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षष्ठं शतकम्
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देखा, प्रिय ने झट जिसका केश पकड़ कर मुख ऊपर कर दिया था, वह मानिनी, उसके मुख से गिराई हुई मदिरा को रोष की दवा के समान धीरे-धीरे पी रही है ॥ ५० ॥
गिरिसोत्तोत्ति भुअंगं महिसो जोहर लिहइ संतत्तो ।
महिसस्स कवत्थरझरो त्ति सप्पो पिअइ लालं ॥ ५१ ॥
[ गिरिस्रोत इति भुजंगं महिषो जिह्वया लेढि संतप्तः । महिषस्य कृष्णप्रस्तरझर इति सर्पः पिबति लालाम् ॥ ]
सन्तप्त भैंसा कृष्ण सर्प को पर्वतीय स्रोत समझ कर जिह्वा से चाट रहा है और सर्प भैंसे के मुँह से चूती लार को नील पाषाण से झरता हुआ झरना -समझ कर पी रहा है ॥ ५१ ॥
पञ्जरसारि अत्ता ण णेसि कि एत्थ रद्दहराहिन्तो । वीसम्भजम्पिआई एसा लोआण पअडेइ ॥ ५२ ॥
[ पञ्जरसारी मातुलानि न नयसि किमत्र रतिगृहात् । विस्रम्भजल्पितान्येषा लोकानां प्रकटयति ॥ ]
मामी ! पिंजड़े की सारिका को रति मन्दिर से बाहर क्यों नहीं रख देती ? वह एकान्त में होने वाले हमारे प्रणयालाप लोगों के सामने प्रकट कर देती है ।। ५२ ।।
एहमेत्ते गामेण पडद्द भिक्ख त्ति कीस मं भणसि ।
धम्मि करञ्जभञ्जअ जं जीअसि तं पि दे बहुअं ॥ ५३ ॥
[ एतावन्मात्रे ग्रामे न पतति भिक्षेति न किमिति मां भणसि । धार्मिक करञ्जमज्जक यञ्जीवसि तदपि ते बहुकम् ॥
'इतने बड़े गाँव में भीख नहीं मिली' यह मुझसे क्यों कहते हो ? अरे । करंज की शाखा तोड़ने वाले धार्मिक ! तुम जीवित हो, यहीं तुम्हारे लिये बहुत है ॥ ५३ ॥
जन्तिअ गुलं विमग्गसि ण अ मे इच्छाह वाहसे जन्तं । अणरसिअ किं ण आणसिण रसेण विणा गुलो होइ ॥ ५४ ॥
[ यान्त्रिक गुडं विर्मागयसे न च ममेच्छया वाहयसि यन्त्रम् । अरसिक किं न जानासि न रसेन विना गुडो भवति ॥ ]
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