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________________ चतुर्थ शतकम् [कुसुममया अप्यतिखरा अलब्धस्पर्शा अपि दुःसहप्रतापाः। भिन्दन्तोऽपि रतिकराः कामस्य शरा बहुविकल्पाः ।। पुष्पमय होने पर भी अत्यन्त कठोर, स्पर्श शून्य होने पर भी असह्य-सन्तापकारी एवं हृदय को बींध डालने पर भी प्रिय लगने वाले मदन-वाणों का स्वरूप ही अनेक प्रकार का है ॥ २६ ॥ ईसं जणेन्ति दावेन्ति मम्महं विप्पि सहावेन्ति । विरहे ण देन्ति मरिउं अहो गुणा तस्स बहुमग्गा ॥ २७ ॥ [ ईर्ष्या जनयन्ति दीपयन्ति मन्मथं विप्रियं साहयन्ति । विरहे न ददति मर्तुमहो गुणास्तस्य बहुमार्गाः॥] अहा ! उनके गुण असंख्य है, जो ईर्ष्या उत्पन्न कर देते हैं, काम को उद्दीप्त करते हैं, प्रतिकूलता को भो सद्य बना देते हैं और विरह में भी मरने नही देते ।। २७ ॥ णीआई अज्ज णिविकव पिणद्धणवरणऑइ वराईए। घरपरिवाडीअ पहेणआई तुह दंसणासाए ॥२८॥ [ नीतान्यद्य निष्कृप पिनद्धनवरङ्गकया वराक्या। गृहपरिपाटया प्रहेणकानि तव दर्शनाशया ॥] अरे निर्दय ! यह बेचारी तेरे दर्शन की आशा से नई रँगी साड़ी पहन कर 'घर-घर घूमती हुई बायने बाँटती रही ॥ २८ ॥ सूइज्जइ हेमन्तम्मि दुग्गओ पुप्फुआसुअन्धेण । धूमकविलेण परिविरलतन्तुणा जुण्णवडएण ॥ २९ ॥ [सच्यते हेमन्ते दुर्गतः करीषाग्निसुगन्धेन । धूमकपिलेन परिविरलतन्तुना जीर्णपटकेन ।] जिससे करसी को आग की सुगन्ध निकल रही है, जो धूयें से पीला हो गया है तथा जिसके सूत्र विरल हो चुके हैं, वह जीर्ण वस्त्र हेमन्त में दरिद्र मनुष्य की सूचना दे देता है ॥ २९ ॥ खरसिप्पिरउल्लिहिआइँ कुणइ पहिओ हिमागमपहाए । आअमणजलोल्लिअहत्थफंसमसिणाई अङ्गाई ॥३०॥ [ तीक्ष्णपलालोल्लिखितानि करोति पथिको हिमागमप्रभाते। आचमनजलादितहस्तस्पर्शमसृणान्यङ्गानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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