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________________ ८० गाथासप्तशती जाड़े की रात में सोने के लिये बिछाये हुये तीक्ष्ण पुआल से अंकित अंगों को सबेरा होने पर वह पथिक मुंह धोते समय भोंगे हाथों के स्पर्श से चिकना कर रहा है ॥ ३० ॥ णक्खक्खुडीअं सहआरमञ्जरि पामरस्य सीसम्मि । बन्दिम्मिव हीरन्ती भमरजुआणा अणुसरन्ति ॥ ३१॥ [ नखोत्खण्डितां सहकारमजरी पामरस्य शीर्षे । बन्दोमिव ह्रियमाणां भ्रमरयुवानोऽनुसरन्ति ।।] नखों से खंडित आम्र मंजरी को वन्दिनो की भाँति शिर पर ले जाते हुये अधम पुरुष के पोछे तरुण भ्रमर दौड़ रहे हैं ।। ३१ ॥ सूरच्छलेण पुत्तअ कस्स तुमं अञ्जलिं पणामेसि । हासकडक्खुम्मिस्सा ण होन्ति देवाणं जेक्कारा ॥ ३२ ॥ [ सूर्यच्छलेन पुत्रक कस्मै त्वमञ्जलिं प्रणामयसि। हास्यकराक्षोन्मिश्रा न भवन्ति देवानां जयकाराः ॥] पुत्र ! तुम सूर्य के व्याज से किसे हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे हो ? देवताओं की जयध्वनि हास्य और कटाक्ष से मिश्रित नहीं होती ।। ३२ ॥ मुहविज्झविअपईवं णिरुद्धसासं ससङ्किओल्लावं । सवहस अरक्सिओळं चोरिअरमिअं सुहावेइ ॥ ३३ ॥ [ मुखविध्मापितप्रदीपं निरुद्धश्वासं सशङ्कितोल्लापं । शपथशतरक्षितोष्ठं चोरिकारमितं सुखयति ॥ ] जहां मुंह से फूंककर दोपक बुझा दिया जाता है, सांसें रोककर डरते-डरते बात को जातो है और सौ-सौ शपथों से अधर सुरक्षित रखे जाते हैं, वह चोरी-- चोरी होने वाली रति-क्रीड़ा कितनी सुखद होती है ।। ३३ ।।। गेअच्छलेण भरिउ कस्स तुमं रुअसि णिभरुक्कण्ठं । मण्णुपडिरुद्धकण्ठद्धणिन्तखलिअक्खरुल्लावं ॥३४॥ [गेयच्छलेन स्मृत्वा कस्य त्वं रोदिषि निर्भरोत्कण्ठम् । मन्युप्रतिरुद्धकण्ठार्धनिर्यत्स्खलिताक्षरोल्लापम् ॥] किसकी स्मृति में अत्यन्त उत्कंठित होकर गीत के व्याज से रो रही हो?' क्योंकि शोक से निरुद्ध कण्ठ से निकलने वाले तुम्हारे अधरे वाक्य स्खलित होते जा रहे हैं ॥ ३४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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