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चतुर्थ शतकम् [निःश्वासोत्कम्पितपुलकितैर्जानन्ति नर्तितु धन्याः।
अस्मादृशीभिदृष्टे प्रिये आत्मापि विस्मृतः ॥] जो निश्वास, उत्कंप और पुलक का नाट्य करना जानती है, वे धन्य है । मैं तो प्रिय को देखते ही अपने को भी भूल जाती हूँ ॥ ६१ ॥
तणुएण वि तणुइज्जइ खीएण वि क्खिज्जए बला इमिणा । मज्झत्थेण वि मज्झणे पुत्ति कहें तुज्झ पडिवक्खो ॥ ६२ ॥
[ तनुकेनापि तनूयते क्षीणेनापि क्षीयते बलादनेन ।
मध्यस्थेनापि मध्येन पुत्रि कथं तव प्रतिपक्षः ।।] तुम्हारा मध्य भाग दुर्बल होकर भी सपत्नियों को दुर्बल कैसे बना रहा है ? क्षीण होकर भी क्षीण कैसे कर रहा है ? बेटी ! वह तो मध्यस्थ है ॥ ६२ ।। वाहिव्व वेज्जरहिओ धणरहिओ सुअणमझवासो व्च । रिउरिद्धिदसणम्मिद दूसहणीओ तुह विओओ ॥ ६३ ।।
[ व्याधिरिव वैद्यरहितो धनरहितः स्वजनमध्यवास इव ।
रिपुऋद्धिदर्शनमिव दुःसहनीयस्तव वियोगः ।।] वैद्यहीन व्याधि, स्वजनों के बीच दरिद्रता पूर्ण जीवन और शत्रुओं के उत्कर्ष-दर्शन के समान तुम्हारा वियोग असह्य है ।। ६३ ॥ को स्थ जअम्मि समत्थो थइउं वित्थिण्णणिम्मलुत्तुकं । हिमअं तुज्झ णराहिव गअणं च पओहरं मोत्तुं ॥ ६४ ॥
[ कोऽत्र जगति समर्थः स्थगयितु विस्तीर्णनिर्मलोत्तुङ्गम् ।
हृदयं तव नराधिप गगनं च पयोधरान्मुक्त्वा ॥] राजन् ! संसार में पयोधरों (स्तन और मेघ ) को छोड़कर विस्तीर्ण, निर्मल एवं उत्तुंग आकाश और तुम्हारे हृदय को आच्छादित करने में कौन समर्थ है ? ॥ ६४ ॥
आअण्णेइ अडअणा कुडमहे?म्मि दिण्णसङ्कआ। अग्गपअपेल्लिआणं मम्मरअं जुण्णपत्ताणं ॥६५॥ [ आकर्णयत्यसती कुजाधो दत्तसङ्केता। अग्रपदप्रेरितानां मर्मरकं जीर्णपत्राणाम् ॥]
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