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चतुर्थ शतकम् [ काण्डर्जुका वराकी अद्य त्वया सा कृतापराधेन ।
अलमायितरुदितविजृम्भितानि दिवसेन शिक्षिता ॥] तुमने आज अपराध कर एक दिन में ही सरकंडे सी सीधी नायिका को आलस्य, रोदन और ज॑भायी को शिक्षा दे दी है ।। ५२ ॥ अवराहेहि वि ण तहा पत्तिअ जह में इमेहि दुम्मेसि । अवहत्थिअसब्भावेहिं सुहअ दक्खिण्णभणिएहिं ॥५३॥
[अपराधैरपि न तथा प्रतीहि यथा मामेभिदुनोषि ।
अपहस्तितसद्भावैः सुभग दाक्षिण्यभणितैः ॥] विश्वास रखो, तुम मुझे अपराधों से भी उतना दुःख नहीं पहुँचाते, जितना चतुराई से भरी हुई उन बातों से, जिनमें स्नेह लेशमात्र भी नहीं होता ॥ ५३ ॥
मा जूर पिआलिङ्गणसरहसभमिरीण बाहुलइआणं । तुहिक्कपरुण्णण अ इमिणा माणंसिणि मुहेण ॥५४॥ [मा क्रुध्यस्त्र प्रियालिङ्गनसरभसभ्रमणशीलाभ्यां बाहुलतिकाभ्याम् । तूष्णीकारुदितेन चानेन मनस्विनि मुखेन ॥]
मानिनी ! भीतर हो भीतर मूक रोदन करते हुये इस मुख द्वारा, सहसा प्रिय के आलिंगन के लिये चंचल भुजाओं पर मत खीझो ॥५४ ॥
मा वच्च पुप्फलाविर देवा उअअजलोहि तूसत्ति । गोआअरीम पुत्तम सोलुम्मूलाई कूलाई ॥५५॥ [मा ब्रज पुष्पलवनशील देवा उदकाञ्जलिभिस्तुष्यन्ति ।
गोदावर्याः पुत्रक शीलोन्मूलानि कूलानि ॥ ] पुष्प चुनने वाले ! गोदावरी का तट शील का खण्डन करने वाला है, तुम वहाँ मत जाओ, बेटा ! देवता जलांजलि से भी सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥ ५५ ॥
वअणे वअणम्मि चलन्तसीससुण्णावहाणहुङ्कारं । सहि देन्ति गोसासन्तरेसु कीस म्ह दुम्मेसि ॥५६॥ [वचने वचने चलच्छीर्षशून्यावधानहुङ्कारम् ।
सखि ददती निःश्वासान्तरेषु किमित्यस्मान्दुनोषि ।। ] सखी ! मेरी प्रत्येक बात पर ध्यान दिये बिना ही बीच-बीच में दीर्घ श्वास लेकर और शिर हिलाकर "हाँ-हाँ" करती हुई तू मुझे क्यों कष्ट दे रही है ॥ ५६ ॥
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