________________
गाथासप्तशती
कुंज के नीचे जिसका संकेत स्थान है, वह व्यभिचारिणी पैरों के अगले भाग से चूर्ण होने वाले शुष्क-पत्रों की मरमर ध्वनि सुन रही है ।। ६५ ।।
८८
अहिलेन्ति सुरहिणीस सिअपरिमलाबद्ध मण्डलं भमरा । अमुणिअचन्दपरिहवं अपुव्वकमलं मुहं तिस्सा ॥ ६६ ॥
[ अभिलीयन्ते सुरभिनिःश्वसितपरिमलाबद्ध मण्डलं भ्रमराः । अज्ञातचन्द्रपरिभवमपूर्वं कमलं मुखं तस्याः ॥ ] उसका मुख चन्द्रमा से भी पराभूत न होने वाला अपूर्व कमल है जिस पर सुरभित निःश्वास के परिमल के कारण भ्रमरों के झुण्ड मँडरा रहे हैं ।। ६६ धीरावलम्बिरीअ वि गुरुअणपुरओ तुमम्मि वोलीणे । पडिओ से अच्छिणिमीलणेण पम्हट्ठिओ वाहो ॥ ६७ ॥ [ धैर्यावलम्बनशीलाया अपि गुरुजनपुरतस्त्वयि व्यतिक्रान्ते । पतितस्तस्या अक्षिनिमीलनेन पक्ष्मस्थितो बाष्पः ॥ ] गुरुजनों के समक्ष धीरज रखने वाली सुन्दरी ने तुम्हारे अदृश्य होते ही, आँखें बन्द की तो पलकों में स्थित आंसू चू पड़े ॥ ६७ ॥
भरिमो से सअणपरम्मुहीअ विअलन्तमाणपसराए । कइअवसुत्तव्वत्तणथणकलसप्पेल्लणसुहेल्लिं
[ स्मरामस्तस्याः शयनपराङ्मुख्या विगलन्मानप्रसरायाः । कैतव सुप्तोद्वर्तनस्तन कलशप्रेरण सुख केलिम् [1]
॥ ६८ ॥
जिसका बढ़ा हुआ मान गलित हो चुका था फिर भी शय्या पर दूसरी ओर मुँह किये सो रही थी -झूठी नींद में करवट बदलते समय -- उस प्रिया के उन्नत कुचों के स्पर्श का रसमय अनुभव नहीं भूलता ! ॥ ६८ ॥
फग्गुच्छणणिद्दोसं केण वि कद्दमपसाहणं दिष्णं । थणअलसमूहपलोट्ठन्त सेअधोअं किणो धुअसि ॥ ६९ ॥
[ फाल्गुनोत्सव निर्दोषं केनापि कर्दमप्रसाधनं दत्तम् । स्तन कलशमुख प्रलुठत्स्वेदधीतं किमिति धावयसि ॥ । किसी ने पंक से तुम्हारा श्रृंगार कर दिया था, वाले स्वेद से ही घुल चुका है । वो क्या रही हो ? डालना कोई बुरा नहीं मानता ।। ६९ ।।
Jain Education International
वह स्तन कलशों से चूने फागुन के उत्सव में पंक
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org