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________________ १३२ गाथासप्तशती पथिक ! तुम चारों ओर देखकर लम्बी आह भर लेते हो, कभी जंभाई लेते हो, कभी गाते हो, कभी रोने लगते हो, कभी गिरते हो, कभी लड़खड़ाते हो और कभी मूच्छित हो जाते हो। तुम्हारे प्रवासी होने से ही क्या हुआ ? ॥ ४६ ॥ वट्ठ ण तरुणसुरअं विविहविलासेहिं करणसोहिल्लं । दीओ वि तग्गअमणो ग पि तेल्लं ण लक्खेइ ॥ ४७ ॥ [ दृष्टा तरुण सुरतं विवधविलासैः करणशोभितम् ।। दीपोऽपि तद्गतमना गतमपि तैलं न लक्षयति ।।] विविध विलासों, करणों एवं मुद्राओं से युवक और युवती की रति-लीला देखने में दीपक इतना तन्मय हो गया कि उसे समाप्त होने वाले तेल का ज्ञान ही नहीं रह गया ॥ ४७ ॥ पुणरुत्तकरप्फालणउहअतडुल्लिहरणवड्ढणसआई । जहाहिवस्स माए पुणो वि जइ जम्मा सहइ ॥ ४८ ॥ [पुनरुक्तकरास्फालनोभयतटोल्लिखनपीडनशतानि । यूथाधिपस्य मातः पुनरपि यदि नर्मदा सहते ।।] अरी मां । जिस समय वह गजराज अपने शुण्ड से सम्पूर्ण जलराशि को आलोडित कर दोनों तटों को ढहाने लगता है, उस समय उस के अंगों का अपार मर्दन वह नर्मदा ही है, जो सह पाती है ।। ४८ ॥ वोडसुणओ विअण्णो, अत्ता मत्ता, पई वि अण्णत्थो । फलिहं व मोडिअं महिसएण, को तस्स साहेउ ॥ ४९ ॥ [ दुष्टशुनको विपन्नः श्वश्रूर्मत्ता पतिरप्यन्यस्थः। कास्यिपि भग्ना महिषकेण कस्तस्य कथयतु ।।] दुष्ट कुत्ता विपन्न हो गया है, सास पागल हो गई है, मेरे स्वामी अन्यत्र गये हैं और कपास का खेत भैस ने चर लिया है, यह सब उनसे कौन कहे ? ।। ४९ ॥ सकअग्गहरहसुत्ताणिआणणा पिअइ पिअमुहविइण्णं । थो थो सेसोसहं व उअ माणिणो मइरं ॥ ५० ॥ [ सकचग्रहरभसोत्तानितानना पिबति प्रियमुखवितोर्णाम् । स्तोकं स्तोकं रोषौधमिव पश्य मानिनो मदिराम् ।।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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