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गाथासप्तशती गरुअछुआउलिअस्स वि वल्लहकरिणीमुहं भरन्तस्स । सरसो मुणालकवलो गअस्स हत्थे च्चिअ मिलाणो ॥ ८३ ।।
[ गुरुकक्षुधाकुलितस्यापि वल्लभकरिणीमुखं स्मरत।
सरसो मृणालकवलो गजस्य हस्त एव म्लानः ॥] आहार के लिये तोड़ा हुआ मृणाल का मधुर ग्रास, भूख से व्यथित होने पर भी प्राणवल्लभा करिणी के मुख की स्मृति में लीन गजराज के शुण्ड पर हो मुरझा गया ॥ ८३ ।।
पसिअ पिए का कुविआ सुअणु तुमं परअणम्मि को कोवो। को हु परो नाथ तुमं कोस अपुण्णाण मे सत्ती॥ ८४ ॥
[प्रसीद प्रिये का कुपिता सुतनु त्वं परजने कः कोपः।
कः खलु परो नाथ त्वं किमित्यपुण्यानां मे शक्तिः ॥] प्रिये ! प्रसन्न हो जाओ । कुपित कौन है ? तुम । पराये पुरुष पर कैसा कोप ? पराया कौन है ? तुम्हीं । क्यों ? मेरे पापों का है ।। ८४ ॥ एहिसि तुमं त्ति णिमिसं व जग्गिअं जामिणीअ पढमद्धं । सेसं संतावपरव्वसाइ वरिसं व वोलोणं ॥ ८५ ॥ [एष्यसि त्वमिति निमिषमिव जागरितं यामिन्याः प्रथमार्धम् ।
शेषं सन्तापपरवशाया वर्षमिव व्यतिक्रान्तम् ॥ ] "तुम आते होगे" इस आशा से आधी रात तो जागते-जागते निमेष के समान कट गई, किन्तु संताप से परवश होकर मैंने शेष रात को एक वर्ष के समान व्यतीत किया ॥ ८५ ॥
अवलम्बह मा सङ्कह ण इमा गहलङ्घिआ परिभमइ । अत्थक्कगज्जिउब्भन्तहित्थहिमआ पहिअजाआ ॥ ८६ ॥
[ अवलम्बध्वं मा शङ्कध्वं नेयं ग्रहलङ्घिता परिभ्रमति ।
आकस्मिकगजितोद्धान्तत्रस्तहृदया पथिकजाया ॥] पथिक की प्रिया भाग रही है । रोको, रोको, डरो मत उसे भूत नहीं लगा है। मेघों के आकस्मिक गर्जन से उसका हृदय त्रस्त एवं उद्भ्रान्त हो गया
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