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षष्ठं शतकम्
१३१ [ दृश्यते न चूतमुकुलं श्वश्रू न च वाति मलयगन्धवहः ।
प्राप्तं वसन्तमासं कथयत्युत्कण्ठितं चेतः ।।] आयें ! अभी रसाल मुकुलित नहीं हुए, मलयानिल नहीं चला, फिर भी मेरा उत्कंठित हृदय बतला रहा है कि वसन्त आ गया है ॥ ४२ ॥
अम्बवणे भमरउलं ण विणा कज्जेण ऊसुअं भमइ । कत्तो जलणेण विणा धूमस्स सिहाउ दीसन्ति ॥४३॥ [आम्रवने भ्रमरकुलं न विना कार्येणोत्सुकं भ्रमति ।
कुतो ज्वलनेन विना धूमस्य शिखा दृश्यन्ते ॥] आम्र-वन में अकारण ही उत्सुक भ्रमर मण्डली मँडराने लगी है। अग्नि के बिना धुएं की रेखा कब देखी जाती है ? ॥ ४३ ॥ दइअकरग्गहलुलिओ धम्मिल्लो सोहुगन्धिों वअणं । मअणम्मि एत्ति चिअ पसाहणं हरइ तरुणीणं ॥४४ ॥
[ दयितकरग्रहलुलितो धम्मिल: सीधुगन्धितं वदनम् । ___ मदने एतावदेव प्रसाधनं हरति तरुणीनाम् ॥ ]
प्रिय के पाणि से विशृंखल केश-पाश एवं सुरा से सुवासित मुख, तरुणियों के यही आभूषण कामोत्सव में मनोहर लगते हैं ॥ ४४ ॥ गामतरुणीओं हिअअं हरन्ति छेआण थणहरिल्लीओ। मअणे कुसुम्भरजिअकञ्चुआहरणमेत्ताओ॥ ४५ ॥
[ग्रामतरुण्यो हृदयं हरन्ति विदग्धानां स्तनभारवत्यः । ... मदने कुसुम्भरागयुक्तकञ्चुकाभरणमात्राः ॥]
होली के दिन कुसुम्भी रंग में रंगी हुई एकमात्र कंचुकी जिनका आभूषण है, वे उन्नत पयोधरा ग्राम्य तरुणियाँ विदग्ध पुरुषों का चित्त चुरा लेती है ॥ ४५ ॥
आलोअन्त दिसाओ ससन्त जम्भन्त गन्त रोअन्त । मुच्छन्त पडन्त खलन्त पहिअ किं ते पउत्थेण ॥ ४६॥ [आलोकयन्दिशः श्वसजृम्भमाणो गायन्दन् । मुर्छन्पतन्स्खलन्पथिक कि ते प्रवसितेन ॥1
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