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________________ . १३४ गाथासप्तशती यन्त्र-चालक ! गुड़ तो चाहते हो लेकिन मेरी इच्छानुसार यन्त्र नहीं चलाते। अरे नीरस ! क्या तुम यह नहीं जानते कि बिना रस के गुड़ नहीं होता? ॥ ५४॥ पत्तणिअम्बप्फंसा पहाणुत्तिण्णाएँ सामलडीए । जलबिन्दुएहि चिहुरा रुअन्ति बन्धस्स व भएण ॥ ५५ ॥ [प्राप्तनितम्बस्पर्शा स्नानोत्तोर्णायाः श्यामलाङ्गयाः। ____ जलबिन्दुकैश्चिकुरा रुदन्ति बन्धस्येव भयेन ॥] सद्यःस्नाता श्यामांगी का नितम्ब चुम्बी केश-पाश मानों बन्धन के डर से जल बिन्दुओं के आंसू बहा रहा है ।। ५५ ।। गामङ्गणणिअडिअकल्वक्स वड तुज्य दूरमणुलग्गो।। तित्तिल्लपडिक्खकभोइओ वि गामो ण उविग्गो ॥ ५६ ॥ [ग्रामाङ्गणनिगडितकृष्ण वट तव दूरमनुलग्नः। दौः सन्धिकप्रतीक्षकभोगिकोऽपि ग्रामो नोद्विग्नः । ] वटवृक्ष ! तुमने कृष्णपक्ष के अन्धकार को ग्रामांगण में बन्दी बना लिया है। जिसके कारण विलासी युवक भीत होकर राजपुरुषों की प्रतीक्षा करते रहते है, तुम्हारी छाया में पले हुये उस गांव पर कभी विपत्ति नहीं आई ।। ५६ ॥ अथवा जिसका ग्रामाध्यक्ष रक्षा कार्य के लिये दौवारिकों की प्रतीक्षा करता है (स्वयं कुछ नहीं करता ) तुम्हारे आश्रय में पले हुए उस गाँव पर कभी उद्विग्न नहीं हुआ। सुप्पं उड्ढं चणआ ण भज्जिआ सो जुआ अइक्कन्तो। अत्ता वि घरे कुविआ भूआण व वाइओ वंसो ॥ ५७ ॥ [शपं दग्धं चणका न भृष्टाः स युवातिक्रान्तः । श्वश्रूरपि गृहे कुपिता भूतानामिव वादितो वंशः ॥] सूप जल गया किन्तु चना नहीं हुआ और वह नवयुवक भी चला गया । सास कुपित हो गई तो जैसे बहरे के आगे वंशी बज रही हो ।। ५७ ॥ पिसुणन्ति कामिणीणं जललुक्कपिआवऊहणसुहेल्लि । कण्डइअकबोलुप्फुल्लणिच्चलच्छीई वअणाई॥५८॥ [पिशुनयन्ति कामिनीनां जलनिलीनप्रियावगृहनसुखकेलिम् । कण्टकितकपोलोत्फुल्लनिश्चलाक्षीणि वदनानि ।।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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