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गाथासप्तशतो अङ्गाणं तणुआरअ सिक्खावअ दोहरोइअव्वाणं । विणआइक्कमआरअ मा मा णं पह्मसिज्जासु ॥ ४८॥ [अङ्गानां तनुकारक शिक्षक दीर्घरोदितव्यानाम् ।
विनयातिक्रमकारक मा मा एनां प्रस्मरिष्यसि ।।] जिसके अंगों को तुमने दुर्बल किया है, जिसे चिरकाल से रोने की शिक्षा दो है तथा जिसने तुम्हारे लिये शील का उल्लंघन किया है, उसे फिर याद मत करना ॥ ४८ ॥ अण्णह ण तीरइ चिअ परिवड्ढन्तगरुअं पिअअमस्स । - मरणविणोएण विणा विरमावेउं विरहदुक्खं ॥४९॥ [ अन्यथा न शक्यत एव परिवर्धमानगुरुकं प्रियतमस्य ।
मरणविनोदेन विना विरमयितु विरहदुःखम् ॥] प्रिय की विरह व्यथा बढ़ते-बढ़ते बहुत बढ़ गई है। अब तो मृत्यु के बिना उसकी शान्ति का कोई आय ही नहीं है ॥ ४९ ।।
वण्णन्तीहि तुह गुणे बहुसो अम्हि छिज्छईपुरओ। बालअ सअमेअ कोसि दुल्लहो कस्स कुप्पामो ॥ ५० ॥
[वर्णयन्तोभिस्तव गुणान्बहुशोऽस्माभिरसतोपुरतः।
बालक स्वयमेव कृतोऽसि दुर्लभः कस्मै कुप्यामः ।।] व्यभिचारिणी स्त्रियों के सम्मुख तुम्हारे अनन्त गुणों का वर्णन कर हमने स्वयं ही तुम्हें दुर्लभ बना दिया है, अब कोप किस पर करें ।। ५० ॥ जाओ सो वि विलक्खो मए वि हसिऊण गाढमुवगूढो । पढमोसरिअस्स णिसणस्स गण्ठि विमग्गन्तो ॥५१॥ [ जातः सोऽपि विलक्षो मयापि हसित्वा गाढमुपगूढः ।।
प्रथमापसृतस्य निवसनस्य ग्रंथि विमार्गयमाणः ।। ] पहले ही खुली हुई नीवी को ग्रंथि जब ढूढने पर भी न मिली, तो के लज्जित हो गये और मैंने हंसकर दोनों भुजाओं से उन्हें कस लिया ।। ५१ ।। कण्डज्जुआ वराई अज्ज तए सा कआवराहेण । अलसाइअरुण्णविअम्मिआई दिअहेण सिक्खविआ ॥५२॥
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