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गाथासप्तशती [ उत्प्रेक्षागत त्वन्मुखदर्शनप्रतिरुद्धजीविताशया। - दुःखितया मया कालः कियन्मात्रो वा नेतव्यः ॥ ] ध्यानावस्था में तुम्हारे मुख का दर्शन पाकर जोवन की आशा रखने वाली मुझ दुःखदायिनी को अभी और कितने दिन बिताने होंगे ।। ३९ ॥
वोलीणालक्खिअरूअजोवणा पुत्ति कं ण दुम्मेसि । दिट्ठा पणट्टपोराणजणवआ जम्मभूमि व्व ॥४०॥
[ व्यतिक्रान्तालक्षितरूपयौवना पुत्रि कं न दुनोषि।
दृष्टा प्रणष्टपौराणजनपदा जन्मभूमिरिव ।। बेटी ! तुम्हारा रूप और यौवन अब नष्ट हो चुका है, पुराने परिचित जन-समूह ( जन व्रज ) से शन्य जन्मभूमि के समान तुम्हें देखकर किसे दुःख न' होगा ॥ ४० ॥ परिओसविअसिएहि भणिों अच्छोहि तेण जणमजले । पडिवण्णं तीअ वि उव्वमन्तसेएहि अनेहि ॥४१॥
[परितोषविकिसिताभ्यां भणितमक्षिभ्यां तेन जनमध्ये ।
प्रतिपन्नं तयाप्युद्वमस्त्वेदैरङ्ग ।] नायक ने लोगों के बीच में हर्ष-विकसित नेत्रों से कह दिया और नायिका ने स्वेद बहाते हुए अंगों से स्वीकार कर लिया ॥ ४१ ॥ एक्कक्कमसंदेसाणुराअवड्ढन्त कोउहल्लाई। दुःखं असमत्तणोरहाइँ अच्छन्ति मिहुणाई ॥ ४२ ॥ [अन्योन्यसंदेशानुरागवर्धमानकौतूहलानि ।
दुःखमसमाप्तमनोरथानि तिष्ठन्ति मिथुनानि ।।] परस्पर सन्देश द्वारा उत्पन्न अनुराग से जिनका कुतूहल बढ़ गया है तथा जिनकी इच्छाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, वे दोनों प्रेमी बड़े ही कष्ट से जी रहे हैं ॥ ४२ ॥ जइ सो ण वल्लहो विवअ गोत्तग्गहणेण तस्स सहि कीस । होइ मुहं ते रविअरफंसव्विसई व तामरसं ॥४३॥
[ मदि स न वल्लभ एव गोत्रग्रहणेन तस्य सखि किमिति । यवति मुखं तव रविकरस्पर्शविकसितमिव तामरसम् ॥]
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