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________________ चतुर्थ शतकम् ८३ यदि तू उससे प्रेम नहीं करती है तो उसका नाम लेते ही तेरा मुख सूर्य की किरणों स्पष्ट विकसित पद्म सा क्यों हो जाता है ? ॥ ४३ ॥ माणदुमपरुसपवणस्स मामि सव्वङ्गणिव्वुइअरस्स । भद्दं रइणाडअपुव्वरङ्गस्स ॥४४॥ अवऊहणस्स [ मानद्रुमपरुषपवनस्य मातुलानि सर्वाङ्गानिवृतिकरस्य । अवगूहनस्य भद्रं रतिनाटकपूर्व रङ्गस्य ॥ ] मामी ! जो सभी अंगों को तृप्ति प्रदान करता है, जो मान-वृक्ष का प्रभंजन ★ एवं रति-नाटक का पूर्वं रंग है, उस आलिंगन का मंगल हो ॥ ४४ ॥ णिअआणुमाणणीस, हिअअ दे पसिअ विरम एताहे । अमुणिअपरमत्थजणाणुलग्ग फीस ह्म लहुएसि ॥४५॥ [ निजकानुमाननिःशङ्क हृदय हे प्रसोद विरमेदानीम् । अज्ञातपरमार्थजनानुलग्न किमित्यस्माल्लघयसि ॥ ] " जैसे मैं विरह से व्यथित हूँ, वैसे ही दूसरे भो होंगे" यह सोचकर निश्चिन्त रहने वाले हृदय ! रुक जाओ, जिसने परायी पीर नहीं जानी है, उस व्यक्ति में आसक्त होकर मेरा गौरव क्यों कम करते हो ? ।। ४५ ।। ओसहिअजणो पइणा सलाहमाणेण अइचिरं हसिओ । चन्दोसि तुज्झ वअणे विइण्णकुसुमञ्जलिविलक्खो ॥४६॥ [ आवसथिकजनः पत्या श्लाघमानेनातिचिरं हसितः । इन्द्र इति तव वदने वितीर्णं कुसुमाञ्जलिविलक्षः ॥ ] जब वह व्रती चन्द्रमा के धोखे में तुम्हारे मुख को ही पुष्पांजलि देकर लज्जित हो गया तो पतिदेव उसकी प्रशंसा करते हुये देर तक हँसते रहे ॥ ४६ ॥ छज्जतेहि अणुदिणं पच्चक्खम्मि वि तुमम्मि अहि । बालअ पुच्छिज्जन्ती ण आणिमो कस्स किं भणिमो ॥४७॥ [क्षीयमाणौरनुदिनं प्रत्यक्षेऽपि त्वय्यङ्गैः । बालक पृच्छ्यमाना न जानीमः कस्य किं भणामः ॥ ] तुम्हारी उपस्थिति में भी अहरह मेरे अंग क्यों क्षीण होते जा रहे हैं, सखियाँ जब इसका कारण पूछने लगती हैं, तो मेरी समझ में नहीं आता कि कौन सा उत्तर दूँ ॥ ४७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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