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गाथासप्तशती
[निद्राभङ्ग आपाण्डुरत्वं दीर्घाश्च निःश्वासाः।
जायन्ते यस्य विरहे तेन समं कीदृशो मानः॥] जिसके विरह में नींद नहीं आती, शरीर पीला हो जाता है और लम्बी आहे भरनी पड़ती है, उसके साथ मान कैसा ? ॥ ७४ ॥ तेण ण मरामि मण्णूहिँ पूरिआ अज्ज जेण रे सुहस । तोग्गअमणा मरन्ती मा तुज्झ पुणो वि लग्गिस्सं ॥ ७५ ॥
[तेन न म्रिये मन्युभिः पूरिताद्य येन रे सुभग ।
त्वद्गतमना म्रियमाणा मा तत पुनरपि लगिष्यामि।]. अत्यन्त रोष में भर कर तुम्हारा चिन्तन करती हुई मैं इसलिये आज मर जाना नहीं चाहती कि कहीं जन्मान्तर में तुम मुझे पुनः न मिल जाओ ।। ७५ ॥
अवरज्झसु वीसद्धं सव्वं ते सुहअ विसहिमो अम्हे । गुणणिन्भरम्मि हिअए पत्तिअ दोसा ण माअन्ति ॥ ७६ ॥
[ अपराध्यस्व विस्रब्धं सर्वं ते सुभग विषहामहे वयम् ।।
गुणनिर्भर हृदये प्रतीहि दोषा न मान्ति ।।] निर्भय होकर अपराध करते जाओ, प्राणेश ! मैं सब सहलू गी! मेरे, गुणग्राही हृदय में विश्वास रखो-दोषों के लिये कोई स्थान नहीं है ।। ७६ ॥
भरिउच्चरन्तपसरिअपिअसंभरणपिसुणो वराईए। परिवाहो दिअ दुक्खस्स वहइ णअणट्ठिओ वाहो ॥ ७७॥
[भूतोच्चरत्प्रसृतप्रियसंस्मरणपिशुनो वराक्याः ।
परोवाह इव दुःखस्य वहति नयनस्थितो वाष्पः॥] वराको बाला के नेत्रों के आँसू ऊपर उमड़-उमड़ कर प्रिय के संस्मरण को सूचना देते हुये दुःख की नाले के समान बह रहे हैं ॥ ७७ ॥ जं जं करेसि जं जं जंपसि जह तुम णिअच्छेसि । तं तमणुसिक्खिरीए दोहो दिअहो ण संपडइ ॥७८ ।।
[यद्यत्करोषि यद्यज्जल्पसि यथा त्वं निरीक्षसे ।
तत्तदनुशिक्षणशीलाया दो? दिवसो न संपद्यते।।] तुम जो जो करते थे, जैसे-जैसे बात-चीत करते थे और जैसे-जैसे देखते थे
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