूलाई ॥५५॥ [मा ब्रज पुष्पलवनशील देवा उदकाञ्जलिभिस्तुष्यन्ति । गोदावर्याः पुत्रक शीलोन्मूलानि कूलानि ॥ ] पुष्प चुनने वाले ! गोदावरी का तट शील का खण्डन करने वाला है, तुम वहाँ मत जाओ, बेटा ! देवता जलांजलि से भी सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥ ५५ ॥ वअणे वअणम्मि चलन्तसीससुण्णावहाणहुङ्कारं । सहि देन्ति गोसासन्तरेसु कीस म्ह दुम्मेसि ॥५६॥ [वचने वचने चलच्छीर्षशून्यावधानहुङ्कारम् । सखि ददती निःश्वासान्तरेषु किमित्यस्मान्दुनोषि ।। ] सखी ! मेरी प्रत्येक बात पर ध्यान दिये बिना ही बीच-बीच में दीर्घ श्वास लेकर और शिर हिलाकर "हाँ-हाँ" करती हुई तू मुझे क्यों कष्ट दे रही है ॥ ५६ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो सब्भावं पुच्छन्ती बालअ रोआविआ तुअ पिआए । पत्थि विअ कअसवहं हासुम्मिस्सं भणन्तीए ॥५७।। [ सद्भावं पृच्छन्ती बालक रोदिता तव प्रियया। नास्त्येव कृतशपथं हासोन्मिथं भणन्त्या ।।] तुम्हारे प्रेम के सम्बन्ध में पूछने पर शपथ पूर्वक हँसकर "नहीं है" यह कहती हुई तुम्हारी प्रिया ने मुझे रुला दिया ॥ ५७ ।। एत्थ मए रमिअव्वं तीअ समं चिन्तिऊण हिअएण । पामरकरसेओल्ला णिवअइ तुवरी वविज्जन्ती ॥ ५४॥ [अत्र मया रत्नव्यं तया समं चिन्तयित्वा हृदयेन । पामरकरस्वेदार्दा निपतति तुवरी उप्यमाना ॥] "अपनी प्रिया के साथ यहीं रमण करूंगा" यह सोचकर अरहर बोते हुये कृषक के हाथों के स्वेद से सने बोज खेत में गिरने लगे ।। ५८ ॥ गहवइसुओच्चिएसु वि फलहीवेण्टेसु उअह वहुआए । मोहं भमइ पुलइओ विलग्गसेअगुली हत्यो ॥ ५९ ॥ [ गृहपतिसुतावचितेष्वपि कर्पासवृन्तेषु पश्यत वध्वाः। मोघं भ्रमति पुलकितो विलग्नस्वेदाङ्गुलिहस्तः ।। ] गृहपति पुत्र ने जिनके पुष्प चुन लिये हैं, कपास के उन सूने वृन्तों पर भी स्वेद से भीगी हुई अँगुलियों वाला बहू का पुलकित हाथ व्यर्थ हो फिर रहा है ॥ ५९॥ अज्ज मोहणसुहिअं मुअत्ति मोत्तू पलाइए हलिए। दरफुडिअवेण्टभारोणआइ हसिअं व फलहीए ॥ ६०॥ [आर्यां मोहनसुखितां मृतेति मुक्त्वा पलायिते हलिके । दरस्फुटितवृन्तभारावनतया हसितमिव कार्पास्या ॥] सुरत के सुख में लीन हुई आर्या को मृत समझ कर जब वह हलवाहा भाग गया, तो अधखिली कलियों के भार से झुके हुए कपास ने मानों हँस दिया ॥ ६०॥ णीसासुक्कम्पिअपुलइएहिं जाणन्ति णच्चिउं धण्णा । अम्हारिसीहि दिटु पिअम्मि अप्पा वि वीसरिओ ॥ ६१ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतकम् [निःश्वासोत्कम्पितपुलकितैर्जानन्ति नर्तितु धन्याः। अस्मादृशीभिदृष्टे प्रिये आत्मापि विस्मृतः ॥] जो निश्वास, उत्कंप और पुलक का नाट्य करना जानती है, वे धन्य है । मैं तो प्रिय को देखते ही अपने को भी भूल जाती हूँ ॥ ६१ ॥ तणुएण वि तणुइज्जइ खीएण वि क्खिज्जए बला इमिणा । मज्झत्थेण वि मज्झणे पुत्ति कहें तुज्झ पडिवक्खो ॥ ६२ ॥ [ तनुकेनापि तनूयते क्षीणेनापि क्षीयते बलादनेन । मध्यस्थेनापि मध्येन पुत्रि कथं तव प्रतिपक्षः ।।] तुम्हारा मध्य भाग दुर्बल होकर भी सपत्नियों को दुर्बल कैसे बना रहा है ? क्षीण होकर भी क्षीण कैसे कर रहा है ? बेटी ! वह तो मध्यस्थ है ॥ ६२ ।। वाहिव्व वेज्जरहिओ धणरहिओ सुअणमझवासो व्च । रिउरिद्धिदसणम्मिद दूसहणीओ तुह विओओ ॥ ६३ ।। [ व्याधिरिव वैद्यरहितो धनरहितः स्वजनमध्यवास इव । रिपुऋद्धिदर्शनमिव दुःसहनीयस्तव वियोगः ।।] वैद्यहीन व्याधि, स्वजनों के बीच दरिद्रता पूर्ण जीवन और शत्रुओं के उत्कर्ष-दर्शन के समान तुम्हारा वियोग असह्य है ।। ६३ ॥ को स्थ जअम्मि समत्थो थइउं वित्थिण्णणिम्मलुत्तुकं । हिमअं तुज्झ णराहिव गअणं च पओहरं मोत्तुं ॥ ६४ ॥ [ कोऽत्र जगति समर्थः स्थगयितु विस्तीर्णनिर्मलोत्तुङ्गम् । हृदयं तव नराधिप गगनं च पयोधरान्मुक्त्वा ॥] राजन् ! संसार में पयोधरों (स्तन और मेघ ) को छोड़कर विस्तीर्ण, निर्मल एवं उत्तुंग आकाश और तुम्हारे हृदय को आच्छादित करने में कौन समर्थ है ? ॥ ६४ ॥ आअण्णेइ अडअणा कुडमहे?म्मि दिण्णसङ्कआ। अग्गपअपेल्लिआणं मम्मरअं जुण्णपत्ताणं ॥६५॥ [ आकर्णयत्यसती कुजाधो दत्तसङ्केता। अग्रपदप्रेरितानां मर्मरकं जीर्णपत्राणाम् ॥] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती कुंज के नीचे जिसका संकेत स्थान है, वह व्यभिचारिणी पैरों के अगले भाग से चूर्ण होने वाले शुष्क-पत्रों की मरमर ध्वनि सुन रही है ।। ६५ ।। ८८ अहिलेन्ति सुरहिणीस सिअपरिमलाबद्ध मण्डलं भमरा । अमुणिअचन्दपरिहवं अपुव्वकमलं मुहं तिस्सा ॥ ६६ ॥ [ अभिलीयन्ते सुरभिनिःश्वसितपरिमलाबद्ध मण्डलं भ्रमराः । अज्ञातचन्द्रपरिभवमपूर्वं कमलं मुखं तस्याः ॥ ] उसका मुख चन्द्रमा से भी पराभूत न होने वाला अपूर्व कमल है जिस पर सुरभित निःश्वास के परिमल के कारण भ्रमरों के झुण्ड मँडरा रहे हैं ।। ६६ धीरावलम्बिरीअ वि गुरुअणपुरओ तुमम्मि वोलीणे । पडिओ से अच्छिणिमीलणेण पम्हट्ठिओ वाहो ॥ ६७ ॥ [ धैर्यावलम्बनशीलाया अपि गुरुजनपुरतस्त्वयि व्यतिक्रान्ते । पतितस्तस्या अक्षिनिमीलनेन पक्ष्मस्थितो बाष्पः ॥ ] गुरुजनों के समक्ष धीरज रखने वाली सुन्दरी ने तुम्हारे अदृश्य होते ही, आँखें बन्द की तो पलकों में स्थित आंसू चू पड़े ॥ ६७ ॥ भरिमो से सअणपरम्मुहीअ विअलन्तमाणपसराए । कइअवसुत्तव्वत्तणथणकलसप्पेल्लणसुहेल्लिं [ स्मरामस्तस्याः शयनपराङ्मुख्या विगलन्मानप्रसरायाः । कैतव सुप्तोद्वर्तनस्तन कलशप्रेरण सुख केलिम् [1] ॥ ६८ ॥ जिसका बढ़ा हुआ मान गलित हो चुका था फिर भी शय्या पर दूसरी ओर मुँह किये सो रही थी -झूठी नींद में करवट बदलते समय -- उस प्रिया के उन्नत कुचों के स्पर्श का रसमय अनुभव नहीं भूलता ! ॥ ६८ ॥ फग्गुच्छणणिद्दोसं केण वि कद्दमपसाहणं दिष्णं । थणअलसमूहपलोट्ठन्त सेअधोअं किणो धुअसि ॥ ६९ ॥ [ फाल्गुनोत्सव निर्दोषं केनापि कर्दमप्रसाधनं दत्तम् । स्तन कलशमुख प्रलुठत्स्वेदधीतं किमिति धावयसि ॥ । किसी ने पंक से तुम्हारा श्रृंगार कर दिया था, वाले स्वेद से ही घुल चुका है । वो क्या रही हो ? डालना कोई बुरा नहीं मानता ।। ६९ ।। वह स्तन कलशों से चूने फागुन के उत्सव में पंक Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं शतकम् कि ण भणिओ सि बालअगामणिधूआइ गुरुअणसमक्खं । अणिमिसमीसोसिवलन्तवअणणअणद्धदिद्रुहि ॥७०॥ [कि न भणितोऽसि बालक ग्रामणोपुश्या गुरुजनसमक्षम् । अनमिषमीषदीषद्वलद्वदनयनार्धदृष्टः ॥ भोले मनुष्य ! किसान को बेटी ने गुरुजनों के समक्ष मुंह फिरा-फिरा कर अपलक नेत्रों की आधी चितवनों से देख कर तुमसे क्या नहीं कह दिया ॥ ७० ॥ णअणब्भन्तरघोलन्तबाहभरमन्थराइ दिट्टीए । पुणरुत्तपेछिरीए बालअ किं जं ण भणिओ सि ॥ ७१ ॥ [नयनाभ्यन्तरपूर्णमानबाष्पभरमन्यरया दृष्टया । पुनरुक्तप्रेक्षणशीलया बालक किं यन्न भणितोऽसि ।।] बार-बार तुम्हें देखती हुई नायिका ने नयनों के भीतर छलकते हुए आंसुओं के भार से मन्थर दृष्टि से सब कुछ कह दिया ॥ ७१ ॥ जो सीसम्मि विइण्णो मज्झ जुआणेहि गणवई आसी। तं विअ एहि पणमाणि हअजरे होहि संतुट्ठा ॥ ७२ ॥ [यः शीर्षे वितीर्णो मम युवभिगणपतिरासीत् । तमेवेदानीं प्रणमामि हतजरे भव संतुष्टा ॥ ] ___ नवयुवकों ने जिस गणेश को मेरे सिरहाने रखकर रमण किया था, आज मैं उसी की अर्चना कर रही हूँ । पापिन जरा ! अब तो तूं सन्तुष्ट हो जा ॥ ७२ ॥ अन्तोहुत्तं डज्जइ जाआसुण्णे घरे हलिअउत्तो। उक्खाअणिहाणाई व रमिअट्ठाणाई पेच्छन्तो ॥ ७३ ॥ [अन्तरभिमुखं दह्यते जायाशून्ये गृहे हालिकपुत्रः । उत्खातनिधानानोव रमितस्थानानि पश्यन् ॥] प्रिया-हीन गृह में रमण किये हुए स्थानों को उस भूमि के समान देखकर वह किसान भीतर ही भीतर दग्ध हो रहा है, जिसमें गड़ी हुई सम्पत्ति कोई खोद ले गया है ।। ७३ ।। णिद्दाभतो आवण्डुरत्तणं दोहरा अ णोसासा । जामन्ति जस्स विरहे तेण समं कोरिसो माणो ॥ ७४ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती [निद्राभङ्ग आपाण्डुरत्वं दीर्घाश्च निःश्वासाः। जायन्ते यस्य विरहे तेन समं कीदृशो मानः॥] जिसके विरह में नींद नहीं आती, शरीर पीला हो जाता है और लम्बी आहे भरनी पड़ती है, उसके साथ मान कैसा ? ॥ ७४ ॥ तेण ण मरामि मण्णूहिँ पूरिआ अज्ज जेण रे सुहस । तोग्गअमणा मरन्ती मा तुज्झ पुणो वि लग्गिस्सं ॥ ७५ ॥ [तेन न म्रिये मन्युभिः पूरिताद्य येन रे सुभग । त्वद्गतमना म्रियमाणा मा तत पुनरपि लगिष्यामि।]. अत्यन्त रोष में भर कर तुम्हारा चिन्तन करती हुई मैं इसलिये आज मर जाना नहीं चाहती कि कहीं जन्मान्तर में तुम मुझे पुनः न मिल जाओ ।। ७५ ॥ अवरज्झसु वीसद्धं सव्वं ते सुहअ विसहिमो अम्हे । गुणणिन्भरम्मि हिअए पत्तिअ दोसा ण माअन्ति ॥ ७६ ॥ [ अपराध्यस्व विस्रब्धं सर्वं ते सुभग विषहामहे वयम् ।। गुणनिर्भर हृदये प्रतीहि दोषा न मान्ति ।।] निर्भय होकर अपराध करते जाओ, प्राणेश ! मैं सब सहलू गी! मेरे, गुणग्राही हृदय में विश्वास रखो-दोषों के लिये कोई स्थान नहीं है ।। ७६ ॥ भरिउच्चरन्तपसरिअपिअसंभरणपिसुणो वराईए। परिवाहो दिअ दुक्खस्स वहइ णअणट्ठिओ वाहो ॥ ७७॥ [भूतोच्चरत्प्रसृतप्रियसंस्मरणपिशुनो वराक्याः । परोवाह इव दुःखस्य वहति नयनस्थितो वाष्पः॥] वराको बाला के नेत्रों के आँसू ऊपर उमड़-उमड़ कर प्रिय के संस्मरण को सूचना देते हुये दुःख की नाले के समान बह रहे हैं ॥ ७७ ॥ जं जं करेसि जं जं जंपसि जह तुम णिअच्छेसि । तं तमणुसिक्खिरीए दोहो दिअहो ण संपडइ ॥७८ ।। [यद्यत्करोषि यद्यज्जल्पसि यथा त्वं निरीक्षसे । तत्तदनुशिक्षणशीलाया दो? दिवसो न संपद्यते।।] तुम जो जो करते थे, जैसे-जैसे बात-चीत करते थे और जैसे-जैसे देखते थे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं शतकम् ९१ उसी का अनुकरण करती हुई नायिका को पूरा दिन भी लम्बा नहीं जान पड़ता ।। ७८ ।। भण्डन्तोअ तणाई सोत्तं दिण्णाइँ जाइँ पहिअस्स । ताइ च्चेअ पहाए अञ्जा आअट्टइ रुअन्ती ॥ ७९ ॥ [ भर्त्सयन्त्या तृणाणि स्वप्तुं दत्तानि यानि पथिकस्य । तान्येव प्रमाते आर्या आकर्षति रुदतो ॥ ] चिड़चिड़ाती हुई नायिका ने रात में पथिक को सोने के लिये जो तृणों का बिछौना दिया था, सबेरे उसे ही रोती हुई हटा रही है ।। ७९ ।। वसणम्मि अणुविग्गा विहवम्मि अगव्वि होन्ति अहिण्णसहावा समेसु विसमेसु भए घोरा । सम्पुरिसा ॥ ८० ॥ [ व्यसनेsद्विग्ना विभवेऽगर्विता भये धीराः । भवन्त्यभिन्न स्वभावाः समेषु विषमेषु सत्पुरुषाः ॥ ] सत्पुरुष दुःख में उद्विग्न नहीं होते, संपक्ति में गर्व नहीं करते, संकट में धीरज रखते हैं और उनका स्वभाव अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में समान रहता है ॥ ८० ॥ अज्ज सहि केण गोसे कं पि मणे वल्लहं भरन्तेण । अम्हं मअणसराहअहिअअव्वण फोडनं गीअं ॥ ८१ ॥ [ अद्य सखि केन प्रातः कामपि मन्ये वल्लभां स्मरता । अस्माकं मदनशराहतहृदयव्रणस्फोटनं गोतम् ॥ ] आज सबेरे किसी विरही ने प्राणप्रिया को स्मृति में ऐसा गीत गाया कि मदन-बाण से आहत मेरे हृदय का घाव ताजा हो गया ॥ ८१ ॥ उट्ठन्तमहारम्भे थणए दट्ठूण मुद्धबहुआए । ओसण्णकवोलाए णीससिअं पढमघरिणोए ॥ ८२ ॥ [ उत्तिष्ठन्महारम्भौ स्तनौ दृष्ट्वा मुग्धवध्वाः । अवसन्नकपोलया निःश्वसितं प्रथमगृहिण्या ॥ ] नववधू के उठते हुये पयोधरों का महान् विस्तार देख कर शुष्क-कपोलों वाली प्रथम पत्नी ने आह भर ली ।। ८२ ।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती गरुअछुआउलिअस्स वि वल्लहकरिणीमुहं भरन्तस्स । सरसो मुणालकवलो गअस्स हत्थे च्चिअ मिलाणो ॥ ८३ ।। [ गुरुकक्षुधाकुलितस्यापि वल्लभकरिणीमुखं स्मरत। सरसो मृणालकवलो गजस्य हस्त एव म्लानः ॥] आहार के लिये तोड़ा हुआ मृणाल का मधुर ग्रास, भूख से व्यथित होने पर भी प्राणवल्लभा करिणी के मुख की स्मृति में लीन गजराज के शुण्ड पर हो मुरझा गया ॥ ८३ ।। पसिअ पिए का कुविआ सुअणु तुमं परअणम्मि को कोवो। को हु परो नाथ तुमं कोस अपुण्णाण मे सत्ती॥ ८४ ॥ [प्रसीद प्रिये का कुपिता सुतनु त्वं परजने कः कोपः। कः खलु परो नाथ त्वं किमित्यपुण्यानां मे शक्तिः ॥] प्रिये ! प्रसन्न हो जाओ । कुपित कौन है ? तुम । पराये पुरुष पर कैसा कोप ? पराया कौन है ? तुम्हीं । क्यों ? मेरे पापों का है ।। ८४ ॥ एहिसि तुमं त्ति णिमिसं व जग्गिअं जामिणीअ पढमद्धं । सेसं संतावपरव्वसाइ वरिसं व वोलोणं ॥ ८५ ॥ [एष्यसि त्वमिति निमिषमिव जागरितं यामिन्याः प्रथमार्धम् । शेषं सन्तापपरवशाया वर्षमिव व्यतिक्रान्तम् ॥ ] "तुम आते होगे" इस आशा से आधी रात तो जागते-जागते निमेष के समान कट गई, किन्तु संताप से परवश होकर मैंने शेष रात को एक वर्ष के समान व्यतीत किया ॥ ८५ ॥ अवलम्बह मा सङ्कह ण इमा गहलङ्घिआ परिभमइ । अत्थक्कगज्जिउब्भन्तहित्थहिमआ पहिअजाआ ॥ ८६ ॥ [ अवलम्बध्वं मा शङ्कध्वं नेयं ग्रहलङ्घिता परिभ्रमति । आकस्मिकगजितोद्धान्तत्रस्तहृदया पथिकजाया ॥] पथिक की प्रिया भाग रही है । रोको, रोको, डरो मत उसे भूत नहीं लगा है। मेघों के आकस्मिक गर्जन से उसका हृदय त्रस्त एवं उद्भ्रान्त हो गया . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्थ शतकम् केसररअविच्छड्डे मअरन्दो होइ जेत्तिओ कमले। जइ भमर तेन्तिओ अण्णहि पि ता सोहसि भमन्तो ॥ ८७ ॥ [ केसररजःसमूहे मकरन्दो भवति यावान्कमले । यदि भ्रमर तावानन्यत्रापि तदा शोभसे भ्रमन् ।। ] हे भ्रमर ! कमल के किंजल्क के धूल समूह में जितना मकरकन्द रहता है, यदि उतना अन्यत्र भी प्राप्त हो, तभी तुम्हारे मँडराने की शोभा है ।। ८७ ॥ पेच्छन्ति अणिमिसच्छा पहिआ हलिअस्स पिट्ठपण्ड्डरिअं । धूअं दुद्धसमुहुत्तरन्तलच्छि विअ सअह्ना ॥८८॥ [प्रेक्षन्तेऽनिमिषाक्षाः पथिका हलिकस्य पिष्टपाण्डुरिताम् । दुहितरं दुग्धसमुद्रोत्तरलक्ष्मोमिव सतृष्णाः ॥] गेहूँ पीसते समय उड़े हये आटे की धूल से जिसका वर्ण पाण्डु हो गया था, हलवाहे की उस पुत्री को क्षीर-सिन्धु से निकली हुई लक्ष्मी के समान देखते हुये सतृष्ण पथिक पलकें ही नहीं गिराते ।। ८८ ॥ कस्स भरिसित्ति भणिए को मे अत्थि त्ति जम्पमाणाए। उविग्गरोइरीए अम्हे वि रुआविआ तीए ॥९॥ [कस्य स्मरसीति भणिते को मेऽस्तोति जल्पमानया । अद्विग्नरोदनशीलया वयमपि रोदितास्तया ।। ] 'किसका स्मरण करती हो ।' यह पूछने पर "मेरा कौन है ?" यह कह कर उद्वेग-पूर्वक रोने वाली तरुणी ने हमें भी रुला दिया ।। ८९ ॥ पाअपडिअं अहव्वे कि दाणिं ण उट्ठवेसि भत्तारं । एवं विअ अवसाणं दूरं पि गअस्स पेम्मस्स ॥ ९० ॥ [पादपतितमभव्ये किमिदानी नोत्थापयसि भर्तारम् । एतदेवावसानं दूरमपि गतस्य प्रेम्णः ॥] अरी अभागिन ! चरणों पर पड़े हुये पति को क्यों नहीं उठातो? वहुत बढ़े हुये प्रेम का भी चरम उत्कर्ष यही है ॥ ९० ॥ तडविणिहिअग्गहत्था वारितरङ्गेहिँ घोलिरणिअम्बा। सालूरी पडिबिम्बे पुरिसाअन्तिव्व पडिहाइ ॥ ९१ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "९४ गाथासप्तशती [तटविनिहिताग्रहस्ता वारितरङ्गैघूर्णनशीलनितम्बा । शालूरी प्रतिबिम्बे पुरुषायमाणेव प्रतिभाति ॥ ] जिसने अपने अगले पैर तट से संलग्न कर लिये हैं तथा जल की तरंगों से जिसका नितम्ब कंपित हो रहा है, वह मेंढकी मानों अपने प्रतिबिम्ब पर पुरुषामित (विपरीतरति ) कर रही है ।। ९१ ॥ सिक्करिअमणिममुहवेविआई धुअत्थसिजिअव्वाइं । सिक्खन्तु वोडहोओ कुसुम्भ तुम्ह प्यसाएण ॥ ९२ ॥ [ सोत्कृतमणितमुखवेपितानि धुतहस्तशिञ्जितव्यानि । शिक्षन्तु कुमार्यः कुसुम्भ युष्मत्प्रसादेन ।।] हे कुसुम्भ ! तुम्हारी कृपा से कुमारियाँ, सी-सी करना, मणित. मुंह मोड़ना, हाथ झिड़कना और भूषणों की झनकार की शिक्षा पा लें ॥ ९२ ॥ जेत्तिअमेत्ता रच्छा णिअम्ब कह तेत्तिओ ण जाओ सि । जं छिप्पइ गुरुअणलज्जिओ सरन्तो बि सो सुहओ ।। ९३ ॥ [यावात्प्रमाणा रथ्या नितम्ब कथं तावन्न जातोऽसि । येन स्पृश्यते गुरुजनलज्जापसृतोऽपि स सुभगः ॥] जितनो बड़ी यह गली है, नितम्ब ! तुम उतने बड़े क्यों न हुये ? जिससे गुरुजनों से लज्जित होकर लौटते हुये भी प्राणेश्वर का स्पर्श तुम्हें प्राप्त हो जाता ! ॥९३ ॥ मरगअसूईविद्धं व मोत्ति पिअइ आअअग्गीओ। मोरो पाउसआले तणग्गलग्गं उअअबिन्दु॥ ९४ ॥ [ मरकतसूचिविद्धमिव मौक्तिकं पिबत्यायतग्रोवः । मयूरः प्रावृटकाले तृणाग्रलग्नमुदकबिन्दुम् ॥ ] पावस में मरकत की सूई से बिधे मोतियों के समान तृणों की नोकों पर लटकते हुये जलविन्दुओं को, मयूर अपनी ग्रीवा उठा कर पी रहा है । ९४ ॥ अज्जाइ णोलकञ्चुअभरिउव्वरिअं विहाइ थणवढें । जलभरिअजलहरन्तरदरुग्गअं चन्दबिम्ब व्व ॥ ९५ ॥ [ आर्याया नीलकञ्चुकभृतोर्वरितं विभाति स्तनपृष्ठम् । जलभृतजलधरान्तरदरोद्गतं चन्द्रबिम्बमिव ॥] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं शतकम् नीली कंचुकी में न समाता हुआ आर्या का स्तन-पृष्ठ यों प्रतीत होता है,, जैसे जल-पूर्ण मेघों के अन्तराल से झाँकता हुआ चन्द्र-बिम्ब ।। ९५ ॥ राअविरुद्धं व कहं पहिओ पहिअस्स साहइ ससळू। जत्तो अम्बाण दलं तत्तो दरणिग्गअं कि पि ॥ ९६ ॥ [ राजविरुद्धामपि कथां पथिकः पथिकस्य कथयति सशङ्कम् । यत आम्राणां दलं तत ईषन्निर्गतं किमपि ।। ] वह पथिक अन्य पथिकों से राज-विरुद्ध वाणी के समान यह कहते डर रहा है कि आमों के पल्लवों के ऊपर से कोई चीज़ कुछ निकल रही है । ९६॥ घण्णा ता महिलाओ जा दइअं सिविणए वि पेच्छन्ति । णिद्द विअ तेण विणा ण एइ का पेच्छए सिविणं ॥ ९७ ॥ [ धन्यास्ता महिला या दयितं स्वप्नेऽपि प्रेक्षन्ते । निद्रैव तेन विना नैति का प्रेक्षते स्वप्नम् ।। ] वे महिलायें धन्य हैं, जो स्वप्न में भी प्रिय के दर्शन पा जाती हैं । यहाँ तो उनके बिना नींद ही नहीं आती स्वप्न कौन देखता है ? ॥ ९७ ॥ परिरकणअकुण्डत्थलमणहरेसु सवणेसु । अण्णअसमअवसेण अ पहिरज्जइ तालवेण्टजुअं ॥ ९८ ॥ [ परिरब्धकनककुण्डलगण्डस्थलमनोहरयोः श्रवणयोः । अन्यसमयवशेन च परिध्रियते तालवृन्तयुगम् ।। ] जिनमें लटकते हुए स्वर्ण-कुण्डल कपोलों का चुम्बन करते रहते हैं, समय बदल जाने पर सुन्दरियाँ अपने उन्हीं मनोहर कानों में दो ताल-पत्र ही पहनती हैं ॥ ९८ ॥ मज्झलपत्थिअस्स वि गिम्हे पहिअस्स हरइ संतावं । हिअअट्ठिअजाआमुहअङ्कजीलाजलप्पवहो ॥९९ ॥ [ मध्याह्नपस्थितस्यापि ग्रीष्मे पथिकस्य हरति संतापं । हृदयस्थितजायामुखमृगाङ्कज्योत्स्नाजलप्रवाहः ॥] हृदय में प्रतिबिंबित पत्नी का मुखचन्द्र अपनी ज्योत्स्ना की अमृत-धारा से ग्रीष्म की दोपहरी में यात्रा करते हुए पथिक का संताप दूर कर देता है ॥ ९९ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती भण को ण रुस्सइ जणो पस्थिज्जन्तो अएसकालम्मि । रतिवाअडा रुअन्तं पिअं वि पुत्तं सवइ माआ ॥१०॥ - [भण को न रुष्यति जनः प्रार्थ्यमानोऽदेशकाले।। रतिव्यापृता रुदन्तं प्रियमपि पुत्रं शपते माता ॥] रति में व्याप्त माता अपने रोते प्रिय पुत्र को भी शाप देती है, देश और काल को पहचाने बिना जो प्रार्थना करता है, उस पर कौन कुपित नहीं होता ॥१०॥ एत्थं चउत्थं विरमइ गाहाण स सहावरमणिज्जं। ५ सोऊण जंण लग्गइ हिअए महुरत्तणेण अमिअंपि ॥ १०१॥ [अत्र चतुर्थं विरमति गाथानां शतं स्वभावरमणीयम् ।। श्रुत्वा यन्न लगति हृदये मधुरत्वेनामृतमपि ॥] यह स्वभाव से रमणीय गाथाओं का चतुर्थ शतक समाप्त हो रहा है, जिसे सुनकर अमृत का माधुर्य भी हृदय को फोका लगेगा ॥ १०१ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् उज्झसि डज्झ कट्टसि कट्टसु अह फुडसि हिअअ ता फुडसु । तह वि परिसेसिओ चिचअ सो हु मए गलि असबभावो ॥ १ ॥ [ दह्यसे दह्यस्व क्वथ्य से क्वथ्यस्व अथ स्फुटसि हृदय तत्स्फुट । तथापि परिशेषित एव सः खलु मया गलितसद्भावः ॥ ] हे हृदय ! जल रहे हो, जलो, खौल रहे हो, खौलो और फट रहे हो तो फट जाओ, मैंने तो अब उसके स्नेह शून्य प्रेम को समाप्त ही कर डाला है ॥ १ ॥ दट्ठण रुन्दतुण्डग्गणिग्गअं णिअसुअस्स दाढग्गं । भोण्डी विणावि कज्जेण गामणिअडे जवे चरइ || २ || [ दृष्ट्वा विशालतुण्डाग्रनिर्गतं निजसुतस्य दंष्ट्राग्रम् । सूकरी विनापि कार्येण ग्रामनिकटे यवांश्चरति ॥ ] अपने पुत्र के लम्बे मुख से निकली हुई पैनी दाढ़ देखकर वह शूकरी कोई काम न होने पर भी गाँव के पास जो चर रही हैं ॥ २ ॥ साअरं हेलाकर ग्गअद्विअजलरिक्कं पआसन्तो । जअइ अणिग्गअवडवग्गिभरिअगगणो गणाहिवई ॥ ३ ॥ [ हेलाकराग्राकृष्टजलरिक्तं जयत्यनिग्रहवडवाग्निभृतगगनो सागरं प्रकाशयन् । गणाधिपतिः ॥ ] जिन्होंने खेल हो खेल में अपने शुण्ड से खींचकर सागर की सम्पूर्ण जलराशि पो लो और शेष बची हुई ( अनिर्गत ) वाडव-ज्वाला से आकाश को व्याप्त कर दिया है, उन भगवान् गणेश की जय हो ॥ ३ ॥ एएण चिचअ कंकेल्लि तुज्झ तं णत्थि जं ण पज्जतं । उवमिज्जइ जं तुह पल्लवेण वरकामिणीहत्थो ॥ ४ ॥ [ एतेनैव कङ्केल्ले तव तन्नास्ति यन्न पर्याप्तम् । उपमीयते यत्तव पल्लवेन वरकामिनीहस्तः ॥ ] हे अशोक ! सुन्दरी महिलाओं के पाणिपद्म से तुम्हारी उपमा दी जाती है, यह क्या कम है ? ॥ ४ ॥ ७ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती रसिअ विअट्ट विलासिअ समअण्णअ सच्चअं असोओ सि । वरजुअइचलणकमलाहओ वि जं विअससि सहं ॥ ५ ॥ [ रसिक विदग्ध विलासिन्समयज्ञ सत्यमशोकोऽसि । वरयुवतिचरणकमला हतोऽपि यद्विकससि सतृष्णम् ॥ ] ९८ * हे रसिक ! विदग्ध ! विलासी एवं समयज्ञ अशोक तुम सचमुच अशोक ही हो क्योंकि तरुणियों के चरणाम्बुज से आहत होकर भी प्रेम से पुष्पित हो जाते हो ॥ ५ ॥ वलिणो बाआबन्धे चोज्जं णिउअत्तणं च पअडन्तो । वामणरूवो हरो सुरसत्थक आणन्दो [ बलेर्वाचाबन्धे आश्चयं निपुणत्वं च प्रकटयन् । सुरसार्थकृतानन्दो वामनरूपो हरिर्जयति ॥ ] जअइ ॥ ६ ॥ राजा बलि को वाग्बद्ध करते समय विस्मय और निपुणता प्रकट करते हुए देवगणों को आनन्द प्रदान करने वाले वामन रूपधारी भगवान् की जय हो ॥ ६ ॥ विज्जाविज्जइ जलणो गहवइघ् आइ वित्थअसिहो वि । अणुमरणघणालिङ्गणपिअअमसुह सिजि रङ्गीए [ निर्वाप्यते ज्वलनो गृहपतिदुहित्रा विस्तृतशिखोऽपि । अनुमरणघनालिङ्गनप्रियतमसुखस्वेदशीताजया #1] ॥७॥ सती होने के लिए प्रिय के प्रगाढ़ आलिंगन के सुख से जो प्रस्वेद में डूब गई थी, भद्र गृहस्थ की उस पुत्री ने धधकती ज्वाला को भी शान्त कर दिया ॥ ७ ॥ जारमसाणसमुब्भवभूइसुहष्फंस सिञ्जिरङ्गीए ण समप्पइ णवकावालिआइ उद्दूलणारम्भो ॥ ८ ॥ [ जारश्मशानसमुद्भवभूतिसुखस्पर्शस्वेदशोलाङ्गयाः । न समाप्यते नवकापालिक्या उद्दूलनारम्भः ॥ ] जार की चिता की धूल के सुखद स्पर्श से स्वेदार्द्र होकर यह नई कापालिको अपने अंग में भस्म लगाना नहीं बन्द करती ॥ ८ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् एक्को पण्हुअइ थणो बीओ पुलएइ णहमुहालिहिओ। पुत्तस्स पिअअमस्स अ मज्झणिसण्णाएँ घरणीए ॥ ९ ॥ [एक: प्रस्नोति स्तनो द्वितीयः पुलकितो भवति नखमुखालिखितः। पुत्रस्य प्रियतमस्य च मध्यनिषण्णया गृहिण्याः ॥] पुत्र और पति के मध्य में बैठी हुई गृहिणी के एक स्तन से दूध की धार चूती है और दूसरा नख-पंक्ति से भूषित होकर रोमांचित हो गया है ॥ ९॥ एत्ताइच्चिअ मोहं जणेइ बालत्तणे वि वहन्ती। गामणिधूआ विसकन्दलिव्व वड्ढीऑ काहिह अणत्थं ॥ १० ॥ [एतावत्येव मोहं जनयति बालत्वेऽपि वर्तमाना। ग्रामणोदुहिता विषकन्दलीव वर्धिता करिष्यत्यनर्थम् ॥ ] यह गाँव के नायक की पुत्री अभी छोटी होने पर भी दर्शकों का चित्त चुरा लेती है, बड़ी होने पर तो विषलो बूटी के समान अनर्थ ही करेगी ॥ १० ॥ अपहुप्पन्तं महिमण्डलम्मि गहसंठिअं चिरं हरिणो । तारापुष्फप्पअरञ्चिों व तइअं परं णमह ॥ ११ ॥ [अप्रभवन्महीमण्डले नःभसंस्थितः चिरं हरेः।। तारापुष्पप्रकराञ्चितमिव तृतीयं पदं नमत ॥] भू-मण्डल में न समा करके आकाश में स्थित होने पर मानों तारा रूपी पुष्प-पुंज से पूरित भगवान् वामन के तृतीय चरण को प्रणाम कीजिए ॥ ११ ॥ सुप्पउ तइओ वि गओ जामोत्ति सहीओं कोस मं भणह । सेहालिआणं गन्धो ण देइ सोत्तुं सुअह तुम्हे ॥ १२ ॥ [ सुप्यतां तृतोयोऽपि गतो याम इति सख्यः किमिति मां भणथ । शेफालिकानां गन्धो न ददाति स्वप्नु स्वपित यूयम् ॥] "सो जाओ, रात्रि का तीसरा पहर भी बीत गया" मेरी सखी! तुम मुझसे यह कैसे कह रही हो? तुम्हीं सो जाओ, शेफालिका को गन्ध मुझे सोने नहीं देती ॥१२॥ कह सो ण संभरिज्जइ जो मे तह संठिआई अङ्गाई । णिवत्तिए वि सुरए णिज्झाअइ सुरअरसिओव्व ॥ १३।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० गाथासप्तशती [ कथं स न संस्मर्यंते यो मम तथासंस्थितान्यङ्गानि । निवर्ततेऽपि सुरते निध्यायति सुरतरसिक इव ॥ ] जो रति के समाप्त हो जाने पर भी सुरत रसिक के समान मेरे अंगों को उसी स्थिति में निहारता रहता है, उसे क्यों न याद करूँ ? ।। १३ ॥ सुक्खन्तबहलकद्दम्मधम्मविसूरन्तकमठपाठीणं दिट्ठ अदिट्ठउब्वं कालेण तलं । तडाअस्स ॥ १४ ॥ [ शुष्यद्वहलकर्दमघर्मखिद्यमान कमठपाठोनम् । दृष्टमदृष्टपूर्वं कालेन तलं तडागस्य ।। ] समय के परिवर्तन से जिसका घना पंक सूख जाने पर कछुए और मछलियाँ धूप में छटपटा रही हैं । समय आने पर उस सरोवर का तल जो कभी देखा नहीं गया था वह देख लिया ॥ १४ ॥ चोरिअर असद्धालु मा पुत्ति बभमसु अन्धआरम्मि । अहिअअरं लक्खिज्जसि तमभरिए दीवसीहव्व ॥ १५ ॥ [ चौर्यरतश्रद्धाशीले मा पुत्रि भ्रमान्धकारे । अधिकतरं लक्ष्यसे तमोभृते दीपशिखेव || ] चौर्य - रत में विश्वास रखने वाली पुत्री ! अन्धकार में मत घूमो क्योंकि अन्धकार में तुम दीपशिखा -सी अनायास ही लक्षित हो जाओगी ।। १५ ।। वाहिता पडिवअणं ण देइ रूसेइ एक्कमेक्कस्स । असई कज्जेण विणा पद्दष्पमाणे णईकच्छे ॥ १६ ॥ [ व्याहृता प्रतिवचनं न ददाति रुष्यत्येकैकस्य । असती कार्येण विना प्रदीप्यमाने नदीकच्छे ॥ ] नदी की कछार में आग लगने पर व्यभिचारिणी महिला अकारण ही प्रत्येक व्यक्ति पर रुष्ट हो जाती हैं और पूछने पर उत्तर नहीं देतीं ॥ १६ ॥ आम असइ ह्म ओसर पइव्वए ण तुह मइलिअङ्गोत्तं । कि उण जणस्स जाअव्व चन्दिलं ता ण कामेमो ॥ १७ ॥ [ आम असत्यो वयमपसर पतिव्रते न तव मलिनतं गोत्रम् । किं पुनर्जनस्य जायेव नापितं तावन्न कामयामहे ॥ ] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् १०१ हाँ, अवश्य ही हम कुलटा हैं, पतिव्रते ! तुम यहाँ से चली जाओ, हमने तुम्हारा गोत्र कलंकित नहीं किया है फिर भी साधारण लोगों की स्त्रियों की भाँति किसी नाई से प्रेम नहीं करती ।। १७ ॥ गिद्द लहन्ति कहिअं सुणन्ति खलिअक्खरं ण जम्पन्ति । जाहिँ दिट्ठो सि तुमं ताओ चिचअ सुहअ सुहिआओ ॥ १८ ॥ [ निद्रां लभन्ते कथितं शृण्वन्ति स्खलिताक्षरं न जल्पन्ति । याभिर्न दृष्टोऽसि त्वं ता एवं सुभग सुखिताः ॥ ] जिन्होंने तुम्हें नहीं देखा है, हो सुखी हैं, क्योंकि वे गद्गद कण्ठ से नहीं बोलती कहना सुनती हैं और रात को सो जाती हैं ।। १८ ।। 9 बालअ तुमाइ दिण्णं कण्णे काऊण बोरसंघाडि । लज्जालुइणी वि वहू घरं गआ गामरच्छाए ॥ १९ ॥ [ बालक त्वया दत्तां कर्णे कृत्वा बदरसंघाटीम् । लज्जालुरपि वधूगृहं गता ग्रामरथ्यया ॥ ] पुत्र ! तुमने बेर का सफल-वृन्त उसके कानों में पहना दिया था, इससे लज्जाशील होने पर भी वह वधू गाँव को गली से होकर घर गई ॥ १९ ॥ अह सो विलक्खहिओ मए अहव्त्राएँ अगहिआणुनओ । परवज्जणच्चरीहिं तुह्मेहिँ उवेक्खिओ णेन्तो ॥ २० ॥ [ अथ स विलक्षहृदयो मया अभव्यया अगृहीतानुनयः । परवाद्यनतं नशीलाभिर्युष्माभिरुपेक्षितो निर्यन् ॥ ] जब मैंने उनको अभ्यर्थना की परवाह नहीं को, तो वे मन में लज्जित होकर जाने लगे, उस समय बाजा बजाकर दूसरे को नचाते हुए तुम लोगों ने उनको उपेक्षा की ।॥ २० ॥ दोसन्तो अणसुहो णिव्वुइजणओ करेहिं वि छिवन्तो । अम्भस्थिओ ण लब्भइ चन्दो व्व पिओ कलाणिलओ ॥ २१ ॥ [ दृश्यमानो नयनसुखो निर्वृतिजननः कराभ्यां [ अपि ] स्पृशन् । अभ्यर्थितो न लभ्यते चन्द्र इव प्रियः कलानिलयः ॥ ] देखते ही नयनों को तृप्ति-दायक एवं करों के स्पर्श से आनन्द-मग्न कर देने वाला चन्द्रमा-सा, कलावान् प्रेमी अभ्यर्थना करने पर भी प्राप्त नहीं होता ॥ २१ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ गाथासप्तशती जे णीलब्भमरभरग्गगोछा आसि णइअडुच्छङ्गे । कालेण वञ्जुला पिअअवस्स ते थण्णुआ जाआ ॥ २२ ॥ [ये नीलभ्रमरभरभग्नगुच्छका आसन्नदीतटोत्संगे। कालेन वज़ुलाः प्रियवयस्य ते स्थाणवो जाताः ।। मित्र ! नीले भौंरों के भार से जिनके गुच्छे झुके रहते थे, आज नदो के. किनारे, उन्हीं अशोकों के केवल छुट शेष रह गये हैं ॥ २२ ॥ खणभङ्गुरेण पेम्मेण माउआ दुम्मिअम्ह एत्ताहे। सिविणअणिहिलम्भेण व विट्ठपणद्वेण लोअम्मि ॥ २३ ॥ [क्षणभङ्गुरेण प्रेम्णा मातृध्वसः दूनाः स्म इदानीम् । स्वप्ननिधिलम्भेनेव दृष्टप्रनष्टेन लोके ।।] सखी ! देखते ही लुप्त हो जाने वाली सपने की संपत्ति के समान क्षणभंगुर प्रेम से इस समय हम व्यथित हो चुकी हैं ॥ २३ ।। चावो सहावसरलं विच्छिवइ सरं गुणम्मि वि पडन्तं । वङ्कस्स उज्जुअस्स अ संबन्धो कि चिरं होई ॥ २४ ॥ [ चापः स्वभावसरलं विक्षिपति शरं गुणेऽपि पतन्तम् । वक्रस्य ऋजुकस्य च संबन्धः किं चिरं भवति ।।] गुण का आश्रय लेने वाले स्वभाव से सरल बाण को धनुष दूर फेंक देता है, वक्र और ऋजु का संयोग क्या चिरस्थायी होता है ॥ २४ ॥ पढमं वामणविहिणा पच्छा हु कओ विअम्भमाणेण । थणजुअलेण इमीए महुमहणेण व्व वलिबन्धो ॥ २५ ॥ [प्रथमं वामनविधिना पश्चात्खलु कृतो विजृम्भमाणेन । स्तनयुगलेनैतस्या मधुमथनेनेव बलिबन्धः ।। ] पहले वामन होकर फिर बढ़कर, इसके दोनों स्तनों ने भगवान् विष्णु के समान बलि ( त्रिबली और दैत्य विशेष ) को बाँध लिया है ।। २५ ॥ मालइकुसुमाइँ कुलुश्चिऊण मा जाणि णिव्वुओ सिसिरो। काअव्वा अज्जवि णिग्गुणाण कुन्दाणे वि समिद्धी ॥ २६ ॥ [ मालतीकुसुमानि दग्ध्वा मा जानीहि निर्वृतः शिशिरः । कर्तव्याद्यापि निर्गुणानां कुन्दानामपि समृद्भिः॥] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् १०३ शिशिर, मालती के पुष्पों को जलाकर सन्तुष्ट हो गया है, यह मत समझो, अभी उसे गुणहीन 'कुन्द' को भी समृद्ध करना है ॥ २६ ॥ तुझाण विसेसनिरन्तराण [ सरस ] वणलद्धसोहाणं । कअकज्जाण भडाण व थणाण पडणं वि रमणिज्जं ॥ २७ ॥ [ तुङ्गयोविशेषनिरन्तरयोः । सरस] व्रणलब्धशोभयोः । कृतकार्ययोर्भटयोरिव स्तनयोः पतनमपि रमणीयम् ।। ] व्रणों से सुशोभित उन्नत और परस्पर सटे हुए स्तनों का पतन भी कृतकार्य वीरों की भांति रमणीय होता है ॥ २७ ॥ परिमलणसूहा गरुआ अलद्धविवरा सलक्खणाहरणा। थणआ कव्वालाव व्व कस्स हिअए ण लगन्ति ॥ २८ ॥ [ परिमलनसुखा गुरुका अलब्धविवराः सलक्षणाभरणाः । स्तनकाः काव्यालापा इव कस्य हृदये न लगन्ति ॥] मनन करने पर सुखद, अर्थ गौरव से युक्त, निर्दोष एवं उत्कृष्ट लक्षणों और अलंकारों से मंडित काव्य के आलाप ( चर्चा) के समान मर्दन करने पर सुखद, पीनोन्नत, परस्पर सटे, सुन्दर लक्षणों ( सामुद्रिक ) और आभूषणों से भूषित स्तन किसके हृदय में नहीं लग जाते हैं ॥ २८॥ खिप्पइ हारो थणमण्डलाहि तरुणीअ रमणपरिरम्भे । अच्चिअगुणा वि गुणिनो लहन्ति लहुअत्तणं काले ॥ २९ ॥ .. [क्षिप्यते हारः स्तनमण्डलात्तरुणीभिरमणपरिरम्भे । अर्चितगुणा अपि गुणिनो लभन्ते लघुत्वं कालेन । ] प्रेमी का आलिंगन करते समय तरुणियां अपने पयोधरों पर से हार उतार कर रख देती हैं जिनके गुणों की अर्चना होती है, समय आने पर उन गुणवान व्यक्तियों का भी पराभव हो जाता है ॥ २९ ॥ अण्णो को वि सुहाओ मम्महसिहिणो हला हआसस्स । विज्झाइ णोरसाणं हिअए सरसाण झत्ति पज्जलइ ॥ ३०॥ [अन्यः कोऽपि स्वभावो मन्मथशिखिनो हला हताशस्य । निर्वाति नीरसानां हृदये सरसानां झटिति प्रज्वलति ।।] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती इस निगोड़ी कामाग्नि का कुछ और ही स्वभाव है, वह नीरस पुरुषों के हृदय में बुझ जाती है और सरस पुरुषों के हृदय में अनायास प्रज्ज्वलित हो उठती है ॥ ३० ॥ १०४ तह तस्स माणपरिवढिअस्स चिरपरणअवद्धमूलस्स । मामि पडन्तस्स सुओ सद्दो विण पेम्मरुक्खस्स ॥ ३१ ॥ [ तथा तस्य मानपरिवर्धितस्य चिरप्रणयबद्धमूलस्य । मातुलानि पततः श्रुतः शब्दोऽपि प्रेमवृक्षस्य ॥ ] पुराने प्रणय से, जिसकी जड़ें सुदृढ़ हो चुकी थीं, उस आदर भाव से बढ़े.. हुए प्रेम-वृक्ष के गिरने का शब्द भी नहीं सुनाई पड़ा ।। ३१ ।। पाअपडिओ ण गणिओ पिअं भणन्तो वि अप्पिअं भणिओ । वच्चन्तो वि ण रुद्धो भण कस्स कए कओ माणो ।। ३२ ।। [ पादपतितो न गणितः प्रियं भणन्नप्यप्रियं भणितः । व्रजन्नपि न रुद्धो भण कस्य कृते कृतो मानः ॥ ] जब वे तेरे चरणों पर गिर पड़े तब भी तूने परवाह नहीं की । प्रियवाणी का भी कटु उत्तर देती रही और जाते समय भी नहीं रोका, बता, सखी ! तूने मान ही किसके लिए किया था ।। ३२ । पुसइ खणं धुवइ खणं परफोडइ तक्खणं अआणन्ती । मुद्धबहूथणवट्ट दिण्णं दइएण हरवअं ।। ३३ ।। [ प्रोञ्छति क्षणं क्षालयति क्षणं प्रस्फोटयति तत्क्षणमजानती । मुग्धवधूः स्तनपदे दत्तं दयितेन नखरपदम् ।। ] स्तनों पर अंकित प्रिय के नख चिह्न का क्षण भर पोंछती है, क्षण भर धोती है और क्षण रहस्य न समझ कर मुग्धा उसे भर झाड़ती है ।। ३३ ।। वासरते उण्णअपद्मोहरे जोव्वणे व्व वोलीणे । पढमेक्ककासकुसुमं दीसइ पलिअं व धरणीए ॥ ३४ ॥ [ वर्षाकाले उन्नतपयोधरे यौवन इव व्यतिक्रान्ते । प्रथमैककाश कुसुमं दृश्यते पलितमिव धरण्याः ।। ] उन्नत पयोधरों वाले यौवन के समान उन्नत मेघों वाले वर्षा काल के बीत जाने पर फूली हुई कास पृथ्वी की श्वेत कच - राशि-सी दिखाई पड़ती है ॥ ३४ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् कत्थं गरइबिम्बं कत्थ पणट्ठाओं चन्दताराओ । गअणे वलाअपन्ति कालो होरं व कट्ठेइ ॥ ३५ ॥ [ कुत्र गतं रविविम्बं कुत्र प्रणष्टाश्चन्द्रतारकाः । गगने वलाकापंक्ति कालो होरामिवाकर्षति ॥ ] सूर्य बिम्ब कहाँ गया ? चन्द्र और तारे कहाँ नष्ट हो गये ? मानों यही जानने के लिए काल वकपंक्ति की कठिनी-रेखा खींच रहा है ।। ३५ ।। अविरलपडन्तणवजलधारारज्जुघडिअं पअत्तेण । अपहृत्तो उपखेत्तुं रसइ व मेहो महि उअह ॥ ३६ ॥ [ अविरल पतन्नवजलधारारज्जुघटितां प्रयत्नेन । अप्रभवन्नुत्क्षेप्तु रसतीव मेघो महीं पश्यत ॥ ] देखो, अजस्र गिरती हुई जलधारा की रज्जु में पृथ्वी को बाँधकर मेघ अपनी ओर खींच रहे हैं । जोर लगाने पर भी जब नहीं उठती तभी मानों " चिल्लाने लगते हैं ॥ ३६ ॥ १०५ ओ हिअअ ओहिदिअहं तइआ पडिवज्जिऊण दइअस्स । अत्थेक्काउल वीसम्भघाइ किं तइ समारद्धं ॥ ३७ ॥ [ हे हृदय अवधिदिवसं तदा प्रतिपद्य दयितस्य । अकस्मादाकुल विस्रम्भघातिन् किं त्वया समारब्धम् ।। ] रे विश्वासघाती हृदय ! प्रयाण के समय तो प्रियतम के आगमन की अवधि तुमने स्वीकार कर ली थी, अब सहसा आकुल होकर क्या करना चाहते हो ? ।। ३७ ।। जो विण आणई तस्स वि कहेइ भग्गाइँ तेण वलआइँ । अइउज्जुआ वराई अइ व पिओ से हआसाए ॥ ३८ ॥ [ योऽपि न जानाति तस्यापि कथयति भग्नानि तेन वलयानि । अतिऋजुका वराको अथवा प्रियस्तस्या हताशायाः ॥ ] वह बेचारो बड़ी ही भोली है, या उसका प्रेमी ही वैसा है, क्योंकि जो नहीं जानता है, उससे भी कहती है कि उन्होंने मेरा कंकण तोड़ दिया ॥ ३८ ॥ सामाइ गरुअजोव्वणविसेसभरिए कबोलमूलम्मि । पिज्जइ अहोमुहेण व कण्णवअंसेण लावण्णं ॥ ३९ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ गाथासप्तशतो [ श्यामाया गुरुक यौवनविशेषभृते कपोलमूले। पोयतेऽधोमुखेनेव कर्णावतंसेन लावण्यम् ।। ] प्रगाढ़ यौवन से उभरे हुए षोडषी बाला के कपोल-मूल पर विलम्बित कर्णाभरण मानों अपना मुख नीचे कर सौन्दर्य-रस का पान कर रहा है ॥ ३९ ॥ सेउल्लिअसव्वनी गोत्तग्गहणेण तस्स सुहअस्स । दूई पट्टाएन्ती तस्सेअ घरजणं पत्ता ॥ ४० ॥ [स्वेदार्टीकृतसर्वाङ्गी गोत्रग्रहणेन तस्य सुभगस्य । दूती प्रस्थापयन्ती ( संदिशन्ती वा ) तस्यैव गृहाङ्गणं प्राप्ता ॥ वह दूती के द्वारा सन्देश भेज ही रही थी कि किसी ने प्रेमी का नाम ले लिया, जिससे पसीने में तर होकर वह स्वयं ही उसके आँगन में जा पहुँची ॥ ४० ॥ जम्मन्तरे वि चलणं जीएण खु मअण तुज्झ अच्चिस्सं । जइ तं पि तेण बाणेण विज्झसे जेण हं विज्झा ॥४१॥ [ जन्मान्तरेऽपि चरणौ जीवेन खलु मदन तवार्चयिष्यामि । यदि तमपि तेन बाणेन विध्यसि येनाहं विद्धा ॥] हे मदन ! जन्मान्तर में भी तुम्हारे चरणों की प्राणों से अर्चना करूंगी, यदि उसी बाण से उन्हें भी विद्ध करो जिससे मुझे विद्ध किया है ।। ४१ ॥ णिअवक्खारोविअदेहभारणिउणं रसं लिहन्तेण । विअसाविऊण पिज्जइ मालइकलिआ महुअरेण ॥ ४२ ॥ [निजपक्षारोपितदेहभारनिपुणं रसं लभमानेन । विकास्य पीयते मालती कलिका मधुकरेण ॥] निपुणता से पंखों पर अपने शरीर का भार संभालकर मँडराता हुआ भ्रमर मालती को खिला-खिलाकर उसका रस पी रहा है ॥ ४२ ॥ कुरुणाहो विअ पहिओ दूमिज्जइ माहवस्स मिलिएण । भीमेण जहिछिआए दाहिणवाएण छिप्पन्तो ॥ ४३ ॥ [ कुरुनाथ इव पथिको दूयते माधवस्य मिलितेन । भीमेन यथेच्छया दक्षिणवातेन स्पृश्यमानः ।।] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् १०७ __ जैसे कृष्ण से मिलने के कारण भीमसेन के द्वारा बायें पैर से स्पर्श किया जाता हुआ दुर्योधन दुखी हो गया था। उसी प्रकार संयोग से वसन्त ( या वैशाख मास ) के मिलने के कारण भयानक दक्षिण पवन से स्पृष्ट होता हुआ पथिक दुखी होता है ।। ४३ ।। जाव ण कोस विकासं पावइ ईसीस मालईकलिआ। मअरन्दपाणलोहिल्ल भमर तावच्चिअ मलेसि ॥ ४४ ॥ [ यावन्न कोषवित्रासं प्राप्नोतोषन्मालतीकलिका। मकरन्दपानलोभयुक्त भ्रमर तावदेव मर्दयसि ।। ] मकरन्द-पान-लोलुप भ्रमर ! मालतो की कली का कोष अभी किंचित् भो विकसित नहीं हुआ है, तब भी तुम उसका मर्दन कर रहे हो ॥ ४४ ।। अकअण्णुअ तुज्झ कए पाउसराईसु जं मए खुण्णं । उपपेक्खामि अलज्जिर अज्ज वि तं गामचिक्खिल्लं ॥ ४५ ॥ [ अकृतज्ञ तव कृते प्रावृड्रात्रिषु यो मया क्षुण्णः । उत्पश्याम्यलज्जाशील अद्यापि तं ग्रामपङ्कम् ॥] अरे निर्लज्ज ! तेरे लिये वर्षा को अंधेरी रजनी में मैंने जिसका अवगाहन किया था, गांव का वह पंक अब भी मेरी आँखों से ओझल नहीं हुआ है ॥ ४५ ॥ रेहइगलन्तकेसक्खलन्तकुण्डलललन्तहारलआ । अधुप्पइआ विज्जाहरि व्व पुरुसाइरी बाला ॥ ४६ ॥ [ राजते गलत्केशस्खलत्कुण्डलललद्धारलता। अर्धोत्पतिता विद्याधरीव पुरुषायिता बाला ।। जिसकी अलकें बिखर गई हैं, कुण्डल स्खलित हो चुके हैं तथा हार भी चंचल हो गये हैं, वह विपरीत-रत करती हुई महिला उस विद्याधरी-सा प्रतीत होती है जिसका आधा शरीर आकाश में उड़ने के लिए ऊपर उठ चुका है ।। ४६ ॥ जइ भमसि भमसु एमेअ कण्ह सोहग्गगविरागोठे। महिलाणं दोसगुणे विआरक्खमो अज्ज विण होसि ॥ ४७ ॥ [ यदि भ्रमसि भ्रम एवमेव कृष्ण सौभाग्यगवितो गोष्ठे । महिलानां दोषगुणी विचारक्षमोद्यापि न भवसि ॥] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०८ गाथासप्तशती हे कृष्ण ! यदि तुम महिलाओं के गुण-दोष का विवेचन करने में समर्थ हो -सको तो गोष्ठ में जैसे विचरते हो, वैसे ही गर्व से विचरते रहो ॥ ४७ ॥ संझासमए जलपूरिअलि विहडिएक्कवामअरं । गोरीअ कोसपाणुज्जअं व पमहादिवं णमह ॥ ४८ ॥ [ सन्ध्यासमये जलपरिताञ्जलिं विघटितैकवामकरम् । गौर्यै कोषपानोद्यतमिव प्रमथाधिपं नमत ।। ] सन्ध्याकालिक उपासना के समय जल से भरी हुई अंजलि से बांया हाथ 'पृथक् हो जाने पर, जो गौरी के लिए कोष पान सा करते हुए प्रतीत होते हैं, उन अर्द्धनारीश्वर को नमस्कार है ॥४८॥ गामणिणो सव्वासु वि पिआसु अणुमरणगहिअवेसासु । मम्मच्छेएसु वि वल्लहाइ उवरी वलइ दिट्ठी ॥ ४९ ॥ [ग्रामण्याः सर्वास्वपि प्रियास्वनुमरणगृहीतवेषासु। मर्मच्छेदेष्वपि वल्लभाया उपरि वलते दृष्टिः ॥] यद्यपि ग्राम नायक की सभी पत्नियां सहमरण का वस्त्र पहने हुए हैं तथापि उस मर्मान्तक दुःख में भी उसकी दृष्टि प्राणप्रिया पर ही जाकर थम जाती है ।। ४९ ॥ मामिसरसक्खराण वि अस्थि विसेसो पअम्पिअव्वाणं । हमइआण अण्णो अण्णो उवरोहमइआणं ॥ ५० ॥ [ मातुलानि सदृशाक्षराणामप्यस्ति विशेषः प्रजल्लितव्यानाम् । __ स्नेहमयानामन्योन्य उपरोधमयानाम् ॥] __ यद्यपि दोनों के अक्षर सरस होते हैं तथापि स्नेहपूर्ण वाणी की विशेषता कुछ और होती है एवं अनुरोधपूर्ण वाणी की कुछ और ।। ५० ॥ हिअआहिन्तो पसरन्ति जाइँ अण्णाई ताई वअणाई। ओसरसु किं इमेहिं अहरुत्तरमेत्त भणिएहि ॥ ५१ ॥ [ हृदयेभ्यः प्रसरन्ति यान्यन्यानि तानि वचनानि । अपसर किमेभिरधरोत्तरमात्रभणितैः ।। ] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् १०९. हृदय से निकलने वाली वाणी और ही प्रकार को होती है । हटो, अधरों से निकली हुई इन बातों से क्या होगा ? ॥ ५१ ।। कह सा सोहग्गगुणं मए समं बहइ णिग्घिण तुमम्मि । जीअ हरिज्जइ गोत्तं हरिऊण अ दिज्जए मज्झ ॥ ५२॥ [कथं सा सौभाग्यगुणं मया समं वहति निघृण त्वयि । यस्या ह्रियते नाम हृत्वा च दीयते मह्यम् ।। ] निर्मम ! जिसकी संज्ञा छीनकर मुझे प्रदान कर रहे हो, उस अबला का सौभाग्य मेरे समान कैसे हो सकता है ॥ ५२ ॥ सहि साहसु सबभावेण पुच्छिमो कि असेसमहिलाणं । बड्ढन्ति करठिआ बिअ वलआ दइए पउम्मि ॥ ५३ ॥ [ सखि कथम सद्भावेन पृच्छामः किमशेषमहिलानाम् । वर्धन्ते करस्थिता एव वलया दयिते प्रोषिते ।। ] ___ सखि ! मैं तुम्हें विश्वासपात्र समझ कर पूछ रही हूँ, क्या पति के परदेश चले जाने पर सभी महिलाओं के हाथों के कंकण बड़े हो जाते हैं ॥ ५३ ॥ भमइ पलित्तइ जूरइ उक्खिविउ से करं पसारेइ । करिणो पङ्कक्खुत्तस्स गेहणिअलाइआ करिणी ॥ ५४ ॥ [ भ्रमति परितः खिद्यते उत्क्षेप्तु तस्य करं प्रसारयति । करिणः पङ्कनिमग्नस्य स्नेहनिगडिता करिणी ॥ ] गजराज के दलदल में फँस जाने पर प्रेमाविष्ट करिणी उसके चारों ओर चक्कर काट रही है, दुखो हो रही है और निकालने के लिए संड़ फैला रही है ॥ ५४॥ रइकेलिहिअणिसणकरकिसलअअरुद्धणअणखुअलस्स । रुदस्स तइअणअणं पव्वइपरिउम्बिअं जअइ ॥ ५५॥ [ रतिकेलिहृतनिवसनकरकिसलयरुद्ध नयनयुगलस्य । रुद्रस्य तृतीयनयनं पार्वतीपरिचुम्बितं जयति ॥ ] रति-काल में वस्त्रों का अपहरण कर लेने पर पाणि-पल्लव से जिनके दोनों । नेत्र बन्द कर दिये गये थे, उन भगवान् रुद्र के उस तृतीय नेत्र की जय हो जिसे पार्वती ने चूम लिया था ॥ ५५ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० गाथासप्तशती धावइ पुरओ पासेसु भमइ दिट्ठीपहम्मि संठाइ । णवलइकरस्स तुह हलियाउत्त दे पहरसु वराइं ॥ ५६ ॥ _ [धावति पुरतः पार्श्वयोभ्रमति दृष्टिपथेसंतिष्ठते । - नवलतिकाकरस्य तव हलिकपुत्र हे प्रहरस्व वराकीम् ।। ] हाथ में नवीन लता की डाली धारण करने पर वह कभी तुम्हारे चारों ओर दौड़ लगाती है और कभी पास आ जाती है, किन्तु आँखों से ओझल नहीं होती। बेटा ! तुम इसे मारो ।। ५६ ।। कारिममाणन्दवडं भामिजतं बहू सहिआहिं। १ पेच्छइ कुमरिजारो हासुम्मिस्सेहिं अच्छोहिं ।। ५७ ॥ [ कृत्रिममानन्दपटं भ्राम्यमाणं वध्वा सखीभिः । प्रेक्षते कुमारीजारो हासोन्मिश्राभ्यामक्षिभ्याम् ।। ] बहू का कृत्रिम आनन्द-पट लेकर सखियाँ जब घर-घर घूम रही थी तो विवाह के पूर्व का प्रेमी हंसते हुए नयनों से देख रहा था ॥ ५७ ।। सणि सणि ललिअगुलोअ मअणवडलाअणमिसेण । बन्धेइ धवलवणवट्ट व वणिआहरे तरुणो ॥ ५८ ॥ [शनकैः शनकैललिताङ्गुल्या मदनपटलापनमिषेण । बध्नाति धवलवणपट्टमिव व्रणिताधरे तरुणी॥] मोम का लेप करने के व्याज से वह तरुणी अपनी ललित अंगुलि से मानो खण्डित अधर पर धीरे-धीरे सफेद पट्टी बाँध रही है ॥ ५८ ॥ रइविरमलज्जिआओ अप्पत्तणि सणाओं सहस व्व । ढक्कन्ति पिअअमालिङ्गणेण जहणं कुलवहूओ ॥ ५९ ॥ [ रतिविरामलज्जिता अप्राप्तनिवसनाः सहसैव । आच्छादयन्ति प्रियतमालिङ्गनेन जघनं कुलवध्वः ॥] रति के अन्त में लज्जित वनिताएं वस्त्र न मिलने पर प्रिय के आलिंगन से सहसा अपनी जाँघे ढंक लेती हैं ॥ ५९ ।। पाअडिअं सोहग्गं तम्बाए उअह गोटुमज्झम्मि । दुवसहस्स सिङ्गे अक्खिउडं कण्डअन्तीए ॥ ६० ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं शतकम् [ प्रकटितं सौभाग्यं गवा पश्यत गोष्ठमध्ये | दुष्टवृषभस्य शृङ्गे अक्षिपुटं कण्डूयन्त्या || ] देखो, दुष्ट बैल की सींग से अपनी आँख खुजलाने वाली गाय ने गोष्ठ में अपना सौभाग्य प्रकट कर दिया ॥ ६० ॥ उअ संभमविक्खित्तं रमिअव्वअलेहलाएँ असईए । णवरङ्गअं कुडते धअं व दिण्णं अविणअस्स ॥ ६१ ॥ [ पश्य संभ्रमविक्षिप्तं रन्तव्यकलापट्या असत्या | नवरङ्गकं कुञ्जे ध्वजमिव दत्तमविनयस्य ॥ ] रति लम्पट कुलटा ने रमण के समय उतावली में : झट से उतार कर रख दिया था, वह व्यभिचार की फहरा रही है ॥ ६१ ॥ चतुर दुहने वाले के हाथों का स्पर्श पाकर - उमड़ने लगता है, किन्तु बेटा, दर्शन मात्र से पाओगे ।। ६२ । १११ हत्थ फंसेण जरग्गवी वि पण्हहइ दोह अगुणेण । अवलोअणपण्डुर पुत्तअ पुण्णेहिं पाविहिसि ॥ ६२ ॥ [ हस्तस्पर्शन जरद्वस्यपि प्रस्नोति दोहदगुणेन । अवलोकनप्रस्नवनशोलां पुत्रक पुण्यैः प्राप्स्यसि ॥ ] अपना जो कुसुम्भी वस्त्र पताका के समान कुंज में बूढ़ी गाय के स्तन में भी दूध प्रस्तुत - पयोधरा गाय पुण्य से ही मसिणं चङ्क्रम्मन्ती पए पए कुणइ कीस मुहभङ्गं । जूणं से मेहलिआ जहणगअं छिवइ णहवन्ति ॥ ६३ ॥ | मसृणं चङ्क्रम्यमाणा पदे परे करोति किमिति मुखभङ्गम् । नूनं तस्या मेखलिका जघनगतां स्पृशति नखपंक्तिम् ॥ ] अरी ! वह मन्द गति से चलती हुई मुँह क्यों सिकोड़ रही है ? अवश्य ही : उसकी मेखला जांघों पर अंकित नख-पंक्ति से छू जाती होगी ।। ६३ ।। संवाहणसुहरसतोसिएण देन्तेण तुहकरे लक्खं । चलणेण विक्कमाइत्तचरिअँ अणुसिक्खिअं तिस्सा ॥ ६४ ॥ [ संवाहन सुखरसतोषितेन ददता तव करे लाक्षाम् । चरणेन विक्रमादित्यचरितमनुशिक्षितं तस्याः ॥ ] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ गाथासप्तशतो मर्दन के सुख से सन्तुष्ट होकर, उसके चरणों ने तुम्हारे हाथों को अलक्तक रंजित करते हुए शत्रुबाधक भृत्य को लक्ष मुद्रा प्रदान करने वाले महाराज विक्रमादित्य के चरित का अनुकरण किया है ॥ ६४ ॥ पाअपडणाण मुद्धे रहसबलामोडिचुम्बिअवाणं । दसणमैत्तपसण्णे चुक्कासि सुहाण बहुआणं ॥६५॥ [ पादपतनानां मुग्धे रभसबलात्कारचुम्बितव्यानाम् । दर्शनमात्रप्रसन्ने भ्रष्टासि सुखानां बहुकानाम् ॥] प्रिय को देखते ही मगन हो जाने वाली मुग्धे ! चरणों पर गिरकर मनाना और वेग से बलपूर्वक चुम्बन करना तथा ऐसे ही बहुत से सुखों से तू वंचित रह गई ॥ ६५ ॥ दे सुअणु पसिअ एण्हि पुणो वि सुलहाइं रुसिअन्वाई। एसा मच्छि मअलग्छणुज्जला गलइ छणराई ॥ ६६ ॥ [हे सुतनु प्रसीदेदानीं पुनरपि सुलभानि रोषितव्यानि । एषा मृगाक्षि मृगलाञ्छनोज्ज्वला गलति क्षणरात्रिः।।] तन्वंगी, इस समय प्रसन्न हो जाओ, फिर कभी रूठ लेना । यह चन्द्रोज्ज्वला उत्सव-रजनी क्षीण हो रही है ।। ६६ ।। आवण्णाई कुलाइं दो विअ जाणन्ति उण्णई णेउं । गोरीअ हिअअदइओ अहवा सालाहणणरिन्दो ॥६७ ॥ [ आपन्नानि कुलानि द्वावेव जानीत उन्नति नेतुम । गौर्याहृदयदयितोऽथवा शालिवाहननरेन्द्रः ।। ] आपन्न कुलों (श्लेष द्वारा अपर्णा का कुल) का उद्धार करना दो ही व्यक्ति जानते हैं, या तो गौरी के हृदय वल्लभ अथवा राजा शालिवाहन ।। ६७ ॥ णिक्कण्ड दुरारोहं पुत्तअ मा पाडलि समारुहस्सु । आरूढणिवडिआ के इमीअ ण का हआसाए ॥ ६८ ॥ [निष्काण्डदुरारोहां पुत्रक मा पाटलि समारोह । आरूढ़निपतिताः के अनया न कृता हताशया ॥] पुत्र ! शाखाहीन दुरारोह पाटली (वृक्ष) पर मत चढ़ना, इस पापिन ने चढ़ने पर किसे-किसे नहीं गिराया? ॥ ६८ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् ११३ गामणिघरम्मि अत्ता एक्क विअ पाडला इहग्गामे । बहुपाडलं च सीसं दिअरस्स ण सुन्दरं एवं ॥ ६९ ॥ [ग्रामणिगृहे श्वश्रु एकैव पाटला इह ग्रामे । बहुपाटलं च शीर्ष देवरस्य न सुन्दरमेतत् ॥] __सासु जी ! इस गांव में मुखिया के घर में पाटला का एक ही वृक्ष है, किन्तु देवर का मस्तक अनेक पाटल-पुष्पों से विभूषित हो रहा है यह ठीक नहीं ॥ ६९ ॥ अण्णाण वि होन्ति मुहे पम्हलधवलाई दोहकसणाई। गअणाई सुन्दरीणं तह वि हु दलृ ण जाणन्ति ॥ ७० ॥ [ अन्यासामपि भवन्ति मुखे पक्ष्मलधवलानि दोर्घकृष्णानि । नयनानि सुन्दरीणां तथापि खलु द्रष्टुन जानन्ति ॥] अन्य सुन्दरियों के आनन में भी दीर्घ भौहों वाले शुभ्र और विशाल कजरारे नेत्र विद्यमान है, किन्तु उनमें निहारने को वैसी पटुता कहाँ है ।। ७० ॥ हंसेहि व तु रणजलअसमअभअचलिअविहलवक्खेहि । परिसेसिअपोम्मासेहिं माणसं गम्मइ रिहिं ॥ ७१ ॥ [ हंसैरिव तव रणजलदसमयभयचलितविह्वलपक्षैः । परिशेषितपद्माशेर्मानसं गम्यते रिपुभिः ॥ ] राजन् ! वर्षा ऋतु से भयभीत चंचल और विह्वल पंख वाले हंस जैसे कमलों की आशा त्यागकर मानसरोवर को चले जाते हैं-वैसे ही रण के भय से जिनके सहायक विह्वल एवं अधीर हो चुके हैं तथा जिन्होंने लक्ष्मो की आशा बिल्कुल छोड़ दी है, वे शत्रु तुम्हारे मन के अनुकूल ही चलते हैं ।। ७१ ।। दुग्गअधरम्मि घरिणी रक्खन्ती आउलत्तणं पइण्णो। पुच्छिअदोहलसद्धा पुणो वि उअअं विअ कहेइ ॥ ७२ ॥ [ दुर्गतगृहे गृहिणी रक्षन्ती आकुलत्वं पत्युः।। पृष्टदोहदश्रद्धा पुनरप्युदकमेव कथयति ।।] "तेरी क्या इच्छा है" यह पूछने पर दरिद्र की गभिणी प्रिया, पति को कहीं दुःख न हो, इसलिए केवल जल को याचना करती है ।। ७२ ।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती आअम्बलोअणाणं ओल्लंसुअपाअडोरुजहणाणं । अवरमज्जिरीणं कए ण कामो वह चावं ॥ ७३ ॥ [ आताम्रलोचनानामाद्रशुकप्रकटोरुजघनानाम् । अपराह्नमज्जनशीलानां कृते न कामो वहति चापम् ॥ ] जिनके लोचन आरक्त हो रहे हैं तथा भींगे हुए अंशुक से जिनके उरु और जन दिखलाई पड़ते हैं, दिन ढलने पर स्नान करती हुई उन युवतियों की सहायता के लिए काम अपना धनुष नहीं धारण करता ॥ ७३ ॥ ११४ के उव्वरिआ के इह ण खण्डिआ के ण लुत्तगुरुविहवा । गहराई वेसिणिओ गणणारेहा उव वहन्ति ॥ ७४ ॥ [ के उर्वरिताः के इह न खण्डिताः के न लुप्तगुरुविभवाः । नखराणि वेश्या गणनारेखा इव वहन्ति ॥ ] कौन बचे हैं ? किन व्रतियों का व्रत यहाँ नहीं खण्डित हुआ है ? और किन व्यक्तियों का अक्षय वैभव यहाँ लुप्त नहीं हो गया ? मानों गणिकाएँ इसी की गणना के लिए खींची हुई रेखाओं के समान असंख्य नख-पंक्तियाँ धारण करतो हैं ॥ ७४ ॥ विरहेण मन्दरेण व हिअअं दुद्धोअहं व महिऊण । उन्मूलिआइँ अब्बो अहं रअणाइँ व सुहाई ॥ ७५ ॥ [विरहेण मन्दरेणे व हृदयं दुग्धोदधिमिव मथित्वा । उन्मूलितानि कष्टमस्माकं रत्नानीव सुखानि ॥ ] हाय ! विरह-मन्दर ने हृदय का क्षोर सिन्धु मथ डाला और रत्नों के समान सुखों को निकाल कर बाहर रख दिया है ।। ७५ ।। उज्जुअरए ण तूसइ वक्कम्मि वि आश्रमं विअप्पे | एत्थ अहव्वाएँ मए पिए पिअं कहँ णु काअव्वं ॥ ७६ ॥ { [ ऋजुकरते न तुष्यति वक्रेऽप्यागमं विकल्पयति । अत्र भव्या मया प्रिये प्रियं कथं नु कर्त्तव्यम् ॥ ] वे सीधी-सादी रति से सन्तुष्ट हो नहीं होते के विषय में शंका करते हैं । मैं अत्यन्त अयोग्य हूँ, ॥ ७६ ॥ और वक्र केलि की प्राप्ति उनका प्रिय कैसे करूँ ? Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् ११५ बहुविहविलाससरसिए सुरए महिलाण को उवज्झाओ। सिक्खइ असिक्खिआइँ वि सव्वो गेहाणुबन्धेण ॥ ७७ ॥ [बहुविधविलाससरसिके सुरते महिलानां क उपाध्यायः । शिक्ष्यते अशिक्षितान्यपि सर्वः स्नेहानुबन्धेन ।।] नाना प्रकार के विलासों से जो रसमय हो जाता है, उस सुरत में महिलाओं का कौन शिक्षक हो सकता है ? सभी अज्ञात कलाएँ प्रणय के अनुरोध से सीख ली जाती हैं ॥ ७७ ॥ वण्णवसिए विअत्यसि सच्चं विअ सो तुए ण संभविओ। ण हु होन्ति तम्मि दिढे सुत्थावत्थाई अङ्गाई ॥७८ ॥ [वर्णवशिते विकत्थसे सत्यमेव स त्वया न सम्भावितः । न खलु भवन्ति तस्मिन्दृष्टे स्वस्थावस्थान्यङ्गानि ॥] गुणों का वर्णन सुनकर ही वशीभूत होने वाली ! झूठ बोल रही हो, तुमने उन्हें देखा हो नहीं है । उन्हें देख लेने पर शरीर पर अपना अधिकार नहीं रहता ।। ७८॥ आसण्णविआहदिणे अहिणववहुसङ्गमस्सुअमणस्स । पढमघरिणीअ सुरअं वरस्स हिअए ण संठाइ ॥ ७९ ॥ [ आसन्नविवाहदिने अभिनववधूसङ्गमोत्सुकमनसः । प्रथमगृहिण्याः सुरतं वरस्य हृदये न संतिष्ठते ॥] विवाह-दिवस निकट आते ही नववधू के समागम के लिए उत्सुक युवक के मन से पहली पत्नी की रति-लीला का आनन्द तिरोहित हो जाता है ।। ७९ ।। जइ लोकणिन्दिअं जइ अमङ्गलं जइ विमुक्कमज्जाअं। पुप्फवइदंसणं तह वि देह हिअअस्स णिवाणं ॥ ८० ॥ [ यदि लोकनिन्दितं यद्यमङ्गलं यदि विमुक्तमर्यादम् । पुष्पवतोदर्शनं तथापि ददाति हृदयस्य निर्वाणम् ॥] यद्यपि पुष्पवतो का दर्शन निन्दित, मर्यादा-रहित एवं अमंगलकारक है भी हृदय को तृप्त करता है ।। ८० ॥ जइ ण छिवसि पुष्फवई पुरओ ता कीस वारिओ ठासि छित्तोसि चुलचुलन्तेहिं धाविउण अॅम्ह हत्थेहि Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ गाथासप्तशतो [ यदि न स्पृशसि पुष्पवतीं पुरतस्तत्किमिति वारितस्तिष्ठसि । चुलचुलायमानैर्धावित्वास्माकं स्पृष्टोऽसि हस्तैः ॥ ] यदि पुष्पवती महिला का स्पर्श नहीं करते तो मना करने पर भी क्यों खड़े हो ? मेरे चुलबुलाते हाथों ने पहले ही दौड़कर तुझे छू दिया है ॥ ८१ ॥ उज्जागर अकसाइअगुरुअच्छी मोहमण्डणविलक्खा | लज्जइ लज्जालुइणी सा सुहअ सहीहिं धि वराई ॥ ८२ ॥ [ उज्जागरककषायित गुरुकाक्षी मोघमण्डन विलक्षा । लज्जते लज्जाशीला सा सुभग सखीभ्योऽपि वराको ।। ] जिसके विशाल नेत्र जागरण से कसैले हो गये हैं तथा जो अपने निष्फलशृंगार से लज्जित हो गई है वह लज्जावती तरुणी सखियों से भी लजाती है ॥ ८२ ॥ ण वि तह अइ गरुण वि तम्मइ हिअए भरेण गब्भस्स । जह विपरीअणिहुअणं पिअम्मि सोहा अपावन्ती ॥८३॥ [ नापि तथातिगुरुकेणाणि ताम्यति हृदये भरेण गर्भस्य । यथा विपरीतनिधुवनं प्रिये स्नुषा अप्राप्नुवतो ॥ ] वह तरुणवधू, गर्भ के गुरुभार से भी प्रिय पर उतना खिन्न नहीं होती जितना विपरीत रति के अभाव से ॥ ८३ ॥ अगणिअजणाववाअं अवहत्थिअगुरुवणं वराईए । तुह गलिअदंसणाए तीए वलिउण चिरं रुष्णं ॥ ८४ ॥ [ अगणितजनापवादमपहस्तितगुरुजनं वराक्या । तव गलितदर्शनया तया वलित्वा चिरं रुदितम् ॥ ] वह तुम्हारे दर्शन से वंचित होते ही लोकनिन्दा और गुरुजनों की भी परवाह न कर, मुँह फिराये देर तक रोती रही ।। ८४॥ हिअअं हिअए णिहिअं चित्तालिहिअ व तुह मुहे दिट्ठी । आलिङ्गणरहिआई नवरं खिज्जन्ति अङ्गाई ॥ ८५ ॥ [ हृदयं हृदये निहितं चित्रालिखितेव तव मुखे दृष्टिः । आलिङ्गनरहितानि केवलं क्षीयन्तेऽङ्गानि ॥ ] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतकम् ११७ तुम्हारे हृदय में मेरा हृदय निहित है, मेरी दृष्टि तुम्हारे मुख पर चित्रलिखित सी निश्चल है केवल आलिंगन से वंचित अंग हैं ॥ ८५ ॥ कृश होते जा रहे अअं विओअतणुई दुसहो विरहाणलो चलं अप्पाहिज्जउ कि सहि जाणसि तं चैव जं [ अहं वियोगतन्वी दुःसहो विरहानलश्चलं अभिधीयतां किं सखि जानासि त्वमेव यद्युक्तम् ॥ ] जीवम् । मैं वियोग से कुश हो गई हूँ, मेरे प्राण चंचल हैं, असह्य विरहानल में जल रही है, मेरी सखी! मैं क्या कहूँ ? जो उचित है वह तुम्हीं जानती हो ॥ ८६ ॥ तुह विरहुज्जागरओ सिविणे वि ण देइ दंसणसुहाई । वाहेण जहालोअणविणोअणं से हअं अण्णावराहकुविओ जहतह कालेण वेसत्तणा वराहे कुविअं कहें तं [ तव विरहोज्जागरकः स्वप्नेऽपि न ददाति दर्शनसुखानि । वाष्पेण यदालोकन विनोदनं तस्या हतं तदपि ॥ ] विरह उसे जगा जगाकर स्वप्न में भी तुम्हारे दर्शन का आनन्द नहीं लेने देता, किसी प्रकार तुम्हें देखकर मनोविनोद कर लेती थी किन्तु अब आँसुओं ने उसे भी समाप्त कर दिया है ।। ८७ ।। जीअं । जुतं ॥ ८६ ॥ [ अन्यापराधकुपितो यथातथा कालेन द्वेष्यत्वापराधे कुपितं कथं तं तं पि ॥ ८७ ॥ गम्मइ पसाअं । पसाइस्सं ॥ ८८ ॥ गच्छति प्रसादम् । प्रसादयिष्यामि ॥ ] अन्य किसी अपराध से कुपित पुरुष कभी न कभी अवश्य प्रसन्न हो जाता है किन्तु जो मुझसे घृणा करता है, उसका कोप भला कैसे शान्त करूँगी ? ॥ ८८ ॥ दीससि विआणि जम्पसि सबभावो सुहअ एत्तिअ वेअ । फालेइऊण हिअअं साहसु को दावए कस्स ॥ ८९ ॥ [ दृश्यसे प्रियाणि जल्पसि सद्भावः सुभग एतावानेव । पाटयित्वा हृदयं कथय को दर्शयति कस्य ॥ ] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ गाथासप्तशती __ हमें दर्शन दे जाते हो, प्यार से बोलते हो, सुभग ! इतना तो स्नेह है । अपना हृदय निकालकर कौन किसे दिखाता है ।। ८९ ॥ उअ लहिउण उत्ताणिआणणा होन्ति के वि सेविसं । रित्ता णमन्ति सुइरं रहट्टघडिअ व कापुरिसा ॥ ९० ॥ [ उदकं लब्ध्वा उत्तानितानना भवन्ति केऽपि सविशेषम् । रिक्ता नमन्ति सु चिरं रहट्ट (अरघट्ट) घटिका इव कापुरुषाः ।।] कापुरुष रिक्त होनेपर रहट की घटिका के समान बहुत ही विनम्र बन जाते है किन्तु रस पा जाने पर मुंह ही फेर लेते हैं । ९० ॥ भग्गपिअसङ्गमं केत्ति व जोह्लाजलं णहसरम्मि । चन्दअरपणालणिज्झरणिवहपडन्तं ण पिढाइ ॥ ९१ ॥ [ भग्नप्रियसङ्गमं कियदिव ज्योत्स्नाजलं नभःसरसि । चन्द्रकरप्रणालनिर्झरनिवहपतन्न निस्तिष्ठति ।। ] इस गगन-सरोवर में प्रियतम के मिलन की आशा तोड़ देने वाला कितना अधिक ज्योत्स्ना-जल भरा हुआ है, जो चन्द्रमा की असंख्य किरणों की नली से भरने के रूप में बहने पर भी नहीं समाप्त होता है ।। ९१ ॥ सुन्दरजुआणजणसंकुले वि तुह दसणं विमग्गन्ती । रण व्व भमइ दिट्ठी वराइआए समुन्विग्गा ॥ ९२ ॥ [सुन्दरयुवजनसङ्कलेऽपि तव दर्शनं विमार्गयन्ती। अरण्य इव भ्रमति दृष्टिर्वराकिकायाः समुद्विग्ना ।।। असंख्य युवकों की भीड़ में भी केवल तुम्हारा मुंह ढूंढ़ने वाली उस तरुणी की आकुल दृष्टि मानों शून्य अरण्य में भटक रही है ।। ९२ ॥ अइकोवणा वि सासू रुआविआ गअवईअ सोलाए । पाअपडणोण्णआए दोसु वि गलिएसु वलएसु ॥ ९३ ॥ [ अतिकोपनापि श्वश्रु रोदिता गतपतिकया स्नुषया। पादपंतनावनतया द्वयोरपि गलितयोवलययोः । ] चरणों की वन्दना के लिए झुकी हुई गतपतिका बहू के दोनों हाथों के कंकण च्युत हो जाने पर अत्यन्त कोपना सास को भी रुलाई आ गई ॥ ९३ ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम शतकम् रोवन्ति व्व अरण्णे दूसहरइकिरणफंस संतत्ता । अइतारझिल्लिविरुएहि पाअवा गिम्हमज्झर्ते ॥ ९४ ॥ - [रुदन्तीवारण्ये दुःसहरविकिरणस्पर्शसंतप्ताः। अतितारझिल्लोविरुतैः पादपा ग्रीष्ममध्याह्न ॥] ग्रीष्म की दोपहरी में . सर्य की असह्य किरणों के स्पर्श से सन्तप्त वृक्ष झिल्ली की तीव्र झनकार के शब्दों में मानों अरण्य रोदन कर रहे हैं ।। ९४ ॥ पढमणिलीणमहुरमहुलोहल्लालिउलबद्धझंकारं । अहिमअरकिरणणिउरम्बचुम्बिदलइ कमलवणं ॥१५॥ [ प्रथमनिलीनमधुरमधुलुब्धालिकुलबद्धझंकारम् ।। अहिमकरकिरणनिकुरम्बचुम्बितं दलति कमलवनम् ॥] .. जिसमें पहले से ही सम्पुटित मधुर मधुलुब्ध मधुकर झंकार कर रहे थे, वह कमल-वन अंशु मालो की किरणों का चुम्बन पाकर विकसित हो रहा गोत्तक्खलणं सोऊण पिअअमे अज्ज तीअ खणदिअहे । वज्झमहिसस्स माल व्व मण्डणं उअह पडिहाइ ॥ ९६ ॥ [गोत्रस्खलनं श्रुत्वा प्रियतमे अद्य तस्याः क्षणदिवसे । वध्यमहिषस्य मालेव मण्डनं पश्यत प्रतिभाति ।।] - देखो, आज पर्व के दिन प्रिय का गोत्र-स्खलन सुनकर उसे अपना सारा श्रृंगार ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे वध्य महिष के गले में पड़ी हुई माला ।। ९६ ।। महमहइ मलअवाओ "अत्ता वारेइ मं घराणेन्ती । अङ्कोल्लपरिमलेण वि जो क्खु मओ सो मओ व्वेअ॥ ९७ ॥ [ महमहायते मलयवातः श्वश्रुर्वारयति मां गृहान्निर्यान्तीम् । अङ्कोटपरिमलेनापि यः खलु मृत स मृतः एव ॥] मलयानिल महमहा रहा है । साप मुझे घर से निकलने नहीं देती । अंकोट की सुगन्ध से भी जो मर गया, उसे मरा ही समझो ।। ९७ ॥ महपेच्छओ पई से सा वि हु सविसेसदसणुम्मइआ। दोवि कअत्था पुहई अमहिलपुरिसं व मण्णन्ति ॥ ९८॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० गाथासप्तशती [ मुखप्रेक्षकः पतिस्तस्याः सापिं खलु सविशेषदर्शनोन्मत्ता | द्वावपि कृतार्थी पृथिवीममहिलापुरुषामिय मन्येते ॥ ] पति सदा उसका मुंह निहारता ही रहता है और वह भी उसे देखते ही उन्मत्त हो जाती है । दोनों कृतार्थं होकर पृथ्वी में अन्य किसी दम्पत्ति की कल्पना ही नहीं करते ॥ ९८ ॥ खेमं कन्तो खेमं जो सो खुज्जम्बओ घरद्दारे । तस्स किल मत्थआओ को वि अणत्यो समुत्पण्णो ।। ९९ ।। [ क्षेमं कुतः क्षेमं योऽसौ कुब्जाम्रको गृहद्वारे । तस्य किलमस्तकाकोऽप्यनर्थः समुत्पन्नः ॥ ] कुशल पूछते हो ? कुशल है कहाँ ? गृह-द्वार पर वह जो छोटा-सा रसाल है, उसके शिखर से कोई अनर्थ प्रकट हुआ है ।। ९९ ।। आउच्छण विच्छाअं जाआइ मुहं णिअच्छमाणेण । पहिएण सोअणिअलाविएण गन्तु विवरण इट्ठ ॥ १०० ॥ [ आपृच्छनविच्छायं जायायाः मुखं निरीक्षमाणेन । पथिकेन शोकनिगडितेन गन्तुमेव नेष्टम् ॥ ] प्रयाण की अनुमति माँगते ही प्रिया का मुरझाया हुआ आनन देखकर शोकमग्न पथिक ने यात्रा स्थगित कर दी ॥ १०० ॥ रसिअजणहिअअदइए कइवच्छल पमुहसुकइणिम्मइए । सत्तसअम्मि समत्तं पञ्चमं गाहासअं एअ ॥ १०१॥ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सल प्रमुख सुकविनिर्मिते । सप्तशत के समाप्तं पञ्चमं गाथाशतकमेतत् ॥ ] जिनमें हाल का प्रमुख स्थान है, उन कवियों द्वारा रची हुई, रसिकों के हृदय को प्रिय सप्तशतक का पंचम शतक समाप्त हो गया ।। १०१ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् सूईवेहे मुसलं विच्छुहमाणेण दड्ढलोएण । एक्कग्गामे वि पिओ समअं अच्छीहि वि ण दिट्ठो॥ १॥ [सूचीवेधे मुसलं निक्षिपता दग्धलोकेन । ___ एकग्रामेऽपि प्रियः समाभ्यामक्षिभ्यामपि न दृष्टः ॥] सूई के छेद से मूसल निकालने वाले दुष्ट लोगों के कारण एक हो गांव में रह कर भी मैंने उन्हें भरपूर नहीं देखा ।। १ ।। अज्जं पि ताव एक्कं मा मं वारेहि पिअसहि रुन्ति । कल्लि उण तम्मि गए जइ ण मआ ता ण रोदिस्सं ॥२॥ [ अद्यापि तावदेकं मा मां वारय प्रियसखि रुदतीम् । कल्ये पुनस्तस्मिन्गते यदि न मृता तदा न रोदिष्यामि ॥] मेरी सखी! आज केवल एक दिन मुझे मत मना करो, जी भर कर रो लेने दो, कल यदि उनके चले जाने पर भी न मर गई तो नहीं रोऊँगी ॥२॥ एहि त्ति वाहरन्तम्मि पिअअमे उअह ओणअमुहीए । विउणावेटिअजहणत्यलाइ लज्जाणअं हसि ॥ ३ ॥ [ एहीति व्याहरति प्रियतमे पश्यतावनतमुख्या। ___ द्विगुणावेष्टितजघनस्थलया लज्जावनतं हसितम् ॥] 'देखो आओ' यह कह कर प्रिय के बुलाने पर नतवदना सुन्दरी ने साड़ी के छोर से अपनी जाँघों को और भी ढकते हुये लजा कर हंस दिया ॥ ३ ॥ मारेसि कंण मुद्धे इमेण पेरन्तरत्तविसमेण । भुलआचावविणिग्गअतिक्खअरद्धच्छिभल्लेण ॥ ४ ॥ [ मारयसि कं न मुग्धे अनेन पर्यन्तरक्तविषमेण । भ्रूलताचापविनिर्गततीक्ष्णतरार्धाक्षिभल्लेन ॥] जिनके कोण लोहित हो रहे हैं, मुग्धे ! उन भ्रू-चाप से छूटे हुये तोखे कटाक्ष-बाणों से तू किसे नहीं मारतो है ॥ ४ ॥ तुह सणे सअह्ला सदं सोऊण जिग्गदा जाई। तइ वोली ताई पाइँ वोढविआ जाआ ॥५॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ गाथासप्तशतो [तव दर्शने सतृष्णा शब्दं श्रुत्वा निर्गता यानि । त्वयि व्यतिक्रान्ते तानि पदानि वोढव्या जाता ॥] तुम्हारा शब्द सुन कर वह दर्शन के लोभ से सहसा जितने डग बाहर निकल आये थे, उन्हें ही तुम्हारे चले जाने पर अन्य लोगों ने आकर अपने स्थान से हटाया ॥ ५॥ ईसामच्छररहिएहि णिविआरेहि मामि अच्छीहिं । एहि जणो जम्मिव णिरिच्छए कहँ ण छिज्जामो ॥६॥ [ईर्ष्यामत्सररहिताभ्यां निर्विकाराभ्यां मातुलान्यक्षिभ्याम् । इदानीं जनो जनमिव निरोक्षते कथं न क्षोयामहे ।। ] मामी ! इस समय प्रेमी मुझे सिर्फ ईर्ष्या और मत्सर-शून्य निर्विकार नेत्रों से यों देखने लगा है, जैसे मैं अपरिचित हूँ दुबली क्यों न हो जाऊँ ? ॥६॥ वाउद्धअसिचअविहाविओरुदिटुंण दन्तमग्गेण । वहुँमाआ तोसिज्जइ णिहाणकलसस्स व मुहेण ॥७॥ [वातोद्धतसिचयविभावितोरुदृष्टेन दन्तमार्गेण । वधूमाता तोष्यते निधानकलशस्येव मुखेन ॥] पवन में फहराते हुये वस्त्र के भीतर से दिखलाई पड़ जाने वाली जाँघ पर अंकित दन्तरेखा को देखते ही बहू की माता यों प्रसन्न हो गई जैसे गड़ी हुई निधि के कलश का मुंह देख लिया हो ॥ ७ ॥ हिअअम्मि वससि ण करेसि मण्णु तह विहअरिएहि । सङ्किज्जसि जुअइसुहावलिअधीरेहि अम्हेहिं ॥ ८॥ [ हृदये वससि न करोषि मन्यु तथापि स्नेहभृताभिः। शङ्कयसे युवतिस्वभावगलितधैर्याभिरस्माभिः॥ ] यद्यपि तुम हृदय में ही निवास करते हो, कभी रुष्ट भी नहीं होते, फिर भी हम प्रेमिकायें-जो अनुराग में रंगी हुई हैं-स्त्री-स्वभाव के कारण अधीर होकर तुम्हारे प्रति सन्देह ही करती रहती हैं ॥ ८॥ अण्णं पि कि पि पाविहिसि मूढ मा तम्म दुक्खमेत्तेण । हिअअ पराहीणजणं मग्गॅन्त तुह केत्ति एअं॥९॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् [ अन्यदपि किमपि प्राप्स्यसि मूढ मा ताम्य दुःखमात्रेण । हृदय पराधीनजनं मृगयमाण तव कियन्मात्रमिदम् ॥ ] अरे अभी कुछ और मिलेगा, मूढ़ ! दुःख मात्र से इतना व्यथित न हो जा । पराधीन जन की कामना करने वाले हृदय ! तेरे लिए यह कौन बड़ी बात है ॥ ९ ॥ वेसोसि जीअ पंसुल अहिअअरं सा हु वल्लभा तुज्झ । इअ जाणिऊण वि मए ण ईसिअ दड् ढपेम्मस्स ॥ १० ॥ [ द्वेष्योऽसि यस्या: पांसुल अधिकतरं सा खलु वल्लभा तव । इति ज्ञात्वापि मथा न ईष्यितं दग्धप्रेम्णः ॥ ] अरे नीच ! जो तुम्हें घृणा करती है, उसो को तुम बहुत प्यार करते हो - यह जान कर भी मैं उस जल-भुने प्रेम से ईर्ष्या नहीं करती ॥ १० ॥ १२३. सा आम सुहअ गुणरूअसोहिरी आम णिग्गुणा अ अहं । भण तीअ जो ण सरिसो कि सो सव्वो जणो मरउ ॥ ११ ॥ [ सा सत्यं सुभग गुणरूपशोभनशीला सत्यं निर्गुणा चाहम् । भण तस्या यो न सदृशः किं स सर्वो जनो म्रियताम् ॥ ] अच्छा वह असीम रूप और गुणों से भूषित है, यह सत्य है कि हम बिल्कुल गुणहीन हैं । किन्तु जो उसकी समानता नहीं कर सकतीं वे सब क्या मर जायँ ? ॥ ११ ॥ सन्तमसन्तं दुक्खं सुहं च जाओ घरस्स जाणन्ति । ता पुत्तअ महिलाओ सेसाओ जरा मनुस्साणं ॥ १२ ॥ [ सदसद्दुःखं सुखं च या गृहस्य जानन्ति । ता पुत्रक महिलाः शेषा जरा मनुष्याणाम् ॥ बेटा ! जो घर का भला और बुरा दुःख और सुख जानती हैं, वे ही तो स्त्रियाँ हैं, शेष तो पुरुषों के लिए जरा रूप हैं ॥ १२ ॥ हसिएहि उवालम्भा अच्चुवचारेहिं रूसिअव्वाई । अंहिं भण्डणाई एसो मग्गो सुमहिलाणं ॥ १३ ॥ [ हसितैरुपालम्भा अत्युपचारेः खेदितव्यानि । अश्रुभिः कलहा एष मार्गः सुमहिलानाम् ॥ ] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गाथासप्तशता अच्छी महिलाओं में हास्य से उपालम्भ देना, बहुत आदर से रोष प्रकट - करना एवं आँसुओं से ही कलह करने की परम्परा है ॥ १३ ॥ उल्लावो मा दिज्जउ लोअविरुद्ध त्ति णाम काऊण । सॅमुहापहिए को उण वेसे वि दिट्ठ ण पाडेइ ॥ १४ ॥ [ उल्लापो मा दीयतां लोकविरुद्ध इति नाम कृत्वा । संमुखापतिते कः पुनर्देष्येऽपि दृष्टि न पातयति ॥ ] " उसने लोक-विरुद्ध होने के कारण वैसा आचरण किया है" ऐसा बकवाद मत करो, सम्मुख आ जाने पर क्या शत्रु पर भी किसी की दृष्टि नहींपड़ती ॥ १४ ॥ साहीणपिअअमो दुग्गओ वि मण्णइ कअत्यमप्पाणं । पिअरहिओ उण पुहवि वि पाविउण दुग्गओ च्चेअ ॥ १५ ॥ [ स्वाधीनप्रियतमो दुर्गतोऽपि मन्यते कृतार्थमात्मानम् । प्रियरहितः पुनः पृथिवीमपि प्राप्य दुर्गंत एव ।। ] जिसकी प्रिया उसके वश में रहती है, वह निर्धन होने पर भी अपने को - कृतार्थ समझता है परन्तु प्रिया हीन व्यक्ति सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य पाकर भी - अकिंचन है ।। १५ ॥ कि रुवसि कि अ सोअसि किं कुप्पसि सुअणु एक्कमेक्कस्स । पेम्मं विसं व विसमं साहस को रुन्धिउं तरइ ॥ १६ ॥ [ किं रोदिषि च शोचसि किं कुप्यसि सुतनु एकैकस्मै । प्रेम विषमिव विषमं कथय को रोद्धुं शक्नोति ॥ ] क्यों रोती हो ? क्यों सोच करती हो ? क्यों प्रत्येक व्यक्ति पर कोप - करती हो ? विष के समान विषम प्रेम को भला कौन रोक सकता है ॥ १६ ॥ ते अ जुआणा ता गाम संपआ तं च अम्ह तारुण्णं । अक्खाणअंव लोओ कहेहि अम्हे वि तं सुणिमो ॥ १७ ॥ [ ते च युवानस्ता ग्रामसंपदस्तच्चास्माकं तारुण्यम् । आख्यानकमिव लोकः कथयति वयमपि तच्छृणुमः ॥ ] वे ही युवक हैं, गाँव का वही वैभव है और वही हमारा यौवन है ! लोग - कहानी की भाँति कहते हैं और हम भी सुनती हैं ॥ १७ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् वाहोहभरिअगण्डाहराएँ भणिअं विलक्खहसिरोए । अज्ज वि किं रूसिज्जइ सवहावत्थं गअं पेम्मं ॥ १८ ॥ [ बाष्यौघभूतगण्डाधरया भणितं विलक्षहसनशीलया । अद्यापि किं रुष्यते शपथास्थां गतं प्रेम ॥ ] जिसके अधर और कपोलों पर आँसू ढुलक रहे थे उस सुन्दरी ने लज्जा से हँसते हुए कहा - " जब तुम्हारा प्रेम शपथ पर ही अवलम्बित रह गया तब भी क्या मैं रूठूंगी ॥ १८ ॥ वण्णअघ अलिप्पमुहिं जो मं अइआअरेण चुम्बन्तो । एहि सो भूसणभूसिअं पि अलसाअइ छिवन्तो ॥ १९ ॥ [ वर्ण घृतलिप्तमुखीं यो मामत्यादरेण चुम्बन् । इदानीं स भूषणभूषितामप्यलसायते स्पृशन् ॥ ] जो हल्दी और घृत से पुते हुए मेरे मुख को अति आदर से चूम लेता था उसे इस समय भूषणभूषित होने पर भी मेरा स्पर्श करने में भी आलस्य लगता है ॥ १९ ॥ णीलपडपाउअङ्गी त्ति मा हु णं परिहरिज्जासु । पट्टसूअं पि णद्धं रअम्मि अवणिज्जइ चे अ ॥ २० ॥ [ नीलपटप्रावृताङ्गोति मा खल्वेनां परिहर । पट्टांशुकमपि नद्धं रतेऽपनीयत एव ॥ ] १२५ इसके अंग नीले वस्त्र से ढके हैं, इसीलिए इसे त्याग मत देना । रति के समय तो धारण किये हुए पट्टांशुक भी उतार कर रख दिये जाते हैं ॥ २० ॥ सच्चं कलहे कलहे सुरआरम्भा पुणो णवा होन्ति । माणो उण माणसिणि गरुओ पेम्मं विणासेइ ॥ २१ ॥ [ सत्यं कलहे - कलहे सुरतारम्भाः पुनर्नवा भवन्ति । मानः पुनर्मनस्विनि गुरुकः प्रेम विनाशयति ॥ ] कलह-कलह में ही सचमुच रति में एक नवीन रस आ जाता है, किन्तु आवश्यकता से अधिक मान तो प्रेम को ही नष्ट कर देता है ।। २१ ॥ माणुम्मत्ताइ मए अकारणं कारणं कुणन्तोए । अहंसणेण पेम्मं विणासिअं पोढवाएण ॥ २२ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ गाथासप्तशती [ मानोन्मत्तया मया अकारणं कारणं कुर्वत्या । अदर्शनेन प्रेम विनाशितं प्रौढवादेन ॥] हाय ? मान से मतवाली होकर मैंने उसे भी रूठने का कारण बनाया जिसे नहीं बनाना चाहिए था और उनकी ओर न देखकर प्रबल विवाद ( कलह ) के द्वारा प्रेम का विनाश कर डाला ॥ २२ ॥ अणुऊलं विअ वोत्तु बहुवल्लह वल्लहे वि वेसे वि । कुविअं अ पसाएऊं सिक्खइ लोओ तुमाहित्तो ॥ २३ ॥ [ अनुकूल वक्तु बहुवल्लभवल्लभेऽपि द्वेष्येऽपि । कुपितं च प्रसादयितु शिक्षते लोको युष्मत्तः ।।] अरे बहबल्लभ ! प्रिय एवं अप्रिय दोनों से मधुर ही भाषण करना और रूठ जाने पर मना लेना, लोग तुमसे ही सीखते हैं ॥ २३ ॥ लज्जा चत्ता सोलं अ खण्डिअं अजसघोसणा दिण्णा । जस्स कएणं पिअसहि सो च्चेअ जणो जणो जाओ ॥ २४ ॥ [लज्जा त्यक्ता शीलं च खण्डितमयशोघोषणा दत्ता। यस्य कृतेन (कृतेमनु) प्रिय सखि स एव जनो जनो जातः॥] जिसके लिए मैंने लज्जा छोड़ी, शील खण्डित किया और अपयश का ढोल पीटा, सखी ? अब उसी ने मुझसे मुंह फेर लिया है ॥ २४ ॥ हसिअं अदिटुदन्तं भमिअमणिक्कन्तदेहलोदेसं । विट्ठमणुक्खित्तमुहं एसो मग्गो कुलवहूर्ण ॥ २५ ॥ [ हसितमदृष्टदन्तं भ्रमितमनिष्क्रान्तदेहलोदेशम् । दृष्टमनुत्क्षिप्तमुखमेष मार्गः कुलवधूनाम् ।।] कुलीन बहुओं की यही परिपाटी है कि वे हँसती हैं तो दाँत नहीं दिखाई पड़ते, चलती हैं तो देहलो के बाहर नहीं जातों और देखती हैं तो मुंह ऊपर नहीं करतीं ॥ २५ ॥ धूलिमइलो वि पङ्कङ्किओ वि तणरइअदेहभरणो वि । तह वि तइन्दो गरुअत्तणेण ढक्कं समुव्वहइ ॥ २६ ॥ [धूलिमलिनोऽपि पङ्काङ्कितोऽपि तृणरचितदेहभरणोऽपि । तथापि गजेन्द्रो गुरुकत्वेन ढक्कां समुद्वहति ।। ] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि गजेन्द्र का शरीर धूलि से उसकी जीविका तृणों से ही चलती है । से यश की दुन्दुभी बजा देता है ॥ २६ ॥ षष्ठं शतकम् १२७ मलिन एवं पंक से लिप्त रहता है । फिर भी जहाँ जाता है, अपनी गुरुता ( अथवा युद्ध में दुन्दुभी ढोता है | ) करमरि कीस ण गम्मइ को गव्वो जेण मसिणगमणासि । अद्दिदन्तहसिरीअ जम्पिअं चोर जाणिहिसि ॥ २७ ॥ [ बन्दि किमिति न गम्यते को गर्यो येन मसृणगमनासि । अदृष्टदन्त हसनशीलया जल्पितं चोर ज्ञास्यसि ॥ ] बन्दिनी ! चलती क्यों नहीं ? किस गर्व से तेरी गति मन्द हो गई ? सुन्दरी बिना दांत दिखाये हँसकर कहा - " चोर ! अभी जान लोगे ॥ २७ ॥ थोरंसुएहि रुष्णं सवत्तिवग्गेण पुप्फवइआए । भु असिहरं पणो पेछिऊण सिरलग्गतुप्पलिअं ॥ २८ ॥ [ स्थूलाश्रुभी रुदितं सपत्नीवर्गेण पुष्पवत्याः । भुजशिखरं पपुः प्रेक्ष्य शिरोलग्नवर्णघृतलिप्तम् ॥ ] पति के कन्धों को शिर पर लगे हल्दी और धूल से लिप्त देखकर पुष्पवती नायिका की सपत्नियाँ बड़े-बड़े आंसू गिरा कर रोने लगीं ॥ २८ ॥ लोओ जूरह जूरउ वणिज्जं होउ होउ तं णाम । एहि णिमज्जसु पासे पुप्फबइ ण एइ मे विद्दा ॥ २९ ॥ [ लोकः खिद्यते खिद्यतु वचनीयं भवति भवतु तन्नाम । एहि निमज्ज पार्श्वे पुष्पवति नैति मे निद्रा ॥ ] लोग दुखी होंगे, होने दो ! निन्दा होगी, होने दो ! पुष्पवती प्रिये ! मेरे निकट सो जाओ ! मुझे नींद नहीं आ रही है ॥ २९ ॥ जं जं पुलमि दिसं पुरओ लिहिअ व्व दोससे तत्तो । तुह पडिमा पडिवाड वहइ सअलं दिसाअक्कं ॥ ३० ॥ [ यां यां प्रलोकयामि दिशं पुरतो लिखित एव दृश्यसे तत्र । तव प्रतिमापरिपाटीं वहतीव सकलं दिशाचक्रम ॥ ] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ गाथासप्तशतो जिधर देखतो हैं उधर ही तुम सामने चित्रित से दिखाई पड़ते हो | जैसे समस्त दिशाएं तुम्हारा चित्र फलक ही धारण करती हों ॥ ३० ॥ ओसरइ धुणइ साहं खोक्खामुहलो पुणो समुल्लिहइ । जम्बूफलं ण गेल्इ भमरो त्ति कई पढमडक्को ॥ ३१ ॥ [ अपसरति धुनोति शाखा खोक्खामुखरः पुनः समुल्लिखति । जम्बूफलं न गृह्णाति भ्रमर इति कपिः प्रथमदष्टः ॥] पहली बार ही जिसे भंवरे ने काट खाया है वह बन्दर हट जाता है, डाली हिलाने लगता है, "खोक्खो" करता है और नखों से वहीं डाली कुरेदने लगता है किन्तु जामुन का फल भंवरा समझ कर नहीं तोड़ता ॥ ३१ ॥ ण छिवइ हत्येण कई कण्डूइभएण पत्तलणिउज्जे । दरलॅम्बिअगोच्छकइकच्छुसच्छहं वाणरीहत्थं ॥ ३२ ॥ [न स्पृशति हस्तेन कपिः कण्डतिभयेन पत्रलनिकुञ्ज । ईषल्लम्बितगुच्छकपिकच्छुसदृशं वानरोहस्तम् ।।] सघन पत्तों से आच्छादित निकुंज में बैठा बानर किंचित लटकते हुए गुच्छों वाली केंांच की भांति वानरी का हाथ खुजली के भय से नहीं पड़ता ॥ ३२ ॥ सरसा वि सूसइ च्चिअ जाणइ दुक्खाइँ मुद्धहिअआ वि । रत्ता वि पण्डुर च्चिअ जाआ वरई तुह वि विओए ॥ ३३ ॥ [ सरसापि शुष्यत्येव जानाति दुःखानि मुग्धहृदयापि । रक्तापि पाण्डुरैव जाता वराकी तव वियोगे ।] वह बेचारी तुम्हारे वियोग में सरस होने पर भी शुष्क हो गई है, मुग्ध होने पर भी विरह-वेदना से दुखी है और रक्त होने पर भी पाण्डु हो गई है॥३३॥ आरुरुहइ जुण्ण खुज्जअं वि जं उअह वल्लरी तउसी। णीलुप्पलपरिमलवासिअस्स सरअस्स सो बोसो ॥ ३४ ॥ १. पुरओ य पिट्ठओ य पासेसु दीससे तुम सुयणु । वहइ दिसावलयामिणं मन्ने तुह चित्तरिञ्छोली ॥ -आचार्य नेमिचन्द्र कृत, रयणचूडराय चरिय Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ षष्ठं शतकम् [ आरोहति जीणं कुब्जकमपि यत्पश्यत वेल्लनशीला पुसी। नीलोत्पलपरिमलवासितायाः शरदः स दोषः।] देखो, यह पुसी ( एक प्रकार की ककड़ी ) जो पुराने और कुबड़े वृक्ष पर भी चढ़ रही है, वह नीलोत्पल के परिमल से सुगन्धित शरद् ( मदिरा के चषक ) का ही दोष है ।। ३४ ।। उप्पहाविहजणो पविजिम्हिअकलअलो पहअतूरो। अन्वो सो च्चे छणो तेण विणा गामडाहो व्व ॥ ३५ ॥ [ उत्पथप्रधावितजनः प्रविजृम्भितकलकलः प्रहततूर्यः । दुःखं स एव क्षणस्तेन बिना ग्रामदाह इव ।। ] होली के पर्व में लोग इधर-उधर दौड़ रहे हैं, गाँव में अत्यधिक कोलाहल बढ़ गया है और ढोल पोटे जा रहे हैं। उनके वियोग में मुझे यह पर्व ऐसा लगता है जैसे गाँव में आग लगी हो ॥ ३५ ॥ उल्लावन्तेण ण होइ कस्स पासट्टिएण ठड्ढेण । सङ्का मसाणपाअवलम्बिअचोरेण व खलेण ॥ ३६॥ . [ उल्लापयमानेन न भवति कस्य पार्श्वस्थितेन स्तब्धेन । शङ्का श्मशानपादपलम्बितचोरेणेव खलेन ।।] जिस प्रकार श्मशान के वृक्षों पर चोरों के पाशबद्ध फाँसी हेतु लटकाये गये स्तब्ध ( अकड़े हुए ) और चिल्लाहट करवाने वाले, डरावने मृत शरीरों से सभी को भय होता है, उसी प्रकार पार्श्ववर्ती, अहंकार से अकड़े हुए एवं चिल्लाने वाले दुष्ट व्यक्ति से किसे भय नहीं होगा ? ।। ३६ ॥ असमत्तगुरुअकज्जे एहि पहिए घरं णिअत्तन्ते । णवपाउसो पिउच्छा हसइ व कुडअट्टहासेहि ॥ ३७ ॥ [ असमाप्तगुरुककार्ये इदानी पथिके गृहं प्रतिनिवर्तमाने । नवप्रावृट् पितृष्वसः हसतीव कुटजाट्टहासैः ।।] आवश्यक कार्य समाप्त किए बिना ही पथिकों के घर लौट आने पर। वर्षा काल पुष्पित कुटजों के व्याज से मानों अट्टहास कर रहा है ॥ ३७ ॥ दटूण उण्णमन्ते मेहे आमुक्कजीविआसाए । पहिअघरिणोअ डिम्भो ओरुण्णमुहीअ सच्चविओ॥३८॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० गाथासप्तशतो [ दृष्ट्वा उन्नमतो मेघानामुक्तजीविताशया। पथिकगृहिण्याडिम्भोऽवरुदितमुख्यया दृष्टः ॥] उमड़ती हुई मेघमाला को देखकर, जिसने जोवन की आशा त्याग दी थो, परदेशी की वह वियोगिनी प्रिया अश्रुपूर्ण नयनों से अपने नन्हें बालक को निहारने लगी ॥ ३८ ॥ अविहवक्खणवलअं ठाणं णेन्तो पुणो पुणो गलिअं। सहिसत्थो च्चिअ माणंसिणीअ बलआरओ जाओ ॥ ३९॥ . [ अविधवालक्षणवलयं स्थानं नयन्पुनः पुनर्गलितम् । सखीसार्थ एव मनस्विन्या वलयकारको जातः ।।] सौभाग्य का प्रतीक कंकण जब बार-बार गिर जाता था तो उसे पहनातो हुई सखियां ( या सखियों का समूह ही वलय बन कर ) ही मनस्विनी नायिका को धीरज देती थीं ।। ३९ ॥ पहिअवहू विवरन्तरगलिअजलोल्ले घरे अणोल्लं पि। उद्देसं अविरअवाहसलिलणिवहेण उल्लेइ ॥ ४० ॥ [पथिकवधूर्विवरान्तरगलितजला गृहेऽनामपि । उद्देशमविरतबाष्पसलिलनिवहेनार्द्रयति ॥] छिद्रों से चूते हुए जल से पंकिल गृह का जो भाग बच गया था, पथिक की प्रिया ने उसे भी आसुओं से भिगा दिया ॥ ४० ॥ जीहाइ कुणन्ति पिअं भवन्ति हिअअम्मि णिव्वुई काउं। पोडिज्जन्ता वि रसं जणन्ति उच्छू कुलोणा अ॥४१॥ [जिह्वायां (पक्षे-जिह्वया) कुर्वन्ति प्रियं भवन्ति हृदये निर्वृति कर्तुम् । पोड्यमाना अपि रसं जनयन्तीक्षवः कुलीनाश्च ॥] जैसे ईख जिह्वा को स्वाद प्रदान कर हृदय को तृप्त कर देती है और पीड़ित करने पर भी रस उत्पन्न करती है, वैसे ही कुलीन पुरुष भी जिह्वा से मधर बोलते हैं, मनोरथ को पूर्ण करते हैं, आह्लादित करते हैं और खिन्न होने पर भी प्रेम ही प्रकट करते हैं । ॥ ४१ ॥ दोसइ ण चूअमउलं अत्ता ण अवाइ मलअगन्धवहो। पत्तं वसन्तमासं साहइ उक्कण्ठिअं चेअं॥ ४२ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् १३१ [ दृश्यते न चूतमुकुलं श्वश्रू न च वाति मलयगन्धवहः । प्राप्तं वसन्तमासं कथयत्युत्कण्ठितं चेतः ।।] आयें ! अभी रसाल मुकुलित नहीं हुए, मलयानिल नहीं चला, फिर भी मेरा उत्कंठित हृदय बतला रहा है कि वसन्त आ गया है ॥ ४२ ॥ अम्बवणे भमरउलं ण विणा कज्जेण ऊसुअं भमइ । कत्तो जलणेण विणा धूमस्स सिहाउ दीसन्ति ॥४३॥ [आम्रवने भ्रमरकुलं न विना कार्येणोत्सुकं भ्रमति । कुतो ज्वलनेन विना धूमस्य शिखा दृश्यन्ते ॥] आम्र-वन में अकारण ही उत्सुक भ्रमर मण्डली मँडराने लगी है। अग्नि के बिना धुएं की रेखा कब देखी जाती है ? ॥ ४३ ॥ दइअकरग्गहलुलिओ धम्मिल्लो सोहुगन्धिों वअणं । मअणम्मि एत्ति चिअ पसाहणं हरइ तरुणीणं ॥४४ ॥ [ दयितकरग्रहलुलितो धम्मिल: सीधुगन्धितं वदनम् । ___ मदने एतावदेव प्रसाधनं हरति तरुणीनाम् ॥ ] प्रिय के पाणि से विशृंखल केश-पाश एवं सुरा से सुवासित मुख, तरुणियों के यही आभूषण कामोत्सव में मनोहर लगते हैं ॥ ४४ ॥ गामतरुणीओं हिअअं हरन्ति छेआण थणहरिल्लीओ। मअणे कुसुम्भरजिअकञ्चुआहरणमेत्ताओ॥ ४५ ॥ [ग्रामतरुण्यो हृदयं हरन्ति विदग्धानां स्तनभारवत्यः । ... मदने कुसुम्भरागयुक्तकञ्चुकाभरणमात्राः ॥] होली के दिन कुसुम्भी रंग में रंगी हुई एकमात्र कंचुकी जिनका आभूषण है, वे उन्नत पयोधरा ग्राम्य तरुणियाँ विदग्ध पुरुषों का चित्त चुरा लेती है ॥ ४५ ॥ आलोअन्त दिसाओ ससन्त जम्भन्त गन्त रोअन्त । मुच्छन्त पडन्त खलन्त पहिअ किं ते पउत्थेण ॥ ४६॥ [आलोकयन्दिशः श्वसजृम्भमाणो गायन्दन् । मुर्छन्पतन्स्खलन्पथिक कि ते प्रवसितेन ॥1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ गाथासप्तशती पथिक ! तुम चारों ओर देखकर लम्बी आह भर लेते हो, कभी जंभाई लेते हो, कभी गाते हो, कभी रोने लगते हो, कभी गिरते हो, कभी लड़खड़ाते हो और कभी मूच्छित हो जाते हो। तुम्हारे प्रवासी होने से ही क्या हुआ ? ॥ ४६ ॥ वट्ठ ण तरुणसुरअं विविहविलासेहिं करणसोहिल्लं । दीओ वि तग्गअमणो ग पि तेल्लं ण लक्खेइ ॥ ४७ ॥ [ दृष्टा तरुण सुरतं विवधविलासैः करणशोभितम् ।। दीपोऽपि तद्गतमना गतमपि तैलं न लक्षयति ।।] विविध विलासों, करणों एवं मुद्राओं से युवक और युवती की रति-लीला देखने में दीपक इतना तन्मय हो गया कि उसे समाप्त होने वाले तेल का ज्ञान ही नहीं रह गया ॥ ४७ ॥ पुणरुत्तकरप्फालणउहअतडुल्लिहरणवड्ढणसआई । जहाहिवस्स माए पुणो वि जइ जम्मा सहइ ॥ ४८ ॥ [पुनरुक्तकरास्फालनोभयतटोल्लिखनपीडनशतानि । यूथाधिपस्य मातः पुनरपि यदि नर्मदा सहते ।।] अरी मां । जिस समय वह गजराज अपने शुण्ड से सम्पूर्ण जलराशि को आलोडित कर दोनों तटों को ढहाने लगता है, उस समय उस के अंगों का अपार मर्दन वह नर्मदा ही है, जो सह पाती है ।। ४८ ॥ वोडसुणओ विअण्णो, अत्ता मत्ता, पई वि अण्णत्थो । फलिहं व मोडिअं महिसएण, को तस्स साहेउ ॥ ४९ ॥ [ दुष्टशुनको विपन्नः श्वश्रूर्मत्ता पतिरप्यन्यस्थः। कास्यिपि भग्ना महिषकेण कस्तस्य कथयतु ।।] दुष्ट कुत्ता विपन्न हो गया है, सास पागल हो गई है, मेरे स्वामी अन्यत्र गये हैं और कपास का खेत भैस ने चर लिया है, यह सब उनसे कौन कहे ? ।। ४९ ॥ सकअग्गहरहसुत्ताणिआणणा पिअइ पिअमुहविइण्णं । थो थो सेसोसहं व उअ माणिणो मइरं ॥ ५० ॥ [ सकचग्रहरभसोत्तानितानना पिबति प्रियमुखवितोर्णाम् । स्तोकं स्तोकं रोषौधमिव पश्य मानिनो मदिराम् ।।] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् १३३ देखा, प्रिय ने झट जिसका केश पकड़ कर मुख ऊपर कर दिया था, वह मानिनी, उसके मुख से गिराई हुई मदिरा को रोष की दवा के समान धीरे-धीरे पी रही है ॥ ५० ॥ गिरिसोत्तोत्ति भुअंगं महिसो जोहर लिहइ संतत्तो । महिसस्स कवत्थरझरो त्ति सप्पो पिअइ लालं ॥ ५१ ॥ [ गिरिस्रोत इति भुजंगं महिषो जिह्वया लेढि संतप्तः । महिषस्य कृष्णप्रस्तरझर इति सर्पः पिबति लालाम् ॥ ] सन्तप्त भैंसा कृष्ण सर्प को पर्वतीय स्रोत समझ कर जिह्वा से चाट रहा है और सर्प भैंसे के मुँह से चूती लार को नील पाषाण से झरता हुआ झरना -समझ कर पी रहा है ॥ ५१ ॥ पञ्जरसारि अत्ता ण णेसि कि एत्थ रद्दहराहिन्तो । वीसम्भजम्पिआई एसा लोआण पअडेइ ॥ ५२ ॥ [ पञ्जरसारी मातुलानि न नयसि किमत्र रतिगृहात् । विस्रम्भजल्पितान्येषा लोकानां प्रकटयति ॥ ] मामी ! पिंजड़े की सारिका को रति मन्दिर से बाहर क्यों नहीं रख देती ? वह एकान्त में होने वाले हमारे प्रणयालाप लोगों के सामने प्रकट कर देती है ।। ५२ ।। एहमेत्ते गामेण पडद्द भिक्ख त्ति कीस मं भणसि । धम्मि करञ्जभञ्जअ जं जीअसि तं पि दे बहुअं ॥ ५३ ॥ [ एतावन्मात्रे ग्रामे न पतति भिक्षेति न किमिति मां भणसि । धार्मिक करञ्जमज्जक यञ्जीवसि तदपि ते बहुकम् ॥ 'इतने बड़े गाँव में भीख नहीं मिली' यह मुझसे क्यों कहते हो ? अरे । करंज की शाखा तोड़ने वाले धार्मिक ! तुम जीवित हो, यहीं तुम्हारे लिये बहुत है ॥ ५३ ॥ जन्तिअ गुलं विमग्गसि ण अ मे इच्छाह वाहसे जन्तं । अणरसिअ किं ण आणसिण रसेण विणा गुलो होइ ॥ ५४ ॥ [ यान्त्रिक गुडं विर्मागयसे न च ममेच्छया वाहयसि यन्त्रम् । अरसिक किं न जानासि न रसेन विना गुडो भवति ॥ ] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १३४ गाथासप्तशती यन्त्र-चालक ! गुड़ तो चाहते हो लेकिन मेरी इच्छानुसार यन्त्र नहीं चलाते। अरे नीरस ! क्या तुम यह नहीं जानते कि बिना रस के गुड़ नहीं होता? ॥ ५४॥ पत्तणिअम्बप्फंसा पहाणुत्तिण्णाएँ सामलडीए । जलबिन्दुएहि चिहुरा रुअन्ति बन्धस्स व भएण ॥ ५५ ॥ [प्राप्तनितम्बस्पर्शा स्नानोत्तोर्णायाः श्यामलाङ्गयाः। ____ जलबिन्दुकैश्चिकुरा रुदन्ति बन्धस्येव भयेन ॥] सद्यःस्नाता श्यामांगी का नितम्ब चुम्बी केश-पाश मानों बन्धन के डर से जल बिन्दुओं के आंसू बहा रहा है ।। ५५ ।। गामङ्गणणिअडिअकल्वक्स वड तुज्य दूरमणुलग्गो।। तित्तिल्लपडिक्खकभोइओ वि गामो ण उविग्गो ॥ ५६ ॥ [ग्रामाङ्गणनिगडितकृष्ण वट तव दूरमनुलग्नः। दौः सन्धिकप्रतीक्षकभोगिकोऽपि ग्रामो नोद्विग्नः । ] वटवृक्ष ! तुमने कृष्णपक्ष के अन्धकार को ग्रामांगण में बन्दी बना लिया है। जिसके कारण विलासी युवक भीत होकर राजपुरुषों की प्रतीक्षा करते रहते है, तुम्हारी छाया में पले हुये उस गांव पर कभी विपत्ति नहीं आई ।। ५६ ॥ अथवा जिसका ग्रामाध्यक्ष रक्षा कार्य के लिये दौवारिकों की प्रतीक्षा करता है (स्वयं कुछ नहीं करता ) तुम्हारे आश्रय में पले हुए उस गाँव पर कभी उद्विग्न नहीं हुआ। सुप्पं उड्ढं चणआ ण भज्जिआ सो जुआ अइक्कन्तो। अत्ता वि घरे कुविआ भूआण व वाइओ वंसो ॥ ५७ ॥ [शपं दग्धं चणका न भृष्टाः स युवातिक्रान्तः । श्वश्रूरपि गृहे कुपिता भूतानामिव वादितो वंशः ॥] सूप जल गया किन्तु चना नहीं हुआ और वह नवयुवक भी चला गया । सास कुपित हो गई तो जैसे बहरे के आगे वंशी बज रही हो ।। ५७ ॥ पिसुणन्ति कामिणीणं जललुक्कपिआवऊहणसुहेल्लि । कण्डइअकबोलुप्फुल्लणिच्चलच्छीई वअणाई॥५८॥ [पिशुनयन्ति कामिनीनां जलनिलीनप्रियावगृहनसुखकेलिम् । कण्टकितकपोलोत्फुल्लनिश्चलाक्षीणि वदनानि ।।] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् १३५ पुलकित कपोल और प्रफुल्ल अपलक नेत्रों वाले सुन्दरियों के बदन पानी में हुबकी लगा कर, प्रियतम के आलिंगन की रसमय क्रीड़ा की सूचना दे रहे है ॥ ५८॥ अहिणवपाउसरसिएसु सोहइ साआइएसु दिअहेसु । रहसपसारिअगीवाणे णच्चिों मोरवुन्दाणं ॥ ५९ ॥ [अभिनवप्रावृड्रसितेषु शोभते श्यामायितेषु दिवसेषु । रभसप्रसारितग्रीवाणां नृत्यं मयूरवृन्दानाम् ।। ] जब दिवस को कान्ति श्यामल हो जाती है और वर्षा के नवीन मेघ गरज उठते हैं, तब सहसा उद्ग्रीव मयूरों का नृत्य सुन्दर लगता है ॥ ५९ ॥ महिसक्खन्धविलग्गं घोलइ सिमाहअं सिमिसिमन्तं । आहअवीणाझंकारसद्द मुहलं मसअवुन्दं ॥ ६० ॥ [ महिषस्कन्धविलग्नं घूर्णते शृङ्गाहतं सिमसिमायमानम् । ___ आहतवीणाझंकारशब्दमुखरं मशकवृन्दम् ।।] भैंसे के कन्धे पर बैठे हुये मच्छर उसको सींगों से आहत होते ही वीणा जैसी मुखर झनकार करते हुए भनभना कर उड़ने लगते हैं ॥ ६० ॥ रेहन्ति कुमुअदलणिच्चलट्टिआ मत्तमहुअरणिहाआ। ससिअरणीसेसपणासिअस्स गण्ठि व्व तिमिरस्स ॥ ६१॥ [ राजन्ते कुमुददलनिश्चलस्थिता मत्तमधुकरनिकायाः। शशिकरनिःशेषप्रणाशितस्य ग्रन्थय इव तिमिरस्य ।।] .. कुमुदों की पंखुरियों पर निस्तब्ध बैठे हुये मतवाले मधुकर पुज चन्द्रमा की किरणों से उन्मूलित अन्धकार की बची हुई ग्रन्थि के तुल्य शोभित होते उअह तरुकोडराओ णिक्कन्तं पुंसुबाण रिज्छोलि । सरिए जरिओ व्व दुमो पित्तं व्व सलोहिअं वमइ ॥ ६२ ॥ [ पश्यत तरुकोटरानिष्क्रान्तां पुशुकानां पङ्क्तिम् । शरदि ज्वरित इव द्रुमः पित्तमिव सलोहितं वमति ।।] देखो, वृक्ष के कोटर से नरशुकों की श्रेणी निकल रही है, जैसे शरत्कालज्वर से पीड़ित यह वृक्ष रक्त-मिश्रित पित्त का वमन कर रहा हो ॥ ६२॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती धाराधुव्वन्तमुहा लम्बिअवक्खा णिउञ्चिअग्गीवा । वइवेढनेसु काआ सूलाहिण्णा व्व दोसन्ति ॥ ६३ ॥ [ धाराधाव्यमानमुखा लम्बितपक्षा निकुञ्चितग्रीवाः । वृतिवेष्टनेषु काकाः शूलाभिन्ना इव दृश्यन्ते ।। ] १३६ जिनके पंख लटक गये हैं और जिनके मुख जलधारा से घुल चुके हैं, अपनी ग्रीवा टेढ़ी कर बाड़ पर बैठे हुये वे कौए, मानो शूली पर चढ़ा दिये गये हैं ।। ६३ ।। ण वि तह अणालवती हिअअं दूमेइ माणिणी अहिअं । जह दूरविअम्भि अगरु अरोसमज्झत्थ भणिएहि ॥ ६४ ॥ [ नापि तथा नालपन्ती हृदयं दुनोति मानिन्यधिकम् । यथा दूरविजृम्भितगुरुक रोषमध्यस्थभणितैः ॥ ] यह मानिनो मुझसे न बोल कर उतना दुःख नहीं पहुँचाती, जितना अत्यधिक बढ़े हुये कोप से पूर्ण उदासीन वचनों से ॥ ६४ ॥ गन्धं अग्धाअन्तअ पक्ककलम्बाणं वाहभरिअच्छ । आससु पहिअजुआणअ घरिणिमुहं माण पेच्छिहिसि ॥ ६५ ॥ पक्व कदम्बानां [ गन्धमाजिघ्रन् बाष्पभृताक्ष । आश्वसिहि पथिकयुवन् गृहिणीमुखं मा न प्रेक्षिष्यसे ॥ ] नवयुवक बटोहो ! पके कदम्बों की गन्ध सूंघते ही तुम्हारी आँखें सजल हो गई, धीरज रखो तुम्हें प्रिया का मुख अवश्य देखने को मिलेगा ।। ६५ ।। गज्ज महं चिअ उबर सव्वत्थामेण लोहहिअअस्स । जलहर लम्बालइअं मा रे मारेहिसि वराई ॥ ६६ ॥ [ गर्ज ममैवोपरि सर्वस्थाम्ना लोहहृदयस्य । जलधर लम्बालकिकां मा रे मारयिष्यसि वराकीम् ॥ ] अरे मेघ ! तुम मुझ कठोर हृदय के ऊपर जितना गरज सको, गरजो किन्तु विरहव्यथा से जिसकी अलकें बिखर गई हैं, मेरी उस बेचारी प्रिया को कहीं मार न डालना ॥ ६६ ॥ पडूमइलेण छीरेक्कपाइणा दिण्णजाणुवडणेण । आनन्दिज्जइ हलिओ पुत्तेण व सालिछेत्तेण ॥ ६७ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् [पङ्कमलिनेन क्षीरैकपायिना दत्तजानुपतनेन । पुत्रेणेव शालिक्षेत्रेण ॥ ] आनन्द्यतेहालिकः पंक से मलिन, मात्र दुग्धपान करनेवाले, घुटने तक बढ़कर गिरे हुए पुत्र की भौतिशालि के खेत को देखकर हलवाहा आनन्दित होता है । ( यहाँ अन्यापदेश से अभिसार के योग्य शालिक्षेत्र का संकेत किया गया है | ) कह मे परिणइआले खलसङ्गो होहिइ त्ति चिन्तन्तो । ओणअमुहो ससूओ स्वs व साली तुसारेण ॥ ६८ ॥ [ कथं मे परिणतिकाले खलसङ्गो भविष्यतीति चिन्तयन् । अवनत मुखः सशूको रोदितोव शालिस्तुषारेण ॥ ] मेरे पक जाने पर (बुढ़ापे में ) न जाने कैसे खल ( दुष्ट और खलिहान ) का साथ होगा ? यही सोच कर मानों धान अपनी टूड़ों के साथ तुषार के आँसू बहाकर शोक से शिर झुकाये रो रहा है ॥ ६८॥ १३७ संज्ञाराओत्थइओ दीसह गअणम्मि पडिवआचन्दो | रत्तदुऊलन्तरिओ थणण हलेहो व्व णववहुए ॥ ६९ ॥ [ संध्यारागाव स्थगितो दृश्यते गगने प्रतिपच्चन्द्रः । रक्तदूकूलान्तरितः स्तननखलेख इव नववध्वाः ॥ ] सन्ध्या की अरुणिमा में प्रतिपदा के आकाश का चन्द्रमा यों दिखाई पड़ रहा है जैसे किसी नववधू के अरुण दुकूल के भीतर से उसके स्तनों की नखरेखा ।। ६९ ।। अइ दिअर किण पेच्छसि आआसं कि मुहा पलोएसि । जाआइ बाहुमुलभिम अद्धअन्दाणं परिवाडि ॥ ७० ॥ [ अयि देवर किं न प्रेक्षसे आकाशं किं मुधा प्रलोकयसि । बाहुमूलेऽर्धचन्द्राणां जायाया परिपाटीम् ।। ] अरे देवर ! आकाश में क्या देख रहे हो ? पत्नी के वक्षस्थल पर अंकित अर्द्धचन्द्रों को श्रेणी को क्यों नहीं देखते ? ॥ ७० ॥ वाआई कि भणिज्जउ केत्तिअमेत्तं व लिक्खए लेहे । तुह विरहे जं दुक्खं तस्स तुमं चेअ गहिअत्थो ॥ ७१ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ गाथासप्तशती [वाचया कि भण्यतां कियन्मात्रं वा लिख्यते लेखे । तव विरहे यदुःखं तस्य त्वमेव गृहीतार्थः॥] वाणी से क्या कहूँ ? पत्र में क्या लिखू ? प्रियतम ! तुम्हारे वियोग में मैं जितना दुःखी हूँ, उसे तुम्हीं जानते होगे ! ॥ ७१ ॥ मअणग्गिणो व्व धूमं मोहणपिच्छि व लोअदिट्ठीए । जोव्वणध व मुद्धा वहइ सुअन्धं चिउरभारं ॥ ७२ ॥ [ मदनाग्नेरिव धूमं मोहनपिच्छिकामिव लोकदृष्टः । यौवनध्वजमिव मुग्धा वहति सुगन्धं चिकुरभारम् ॥] वह मुग्धा जिस सुगन्धित चिकुर-भारको वहन कर रही है वह मदनाग्नि का घुला है, लोकदृष्टि को मोहने वाली पिच्छिका है और यौवन का ध्वज है ॥७२॥ रूसिट्ठ चिअ से असेसपुरिसे णित्तिअच्छेण । वाहोल्लेण इमीए अजम्पमाणेण वि मुहेण ॥ ७३ ॥ [रूपं शिष्टमेव तस्याशेषपुरुषे निवर्तिताक्षेण । वाजाद्रणास्या अजल्पतापि मुखेन ।] जिसने संसार के सभी पुरुषों से अपनी दृष्टि फेर ली है, सुन्दरी के उस अश्रुपूर्ण मुख ने चुप रह कर भी उन के रूप का वर्णन कर दिया ।। ७३ ॥ रुन्दारविन्दमन्दिरमअरन्दाणन्दिआलिरिज्छोली । झणझणइ कसणमणिमेहल व्व महमासलच्छीए ॥ ७४ ॥ [ बृहदरविन्दमन्दिरमकरन्दानन्दितालिपंक्तिः । झणझणायते कृष्णमणिमेखलेव मधुमासलक्ष्म्याः ॥] प्रफुल्ल अरविन्द-मन्दिर में मकरन्द पान से हर्षित मधुकरश्रेणी वसन्तलक्ष्मी की मरकत मेखला सो झनझना रही है ॥ ७४ ॥ कस्स कहो बहुपुण्णप्फलेक्कतरुणो तुहं विसम्मिहइ । थणपरिणाहे मम्महणिहाणकलसे व्व पारोहो॥ ७५ ॥ [कस्य करो बहुपुण्यफलैकतरोस्तव विश्रमिष्यति । स्तनपरिणाहे मन्मथनिधानकलश इव प्ररोहः ॥] अनेक पुण्यों का फल फलने वाले वृक्ष के पल्लव के समान, किसका हाथ तुम्हारे निधि-कुम्भ तुल्य विस्तृत पयोधरों पर विश्राम करेगा ? ॥ ७५ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षप्ठं शतकम् १३९ चोरा सभअसतह पुणो पुणो पेसअन्ति दिट्ठोओ। अहिरक्खिअणिहिकलसे व्व पोढवइआथणुच्छले ॥ ७६ ॥ [ चोराः समयसतृष्णं पुनः पुनः प्रेषयन्ति दृष्टोः । अहिरक्षितनिधिकलश इव प्रौढपतिकास्तनोत्सङ्गे ।] सर्प से सुरक्षित निधि-कलश के समान वीर की प्रिया के स्तन पर चोर भय और तृष्णा से मिली हुई दृष्टि डाल रहे हैं ।। ७६ ॥ उव्वहइ णवतणङ्कररोमञ्चपसाहिआई अंगा। पाउसलच्छीअ पओहरेहिं परिपेल्लिओ विज्झो ॥७७ ॥ [ उद्वहति नवतृणांकुररोमाञ्चप्रसाधितान्यङ्गानि । प्रावृड्लक्ष्म्याः पयोधरैः परिप्रेरितो विन्ध्यः ॥] पावस लक्ष्मी के पयोधरों का स्पर्श पाकर विन्ध्य शैल के अंग नवतृणों के रोमांच से पूर्ण हो गये ॥ ७७॥ आम बहला वणाली मुहला जलरङ्कणो जलं सिसिरं । अण्णणईण वि रेवाइ तह वि अण्णे गुणा के वि ॥ ७ ॥ [ सत्यं बहला वनालो मुखरा जलरङ्कवो जलं शिशिरम् । अन्यनदीनामपि रेवायास्तथाप्यन्ये गुणाः केऽपि ॥ ] बहुत सी नदियों के तट पर वनाली है, जलचर विहंग मधुर कोलाहल करते रहते हैं और उनका जल शीतल है किन्तु रेवा को गुण कुछ और ही हैं ।। ७८॥ एइ इमीअ णिअच्छइ परिणअमालूरसच्छहे थणए । तुझे सप्पुरिसमणोरहे व्व हिअए अमाअन्ते ॥ ७९ ॥ [ आगच्छतास्या निरीक्षध्वं परिणतमालूरसदृशौ स्तनौ । तुङ्गौ सत्पुरुषमनोरथाविव हृदये अमान्तौ ॥] आओ, पके बेल से उन्नत उसके स्तन देखो, वें सत्पुरुषों के मनोरथ के समान हृदय में नहीं समा रहे हैं ॥ ७९ ॥ हत्थाहत्थि अहमहमिआइ वासागमम्मि मेहेहि । अव्वो कि पि रहस्सं छण्णं पि णहङ्गणं गलइ ॥ ८०॥ [हस्ताहस्ति अहमहमिकया वर्षागमे मेधैः । आश्चर्यं किमपि रहस्यं छन्नमपि नभोङ्गणं गलति ।।] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० गाथासप्तशतो आश्चर्य है, वर्षाकालीन मेघों के द्वारा स्पर्धा से आकाश को छा दिया है, फिर भी वह चूता है, इसमें कुछ रहस्य अवश्य होगा ॥ ८ ॥ केत्तिअमेत्तं होहिइ सोहग्गं पिअअमस्स भमिरस्स । महिलामअणछुहाउलकडक्खविक्खेवधेप्पन्तं ॥१॥ [कियन्मात्र भविष्यति सौभाग्यं प्रियतमस्य भ्रमणशीलस्य । महिलामदनक्षुधाकुलकटाक्षविक्षेपगृह्यमाणम् ॥] सुन्दरियों के मदनन्तृषाकुल कटाक्षों के द्वारा गृहीत, भ्रमणशील प्रियतम का पता नहीं कितना बड़ा सौभाग्य होगा ? ॥ ८१ ॥ णिअधणि उवऊहसु कुक्कुडसदेन शत्ति पडिबुद्ध । परवसइवाससङ्किर णिअए वि घरम्मि, मा भासु ॥ ८२ ॥ [निजगृहिणीमुपगृहस्व कुक्कुटशब्देन झटिति प्रतिबुद्ध । परवसतिवासशङ्किन्निजकेऽपि गृहे मा भैषीः॥] कुक्कुट की आवाज सुनते ही सहमा तुम्हारी आँखें खुल गई हैं। अपनी प्रिया का आलिंगन करो ।डरो मत ! तुम अपने घर में भी रहकर पराये घर की शंका क्यों करते हो? ।। ८२ ॥ खरपवणरअगलत्थिअगिरिऊडावडणभिण्णदेहस्स । धुक्काधुक्कइ जोअं व विज्जुआ कालमेहस्स ॥ ८३ ॥ [खरपवनरयगलहस्तितगिरिकूटापतनभिन्नदेहस्य ।। धुकधुकायते जीव इव विद्युत्कालमेघस्य ।। ] प्रचण्ड पवन ने जिसका गला पकड़कर शैल-शृंग पर पटक दिया है, उस घायल मेघ के प्राणों के समान दामिनी धुकधुका रही है ।। ८३ ॥ मेहमहिसस्स णज्जइ उअरे सुरचावकोडिभिण्णस्स। कन्दन्तस्स सविअणं अन्तं व पलम्बए विज्जू ।। ८४ ॥ [ मेघमहिषस्य ज्ञायते उदरे सुरचापकोटिभिन्नस्य । क्रन्दतः सवेदनमन्त्रमिव प्रलम्बते विद्युत् ॥] इन्द्रचाप की तीखी नोंक से जिसका पेट फट गया है। वेदना से व्यथित होकर कराहते हुए उस मेघ-महिष की आंत के समान चपला चमक रही है।। ८४ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् १४१ णवपल्लवं विसण्णा पहिआ पेच्छन्ति चूअरुक्खस्स । कामस्स लोहिउप्पङ्गराइरं हत्थभल्लं व ॥ ८५ ॥ [ नवपल्लवं विषण्णाः पथिकाः पश्यन्ति चूतवृक्षस्य । ___ कामस्य लोहितसमूहराजितं हस्तभल्लमिव ।। ] विषण्ण पथिक काम के लोहित-रंजित भाले के समान रसाल का नवपल्लव देख रहे हैं । ८५ ॥ महिलाणं चिअ दोसो जेण पवासम्मि गन्विआ पुरिसा। दो तिण्णि जाव ण मरन्ति ता ण विरहा समप्पन्ति ॥८६॥ [ महिलानामेव दोषो येन प्रवासे गर्विताः पुरुषाः । द्वे तिम्रो यावन्न म्रियन्ते तावन्न विरहाः समाष्यन्ते । ] प्रवास में भी पुरुषों का गर्व बना रहता है, इसमें महिलाओं का ही दोष है, क्योंकि जब तक दो-चार की मृत्यु नहीं होतो, तब तक उनका विरह ही नहीं समाप्त होता ।। ८६ ॥ बालअ दे वच्च लहुं मरइ वराई अलं विलम्वेण । सा तुज्झ दसणेण वि जीवेज्जइ णस्थि संदेहो ॥ ८७ ॥ [ बालक हे व्रज लघु म्रियते वराकी अलं विलम्बेन । सा तव दर्शनेनापि जीविष्यति नास्ति सन्देहः ।। ] बेटा ! शीघ्र चलो, विलम्ब मत करो, वह अबला मृत्यु शैय्या पर पड़ी है। तुम्हें देखते ही जीवित हो जायगी, इसमें रंच भी सन्देह नहीं है ।। ८७ ॥ तम्मिरपसरिअहुअवह जालालिपलोधिए वणाहोए । किसुअवणन्ति कलिऊण मुद्धहरिणो ण णिक्कमइ ॥ ८८ ॥ [ताम्रवर्णप्रसृतहुतवहज्वालालिप्रदोपिते वनाभोगे । किंशुकवनमिति कलयित्वा मुग्धहरिणो न निष्कामति ।। ] लाल-लाल दावानल की फैली हुई प्रचण्ड लपटों से प्रदीपित, वनाली को पुष्पित पलाश-वन समझ कर मुग्ध हरिण बाहर नहीं निकलते हैं ॥ ८८॥ णिहुअणसिप्पं तह सारिआइ उल्लाविरं म्ह गुरुपुरओ। जह तं वेलं माए ण आणिमो कत्थ वच्चामो ॥ ८९॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ गाथासप्तशती [निधुवनशिल्पं तथा शारिकयोल्लपितमस्माकं गुरुपुरतः। यथा तां वेलां मातर्न जानीमः कुत्र व्रजामः ॥] मैया ! सारिका ने गुरुजनों के समक्ष रति लोला का ऐसा वर्णन किया, जिसे सुनकर उस समय मेरी समझ में नहीं आया कि मैं कहां जाकर छिप जाऊँ ॥ ८९ ॥ पच्चग्गप्फुल्लदलुल्लसन्तमअरन्दपाणलेहलओ तं पत्थि कुन्दकलिआइ जंण ममरो महइ काउं ॥ ९० ॥ [प्रत्यग्रोत्फुल्लदलोल्लसन्मकरन्दपानलुब्धः। तन्नास्ति कुन्दकलिकाया यन्न भ्रमरो वाञ्छति कर्तुम् ॥] ५ प्रत्यग्र-पुष्पित दलों पर छलकते हुए मकरन्द के पान का लोभी भ्रमर कुन्दकली का क्या नहीं कर डालना चाहता ॥ ९० ॥ सो को वि गुणाइसओ ण आणिमो मामि कुन्दलइआए। अच्छीहिं चिअ पाउं अहिलस्सइ जेण भमरेहिं ॥ ९१ ॥ [ स कोऽपि गुणातिशयो न जानीमो मातुलानि कुन्दलतिकायाः। _अक्षिभ्यामेव पातुमभिलष्यते येन भ्रमरैः॥] मामी ! पता नहीं कुन्द-लता में कौन सा ऐसा श्रेष्ठ गुण है, जिससे भंवरे उसे आँखों से ही पी जाना चाहते हैं ।। ९१ ॥ एक्क च्चिअ रूअगुणं गामणिधूआ समुन्वहइ । अणिमिसणअणो सअलो जीए देवीकओ गामो ॥ ९२ ॥ [ एकैव रूपगुणं ग्रामणोदुहिता समुदहति । अनिमिषनयनः सकलो यया देवीकृतो ग्रामः ।।] ग्रामनायक की एकलौती पुत्री एक ही गुण को धारण करती है, उसने (एकटक देखने वाले ) सारे गाँव को देवता बना दिया है ॥ ९२ ॥ मण्णे आसाओ च्चिअ ण पाविओ पिअअमाहररसस्स । तिअसेहिं जेण रअणाअराहि अमअं समुद्धरिअं ॥ ९३ ॥ [मन्ये आस्वाद एव न प्राप्तः प्रियतमाधररसस्य । त्रिदशैर्येन रत्नाकरादमृतं समुद्धृतम् ।। ] मैं समझता हूँ, देवताओं को प्रिया के अधरासन का स्वाद नहीं मिला था, जिससे उन्हें सागर से अमृत निकालना पड़ा ॥ ९३ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं शतकम् आअण्णाअढिअणिसिअभल्लमम्माहआइ हरिणीए । अदंसणो पिओ होहिइ त्ति वलिउं चिरं दिट्ठो ॥ ९४ ॥ [ आकर्णाकृष्ट निशितभल्लमर्माहतवा हरिया | अदर्शन: प्रियो भविष्यतीति वलित्वा चिरं दृष्टः ॥ ] कानों तक खींचकर चलाये हुए तीर से मर्माहत हरिणी प्यारे हरिण को गर्दन मोड़कर बड़ी देर तक यह सोचकर निहारती रहो, कि इनका दर्शन अब मुझे दुर्लभ हो जायगा ।। ९४ ॥ १४३ विसमट्टिअपिक्केक्कम्बदंसणे तुज्झ सत्तुघरिणीए । को कोण पत्थिओ पहिअअं डिम्भे रुअन्तम्मि ॥ ९५ ॥ [ विषमस्थित पक्वैकाम्रदर्शने तव शत्रुगृहिण्या | कः को न प्रार्थितः पथिकानां डिम्भे रुदति ॥ ] दुर्गम डाली पर लटकता हुआ पका आम देखकर जब बालक रोने लगता है, तब तुम्हारे शत्रु को पत्नी किस-किस पथिक से प्रार्थना नहीं करती ।। ९५ ।। मालारी ललिउल्लुलिअबाहुमूलेहिँ तरुणहिअआई । उल्लूरइ सज्जुल्लूरिआइँ कुसुमाइँ दावेन्ती ॥ ९६ ॥ [ मालाकारी ललितोल्ललित बाहुमूलाभ्यां तरुणहृदयानि । उल्लुनाति सद्योऽवलूनानि कुसुमानि दर्शयन्ती ॥ ] तुरन्त चुने हुए पुष्पों को दिखलाती हुई यह मालिनी अपने सुन्दर एवं विशाल भुजमूलों से तरुणों का हृदय चुन लेती है ।। ९६ ।। मज्झो, पिओ, कुअण्डो, पल्लिजुआणा, सबत्तीओ । जह जह वढन्ति थणा तह तह छिज्जन्ति पञ्च वाहीए ॥ ९७ ॥ [ मध्यः प्रियः कुटुम्बं पल्लोयुवानः सपत्न्यः । यथा यथा वर्धेते स्तनौ तथा तथा क्षोयन्ते पञ्च व्याधयः ।। ] जैसे-जैसे व्याध की बहू के स्तन बढ़ते हैं वैसे-वैसे कटि पति, गाँव कुटुम्ब, के युवक, और सपत्नियाँ- ये पाँचों क्षीण होने लगते हैं ।। ९७ । मालारीए वेल्लहलबाहुमूलावलोअण सअहो । अलिअं पि भमइ कुसुमग्ध पुच्छिरो पंसुलजुआणो ॥ ९८ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ गाथासप्तशती [ मालाकार्यः . सुन्दरबाहुमूलावलोकनसतृष्णः । __ अलीकमपि भ्रमति कुसुमाघप्रश्नशोल: पांसुलयुवा ॥] मालिनी के सुन्दर भुजमूल का अवलोकन करने की तृष्णा से लम्पट-युवक व्यर्थ ही पुष्पों का मूल्य पूछने के लिए घूम रहा है । ९८ ॥ अकअण्णुअ घणवण्णं घणपण्णन्तरिअतरणिअरणिअरं। जइ रे रे वाणीरं रेवाणीरं पि णो भरसि ॥ ९९॥ [ अकृतज्ञ धनवर्णं घनपर्णान्तरिततरणिकरनिकरम् । यदि रे रे वानीरं रेवानीरमपि न स्मरसि ॥] . रे कृतघ्न ! जिसके घने पत्रों की छाया में सूर्य की रश्मियां भी छिप जाती थीं, वह मेघ-सा श्यामल नीप-निकुंज यदि तुझे भूल गया तो क्या रेवा का नीर भी याद न रहा ॥ ९९ ॥ मन्दं पि ण आणइ हालअणन्दणो इह हि डड्ढगामम्मि। गहवइसुआ विवज्जइ अवेज्जए कस्स साहामो ॥१०॥ [ मन्दमपि न जानाति हलिकनन्दन इह हि दग्धग्रामे । गृहपतिसुता विपद्यतेऽवैद्यके कस्य कथयामः ।।] वह मूर्ख हलवाहे का पुत्र, इतना भी नहीं जानता कि इस वैद्य-हीन दुष्ट गांव में कुलीन घर की पुत्री मर रही है, किससे कहें ॥ १० ॥ रसिमजणहि अअदइए कइवच्छलपमुहसुकइणिम्मिइए। सत्तसअम्मि समत्तं सट्ठ गाहास एअं॥१०१॥ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सल प्रमुखसुकविनिर्मिते । सप्तशतके समाप्तं षष्ठं गाथाशतकमेतत् ॥] जिनमें हाल का प्रमुख स्थान है, उन कवियों द्वारा रचे हुये रसिकों को प्रिय सप्तशतक का षष्ठ शतक पूरा हुआ ॥ १०१ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् एक्कक्कमपरिरक्खगपहारसमुहे कुरसमिहुणन्मि । वाहेण मण्णुविअलन्तवाहयोअं अणु मुक्कं ॥१॥ [अन्योन्यपरिरक्षणप्रहारसंमुखे कुरङ्गमिथुने । व्याधेन मन्युविगलद्वाष्पधौतं धनुर्मुक्तम् ॥] एक दूसरे की रक्षा के लिए छूटते हुए तीर के सम्मुख कुरंग-दम्पति को खड़ा होते देख कर व्याघ ने करुणा-विगलित आँसुओं से धुला हुआ धनुष त्याग दिया ॥१॥ ता सुहम विलम्ब खणं भणामि कोअ वि कएण अलमह वा। अविमारिअकज्जारम्भआरिणी मरउ ण भणिस्सं ॥२॥ [ तत्सुभग बिलम्बस्व क्षणं भणामि कस्या अपि कृतेनालमथवा। . अविचारितकार्यारम्भकारिणी म्रियतां न भणिष्यामि ॥] क्षण भर रुको, किसी के सम्बन्ध में कुछ कहना चाहती हूँ, अथवा रहने दो। जिसने बिना सोचे-समझे काम किया है, वह मर जाय, उससे कुछ कहूँगी भी नहीं ॥ २॥ भोइणिदिण्णपहेणअचक्खिअदुस्सिक्खिओ हलिअउत्तो । एताहे अण्णपहेणआण छीओल्लअं देई ॥३॥ [ भोगिनी दत्तप्रहेणका स्वादनदुःशिक्षितो हलिकः पुत्रः । . इदानीमन्यप्रहेणकानां छी इति वचनं ददाति ।। ] गांव के व्यापारी की स्त्री के हाथ का बायन चख कर यह लम्पट हलवाहा दूसरे घर का बायन पाकर छिः छिः करने लगता है ॥ ३ ॥ पच्चूसमऊहावलिपरिमलणसमूससन्तवत्ताणं । कमलाणं रअणिविरमे जिअलोअसिरी महम्महइ ॥ ४ ॥ [ प्रत्यूषमयूखावलिपरिमलनसमुच्छ्वसत्पत्राणाम् । कमलानां रजनिविरामे जितलोकश्रीमहमहायते ॥] सूर्य की किरणों के सम्पर्क से जिनी पंखुरियां प्रस्फुटित हो गई हैं, रात बीतने पर उन कमलों की विश्व विजयिनी शोभा महमहा रही है ॥ ४ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती वाउव्वेल्लिअसाउलि थएसु फुडदन्तमण्डलं जहणं । चडुआरअं पई मा हु पुत्ति जणहासिअ कुणसु ॥ ५ ॥ [ वातोद्वेल्लितवस्त्रे स्थगय स्फुटदन्तमण्डलं जघनम् । चटुकारकं पति मा खलु पुत्रि ! जनहास्यं कुरु ॥ ] १४६ वायु में वस्त्रों के फहराने पर जिनमें अंकित दन्त-लेखा प्रकट हुई जा रही है उन जाँघों को तो ढक लो । बेटी ! चाटुकार पति की हँसी मत कराना ॥ ५ ॥ वीसत्य हसि अपरिसक्किआणं पढमं जलञ्जली दिण्णो । पच्छा वहूअ गहिओ कुडम्बभारो णिमज्जन्तो ॥ ६ ॥ [ विस्रब्धहसित परिक्रमाणां प्रथमं जलाञ्जलिर्दत्तः । पश्चाद्वध्वा गृहीतः कुटुम्बभारो निमज्जन् ॥ ] बहू ने पहले ही निश्चिन्त हँसना और इधर-उधर घूमना छोड़कर डूबते हुए कुटुंब का भार सँभाला है ॥ ६ ॥ गम्मिहिसि तस्स पास सुन्दरि मा तुरअ वड्ढउ मिअङ्को । बुद्धे दुद्धं मिअ चन्दिआइ को पेच्छइ मुहं दे ॥ ७ ॥ [ गमिष्यसि तस्य पार्श्व सुन्दरि मा स्वरस्य वर्धतां मृगांकः । दुग्धे दुग्धमिव चन्द्रिकायां कः प्रेक्षते मुखं ते ॥ ] सुन्दरी ! जल्दी क्या है ? चन्द्रोदय होने दो, तब उसके पास चली जाना । दूध में मिले हुए दूध के समान चाँदनी में तुम्हारा मुख कौन देख सकता है ॥ ७ ॥ जइ जूरइ ज़ूरउ णाम मामि परलोअवसणिओ लोओ । तह वि बला गामणिणन्दणस्स वअणे वलइ दिट्ठी ॥ ८ ॥ [ यदि खिद्यते खिद्यतां नाम मातुलानि परलोकव्यसनिको लोकः । . तथापि बलाद्ग्रामणीनन्दनस्य वदने वलते दृष्टिः ॥ ] भाभी ! यह परलोक व्यसनी संसार दुःखी होता है तो होने दो । मेरी दृष्टि तो पुन: उसी ग्रामणी-पुत्र के मुख पर बार-बार पड़ती है ॥ ८ ॥ गेहं व वित्तरहिअं णिज्ज्ञरकुहरं व सलिलसुण्णविअं । गोहणरहिअ गोट्टं व तीअ वअणं तुह विओए ॥ ९ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ सप्तमं शतकम् [गृहमिव वित्तरहितं निर्झरकुहरमिव सलिलशन्यम् । गोधनरहितं गोष्ठपिद तस्या वदनं तव वियोगे ।।] उसका मुख तुम्हारे वियोग में धनहीन गृह जल-शून्य निर्झर-कुहर एवं गोधन रहित गोठ के समान प्रतीत हो रहा है ॥ ९॥ तुह दंसणेण जणिओ इमीअ लज्जाउलाइ अणुराओ। दुग्गअमणोरहो विअ हिअअ च्चिअ जाइ परिणामं ॥१०॥ [तव दर्शनेन जनितोऽस्या लज्जालुकाया अनुरागः । दुर्गतमनोरथ इव हृदय एव याति परिणामम् ॥ ] उस लज्जावती के हृदय में तुम्हें देखकर जो प्रणय अरित हुआ था। वह दरिद्र के मनोरथ के समान भीतर ही भीतर परिपक्व हो गया है ॥१०॥ जं तणुआअइ सा तुह कएण कि जेण पुच्छसि हसन्तो। अह गिम्हे मह पअई एवं भणिऊण ओरुण्णा ॥११॥ [या तन्यते सा तव कृतेन किं येन पृच्छसि हसन् । असी ग्रीष्मे मम प्रकृतिरिति भणित्वावरुदिता ।। ] . क्या सभी स्त्रियाँ तुम्हारे वियोग में दुर्बल होती हैं, जो हँसकर पूछ रहे हो ? "ग्रीष्म में मेरी प्रकृति ही ऐसी है," यह कहकर वह रो पड़ी ॥ ११ ॥ वण्णक्कमरहिअस्स वि एस गुणो णवरि चित्तकम्मस्स । णिमिसं पि जंण मुञ्चइ पिओ जणो गाढमुवऊढो ॥१२॥ [वर्णक्रमरहितस्याप्येष गुण: केवलं चित्रकर्मणः । निमिषमपि यन्न मुञ्चति प्रियो जनो गाढमुपमूढः ॥] वर्णक्रम से शून्य होने पर भी चित्र में ही यह गुण पाया जाता है कि प्रियतम अपनी प्रेयसी का भुज-बन्धन क्षण भर शिथिल नहीं होने देता ॥ १२ ॥ अविहत्तसंधिबन्धं पढमरसुन्भेअपाणलोहिल्लो । उज्वेलिङ ण आणह खण्डइ कलिआमुहं भमरो ॥ १३ ॥ [अविभक्तसंधिबन्धं प्रथमरसोभेदपानलुब्धः ।। उद्वेल्लितुन जानाति खण्डयति कलिकामुखं म्रमरः॥] पहले पहल निकला हुआ मकरन्द पीनेका लोभी भौंरा कली को बन्द पंखुरियों को खिलाना तो जानता नहीं केवल उसका मुख खंडित कर देता Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ गाथासप्तशती दरवेविरोरुजुअलासु मउलिअच्छीसु लुलिअचिहुरासु । पुरिसाइरीसु कामो पिआसु सज्जाउहो वसइ ॥ १४ ॥ [ ईषद्वेपनशीलोरुयुगलासु मुकुलिताक्षोषु लुलितचिकुरासु। पुरुषायितशीलासु कामः प्रियासु सज्जायुधो वसति ।। ] जिनकी दोनों जांघे कुछ-कुछ कम्पित हो रही हैं, आँखें मुकुलित हो गई हैं एवं केश बिखर गये हैं, उन विपरीत रतशाला तरुणियों के प्रति काम का धनुष सदा चढ़ा रहता है ॥ १४ ॥ जं जं ते ण सुहाअइ तं तं ण करेमि जं ममाअत्तं । अह चिअ ज ण सुहामि सुहअ तं किं ममाअत्तं ॥ १५ ॥ [ यद्यते न सुखायते तत्तन्न करोमि यन्ममायत्तम् । अहमेव यन्न सुखाये सुभग्र तत्कि ममायत्तम् ॥] जो तुम्हें पसन्द नहीं हैं, वह मैं न करूंगी क्योंकि यह मेरे ही वश की बात है । किन्तु प्राणेश यदि मैं हो तुम्हें अच्छी न लगूं तो इसमें मेरा वश ही क्या वावारविसंवा सअलावअवाणं कुणइ हअलज्जा । सवणाणं उणो गुरुसंणिहे वि ण णिरुज्झइ णिओअं॥ १६ ॥ [ व्यापारविसंवादं सकलावयवानां करोति हतलज्जा। श्रवणयोः पुनर्गुरुसंनिधावपि न निरुणद्धि नियोगम् ॥] यह पापिन लज्जा, शरीर के सम्पूर्ण अवयवों का व्यापार तो बन्द कर देती है किन्तु गुरुजनों के समक्ष भी कानों को खुला ही छोड़ देती है ॥ १६ ॥ कि भणह मं सहीओ मा मर दीसिहइ सो जिअन्तीए । कजालाओ एसो सिणेहमग्गो उण ण होइ ॥ १७॥ [कि भणथ मां सख्यो मा म्रियस्व द्रक्ष्यते स जीवन्त्या। कार्यालाप एष स्नेहमार्गः पुनर्न भवति ॥] साखियों ! तुझसे क्या कह रही हो ? "डरो मत जीवित रहोगी तो उन्हें अवश्य देख लोगी" लेकिन यह तो प्रयोजन की बात है। स्नेह का मार्ग नहीं है ॥ १७॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् एक्कल्लमओ दिट्ठोअ मइअ तह पुलइओ सअह्राए । पिअजाअस्स जह धणं पडिअं वाहस्स हत्थाओ ।। १८ । [ एकाकी मृगो दृष्ट्या मृग्या तथा प्रलोकितः सतृष्णया । प्रियजायस्य यथा धनुः पतितं व्याधस्य हस्तात् ॥ ] मृगी बिछुड़ते हुए अकेले मृग को तृपित नयनों से इस प्रकार निहारने लग कि अपनी पत्नी से प्रेम करने वाले व्याध के हाथ से धनुष गिर पड़ा ।। १८ ।। णलिणीसु भमसि परिमलसि सत्तलं मालई पि णो मुअसि । तरलत्तणं तुइ अहो महुअर जइ पाडला हरइ ।। १९ ॥ [ नलिनीषु भ्रमसि परिमृद्गासि सप्तलां मालतीमपि नो मुञ्चसि । तरलत्वं तवाहो मधुकर यदि पाटला हरति ॥ ] अरे मधुकर ! तुम कभी नलिनी पर मड़राते हो, कभो नवमालिका का उपमर्दन करते हो, और मालती को भी नहीं छोड़ते । यदि कहीं पाटला से भेंट हो जाती तो वह तुम्हारी यह सारी चंचलता दूर कर देती ॥ १९ ॥ १४९ दो अङगुलअकवालअपिणद्धसविसेसणील कञ्चुइआ । दावेइ थणत्थलवण्णिअं व तरुणी जुअजणाणं ॥ २० ॥ [ द्वयंगुलककपाटपिनद्धसविशेषनील कञ्चुकिका | दर्शयति स्तनस्थलवणिकामिव तरुणि युवजनेभ्यः ॥ ] जिसकी कसी हुई नोली कंचुकी में दो अंगुल का द्वार बना हुआ है वह युवत मानों युवको को स्तनों को वानगी दिखला रही है || २० || रक्खे पुत्तअं मत्थएण ओच्छोअअं पडिच्छन्ती । अंसुहिं पहिअघरिणी ओल्लिज्जन्तं ण लक्खेइ ॥ २१ ॥ [ रक्षति पुत्रकं मस्तकेन पटलप्रान्तोदकं प्रतीच्छन्ती । अभिः पथिकगृहिणी आर्द्रीभवन्तं न लक्षयति ॥ ] परदेशी की प्रिया चूते हुए छप्पर का पानी अपने शिर पर रोककर नन्हें बालक को रक्षा करती है किन्तु वह यह नहीं जान पातो कि उसका शिशु उसीके आँसुओं से भींग गया है । ।। २१ । सरए सरम्मि पहिआ जलाइँ कन्दोट्टसुरहिगन्धाई । धवलच्छाइँ सअण्हा पिअन्ति दइआणं व मुहाई ॥ २२ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० गाथासप्तशती [ शरदि सरसि पथिका जलानि नीलोत्पलसुरभिगन्धीनि । धवलाच्छानि सतृष्णाः पिबन्ति दयितानामिव मुखानि ॥ ] तृषित पथिक शरत्काल में नीलोत्पल की सुरंभी से सुवासित सरोवर का शुभ स्वच्छ जल श्वेत नयनों वालों प्रिया के सुगंधित मुख के समान पी जाते हैं ।। २२ ।। अब्भन्तरसरसाओ उवरि पव्वाअबद्धपकाओ । चङ्क्रम्मन्तम्मि जणे समुस्ससन्ति व रच्छाओ ॥ २३ ॥ [ अभ्यन्तरसरसा उपरि प्रवातबद्धपङ्काः । चङ्क्रममाणे जने समुच्छ्वसन्तीव रथ्याः ॥ ] तीक्ष्ण वायु से ऊपर का पंख सूख जाने पर भी जो भीतर से गीली हैं बे गाँव की गलियाँ लोगों के यातायात से मानों आह भर रही हैं ? | २३ ॥ मुहपुण्डरीअछाआइ संठिआ उअह राअहंसे व्व । छण पिट्ठकुट्टणुच्छलिअधूलिधवले थणे वह ।। २४ ।। [ मुखपुण्डरीकच्छायायां संस्थितौ पश्यत राजहंसाविव । क्षणपिष्टकुट्टनोच्छलितधूलिधवली स्तनौ वहति ॥ ] वह सुन्दरी, उत्सव के दिन, पीसने कूटने से उड़ी हुई धूलि से धवलित पयोधरों को मुख पद्म को छाया में बैठे हुए दो राजहंसो के समान धारण करती है ।। २४ ।। तह तेविसा दिट्ठा, तोअ वि तह तस्स पेसिआ दिट्ठी । जह दोण्ह वि समअं चिअ णिव्वुत्तरआइँ जाआई ।। २५ ।। [ तथा तेनापि सा दृष्टा तयापि तथा तस्मै प्रेषिता दृष्टिः । यथा द्वावपि सममेव निर्वृत्तरतौ जाती ॥ ] उसने उसे इस प्रकार देखा और उसने भी उसकी ओर बैसी ही दृष्टि डाली। दोनों ने एक ही समय में रति का आनन्द उठा लिया ॥ २५ ॥ वाउलिआरसोसण कुडङ्गपत्तलणसुलह संकेअ । सोहग्गकणअकसवट्ट गिम्ह! मा कह वि झिज्जिहिसि ।। २६ ।। [ स्वल्पखातिखातिकापरिशोषण निकुञ्जपत्रकरण सुलभसंकेत । सौभाग्यकनककषपट्ठ ग्रीष्म मा कथमपि क्षीणो भविष्यसि ॥ ] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् १५१ छोटी तलैयों को सुखाकर एवं निकुजों को सघन पत्रों से सजाकर संकेत स्थान को सुलभ बनाने वाले ग्रीष्म तम मेरे सौभाग्य की कसौटी हो, कभी समाप्त न होना ॥ २६ ॥ तुस्सिक्खिअरअणपरिक्खएहिँ घिटोसि पत्थरे तावा । जा तिलमेत्तं वट्ठसि मरगअ का तुज्झ मुल्लकहा ॥ २७ ॥ [ दुःशिक्षितरत्नपरीक्षकैधष्टोऽसि प्रस्तरे तावत् । यावत्तिलमात्रं वर्तसे मरकत का तव मूल्यकथा ।।] मूर्ख जौहरियों ने पत्थर पर घिस-घिस कर ही तुझे तिल-जैसा बना दिया है । अरे मरकत ! अब तेरे मूल्य की बात ही क्या रह गई है ॥ २६ ॥ जह चिन्तेइ परिअणो आसङ्कइ जह अ तस्स पडिवक्खो । बालेण वि गामणिणन्दणेण तह रक्खिा पल्ली ॥ २८ ॥ [यथा चिन्तयति परिजन आशङ्कते यथा च तस्य प्रतिपक्षः। . बालेनापि ग्रामणीनन्दनेन तथा रक्षिता पल्ली ।।] बालक होने पर भी ग्रामणी पुत्र ने गाँव की सुरक्षा का भार इतनी योग्यता से संभाल लिया है कि प्रजा उसका परिश्रम देखकर तरस खाती है और शत्रु सदा शंकित रहते हैं ॥ २८॥ अण्णेसु पहिअ ! पुच्छसु वाहअपुत्तेसु पुसिअचम्माइं। अम्हं वाहजुआणो हरिणेसु धणु ण णामेइ ॥ २९ ॥ - [अन्येषु पथिक पृच्छ व्याधकपुत्रेषु पृषतचर्माणि । अस्माकं व्याधयुवा हरिणेषु धनुर्न नामयति ॥] "अरे, पथिक ! अन्य व्याध-पुत्रों से जाकर मृग-चर्म का मूल्य पूछो। हमारे स्वामी तो मृगों पर तीर ही नहीं चलाते ॥ २९ ॥ गअवहुवेहव्वअरो पुत्तो मे एक्ककण्डविणिवाई । तइ सोण्हाइ पुलइओ जह कण्डकरण्डअं वहइ ॥ ३०॥ । [गजवधर्वैधव्यकरः पुत्रो मे एककाण्डविनिपाती। तथा स्नुषया प्रलोकितो यथा काण्डसमूहं वहति ।।] ... एक ही बाण चलाकर, हथिनियों को विधवा बनाने वाले, मेरे पुत्र को बहू ने कुछ ऐसे ढंग से देखा कि वह अब तरकश ( बाणों का पिटारा) पारण करता है ॥३०॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशतो विझारुहणालावं पल्ली मा कुणउ, गामणी ससइ । पच्चज्जिविओ जइ कह वि सुणइ ता जीविअं मुअइ ॥ ३१ ॥ [विन्ध्यारोहणालापं पल्ली मा करोतु ग्रामणीः श्वसिति । प्रत्युज्जीवितो यदि कथमपि शृणोति तज्जीवितं मुञ्चति ।।] अरे गांव वालों । विन्ध्य पर्वत पर जाकर छिप जाने की चर्चा मत करो, अभी ग्रामणी की साँसें चल रही हैं। यदि किसी प्रकार सचेत हो जाएँगे तो भी यह सुनकर उनका प्राणान्त हो जायगा ॥ ३१ ।।। अप्पाहेइ मरन्तो पुत्तं पल्लीवई पअत्तेण। - मह णामेण जह तुम ण लज्जसे तह करेज्जासु ॥ ३२ ॥ [शिक्षयति म्रियमाणः पुत्रं पल्लीपतिः प्रयत्नेन । मम नाम्ना यथा त्वं न लज्जसे तथा करिष्यसि ।।] मृत्युशैया पर पड़ा हुआ पल्ली पति बड़े कष्ट से पुत्र को शिक्षा दे रहा है"बेटा ! वही करना, जिससे तुम्हें मेरे नाम से लज्जित न होना पड़े" ॥ ३२॥ अणुमरणपत्थिआए पच्चागअजीविए पिअअमम्मि । वेहव्यमण्डणं कुलवहूअ सोहग्गअं जाअं ॥ ३३ ॥ [ अनुमरणप्रस्थितायाः प्रत्यागतजीविते प्रियतमे। वैधव्यमण्डनं कुलवध्वाः सौभाग्यकं जातम् ॥] सती होने के लिए प्रस्थान करने वाली बहू के वैधव्य की भूषा पति के पुनरुज्जीवित हो जाने पर सौभाग्य-सूचक हो गई ॥ ३३ ॥ महमच्छिआइ दटुं दळूण मुहं पिअस्स सूणोठें । ईसालुई पुलिन्दी रुक्खच्छाअं गआ अण्मं ॥ ३४॥ [ मधुमक्षिकया दष्टं दृष्ट्वा मुखं प्रियस्योच्छूनोष्ठम् । ईर्ष्यालुः पुलिन्दी वृक्षच्छायां गतान्याम् ॥] मधु-मक्खी के डंक मार देने से सूजा हुआ प्रिय का अधर देखकर पुलिन्द युवती डाह से अन्य वृक्ष की छाया में चली गई ॥ ३४ ॥ धण्णा वसन्ति णीसङ्कमोहणे बहलपतलवइम्मि । वाअन्दोलणओणविअवेणुगहणे गिरिग्गाम ॥ ३५॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् [धन्या वसन्ति निःशङ्कमोहन बहलपत्रलवृतौ । वातान्दोलनावनामितवेणुगहने गिरिग्रामे ॥ ] जहाँ बाँसों का वम पवन के झोंकों से झुक जाता है, जो धने पत्तों से घिरा रहता है, जहाँ प्रेमियों की रति-लीला निश्चिन्त भाव से हुआ करती है, उस पर्वतीय गांव के निवासी धन्य हैं ! ॥ ३५ ॥ पप्फुल्लघणकलम्बा गिद्धोअसिलाअला मुइअमोरा । पसरन्तोमर मुहला ओसाहन्ते गिरिग्गामा ॥३६॥ [प्रोत्फुल्लघनकदम्बा निर्धातशिलातला मुदितमयूराः। प्रसरन्निर्झरमुखरा उत्साहयन्ति गिरिग्रामाः॥] जहाँ घने कदम्ब खिलते हैं, शिलातल धुले रहते है, मयर मुदित रहते हैं, निर्झर कोलाहल करते हैं, वे पर्वतों के अंचल में बसे हुए गांव मन में एक उत्साह उत्पन्न कर देते है ॥ ३६॥ तह परिमलिआ गोवेण तेण हत्थं पि जाण ओल्लेइ । सच्चिम घेणू एहि पेच्छसु ! कुडदोहिणी जाआ ॥ ३७॥ [ तथा परिमलिता गोपेन तेन हस्तमपि या नायति । सैव धेनुरिदानी प्रेक्षध्वं कुटदोहिणी जाता ।।] जो कभी दुहने वाले का हाथ भो भिगो नहीं पाती थी, उसी गाय को कुशल गोप ने ऐसे ढंग से दुहा कि अब एक घड़ा दूध देने लगी । ३७ ।। घवलो जिअइ तुह कए, धवलस्स कए जिअन्ति गिट्टीओ। जिम तम्बे ! अम्ह वि जीविएण गो? तुमाअत्तं ॥ ३८ ॥ [धवलो जीवति तव कृते धवलस्य कृते जीवन्ति गृष्टयः। जीव हे गौः अस्माकमपि जीवितेन गोष्ठं त्वदायत्तम् ।। ] तेरे लिए हो धौरा बैल जी रहा है और धौरे बैल के लिये प्रथम-प्रसूता गायें जीवित हैं। हे गाय ! तू जोती रह, हमारी गोशाला तेरे ही अधीन है ॥ ३८॥ अग्घाइ, छिवइ, चुम्बइ, ठेवइ, हिअअम्मि जणिअरोमञ्चो । जाआकवोलसरिसं पेच्छह ! पहिओ महुअपुष्फ ॥ ३९ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ गाथासप्तशती [ आजिघ्रति स्पृशति चुम्बति स्थापयति हृदये जनितरोमाञ्चः । जायाकपोलसदृशं पश्यत पथिको मधूकपुष्पम् ।। ] प्रिया के कपोल के समान मधूक- पुष्प को देखते ही पथिक पुलकित होकर कभी उसे सूंघता है, कभी छूता है, कभी चूमता है और कभी छाती से लगा ता है ।। ३९ ।। उअ ! ओल्लिज्जइ मोहं भुअंगकित्तीअ कडअलग्गाइ । सीसं वणगएण ॥ ४० ॥ ओज्झरधारासद्धालुएण [ पश्यार्द्रौक्रियते मोघं भुजङ्गकृत्तौ कटकलग्नायाम् । निर्झरधाराश्रद्धालुकेन गीर्ष वनगजेन ॥ ] पर्वत के नितम्ब से लटकती हुई सर्प की केंचुली को झरने की धारा समझ कर बनौला हाथी व्यर्थं अपना मस्तक भिगो रहा है ॥ ४० ॥ कमलं मुअन्त महुअर पिक्कइत्थाएँ गन्धलोहेण । आलेक्खलड्डुअं पामरो व छिविऊण जाणिहिसि ॥ ४१ ॥ [ कमलं मुञ्चन्मधुकर पक्ककपित्थानां गन्धलोभेन । आलेख्यलड्डुकं पामर इव स्पृष्टट्वा ज्ञास्यसि ॥ ] अरे मधुकर ! तुम पके कपित्थ की सुगन्ध के लोभ में कमल को त्याग कर मूढ़ों के समान चित्र का लड्डू छूने पर ही जान पाओगे ॥ ४१ ॥ गिज्जन्ते मङ्गलगाइआहिँ वरगोत्तदिण्णअण्णाए । सीडं व णिग्गओ, उअह ! होन्तवहुआइ रोमञ्चो ।। ४२ ।। [ गीयमाने मङ्गलगायिकाभिवरगोत्रदत्त कर्णायाः । श्रोतुमिव निर्गतः पश्यत भविष्यद्वधकाया रोमाञ्चः ॥ ] जब स्त्रियों मंगल गाने लगीं तो वर का नाम जानने के लिये जिसने अपने कान लगा दिये थे, उस कन्या के रोमांच मानों संगीत सुनने के लिए बाहर निकल आये ।। ४२ ॥ आअण्णान्ता मण्णे आसण्णविआहमङ्गलुग्गाइई । तेहिं जुअणेहिँ समं हसन्ति हसन्ति म वेअसकुडङ्गा ॥ ४३ ॥ [ मन्ये आकर्णयन्त आसन्नविवाहमङ्गलोद्गीतम् । तैर्युवभिः समं हसन्ति मां वेतसनिकुञ्जाः ॥ ] मैं समझती हूँ, विवाह - वेला के मंगल-गीतों को सुन कर बेतों का कुंज उन युवकों के साथ मेरी हँसो उड़ा रहा है ॥ ४३ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् उअगअच उत्थिमङ्गलहोन्त विओअसविसेसलग्गेह तीअ वरस्स अ सेअंसुएहिँ रुष्णं व हत्थे ॥ ४४ ॥ [ उपगतचतुर्थीमङ्गलभविष्यद्वियोगसविशेषलग्नाभ्याम् । तस्या वरस्य च स्वादाश्रुभी रुदितमिव हस्ताभ्याम् ॥ आगामी चतुर्थी मंगल के दिन होने वाले वियोग की शंका से जो अधिक दृढ़ता से पकड़े गये थे, वर-वधू के वे हाथ मानों सस्वेद के आँसू बहाकर रो पड़े ।। ४४ ।। ण अदिट्ठि णेइ, मुहं ण अ छिविअं देइ, गालवइ कि पि । तह वि हू कि पि रहस्सं णववहुसङ्गो पिओ होइ ॥ ४५ ॥ १६५ [ न च दृष्टि नयति मखं न च स्प्रष्टुं ददाति नालपति किमपि । तथापि खलु किमपि रहस्यं नववधूसङ्ग प्रियो भवति ॥ ] यद्यपि नव वधू सामने दृष्टि नहीं करती, मुँह का स्पर्श नहीं करने देती और बोलती भी नहीं, फिर भी पता नहीं कौन सा ऐसा रहस्य है कि उसका संग मनोहर लगता है ।। ४५ ।। अलिअपसुत्तवलन्तम्मि णववरे, णववहूअ वेवन्तो । संवेल्लिअरु संजमिअवत्थगण्ठि गओ [ अलीकप्रसुप्तवलमाने नववरे नववध्वा वेपमानः । संवेष्टितोरुसंयमितवस्त्रग्रन्थि गतो हस्तः ॥ ] हत्थो ।। ४६ ।। झूठमूठ सोये हुए पति के करवट लेते ही बहू का कंपित हाथ सटायी हुई जांघों से नियन्त्रित नीवी की गाँठ पर चला गया || ४६ ॥ पुच्छिज्जन्ती ण भणइ, गहिआ पप्फुरइ, चुम्बिआ रुअइ । तुहिक्का णववहुआ कआवराहेण उवऊढा ॥ ४७ ॥ [ पृच्छमाना न भणति गृहीता प्रस्फुरति चुम्बिता रोदिती । तूष्णीका कृतापराधेनोपगूढा ॥ ] नववधूः जिसने बिना समझे - बूझे आलिंगन कर लिया है, उस अपराधी पति के बुलाने पर भी चुपचाप खड़ी हुई नव-वधू नहीं बोलती, पकड़ने पर हट जाती है. और चूमने पर रोने लगती है ॥ ४७ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ गाथासप्तशती तत्तो च्चिअ होन्ति कहा, विअसन्ति तहि, महिं समप्पयन्ति । किं, मण्णे, माउच्छा ! एक्कजुआणो इमो गामो ?॥४८॥ [ तत एव भवन्ति कथा विकसन्ति तत्र तत्र समाप्यते । किं मन्ये मातृश्वसः एकयुवकोऽयं ग्रामः ॥] वहीं से बातें निकलती है, वहीं फैलती है, वहीं समाप्त हो जाती है, मौसी! मैं समझती हूँ, इस गांव में एक ही युवक रह गया है ॥ ४८ ॥ जाणि वअणाणि अम्हे वि जम्पिओ, ताई जम्पइ जणो वि। ताई चिअ तेण पजम्पिआइं हिअअं सुहावेन्ति ॥ ४९ ।। .. [यानि वचनानि वयमपि जल्पामस्तानि जल्पति जनोऽपि । तान्यव तेन प्रजल्पितानि हृदयं सुखयन्ति ।।] वही बात मैं बोलती हूँ और वही अन्य लोग भी बोलते हैं किन्तु वही बात जब उनके मुंह से निकलती है, तो हृदय तृप्त हो जाता है ॥ ४९ ॥ सव्वाअरेण मग्गह पिसं जणं जइ सुहेण वो कज्जं । जौं जस्स हिअअदइअं तं सुहं जतहिं गत्य ॥ ५० ॥ [ सर्वादरेण मृगयध्वं प्रियं जनं यदि सुखेन वः कार्यम् । यद्यस्य हृदयदयितं तन्न सुखं यत्तत्र नास्ति ।।] यदि सुखी होना चाहती हो तो आदर पूर्वक उसे ढ़ ढ़ों । जो जिसका हृदय वल्लभ हो जाती है, संसार का कोई भी ऐसा सुख नहीं, जो उसमें न हो ॥५०॥ दोसन्तो दिठिसुओ चिन्तिज्जन्तो मणवल्लहो, अत्ता!। उल्लावन्तो सुइसुहो पिओ जणो णिच्चरमणिज्जो ॥५१॥ दृश्यमानो दृष्टिसुखश्चिन्त्यमानो मनोवल्लभः श्वश्रु । उल्लप्यमानः श्रुतिसुखः प्रिय जनो नित्यरमणीयः ।।] आर्ये देखने पर आँखों को सुखद, चिन्तन करने पर हृदय को प्रिय और बातचीत करने पर कानों को तृप्त कर देने वाले प्रेमोजन सदैव रमणीय होते हैं ।। ५१ ॥ ठाणभट्ठा परिगलिअपीणा उण्णई परिचत्ता। अम्हे उण ठेरपओहर व्व उअरे च्चिअ णिसण्णा ॥ ५२ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् १५७ [स्थानभ्रष्टाः परिगलितपीनत्वा उन्नत्या परित्यक्ताः। वयं पुनः स्थाविरापयोधरा इवोदर एव निषण्णाः ॥] अपनी पीवरता एवं उन्नति से च्युत हो जाने पर हम लोग स्थान भ्रष्ट होकर वृद्धा के पयोधरों के समान पेट का आश्रय ले रहे हैं ॥ ५२ ॥ पच्चूसागअ ! रजिअदेह ! पिआलोअ ! लोअणाणन्द !। अण्णत्त खविअसवरि! णहभूसण ! दिणवइ णमो दे ।। ५३ ॥ [प्रत्यूषागत रक्तदेह प्रियालोक लोचनानन्द । अन्यत्रक्षपितशर्वरीक नभोभूषण दिनपते नमस्ते ॥] अरुणा वर्णा ! प्रियदर्शन ! नयनानन्द ! नभ भूषण ( श्लेष से नखभूषण ) अन्यत्र रात्रि बिताकर प्रत्यूषवेला में पधारे हुए दिनपति । ( श्लेष से दिन में ही पति ) तुम्हें नमस्कार है ।। ५३ ॥ विवरीअसुरअलेहल ! पुच्छसि मह कीस गब्भसंभूई ? । ओअत्ते कुम्भमुहे जललवकणि वि किं ठाइ ? ॥ ५४॥ [विपरीतसुरतलम्पट पृच्छसि मम किमिति गर्भसंभूतिम् । __ अपवृत्ते कुम्भमुखे जललवकणिकापि किं तिष्ठति ॥] विपरीत-रति का रस लूटने वाले रसिक ! मुझसे गर्भ के सम्बन्ध में क्या पूंछते हो ? औंधे घड़े में क्या एक बूंद भी पानी ठहर सकता है ? ॥ ५४ ।। अच्चासण्णविवाहे समं जसोआइ तरुण गोवीहि । वड्ढन्ते महुमहणे सम्बन्धा णिहुविज्जन्ति ॥ ५५ ॥ [अत्यासन्नविवाहे समं यशोदया तरुणगोपीभिः। वर्धमाने मधुमथने सम्बन्धा निन्हयन्ते ॥] बढ़ते हुए कन्हैया जब विवाह योग्य हो गये तो तरुण गोपियाँ यशोदा से अपना पुराना सम्बन्ध छिपाने लगीं ॥ ५५ ॥ जं जं आलिहइ मणो आसावट्ठीहिँ हिअअफलअम्मि । तं तं बालो व्व विही णिहु हसिऊण पम्हुसइ ॥ ५६ ॥ [ यद्यदालिखति मन आशावर्तिकाभिर्हृदयफलके । तत्तद्वाल इव विधिनिभृतं हसित्वा प्रोञ्छति ॥] मन हृदय फलक पर आशा की तूलिका से जो कुछ भी लिख जाता है, विधाता उसे एकान्त में हँस कर बालक की तरह पोंछ देता है ॥ ५६ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ गाथासप्तशती अणुहुत्तो करफंसो सअलअलापुण्ण ! पुण्णदिअहम्मि । वीआसङ्ग किसङ्गअ ! एहि तुह वन्दिमो चलणें ॥ ५७ ॥ [ अनुभूतः करस्पर्शः सकलकलापूर्ण पूर्णदिवसे । द्वितीयासङ्गकृशाङ्ग इदानीं तव वन्दामहे चरणौ ॥ ] पूर्णिमा के दिन जब तुम समस्त कलाओं से पूर्ण थे, तब मैंने तुम्हारे करों के स्पर्श का अनुभव किया था । आज द्वितीया के सम्पर्क से क्षीण हो जाने पर तुम्हारे चरणों को वन्दना करती हूँ ।। ५७ ॥ द्वन्तरिए वि पि कह वि णिअत्ताइँ मज्झ णअणाइँ । हिअअं उण तेण समं अज्ज वि अणिवारिअं भमइ ॥ ५८ ॥ [ दूरान्तरेऽपि प्रिये कथमपि निवर्तते मम नयने । हृदयं पुनस्तेन सममद्याप्यनिवारितं भ्रमति ॥ ] प्रिय के ओझल हो जाने पर मेरी आँखें तो किसी प्रकार लौट आईं किन्तु हृदय आज भी उन्हीं के साथ यात्रा कर रहा है ॥ ५८ ॥ तस्स कहाकण्टइए ! सद्दाअण्णणसमोसरिअकोवे ! । समुहालोअणकम्पिरि ! उवऊढा कि पिवजिहिसि ॥ ५९ ॥ [ तस्य कथकण्टकिते शब्दाकर्णन समपसृतकोपे । संमुखालोकनकम्पनशीले उपगूढा कि प्रपत्स्यसे । ] अरी ! तुम तो उनकी चर्चा करते ही पुलकित हो गई, शब्द सुनते ही कोप छोड़ बैठी और सम्मुख देखते ही काँपने लगी, आलिंगन करने पर तो पता नहीं, तुम्हारी क्या दशा हो जायगी ? ।। ५९ ।। भरणमिअणीलसाहग्गख लिअचलणद्धविहु अवक्खउडा । तरुसिहरेसु विहंगा कह कह वि लहन्ति संठाणं ॥ ६० ॥ [ भरनमितनोलशाखाग्रस्खलित चरणार्थं विधुतपक्षपुटाः । तरुशिखरेषु विहंगाः कथं कथमपि लभन्ते संस्थानम् ॥ ] भार से झुकी हुई नीली शाखाओं पर थोड़ा पैर फिसल जाने से अपना पंख फड़फड़ाते हुए विहंगी तरु शिखरों पर किसी प्रकार बसेरा ले रहे हैं ॥ ६० ॥ अहरमहुपाण धारिहिलआइ जं च रमिओ सि सविसेसं । असइ अलाजिरि वहुसिक्खिरि त्ति मा णाह ! मण्णु हिसि ॥ ६१ ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् [ अधरमधुपानलालसया यच्च रमितोऽसि सविशेम् । __ असती अलज्जाशीला बहुशिक्षितेति मा नाथ मंस्थाः॥] .. अघर-मधु का पान करने की लालसा से जो तुमने मेरे साथ विशेष रमण किया है, प्राणेश ! तो मुझें कहों व्यभिचारिणी, निर्लज्ज, और वहु शिक्षिता न समझ लेना ॥ ६१ ॥ खाणेण अ पाणेण अ तह गहिओ मण्डलो अडअणाए । जह जारं अहिणन्दा भुक्कइ घरसामिए एन्ते ॥ ६२॥ [खादनेन च पानेन च तथा गृहीतो मण्डलीऽसत्या । .. यथा जारमभिनन्दति भुक्कति गृहस्वामिन्येति ॥ : व्यभिचारिणी ने कुत्ते को खिला-पिलाकर ऐसा वशीभूत कर लिया था कि वह जार का अभिनन्दन करता था और गृह स्वामी के आने पर भूकने लगता था ॥ ६२ ॥ कण्डन्तेण अकण्डं पल्लीमज्झम्मि विअडकोअण्डं । पइमरणाहि वि अहिअं वाहेण रुआविआ अता ॥ ६३ ॥ . [कण्डूयता अकाण्डे पल्लीमध्ये विकटकोदण्डम् ।। पतिमरणादप्यधिक व्याधेन रोदिता श्वश्रुः ॥] गांव में भारी धनुष को अकारण छील कर पतला करते हुए अपने पुत्र को देखकर सास इतना रोई जितना पति के मरने पर भी न रोई थी ॥ ६३ ॥ अम्हे उज्जुअसीला, पिओ वि पिअसहि ! विआरपरिओसो। ण हु अण्णा का वि गई, वाहोहा कहें पुसिज्जन्तु ? ॥ ६४ ॥ [वयं ऋजुकशीलाः प्रियोऽपि प्रियसखि विकारपरितोषः । न खल्वन्या कापि गतिष्पिौघाः कथं प्रोञ्छ्यन्ताम् ॥] मैं हाव-भाव से वंचित बिल्कुल भोली हूँ और मेरे पति कृत्रिम हाव-भाव से हो सन्तुष्ट रहते हैं । हाय ! कोई चारा नहीं है, आँखों के उमड़े हुए आंसू कैसे पोंछू ? ॥ ६४ ॥ घवलो सि जइ वि सुन्दर ! तह वि तुए मज्झ रज्जिअं हिअ । राअभरिए वि हिअए सुहअ ! णिहत्तो ण रत्तो सि ॥ ६५॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० गाथासप्तशती [धवलोऽसि यद्यपि सुन्दर तथापि त्वया मम रञ्जितं हृदयम् । रागभृतेऽपि हृदये सुभग निहितो न रक्तोऽसि ॥] यद्यपि तुम उज्ज्वल हो, प्राणेश ! फिर भी तुमने मेरा हृदय रंजित कर दिया है और मैंने तुम्हें आरक्त हृदय में छिपाकर रखा तो भी तुम अनुरक्त नहीं हुए ॥ ६५ ॥ चञ्चपुडाअविअलिअसहआररसेण सित्तदेहस्स । कीरस्स मग्गलग्गं गन्धन्धं भमई भमरउलं॥६६॥ [चञ्चपुटाहतविगलितसहकाररसेन सिक्तदेहस्य । __कीरस्य मार्गलग्नं गन्धान्धं भ्रमति भ्रमरकुलम् ॥] चंचु पुटों के आधात से विगलित, रसाल के रस से, जिसका सम्पूर्ण शरीर अभिषिक्त हो गया है, सुगन्ध से अन्धे होकर भौंरे उस कोर के पीछे उड़ रहे है ॥ ६६ ॥ एत्थ जिमज्जइ अत्ता, एत्थ अहं, परिअणो सअलो। पन्थिअ ! रत्तीअन्धअ ! मा महँ सअणे णिमज्जिहिसि! ॥ ६७ ॥ [अत्र निमज्जतिं श्वश्रूरत्राहमत्र परिजनः सकलः । पथिक रात्र्यन्धक मा मम शयने निमक्षयासि ॥] ___ यहां सास सोती है, यहाँ मैं और यहाँ सब नौकर-चाकर । बटोही ! तुम्हें रतौंधी होती है, देखना, मेरी शैया पर न आ जाना ।। ६७ ॥ परिओससुन्दराई सुरएसु लहन्ति जाइँ सोक्खाई। ताई च्चिअ उण विरहे खाउग्गिण्णाई कीरन्ति ॥ ६८ ॥ [परितोषसुन्दराणि सुरतेषु लभन्ते यानि सौख्यानि । तान्येव पुनर्विरहे खादितोद्गीर्णानि कुर्वन्ति ॥] सुन्दरियाँ सुरत में जो सन्तोषपूर्ण सुन्दर सुख प्राप्त करती हैं, विरह में उन्हों का वमन करती हैं ॥ ६८ ॥ मग्गं च्चिअ अलहन्तो हारो पोषुण्णआण थणआणं । उविग्गो भमइ उरे जमुणाणइफेणपुजो व्व ॥ ६९ ॥ [मार्गमिवालभमानो हारः पीनोन्नतयोः स्तनयोः। उद्विग्नो श्रमत्युरसि यसुनानदीफेनपुञ्ज इव ॥] हार, ऊँचे उठे हुए पोन उरोजों पर मानों मार्ग न पाकर यमुना के फेनपुज सा, वक्षःस्थल पर उदास फिर रहा है ।। ६९ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् एक्केण वि वडबीअंकुरेण सअलवणराइमज्झम्मि । तह तेण कओ अप्पा जह सेसदुमा तले तस्स ॥ ७० ॥ [ एकेनापिवटबीजाङ्करेण सकलवनराजिमध्ये | तथा तेन कृत आत्मा यथा शेष दुमास्तले तस्य ॥ ] नन्हें से वट-बीज से निकले हुए अकेले अंकुर ने सम्पूर्ण वन में ऐसा विस्तार कर लिया कि अब सारे वृक्ष उसके नीचे आ गये || ७० ॥ जे जे गुणिणो, जे जे अ चाइणो, जे विडड्ढविण्णाणा । वारिद्द ! रे विअक्खण ! ताणें तुमं साणुराओ सि ॥ ७१ ॥ [ ये ये गुणिनो ये ये च यत्यागिनो ये विदग्धविज्ञानाः । दारिद्य रे विचक्षण तेषां त्वं सानुरागमसि ॥ ] १६१ हे दारिद्र्य ! तुम बड़े ही बुद्धिमान हो क्योंकि जितने गुणी, त्यागी, रसिक और विद्वान् हैं, उन पर अधिक स्नेह करते हो । ७१ ।। जह कोत्तिओ सि सुन्दर ! सअलति हो चंददंसणसुहाणं । ता मसिणं मोइज्जन्तकञ्चुअं मुहं से ॥ ७२ ॥ पेक्खसु पेक्खसु [ यदि कौतुकिकोऽसि सुन्दर सकलतिथिचन्द्रदर्शन सुखानाम् । तन्म सृणं मोच्यमानकञ्चुकं प्रेक्षस्व मुखं तस्याः ॥ ] प्यारे ! तुम्हें यदि सभी तिथियों के चन्द्र-दर्शन का सुख पाने का कौतुक हो तो धीरे-धीरे कंचुक उतारने वाली महिला का मुख देखो ।। ७२ ।। समसिमणिव्विसेसा समन्तओ मन्दमन्दसंआरा । अइरा होहिन्ति पहा मणोरहाणं पि दुल्लंघा ॥ ७३ ॥ [ समविषमनिर्विशेषाः समन्ततो मन्द मन्दसञ्चाराः । अचिराद्भविष्यति पन्थानो मनोरथानामपि दुर्लङ्घ्याः ॥ ] जिन पर ऊँची-नीची भूमिका भेद मिट गया है और पथिक जहाँ धीरे-धीरे चलते हैं, शीघ्र ही उन बरसाती मार्गों को मनोरथ भो लाँघ न सकेंगे ।। ७३ ।। अइवीहराई बहुए ! सीसे दीसन्ति वंसवत्ताइं । भणिए भणामि अत्ता ! तुम्हाणं वि पण्डुरा पुट्ठी ॥ ७४ ॥ ११ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती [ अतिदीर्घाणि वध्वाः शीर्षे दृश्यन्ते वंशपत्राणि । भणिते भणामि श्वश्रु युष्माकमपि पाण्डुरं पृष्ठम् ॥ ] ___ 'बह को वेणी में बांस के बड़े-बड़े पत्ते फंसे दिखायी देते हैं, यह सुनकर वह बोली-आर्थे ! तुम्हारी पीठ भी पाण्डुर ( फल से उजलो है ) ॥ ७४ ।। अत्थक्करूसणं खणपसिणं अलिअवअणणिब्बन्धो। उम्मच्छरसंतावो पुत्तअ ! पअवी सिणेहस्स ॥ ७५ ॥ [आकस्मिकरोषकरणं क्षणप्रसादनमलोकवचनानिबन्धः। उन्मत्सरसंतापः पुत्रक पदवी स्नेहस्य ॥] आकस्मिक रोष करना, क्षण भर में प्रसन्न होना, झूठे वचनों से आग्रह करना और ईर्ष्या से सन्तप्त होना यही प्रेम का मार्ग है ॥ ७५ ॥ पिज्जइ कण्णज्जलिहिं जणरवमिलिअंवि तुज्म संलावं । बुद्धं जणसमिलिअं सा बाला राअहंसि व्व ॥ ७६ ॥ [ पिबति कर्णाञ्जलिभिजनरवमिलितमपि तव संलापम् । दुग्धं जलसंमिलितं सा बाला राजहंसीव ॥ ] वह बाला जनख में मिले हुए भी तुम्हारे वचन कानों की अंजलि में भर कर वैसे ही पी रही है जैसे जल में मिले हुए दूध को राजहंसी पीती है ।। ७६ ॥ अइ उज्जुए ! ण लज्जसि पुच्छिज्वन्ती पिअस्स चरिआई। सम्वङ्गसुरहिणो मरुवअस्स किं कुसुमरिद्धीहि ? ॥ ७७ ॥ [ अयि ऋजुके न लज्जसे पृच्छन्ती प्रियस्य चरितानि । सर्वाङ्गसुरभेर्मरुबकस्य किं कुसुमद्धिभिः॥] अरी सरले ! तू प्रिय का चरित पूछते हुए लज्जित नहीं होती जिसके सभी अंग सुरभिपूर्ण हैं, उस मरुबक ( मरुआ ) का पुष्पों से क्या प्रयोजन ? ।। ७७ ॥ मुद्धे ! अपत्तिअन्ती पवालअंकुरअवण्णलोहिअए गिद्धोअधाउराए कीस सहत्थे पुणो धुअसि ? ॥ ७८ ॥ [ मुग्धेप्रत्ययन्ती प्रवालाङ्करवर्णलोहितौ। निधौतधातुरागौ किमिति स्वहस्तौ पुनर्धावयसि ॥] मुग्धे ! जिसमें लगा हुआ लाल रंग धुल जाने पर भी तुझे विश्वास नहीं हो रहा है, उन नव पल्लव के समान अरुण हाथों को बार-बार क्यों धो रही हो? ॥ ७८ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् उअ ! सिन्धवपव्व असच्छहाइँ धुअतूलपुञ्जसरिसाई । सोहन्ति सुअण मुक्कोअआई सरए [ पश्य सैन्धवपर्वतसदृक्षाणि धुततूलपुञ्जसदृशानि । शोभन्ते सुतनु मुक्तोदकानि शरदि सिता भ्राणि ॥ ] देखो, पशु-भक्षियों के द्वारा ले जाये जाते हुए भैसे जन्म भूमि के कुजों को अन्तिम बार घूम-घूमकर, रहे हैं ॥ ८० ॥ सुन्दरी ! देखो, शरद में पानी बरसा कर जो रिक्त हो गये हैं वे शुभ्र मेघ यों शोभित हो रहे हैं, जैसे नमक के पहाड़, धुनी हुई रुई की राशि ।। ७९ ।। आउच्छन्ति सिरेहिं विवलिहिँ उअ ! खडिएहिं णिज्जन्ता । पिच्छिमवलिअपलोइएहिं महिसा महिसा कुडजाई ॥ ८० ॥ [ आपृच्छन्ति शिरोभिर्विवलितैः पश्य खङ्गिकैर्नीयमानाः । नि:पश्चिमवलितप्रलोकिते मंहिषाः कुञ्जान् ॥ ] १६३ अभाई ॥ ७९ ॥ पुसउ मुहं ता पुत्ति ! अ वाहोअरणं विसेसरमणिज्जं । मा एअं चिअ मुहमण्डणं त्ति सो काहि पुणो वि ।। ८१ ॥ वहुआइ अपनी गरदन मोड़ कर निहारते हुए विदा माँग [ प्रोञ्छस्व मुखं तत्पुत्ति च (पुत्रिके) वाष्पोपकरणं विशेषरमणीयम् । इदमेव मुखमण्डनमिति करिष्यसि पुनरपि ॥ ] मा बेटी ! आँसुओं की भूषा से जो विशेष रमणीय हो गया है, अब वह मुख पोंछ डालो किन्तु आँसुओं को ही मुख का शृंगार समझ कर उससे फिर कभी अपना मुख न सजान ॥ ८१ ॥ मज्झे पअणुअपच अवहोवासेसु साणचिक्खिल्लं । गामस्स सीससीमन्तअं व [ मध्ये प्रतनुक पङ्कमुभयोः पार्श्वयोः श्यानकर्दमम् । ग्रामस्य शीर्षसीमन्तमिव रथ्यामुखं जातम् ॥ ] जिसके बीच में थोड़ा सा पंक रह गया हैं और दोनो किनारे सूख गये हैं । वह गली गाँव के शीर्ष - सीमन्त ( माँग ) सी हो गई है ॥ ८२ ॥ अवरजागअजामाउस्स विउणेइ घरपलोहरमज्जण पिसुणो रच्छामुहं जाअं ॥ ८२ ॥ मोहक्कण्ठं । वलअसद्दो ॥ ८३ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ [ अपराह्नागतजामातुद्विगुणर्यातगुणयति मोहनोत्कण्ठाम् । गृहपश्चाद्भागमज्जनपिशुनो वध्वा वलयशब्दः ॥ ] घर के पिछवाड़े नहान की सूचना देने वाली बहू के कंकणों की शनकार दोपहर के बाद आये हुए दामाद की सूरत - तृष्णा दूनी कर देती है ।। ८३ ॥ जुज्झचवेडामोडिअजज्जर कण्ण हस कच्छाबन्धो च्चि भीरुमल्लहिअअं गाथासप्तशती जुण्णमल्लस्स I समुक्खणइ ॥ ८४ [ युद्धचपेटामोटितजर्जजरकर्णस्य जीर्णमल्लस्य । कक्षाबन्ध एव भीरुमल्लहृदयं समुत्खनति ॥ जिसके कान युद्ध की चपेट में उखाड़ने से जर्जर हो गये हैं, उस पुराने पहलवान को काछ बाँधते देखकर ही डरपोक प्रतिद्वन्दी का हृदय फट जाता है । ८४ ।। आणत्तं तेण तुमं पइणो पहएण षडहसद्देण । महिल ! ण लञ्जसि ? णच्चसि दोहगे पाअडिज्जन्ते ॥ ८५ [ आज्ञप्तं तेन त्वां पत्या प्रहतेन पटहशब्देन । मल्लि न लज्जसे नृत्यसि दौर्भाग्ये प्रकटीक्रियमाणे ॥ ] अरी पहलवान की पत्नी ! पति के बजाये हुए ढोल के द्वारा तुम्हारे दुर्भाग्य की सूचना मिलने पर भी तुम नाचती ही रहती हो, लज्जित क्यों नहीं होती ? ।। ८५ ।। मा वच्चइ वीसम्भं इमाणें वहुचाडुकम्मणिउणाणं । निव्वत्तिअकज्जपरम्हाणं सुणआणं व खलाणं ॥ ८६ ॥ [ मा व्रजत विस्रम्भमेषां बहुचाटुकर्मनिपुणानाम् । निर्वर्तत कार्यपराङ्मुखानां शुनकानामिव खलानाम् ॥ ] जो कुत्तों की तरह खुशामद करना खूब जानते हैं और काम पूरा हो जाने पर मुँह फेर लेते हैं, उन खलों के पास विश्वस्त होकर मत जाओ ॥ ८६ ॥ अण्णग्गामपउत्था कढन्ती मण्डलाणं रिछोलि । अक्खण्डि असोहग्गा वरिसस जिअउ मे सुणिमा ॥ ८७ ॥ [ अन्यग्रामप्रस्थिता कर्षयन्ती मण्डलानां पंक्तिम् । अखण्डितसौभाग्या वर्षशतं जीवतु मे शुनी ॥ ] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् दूसरे गांव को जाते समय जो अपने पीछे कुत्तों का झुण्ड लेकर चलती हैं, वह सदासुहागिन मेरी कुतिया सैकड़ों वर्ष जीती रहे । ८७ ॥ सच्चं साहसु देअर तह तह चहुआरएण सुणएण। णिवत्तिअकज्जपरम्मुहत्तणं सिक्खिअं कत्तो ॥ ८८ ॥ [ सत्यं कथय देवर तथा चाटुकारकेण शुककेन । निर्वतितकार्यपराङ्मुखत्वं शिक्षितं कस्मात् ।।] देवर ! सच बताओ, काम पूरा होने पर मुंह फेर लेना किस खुशामदी कुत्ते से सीखा है ।। ८८ ॥ पिप्पण्णसस्सरिद्धी सच्छन्दं गाइ पामरो सरए । दलिअणवसालितण्डुलधवलमिअङ्कासु राईसु ॥ ८९ ॥ [ निष्पन्नसस्यऋद्धिः स्वच्छन्दं गाइ पामरः शरदि । दलितनवशालितण्डुलधवलमृगाङ्कासु रात्रिषु ॥] जिसकी खेतो पक गई है, वह किसान तुरन्त कूटे हुए नये चावल के समान शुभ्र चाँदनी रात में स्वच्छन्द होकर गा रहा है ।। ८९ ॥ अलिहिज्जइ पङ्कअले हलालिचलणे फलमगोवोए । केआरसोअरुम्भणत स४िअ कोमलो चलणो ॥ ९०॥ [आलिख्यते पङ्कतले हलालिचललेन कलमगोप्याः। केदारस्रोतोवरोधतिर्यक् स्थितः कोमलश्चरणः ।।] धान की रखवालो करने वाली तरुणी का कोमल चरण-जो क्यारी में पानी भरा होने के कारण कीचड़ में तिरछा पड़ा हुआ था-हल जोतते समय मिटा जा रहा है ॥ ९ ॥ विअहे दिअहे सूसइ सङ्केअअभङ्गवढिआसङ्का । आवण्डुणअमुही कलमेण समं कलमगोवी ॥ ९१ ॥ [ दिवसे दिवसे शुष्यति सङ्केतकभङ्गवर्धिताशङ्का। __ आपाण्डुरावनतमुखी कलमेन समं कलमगोपी ॥] जिसे 'सहेट' के उजड़ जाने की चिन्ता है, पीला मुंह झुकाये वह शालिरक्षिका धान के साथ दिन-दिन सूखती जा रही है ॥ ९१ ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती णवकम्मिएण अपामरेण दळूण पाउहारीओ। मोत्तब्वे जोत्तअपग्गहम्मि अवहासिणी मुक्का ॥ ९२ ॥ [नवर्मिणा पश्य पामरेण दृष्ट्वा भक्तहारिकाम् । ___मोक्तव्ये योक्त्रमग्रहेऽवहासिनी मुक्ता ॥] नये हलवाहे ने भात लाने वाली को देख कर जोत की रस्सी खोलने के बजाय नाथ ही खोल दी ।। ९२ ।। ठूण हरिअदीअं गोसे गरजूरए हलिओ। असईरहस्समग्गं तुसारधवले तिलच्छेत्ते ॥ ९३ ॥ [ दृष्ट्वा हरितदीर्घ प्रातर्नोतिखिद्यते हलिकः । असतीरहस्यमार्गं तुषारधवले तिलक्षेत्रे ॥] __ सबेरे ओस के कणों से उज्ज्वल तिल के खेत में, व्यभिचारिणी का हरा-हरा लम्बा-सा रहस्य मार्ग देखकर हलवाहा दुःखो नहीं होता ।। ९३ ॥ सङ्केल्लिओ व्व णिज्जइ खण्ड खण्डं कओ व्व पीओ च । वासागमम्मि मग्गो घरहुत्तसुहेण पहिएण ॥ ९४ ॥ [ सङ्कोचित इव नीयते खण्डं खण्डं कृत इव पीत इव । वर्षागमे मार्गो गृहभविष्यत्सुखेन पथिकेन ।] भावी सुख की कल्पना से उस बटोही ने मानों राह ही छोटी बना दी, उसे पी लिया या उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ॥ ९४ ।। धण्णा बहिरा अन्धा ते चिचअ जीअन्ति माणुसे लोए। ण सुगंति पिसुणवअणं खलाण ऋद्धि ण पेक्खन्ति ॥ ९५ ॥ .. [धन्या बधिरा अन्धास्त एव जीवन्ति मानुपे लोके । __न शृण्वन्ति पिशुनवचनं खलानामृद्धि न प्रेक्षन्ते ॥] मनुष्य लोक में वे बहरे और अन्धे लोग धन्य हैं जो दुष्टों की चुगली को नहीं सुनते और जो उनको समृद्धि को न देखते हुये जोवन जीते हैं ॥ ९५ ॥ एण्हि वारेइ जणो तइआ मूइल्लओ कहिं व्व गओ। जाहे विसं व्व जाअं सव्वङ्गपहोलिरं पेम्म ॥ ९६ ॥ [ इदानीं वारयति जनस्तदा मूलकः कुत्रापि वा गतः । यदा विषमिव जात सर्वाङ्गघूणितं प्रेम ।।] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं शतकम् १६७ जब प्रेम बिष की भांति सर्वांग में फैल जाता है तब लोग उसका वारण करते है । ये लोग तब कहाँ चले गये थे जब वह प्रारम्भ हो हुआ था ।। ९६ ।। कहें तंपि तुइ ण णाअं जह सा आसन्दिआण बहुआणं । काऊण उच्चवचिअं तुह दंसणलहला पडिआ ॥ ९७ ॥ [ कथं तदपि त्वया न ज्ञातं यथा सा आसंदिकानां बहूनाम् । कृत्वा उच्चावचिकां तव दर्शनलालसा पतिता ।।] क्या तुमने इसे जाना कि तुम्हें देखने की लालसा में एक के ऊपर एक आसन्दी लगाकर चढ़ते हुये मैं गिर पड़ी थो? ।। ९७ ॥ चोराण कामुआण अ पामरपहिआण कुक्कुडो वअइ । रे रमह वहह वाहयह एत्थ तणुआअए रअणी ॥ ९८ ॥ [ चौरान्कामुकांश्च पामरपथिकांश्च कुक्कुटो वदति । रे रमत पहत वाहयत अत्र तन्वी भवति रजनी ।। ] चोरों, कामीजनों और पथिकों को मुर्गा बांग देते हुये यह कहता है कि अब थोड़ी सी रात शेष रह गई है अतः वे क्रमशः चोरी का माल ले जायँ, रमण कर लें और अपनी यात्रा पर चल दें ।। ९८ ॥ अण्णोण्ण कडक्खन्तरपेसिअमेलीणदिटिपसराणं । दो च्चिअ मण्णे कसभण्डणाई समहं पहसिआइं ॥ ९९ ॥ [अन्योन्यकटाक्षान्तरप्रेषितमिलितदृष्टिप्रसरौ । द्वावपि मन्ये कृतकलहौ समकं प्रहसितौ ॥ ] आपस में झगड़ने के बाद नायक और नायिका एक दूसरे को कटाक्ष से देखते और आँखें मिलाते हुये मानो एक साथ ही हंस पड़े ॥ ९९ ॥ संझागहिअजलजलिपडिमासंकन्तगोरिमुहकमलं । सलिअंचिअ फुरिओट्ट विअलिअमन्तं हरं णमह ॥ १० ॥ [संध्यागृहीतजलालिप्रतिमासंक्रान्तगौरोमुखकमलम् । अलीकमेव स्फुरितोष्ठं विलितमंत्रं हरं नमत ॥ ] संध्या हेतु ली गई जलाञ्जलि में पार्वती के मुख को देखकर मिथ्या ही मंत्रविहीन कंपपाते होठों वाले शिव को नमन करो ॥ १०० ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ गाथासप्तशती इअ सिरि हालविरए पाउअकव्वम्मि सत्तसए । सत्तमसअं समत्तं गाहाणं सहावरमणिज्जं ॥ १०१ ॥ [ इति श्रीहालविरचिते प्राकृतकाव्ये सप्तशते । सप्तमशतं समाप्तं गाथा स्वभावरमणीयम् ॥ ] इस प्रकार श्रीहाल विरचित प्राकृत काव्य सप्तशतक का सुन्दर सप्तम शतक समाप्त हुआ ।। १०१ ॥ * एसो कइणामं किअ गाहापडिवद्धवड्ढिआमोओ । सत्तसओ समत्तो सालाहणविरइओ कोसो ॥ [ एव कविनामाङ्कितगाथा प्रतिबद्धवर्षितामोदः । सप्तमशतकः समाप्तः शालवाहनविरचितः कोषः ॥ ] इति पाठान्तरम् ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे महत्वपूर्ण प्रकाशन 1. Studies in Jain Philosophy - Dr. Nathmal Tatia Rs. 100.00 2. Jain Temples of Western India - Dr. Harihar Singh Rs. 200.00 3. Jain Epistemology - 1. C. Shastri Rs. 150.00 4. Concept of Panchashila in Indian Thought ___Dr. Kamala Jain Rs. 50.00 5. Concept of Matter in Jain Philosophy - Dr. J. C. Sikdar Rs. 150.00 6. Jaina Theory of Reality - Dr. J. C. Sikdar Rs. 150.00 7 Jaina Perspective in Philosophy and Religion - Dr. Ramjee Singh Rs. 100.00 8. Aspects of Jainology, Vol.1 to 5 (Complete Set )Rs. 1100.00 9. 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