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________________ १८० गाथासप्तशतो [ दृष्ट्वा उन्नमतो मेघानामुक्तजीविताशया। पथिकगृहिण्याडिम्भोऽवरुदितमुख्यया दृष्टः ॥] उमड़ती हुई मेघमाला को देखकर, जिसने जोवन की आशा त्याग दी थो, परदेशी की वह वियोगिनी प्रिया अश्रुपूर्ण नयनों से अपने नन्हें बालक को निहारने लगी ॥ ३८ ॥ अविहवक्खणवलअं ठाणं णेन्तो पुणो पुणो गलिअं। सहिसत्थो च्चिअ माणंसिणीअ बलआरओ जाओ ॥ ३९॥ . [ अविधवालक्षणवलयं स्थानं नयन्पुनः पुनर्गलितम् । सखीसार्थ एव मनस्विन्या वलयकारको जातः ।।] सौभाग्य का प्रतीक कंकण जब बार-बार गिर जाता था तो उसे पहनातो हुई सखियां ( या सखियों का समूह ही वलय बन कर ) ही मनस्विनी नायिका को धीरज देती थीं ।। ३९ ॥ पहिअवहू विवरन्तरगलिअजलोल्ले घरे अणोल्लं पि। उद्देसं अविरअवाहसलिलणिवहेण उल्लेइ ॥ ४० ॥ [पथिकवधूर्विवरान्तरगलितजला गृहेऽनामपि । उद्देशमविरतबाष्पसलिलनिवहेनार्द्रयति ॥] छिद्रों से चूते हुए जल से पंकिल गृह का जो भाग बच गया था, पथिक की प्रिया ने उसे भी आसुओं से भिगा दिया ॥ ४० ॥ जीहाइ कुणन्ति पिअं भवन्ति हिअअम्मि णिव्वुई काउं। पोडिज्जन्ता वि रसं जणन्ति उच्छू कुलोणा अ॥४१॥ [जिह्वायां (पक्षे-जिह्वया) कुर्वन्ति प्रियं भवन्ति हृदये निर्वृति कर्तुम् । पोड्यमाना अपि रसं जनयन्तीक्षवः कुलीनाश्च ॥] जैसे ईख जिह्वा को स्वाद प्रदान कर हृदय को तृप्त कर देती है और पीड़ित करने पर भी रस उत्पन्न करती है, वैसे ही कुलीन पुरुष भी जिह्वा से मधर बोलते हैं, मनोरथ को पूर्ण करते हैं, आह्लादित करते हैं और खिन्न होने पर भी प्रेम ही प्रकट करते हैं । ॥ ४१ ॥ दोसइ ण चूअमउलं अत्ता ण अवाइ मलअगन्धवहो। पत्तं वसन्तमासं साहइ उक्कण्ठिअं चेअं॥ ४२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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