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________________ गाथासप्तशतो सब्भावं पुच्छन्ती बालअ रोआविआ तुअ पिआए । पत्थि विअ कअसवहं हासुम्मिस्सं भणन्तीए ॥५७।। [ सद्भावं पृच्छन्ती बालक रोदिता तव प्रियया। नास्त्येव कृतशपथं हासोन्मिथं भणन्त्या ।।] तुम्हारे प्रेम के सम्बन्ध में पूछने पर शपथ पूर्वक हँसकर "नहीं है" यह कहती हुई तुम्हारी प्रिया ने मुझे रुला दिया ॥ ५७ ।। एत्थ मए रमिअव्वं तीअ समं चिन्तिऊण हिअएण । पामरकरसेओल्ला णिवअइ तुवरी वविज्जन्ती ॥ ५४॥ [अत्र मया रत्नव्यं तया समं चिन्तयित्वा हृदयेन । पामरकरस्वेदार्दा निपतति तुवरी उप्यमाना ॥] "अपनी प्रिया के साथ यहीं रमण करूंगा" यह सोचकर अरहर बोते हुये कृषक के हाथों के स्वेद से सने बोज खेत में गिरने लगे ।। ५८ ॥ गहवइसुओच्चिएसु वि फलहीवेण्टेसु उअह वहुआए । मोहं भमइ पुलइओ विलग्गसेअगुली हत्यो ॥ ५९ ॥ [ गृहपतिसुतावचितेष्वपि कर्पासवृन्तेषु पश्यत वध्वाः। मोघं भ्रमति पुलकितो विलग्नस्वेदाङ्गुलिहस्तः ।। ] गृहपति पुत्र ने जिनके पुष्प चुन लिये हैं, कपास के उन सूने वृन्तों पर भी स्वेद से भीगी हुई अँगुलियों वाला बहू का पुलकित हाथ व्यर्थ हो फिर रहा है ॥ ५९॥ अज्ज मोहणसुहिअं मुअत्ति मोत्तू पलाइए हलिए। दरफुडिअवेण्टभारोणआइ हसिअं व फलहीए ॥ ६०॥ [आर्यां मोहनसुखितां मृतेति मुक्त्वा पलायिते हलिके । दरस्फुटितवृन्तभारावनतया हसितमिव कार्पास्या ॥] सुरत के सुख में लीन हुई आर्या को मृत समझ कर जब वह हलवाहा भाग गया, तो अधखिली कलियों के भार से झुके हुए कपास ने मानों हँस दिया ॥ ६०॥ णीसासुक्कम्पिअपुलइएहिं जाणन्ति णच्चिउं धण्णा । अम्हारिसीहि दिटु पिअम्मि अप्पा वि वीसरिओ ॥ ६१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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