________________
चतुर्थं शतकम्
९१
उसी का अनुकरण करती हुई नायिका को पूरा दिन भी लम्बा नहीं जान पड़ता ।। ७८ ।।
भण्डन्तोअ तणाई सोत्तं दिण्णाइँ जाइँ पहिअस्स ।
ताइ च्चेअ पहाए अञ्जा आअट्टइ रुअन्ती ॥ ७९ ॥
[ भर्त्सयन्त्या तृणाणि स्वप्तुं दत्तानि यानि पथिकस्य । तान्येव प्रमाते आर्या आकर्षति रुदतो ॥ ] चिड़चिड़ाती हुई नायिका ने रात में पथिक को सोने के लिये जो तृणों का बिछौना दिया था, सबेरे उसे ही रोती हुई हटा रही है ।। ७९ ।। वसणम्मि अणुविग्गा विहवम्मि अगव्वि होन्ति अहिण्णसहावा समेसु विसमेसु
भए घोरा । सम्पुरिसा ॥ ८० ॥
[ व्यसनेsद्विग्ना विभवेऽगर्विता भये धीराः । भवन्त्यभिन्न स्वभावाः समेषु विषमेषु सत्पुरुषाः ॥ ]
सत्पुरुष दुःख में उद्विग्न नहीं होते, संपक्ति में गर्व नहीं करते, संकट में धीरज रखते हैं और उनका स्वभाव अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में समान रहता है ॥ ८० ॥
अज्ज सहि केण गोसे कं पि मणे वल्लहं भरन्तेण । अम्हं मअणसराहअहिअअव्वण फोडनं गीअं ॥ ८१ ॥
[ अद्य सखि केन प्रातः कामपि मन्ये वल्लभां स्मरता । अस्माकं मदनशराहतहृदयव्रणस्फोटनं गोतम् ॥ ]
आज सबेरे किसी विरही ने प्राणप्रिया को स्मृति में ऐसा गीत गाया कि मदन-बाण से आहत मेरे हृदय का घाव ताजा हो गया ॥ ८१ ॥
उट्ठन्तमहारम्भे थणए दट्ठूण मुद्धबहुआए । ओसण्णकवोलाए णीससिअं पढमघरिणोए ॥ ८२ ॥
[ उत्तिष्ठन्महारम्भौ स्तनौ दृष्ट्वा मुग्धवध्वाः । अवसन्नकपोलया निःश्वसितं प्रथमगृहिण्या ॥ ]
नववधू के उठते हुये पयोधरों का महान् विस्तार देख कर शुष्क-कपोलों वाली प्रथम पत्नी ने आह भर ली ।। ८२ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org