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________________ १२९ षष्ठं शतकम् [ आरोहति जीणं कुब्जकमपि यत्पश्यत वेल्लनशीला पुसी। नीलोत्पलपरिमलवासितायाः शरदः स दोषः।] देखो, यह पुसी ( एक प्रकार की ककड़ी ) जो पुराने और कुबड़े वृक्ष पर भी चढ़ रही है, वह नीलोत्पल के परिमल से सुगन्धित शरद् ( मदिरा के चषक ) का ही दोष है ।। ३४ ।। उप्पहाविहजणो पविजिम्हिअकलअलो पहअतूरो। अन्वो सो च्चे छणो तेण विणा गामडाहो व्व ॥ ३५ ॥ [ उत्पथप्रधावितजनः प्रविजृम्भितकलकलः प्रहततूर्यः । दुःखं स एव क्षणस्तेन बिना ग्रामदाह इव ।। ] होली के पर्व में लोग इधर-उधर दौड़ रहे हैं, गाँव में अत्यधिक कोलाहल बढ़ गया है और ढोल पोटे जा रहे हैं। उनके वियोग में मुझे यह पर्व ऐसा लगता है जैसे गाँव में आग लगी हो ॥ ३५ ॥ उल्लावन्तेण ण होइ कस्स पासट्टिएण ठड्ढेण । सङ्का मसाणपाअवलम्बिअचोरेण व खलेण ॥ ३६॥ . [ उल्लापयमानेन न भवति कस्य पार्श्वस्थितेन स्तब्धेन । शङ्का श्मशानपादपलम्बितचोरेणेव खलेन ।।] जिस प्रकार श्मशान के वृक्षों पर चोरों के पाशबद्ध फाँसी हेतु लटकाये गये स्तब्ध ( अकड़े हुए ) और चिल्लाहट करवाने वाले, डरावने मृत शरीरों से सभी को भय होता है, उसी प्रकार पार्श्ववर्ती, अहंकार से अकड़े हुए एवं चिल्लाने वाले दुष्ट व्यक्ति से किसे भय नहीं होगा ? ।। ३६ ॥ असमत्तगुरुअकज्जे एहि पहिए घरं णिअत्तन्ते । णवपाउसो पिउच्छा हसइ व कुडअट्टहासेहि ॥ ३७ ॥ [ असमाप्तगुरुककार्ये इदानी पथिके गृहं प्रतिनिवर्तमाने । नवप्रावृट् पितृष्वसः हसतीव कुटजाट्टहासैः ।।] आवश्यक कार्य समाप्त किए बिना ही पथिकों के घर लौट आने पर। वर्षा काल पुष्पित कुटजों के व्याज से मानों अट्टहास कर रहा है ॥ ३७ ॥ दटूण उण्णमन्ते मेहे आमुक्कजीविआसाए । पहिअघरिणोअ डिम्भो ओरुण्णमुहीअ सच्चविओ॥३८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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