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चतुर्थं शतकम् बहलतमा हसराई अज्ज पउत्थो पई घरं सुण्णं । तह जग्गेसु सअज्जिअ ण जहा अम्हे मुसिज्जामो ॥ ३५ ॥
[ बलहतमा हतरात्रिरद्य प्रोषितः पतिर्गृहं शून्यम् ।
तथा जागृहि प्रतिवेशिन्न यथा वयं मध्यामहे ॥] अँधेरी रात आ गई है। आज स्वामी भी परदेश चले गये। मेरा गृह सूना सूना है । पड़ोसी ! जागते रहना नहीं तो मुझे चोर लूट ले जायेंगे ॥ ३५ ॥ संजीवणोसहिम्मिव सुअस्स रक्खइ अणण्णवावारा । सासू णवब्भदंसणकण्ठागअजीविअं सोल्॥३६ ॥
[संजीवनौषधमिव सुतस्य रक्षत्यनन्यव्यापारा ।
श्वनवाभ्रदर्शनकण्ठागतजीवितां स्नुषाम् ॥] नये मेघों को देखते ही जिसके प्राण कंठ में आ गये हैं, सास पुत्र की पुनरुज्जीवनी ओषधि के समान उस बहू को, सब काम छोड़कर बचाती
गुणं हिअअणिहित्ताइ वससि जाआइ अम्ह हिअअम्मि । अण्णह मणोरहा मे सुहअ कहं तीअ विण्णाआ ॥ ३७॥
[ नूनं हृदयनिहितया वससि जाययास्माकं हृदये।
अन्यथा मनोरथा मे सुभग कथं तया विज्ञाताः॥] तुम अवश्य हो हृदयवासिनी प्रिया के साथ मेरे हृदय में निवास करते हो अन्यथा उसने मेरे मनोरथों को कैसे जान लिया ।। ३७ ॥ तई सुहम अईसन्ते तिस्सा अच्छीहि कण्णलग्गेहि । दिणं घोलिरवाहेहिं पाणिरं दसणसुहाणं ॥ ३८॥
[ त्वयि सुभग अदृश्यमाने तस्या अक्षिभ्यां कर्णलग्नाभ्यां ।
दत्तं घूर्णनशीलबाष्पाभ्यां पानीयं दर्शनसुखेभ्यः । ] प्यारे ! तुम्हारे अदृश्य होते ही कानों तक फैली हुई सजल आँखों से उसने दर्शन-सुख को तिलांजलि दे दी ॥ ३८ ॥
उप्पेक्खागअ तुह मुहदसण पडिरुद्धजीविआसाइ । दुहिआइ मए कालो कित्तिअमेत्तो व्व अव्वो ॥३९॥
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