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________________ चतुर्थं शतकम् कि ण भणिओ सि बालअगामणिधूआइ गुरुअणसमक्खं । अणिमिसमीसोसिवलन्तवअणणअणद्धदिद्रुहि ॥७०॥ [कि न भणितोऽसि बालक ग्रामणोपुश्या गुरुजनसमक्षम् । अनमिषमीषदीषद्वलद्वदनयनार्धदृष्टः ॥ भोले मनुष्य ! किसान को बेटी ने गुरुजनों के समक्ष मुंह फिरा-फिरा कर अपलक नेत्रों की आधी चितवनों से देख कर तुमसे क्या नहीं कह दिया ॥ ७० ॥ णअणब्भन्तरघोलन्तबाहभरमन्थराइ दिट्टीए । पुणरुत्तपेछिरीए बालअ किं जं ण भणिओ सि ॥ ७१ ॥ [नयनाभ्यन्तरपूर्णमानबाष्पभरमन्यरया दृष्टया । पुनरुक्तप्रेक्षणशीलया बालक किं यन्न भणितोऽसि ।।] बार-बार तुम्हें देखती हुई नायिका ने नयनों के भीतर छलकते हुए आंसुओं के भार से मन्थर दृष्टि से सब कुछ कह दिया ॥ ७१ ॥ जो सीसम्मि विइण्णो मज्झ जुआणेहि गणवई आसी। तं विअ एहि पणमाणि हअजरे होहि संतुट्ठा ॥ ७२ ॥ [यः शीर्षे वितीर्णो मम युवभिगणपतिरासीत् । तमेवेदानीं प्रणमामि हतजरे भव संतुष्टा ॥ ] ___ नवयुवकों ने जिस गणेश को मेरे सिरहाने रखकर रमण किया था, आज मैं उसी की अर्चना कर रही हूँ । पापिन जरा ! अब तो तूं सन्तुष्ट हो जा ॥ ७२ ॥ अन्तोहुत्तं डज्जइ जाआसुण्णे घरे हलिअउत्तो। उक्खाअणिहाणाई व रमिअट्ठाणाई पेच्छन्तो ॥ ७३ ॥ [अन्तरभिमुखं दह्यते जायाशून्ये गृहे हालिकपुत्रः । उत्खातनिधानानोव रमितस्थानानि पश्यन् ॥] प्रिया-हीन गृह में रमण किये हुए स्थानों को उस भूमि के समान देखकर वह किसान भीतर ही भीतर दग्ध हो रहा है, जिसमें गड़ी हुई सम्पत्ति कोई खोद ले गया है ।। ७३ ।। णिद्दाभतो आवण्डुरत्तणं दोहरा अ णोसासा । जामन्ति जस्स विरहे तेण समं कोरिसो माणो ॥ ७४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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